Saturday, December 31, 2005

कनपुरिया अखबार की कतरन

http://web.archive.org/web/20110101193636/http://hindini.com/fursatiya/archives/96

कनपुरिया अखबार की कतरन

दैनिक जागरण ,कानपुर २३.१२.२००५
दैनिक जागरण ,कानपुर २३.१२.२००५
पिछले दिनों २३.१२.२००५ को कानपुर के दैनिक जागरण में ‘जागरण सिटी’ में ब्लागिंग के बारे में लेख छपा। ‘मनीष त्रिपाठी’ ने लेख लिखा-ब्लाग स्फीयर में अपना शहर। देख सकते हैं कि लेख के तथ्य धर्मराज के सच की तरह हैं। कुछ गलत-कुछ सही। यह बताता है कि:-
१.जीतेन्दर हिंदी के पहले ब्लागर हैं।
२.अतुल फुरसतिया तथा रोजनामचा लिखते हैं।
३.ब्लागिंग की कमान कुछ कनपुरियों के हाथ में हैं।
बाकी की बातें आप खुद पढ़ चुके होंगे। हमने मनीष को सही तथ्य बताये । शायद वो फिर से लिखें।
जीतेंदर से जब फोन पर बात हुई तब जीतू ने कहा इसे ‘स्कैन’ करके चिपकाओ नेट पर। अतुल को भी कौतूहल था। अतुल के ब्लाग के बारे में कहा गया है-अतुल अरोरा के ब्लाग्स का क्या कहना! क्या कहते हो अतुल? अब तो लिखने लगो थोड़ा-थोड़ा सा ही सही! वर्ना कहीं ऐसा न हो कि रोजनामचा का पासवर्ड ही भूल जाओ।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

6 responses to “कनपुरिया अखबार की कतरन”

  1. Debashish
    तथ्य सही हो या गलत, चिट्ठाकारी में कनपुरिया योगदान वाकई काबिले तारीफ है। चलो जीतू भाई का हालिया कानपुर प्रवास कुछ काम तो आया ;)
  2. sanjay | जोग लिखी
    उच्चीत बंधूगणो को उच्चीत सम्मान मिला. आज कानपुर की जय जयकार है, जीतूभाई जैसे लोगों की वजह से. यह कतरन हमारा हौसला बढाने वाली हैं.
  3. Amit
    मुझे इन अख़बार वालों की यही बात बहुत अख़रती है कि ये लोग कुछ भी लिखने से पहले सही जानकारी तो हासिल करते नहीं, बस जो भी आधे अधूरे तथ्यों का ज्ञान होता है वही छाप देते हैं, और अपने को बड़ा फ़न्ने ख़ाँ समझते हैं!! शायद इसलिए पत्रकारिता का स्तर इतना नीचे गिर गया है!!
  4. जीतेन्द्र चौधरी
    सबसे पहले तो मनीष त्रिपाठी का धन्यवाद, आशा है वे लेख मे छपे तथ्यों को सही करके आगे फ़िर से हिन्दी ब्लॉगिंग के बारे मे लिखेंगे।
    तारीफ़ चाहे किसी की भी हो, लेकिन हम सभी का सर गर्व से ऊँचा हुआ है।एक बात तो है ही, दैनिक जागरण की पहुँच बहुत बड़े हिन्दी भाषी क्षेत्र मे हैं। मुझे अचानक भारत जाना पड़ा तो कई लोगों ने मुझे इस छपे लेख के बारे मे बताया। कुछ ऐसे लोगों ने भी जो कम्प्यूटर प्रयोग नही करते,लेकिन लेखन/पाठन के शौकीन है।
    तभी मैने अनूप भाई से निवेदन किया था लेख को स्कैन करके चिपकाओ, देखें तो सही, क्या लिखा है।
    मै आज भी कहता हूँ,भविष्य हिन्दी ब्लॉगिंग का है, समय आयेगा जब हर हिन्दीभाषी विचारशील व्यक्ति अपने विचारों की स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के लिये ब्लॉगिंग का प्रयोग करेगा। ये क्रान्ति जितनी जल्दी आ सके उतना अच्छा है।
  5. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] 1.हम फिल्में क्यों देखते हैं? 2.रहिमन निज मन की व्यथा 3. (अति) आदर्शवादी संस्कार सही या गलत? 4.(अति) आदर्शवादी संस्कार सही या गलत? 5.(अति) आदर्शवादी संस्कार सही या गलत? 6.गरियाये कहां हम तो मौज ले रहे हैं! 7.क्षितिज ने पलक सी खोली 8. ‘मुन्नू गुरु’ अविस्मरणीय व्यक्तित्व 9.जाग तुझको दूर जाना! 10.मजा ही कुछ और है 11.इलाहाबाद से बनारस 12.जो आया है सो जायेगा 13.कनपुरिया अखबार की कतरन [...]
  6. शरद कोकास
    चलिये ज्ञान मे वृद्धि हुई । इस बहाने कानपुर याद आया .. और एक पता याद आया बनखंडेश्वर मन्दिर के सामने जहाँ कभी अपनी ननिहाल हुआ करती थी ..।

Friday, December 30, 2005

जो आया है सो जायेगा

http://web.archive.org/web/20110101200641/http://hindini.com/fursatiya/archives/95

जो आया है सो जायेगा

पुराना साल पतली गली से फूट रहा था। नये ने उसको पीछे से पकड़ किया । पुराना बोला-चढ्ढी छोड़ बेटा, चढ्ढी से क्या फूल खिलायेगा ? हमको क्या मोंगली समझ रखा है? कोई फोटू खींच लेगा तो अपन दोनों धरे जायेंगे स्टिंग आपरेशन में। समलैंगिकता का मामला भी बन सकता है। कोई भरोसा नहीं मीडिया वालों का। ये ब्लागर भी लिखेंगे फिर हमारे -तुम्हारे सम्बन्धों पर। किसी की चढ्ढी पीछे से नहीं खींचनी चाहिये।
नया बोला हमें यहां किसके भरोसे छोड़ के जा रहे हो,बुजुर्गवार? हमें तो अभी पैदा होने में भी देर है। हम कोई अभिमन्यु तो हैं नहीं कि बाप ने पेट में ही कोचिंग दे दी हो। कुछ बताते जाओ मालिक इस दुनिया के लटके-झटके ताकि हम भी सुकून से अपना टाइम पास कर सकें।
पुराना बोला -बेटा किसी के सिखाये पर मत चल। आंखे खुलने पर अपनी नजरों से दुनिया देखना । मस्त रहना । सब सीख जायेगा। सब समय कट जायेगा। ज्यादा बोर होना तो ब्लाग बांचने-लिखने लगना सब समय कट जायेगा। बोरियत का सारा आसमान फट जायेगा।
ब्लाग का मान सुनते ही नया चौंका। विस्तार से पूछा-पुछौव्वल की। कैसे लिखते हैं , कौन लिखता है। कौतूहल का मारा वो बेचारा फुरसतिया का ब्लाग बांचने लगा। उसमें न लाने क्या-क्या ऊटपटांग मगर मजेदार हेंहेंहें टाइप टिप्पणियों से युक्त अल्लम-गल्लम सा लिखा था। वह डूबा ऐसा कि फिर डूबता चला गया। नये साल के आगमन पर पिछले साल का लेखा-जोखा भी था।
जैसा कि होता है जब नया नेट पर लगा था तो उसे खराब-सराब साइटों से बचाने के लिये पुराना भी भिड़ गया नेट पर। हम भी कनखियों से देखते भये कि चंगू-मंगू क्या बांच रहे हैं। जितना हम पढ़ पाये वैसा यहां बताया जा रहा है। बाकी का मन हो तो खुदै बांचि लेव चिट्ठा सबरे।

सुनामी बनाम स्वामी

पिछला साल बड़ा बुरा बीता। मैं हैदराबाद गया था । जैसे ही वहां से वापस हुआ, सुनामी तूफान ने तहलका मचाया। मैं सुनामी से बच गया सुनामी मुझसे। लेकिन तब तक स्वामी की चपेट में आ चुका था। स्वामी हमारा ब्लाग के बहाने ब्लागिंग के अखाड़े में उतर चुके थे। अंदाज एकदम मलंगोंवाले थे:-

दुनिया के जिस हिस्से में मै‍ रहता हूं वहां ब्लोगिन्ग को हस्तमैथून के बराबर रखते हैं और चेट फ़ोरम हरम क पर्याय है. हरम मैं सब नंगे होते है हमने भी करी फोनेटिक नंगई!

स्वामी का हमें अभी तक चेहरा नहीं दिखा। लेकिन जिन लोगों ने भी देखा होगा वे कहते जरूर होंगे कि बालक बड़ा ‘क्यूट’ है। हम तो स्वामीजी को सांड़ों में निहार लेते हैं। सांड़ स्वामीजी का प्रिय पात्र है। हम किसी भी सांड़ को देखते हैं तो मेरा प्रेम स्वामीजी पर उमड़ आता है।हर सांड़ हमें बड़ा क्यूट नजर आता है।

मिर्ची लगी तो मेरी भैंस को डंडा क्यों मारा?

अतुल ने साल की शुरुआत गरमागरम की। वो मारा गुस्से का गुम्मा कि पागलों ने खिड़कियां बंद कर लीं। तुझे मिर्ची लगी तो मैं क्या करूं लिखकर अतुल ने सारे हिंदी चिट्ठाकारों को हिलाकर परेशान कर दिया। इसके कुछ मजेदार असर हुये। चिट्ठाचर्चा शुरू हुआ। नयी योजनाओं की सुगबुगाहट हुयी।
मजे की बात है कि अतुल साल के शुरुआत में उखड़े थे। अब साल के आखिर में जब दुनिया अपना हिसाब-किताब संभालती है तो ये महाराज न जाने किस प्रोजेक्ट में जुट गये। लोगों को मासिक समस्यायें होती हैं,अतुल की लगता है वार्षिक है। संयोग यह भी कि अतुल के कथाकार पिताजी जब दुबारा कानपुर में लिखना शुरु कर रहे हैं तब बालक लिखना स्थगित करके स्वामियों से फोन पर गप्पे लड़ाते पाये गये। अतुल अभी रणछोड़दास बने हैं। लेकिन अतुल से हमें शिकायत है कि अतुल ने भैंस कथा स्थगित कर रखी है।

पहली ब्लागजीन-निरंतर

बड़े गाजे-बाजे के साथ निकली हमारे ब्लागजगत की पत्रिका निरंतर। हम खुश कि हम पहले हैं। पहलौटी के बच्चों की तरह दुलार-प्यार से इसे पाला-पोसा गया। लेकिन ६ महीने में यह पत्रिका स्थगित हो गई। हम मजूरों की तरह इसे निकालने में लगे रहे। न पाठक मिले न समुचित वाह-वाही खुराक। लिहाजा हम पत्रिका के साथ बैठ गये। यह एक झटका था जिसे हम लगता नहीं कि अभी भी उबरे हैं। कारण क्या रहे यह तो अलग-अलग सोच का विषय है। लेकिन जितना समय लग रहा था शायद उतना ‘रिटर्न’ नहीं मिला। लेकिन कुछ बेहतरीन लेख,रचनायें निरंतर के कारण सामने आये,खासकर तकनीकी लेख। पानी की समस्या वाले अंक पर बहुत मेहनत की थी देबाशीष ने लेकिन हिंदी ब्लागर्स तक ने उसकी अपेक्षित तारीफ नहीं की। इसके पहले वर्डप्रेस,टैगिंग वाले लेख लोगों ने पढ़कर पचा लिये। हिंदी का पाठक मुझे लगता है मुंहचुप्पा होता है। अपनी मूल्यवान सलाह खर्च नहीं करना चाहता।आड़े वक्त के लिये बचाकर रखना चाहता है।

ब्लागनाग,शंखनाद,आर्तनाद

बड़े हल्ले-गुल्ले के साथ ब्लागनाद का शुभारम्भ हुआ। बाद में भी बहुत हल्ला-गुल्ला हुआ। जीतेन्दर के संयोजन में अतुल-स्वामी जुगलबंदी हुई। बढ़िया ले दे हुई लेकिन बाद में समुचित घी न मिलने के कारण जुगलबंदी की आग बुझ गई। ये अफसोस है कि ब्लागनाद की केवल पंकज ,विजय ठाकुर तथा जीतेंद्र की एक-एक आवाज के अलावा बाकी का मजा मैं न ले पाया। अभी क्या हाल हैं इस नाद के यह भी नहीं पता।

हिंदिनी ने हाय राम बड़ा दुख दीना

हम अच्छे खासे ब्लागर के मैदान में उछल-कूद कर रहे थे कि स्वामी ने हमें फुसला कर हिंदिनी के अखाड़े में उतार दिया। बहाने से पूछा कि कैसी है हिंदिनी । हम किसी स्त्रीलिंग को खराब कैसे बताते? सो कह बैठे अच्छी हैं। बस ये बोलो ये तो आपकी हैं। इसके बाद से किसी भी स्त्रीलिंग पदार्थ को हम बड़ा घबराते हुये अच्छा बताते हैं इस डर से कि कहीं अगला यह न कह दे आपकी ही है। हम जबतक समझ पायें कि माजरा क्या है तबतक हम लिखने लगे । शुरू में सोचा था कुछ लेख इधर लिखेंगे कुछ उधर लेकिन दोहरापन बहुत दिन चल नहीं पाय। जीतेन्दर का शरीर वैसे भी काफी फूला है इस घटना के बाद कुछ दिन मुंह भी फूला रहा। कहते थे- तुमने हमें धोखा दिया कि हमारी साईट पर नहीं लिखा और एक अज्ञात नामधारी बालक के साथ अड्डेबाजी कर रहे हो। वो तो कहो कि रविरतलामी भी साथ में थे वर्ना …। वैसे यह सच है कि पुराने फुरसतिया पर हमने अपना सारा पुराना स्टाक निकाल दिया था। इधर आने के बाद कुछ नये लेख लिखे गये। कितने बढ़िया-खराब थे ये पाठक जाने।

ब्लागमंडल पर महिलामंडल

ब्लागमंडल बहुत दिनों तक सूना-सूना पुरुष व्यायामशाला सा बना रहा। एक अदद महिला की कमी पूरी करने ले लिये जीतू पहलवान ने एक बार पेशकश भी कि वो खुद महिला के नाम से लिखने लगें। लेकिन उनको छल-छद्म के पाप से बचा लिया तथा एक के बाद एक दनादन महिला ब्लागर आती गयीं तथा कुछ लिखकर जाती गयीं। पूर्णिमा वर्मन,रति सक्सेना,दीपा जोशी,प्रत्यक्षा,सारिका सक्सेना,मानोसी चटर्जी,जया झा, शालिनी नारंग ने। शालिनी नारंग को छोड़कर ज्यादातर कविता ही लिखती हैं। प्रत्यक्षा ,मानोसी कुछ उकसाने पर गद्य के मैदान में उतरी भी तो टाइपिंग की मेहनत से घबराकर वापस कविता कानन में लौट गईं। मजे की बात है कि जब लगभग आधा दर्जन पुरुष ब्लागर मिलकर एक पत्रिका आधा साल नहीं चला पाये तब यह देखकर आश्चर्य होता है कि पूर्णिमा वर्मन,रति सक्सेना
तथा सारिका सक्सेना नियमित पत्रिका निकाल रही हैं। फिलहाल तो प्रत्यक्षा,मानोसी,सारिका,शालिनी नारंग का ही लेखन नियमित चल रहा है। आगे आशा है इसमें और तेजी आयेगी।

बढ़ते ब्लागर तथा शानदार शतक

पिछले साल इस समय लगभग तीस ब्लागर थे मैदान में। लगभग दस सक्रिय,बीस निष्क्रिय। फिलहाल यह संख्या १५० के आसपास पहुंचने वाली है। लेकिन सक्रिय चिट्ठाकार २०-२५ ही हैं। नियमित लिखने वाले तो और भी कम। कुछ लोगों ने अपना परिचय देकर ब्लाग बंद कर दिया। कुछ ने फोटो लगाकर। कुछ ने अपनी पूंछ ही लगा रखी है हिलती ही नहीं। चिट्ठाकार बढ़ने से नये चिट्ठाकारों को उतना गर्मजोश स्वागत सत्कार नहीं मिल पा रहा है जो हमें मिला। हमें याद है चिट्ठाविश्व के बायें कोने पर हम बहुत दिन लटके रहे नये हस्ताक्षर के रूप में। पहले स्वागत टिप्पणियों के हमले काफी होते थे अब गर्मजोशी में कमी आई है। नये ब्लागर के ब्लाग पर टिप्पणी बहुत जरूरी काम है जिसमें साल के बीतते-बीतते कंजूसी आती गयी है।

अचार की रेसिपी से विकलांग यौनजीवन तक

स्वामीजी ने किसी पोस्ट पर कमेंट करते हुये कहा था कि वे नेट को तब सही मायने में सफल मानेंगे जब माताजी अचार की रेसिपी अपनी बहू को नेट के माध्यम से बता सकेंगी। इस लिहाज से बीते साल में विषय वैविध्य बहुत बढ़ा है। नये साथी ब्लागर तमाम नये-नये विषयों को छू-छेड़ रहे हैं। सुनील दीपक,देश दुनिया , स्वामीजी, रविरतलामी, जीतेन्दर,दिल्ली ब्लाग,खाली-पीली लाल्टू आदि साथी ब्लागर नये-नये रूप में विचार रख रहे हैं। रजनीश मंगला हिंदी के प्रचार में लगे हैं। कविताओं में लक्ष्मीगुप्त के अंदाज,अनूप भार्गव की ज्यामिति ने नये मजे दिये हैं। नीरज त्रिपाठी इतनी बढ़िया कवितायें लिखते हैं लेकिन अपना ब्लाग बनाने में पता नहीं क्यों आलस्य करते हैं।प्रत्यक्षा,मानसी,सारिका की कविताओं पर लोगों को आगे कविता छांटने का कितना सा मौका मिलता है! मानसी ने ज्योतिष के साथ-साथ कनाडा आने से रोकने का भी कितना अच्छा इंतजाम किया है। प्रत्यक्षा ने खिंचाई यज्ञ शुरू किया था लेकिन आलस्य के राक्षस ने सारा मामला बिगाड़ दिया।यह बेहद अफसोस की बात है कि इस आलस्य के वायरस से ठेलुहा,देबाशीष तथा अब पंकज,रमन व अतुल के बक्से भी प्रभावित हुये हैं। अवस्थी के आलस्य की बात क्या कहें! लेकिन देबाशीष ,अतुल से यही कहना है भइया लोग आपकी पहचान लिखने से है। कम्प्यूटर के जानकार आपके जैसे ३६५ होंगे लेकिन लिखने का जो आप लोगों का फ्लेवर है वह शायद कम कम्प्यूटर के जानकार होंगे। साइड बिजनेस के चक्कर में मुख्य काम मत छोड़ो। गांगुली मत बनो भइया लोग। बैटिंग (लेखन)बालिंग (टिप्पणी) करते रहो महाराज। मिर्ची सेठ आपसे भी यही गुजारिश है। रमन तो खैर सुना है पढ़ाई में व्यस्त हैं।

अपनापे की मिसाइलें

समय के साथ चिट्ठाकारों के आपसी सम्बन्ध बने हैं। लोग वाया भाईसाहब भाभियों से बतियाये। बच्चों को अच्छा बताकर बाप की खिंचाई किये। नये-नये अंदाज में लोगों के दिलों में घुसपैठ की तथा जमके बैठ गये। गुस्सा,नखरे भी बहुत हुये,जारी हैं लेकिन मिर्ची की कड़वाहट नहीं आई। यह हिंदी ब्लागमंडल की उपलब्धि है। मेरे ब्लाग में सबसे अधिक २४२ हिट्स का रिकार्ड उस दिन का है जिस दिन देबाशीष का परिचय लिखा था। जीतू,प्रत्यक्षा,राजेश के परिचय के दिन भी हिट्स बहुत हुये। इसके लगता है लोग साथी ब्लागर के बारे में जानने के उत्सकु रहते हैं।
आशीष की शादी की चिंता सामूहिक होगयी है। काश कोई कुंवारी कन्या ब्लागर होती तो हम दोनों के गाडफादर बन कर गठबंधन करा देते। दोनों एक दूसरे के ब्लाग पर टिप्पणी करते किसी के भरोसे तो न रहते। बाद में मानसी से कुंडली मिलवा देते। प्रत्यक्षा हायकू स्वागतगीत लिख देतीं। हम शब्दांजलि में सारिका के सहयोग से दोनों का साक्षात्कार छाप देते-आप लोगोंको पहली बार शादी करके कैसा लग रहा है?
आशा है यह आपसी सम्बंध कि बने रहेंगे तथा नये साथी लोग भी परिवार में जुड़ते चले जायेंगे।

एक अदद टिप्पणी का सवाल है मालिक

टिप्पणी किसी भी ब्लागपोस्ट का प्राणतत्व होता है। हालांकि मुझे इसकी कमी नहीं खलती लेकिन यह सच है कि लोग टिप्पणी की आशा में उसी तरह अपने ब्लाग को निहारते रहते हैं जैसे चातक स्वाति नक्षत्र की बूंद के लिये ताकता रहता है। बिना टिप्पणी के जो ब्लाग होते हैं उनको कमजोर या दुर्बल वर्ग की विकास योजनाओं की तर्ज पर टिपियाते रहना चाहिये । ब्लाग समाज के विकास के लिये यह बहुत आवश्यक है।
आशीष श्रीवास्तव की कुछ पोस्ट बहुत अच्छीं थी खासतौर पर अमेरिकी नागरिकों की मनोवृत्ति वाली लेकिन उसे उतनी तवज्जो नहीं मिली जितने की वह हकदार थी। देश दुनिया की तमाम पोस्ट भी इसी तरह अनदेखी सी चली जाती है। सुनील दीपक के लेख,फोटो जितने सामयिक होते हैं लोग उतना टिप्पणी नहीं करते। टिप्पणी का अंदाज भी मजेदार रहता है। कालीचरण कहते हैं हम नहीं सुधरेंगे-टिप्पणी अंग्रेजी में ही करेंगे। जीतू की तारीफके अंदाज से हम सुनकर बता सकते हैं कि ये जीतू ही लिखे हैं।
राजेश ने पिछली मुलाकात में जो टिप्पणियां लिखने की सोची थीं वे सारी बताईं ।सुनकर हमारी हालत सोचनीय हो गयी कि यह बालक इतना सोचता रहा इतने दिन। टिप्पणी त्वरित,स्वत:स्फूर्त हो वही मजेदार होती है।
इतना सारा पढ़ते-पढ़ते नया साल ऊंघने लगा। पुराने ने उसे झकझोर के जगाया-बेटा अभी साल पड़ा है सोने को। अपना चार्ज तो ले लो तब सोओ। तुम तो सिपाहियों की तरह ड्यूटी ज्वाइन करते ही सो रहे हो।
नया साल बोला साहब आप जा रहे हो । कुछ उपदेश वगैरह भी देते जाओ । ऐसे खाली मुंह बिना भाषण दिये जा रहे हो तो कैसे मन लगेगा आपका हमारा। पुराने साल ने गला खखारकर वर्षों पुराना दोहा थमा दिया:-
सूर समर करनी करहिं,कहि न जनावहिं आप,
विद्यमान रन पायके कायर करहिं प्रलाप।

नये-पुराने साल अपने-अपने चार्ज का लेन-देन करने लगे। फिजा में हैप्पी न्यू ईअर के कैसेटों का हल्ला गूंजने लगा था। हैप्पी न्यू ईअर के कोलाहल से मुकाबले के लिये यह देश है वीर जवानों का ,अलबेलों का मस्तानों का की आवाजें भी लंगोट कसकर मैदान में आ गयी।हमें लगा कि आशीष श्रीवास्तव की शादी की नेट प्रैक्टिस चल रही है-आखिर बकरे की मां कब तक खैर मनायेगी?

मेरी पसंद


यह भी दिन बीत गया।
पता नहीं जीवन का यह घड़ा
एक बूंद भरा कि एक बूंद रीत गया।

उठा कहीं,गिरा कहीं,पाया कुछ खो दिया
बँधा कहीं,खुला कहीं,हँसा कहीं ,रो दिया
पता नहीं इन घड़ियों का हिया
आँसू बन ढलका या कुल का बन गीत गया।
इस तट लगने वाले और कहीं जा लगे
किसके ये टूटे जलयान यहाँ आ लगे
पता नहीं बहता तट आज का
तोड़ गया प्रीति या जोड़ नये मीत गया।
एक लहर और इसी धारा में बह गयी
एक आस यों ही बंसी डाले रह गयी
पता नहीं दोनों के मौन में
कौन कहाँ हार गया,कौन कहाँ जीत गया।
-रामदरश मिश्र

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

4 responses to “जो आया है सो जायेगा”

  1. आशीष
    अनुप भैया,
    आप आगे बडो(लिखो) हम आपके साथ है.
    आशीष
  2. kali
    Great job ! Likhe raho aur aage. Waiting for next post.
  3. Pratik Pandey
    अनूप भाई, पूरे साल का विवरण इतने सरस रूप में पढ़कर बहुत बढिया लगा। तुस्‍सी छा गए…
  4. kali
    लो गुरु एक टिप्पणी देवनागरी में भी. क्या बात है लोग एक नही छोङते और हमने की २. जबकी हमरा नाम तो १ बार ही लिखा है. एसे दरियादिल पाठक कहाँ मिलेंगे गुरु :)
    चलो अभी २००६ में भी जाल पर मकङी बन कर बुनना चालु कर दो.

Monday, December 26, 2005

इलाहाबाद से बनारस

http://web.archive.org/web/20110908014252/http://hindini.com/fursatiya/archives/93
इलाहाबाद से हम सबेरे चले थे। कुछ ही देर में हम शहर के बाहर आ गये। बनारस की तरफ जाने वाले संगम पुल पर कुछ देर खड़े-खड़े गंगा-यमुना संगम को देखते रहे। दोनों के पानी का रंग अलग दिखाई दे रहा था।

हम तीनों ‘टीनएजर्स‘ शेरशाह सूरी मार्ग पर चलते हुये बनारस की तरफ बढ़ चले। करीब ३० किमी चलकर हम हंडिया तहसील पहुंचकर एक ढाबे की चारपाइयों पर लेट गये। मैं तथा अवस्थी अपनी रिन की चमकार वाली सफेद ड्रेस के कारण लोगों के कौतूहल का विषय बने थे। ढाबे में चाय -नाश्ता किया। हमारी आंखे अनजाने ही डी.पी.पांडे को खोज रहीं थीं।

डी.पी. उर्फ दुर्गाप्रसाद पांडे हमारे कालेज के सीनियर थे। हमसे एक साल सीनियर थे। जब हम कालेज पहुंचे थे तो वे एक पढ़ाकू मेधावी सीनियर के रूप में नमूदार हुये थे। धीरे-धीरे वे तमाम दूसरे कालेजियट सद्गगुण भी सीखते गये। लिहाजा जब कालेज से निकले तो आत्मरक्षा भर की गुंडई में भी पर्याप्त अनुभव हासिल कर चुके थे।फिलहाल पांडे जी ओबरा में उ.प्र. विद्युत निगम में कार्यरत हैं।

नवीन शर्मा,डीपी पांडे,पीएस मिश्र
नवीन शर्मा,डीपी पांडे,पीएस मिश्र
दो दिन पहले इलाहाबाद में कालेज अलुमिनी एशोसियेशन की मीटिंग में जिन तमाम लोगों से मुलाकात उनमें पांड़ेजी, मिसिरजी , नवीन शर्मा तथा लव शर्मा भी थे। नवीन शर्मा, लव शर्मा हमारे साथ थे तथा मिसिर जी हम सभी के सीनियर थे। खिंचाई में कोई किसी से कम नहीं है। जब मैं इलाहाबाद से कानपुर लौट आया तो मिसिरजी ने हमें फोन पर बताया:-
शुकुल जब तुम चले गये तो यहां एक हादसा हो गया।
हमने पूछा -क्या हो गया?
डीपी की रात में कोई पैंट (उतार ) ले गया।
हम चुप हो गये यह जानकर कि अब पूरी घटना खुदै बतायी जायेगी। हुआ भी यही। बताया गया:-

डीपी सबेरे से चरस बोये पड़े हैं। इनकी कोई सोते में पैंट उतार ले गया। हमने लाख समझाया-चढ्ढी पहना करो लेकिन ये मानते ही नहीं । कहते हैं अब हम बड़े हो गये । चढ्ढी पहनने की उमर थोड़ी रही । लोग चिढ़ायेंगे कि इतना बड़ा होकर चढ्ढी पहनता है। अब सबेरे से परेशान हैं। हमें भी परेशान कर रहे हैं। अजीब लफड़ा हो गया ससुर।

बहरहाल पांडे जी तो नहीं मिले लेकिन हम हंडिया दर्शन के बाद आगे बढ़े। अगला पढ़ाव गोपीगंज कस्बा था। पानी बरसने लगा था। हमने वहीं कहीं खाना खाया। पानी बरसने के कारण कीचड़ हो गया था। दुकानों में खुले में रखी मिठाईंयां बकौल श्रीलाल शुक्ल-मक्खी-मच्छरों,आंधी-पानी का बखूबी मुकाबला कर रहीं थीं।

रुकते-चलते हम शाम तक बनारस पहुंच गये। बनारस में हमें बीएचयू में रुकना था। दीपक गुप्ता के घर।
दीपक हमारे जूनियर तथा गोलानी के ‘बैचमेट’ हैं। दीपक जितना खूबसूरत है उससे ज्यादा खूबसूरत उसका व्यवहार है। यह संस्कारी बालक अपने परिवेश में सदैव लोगों का चहेता रहा। यह संयोग ही रहा कि दीपक को अपने पारिवारिक जीवन में काफी कष्ट उठाना पड़ा। दीपक की पत्नी का स्वास्थ्य सालों खराब रहा। उसको अपने दो बच्चों की परवरिश काफी दिन मां-बाप दोनों की तरह करनी पड़ी। लेकिन दीपक ने बिना किसी शिकायत के सारी जिम्मेदारियां निभाई।

विभाग में भी दीपक बहुत काबिल आफीसर के रूप में जाने जाते हैं। तीन साल पहले दीपक को भारत सरकार की तरफ से एक साल के अध्ययन के रायल मिलिटिरी कालेज,लंदन जाना था। इधर दीपक की पत्नी गंभीर रूप से बीमार थीं। विदेश जायें या न जायें के उहापोह में पत्नी की बीमारी बढ़ती गई। जाना कुछ कारणों से टल गया। कुछ दिन बाद ही पत्नी की मृत्यु भी बीमारी के कारण हो गई।

दीपक मानते हैं कि दौरा टल जाना अच्छा ही रहा नहीं तो अगर कहीं वो विदेश चला जाता तो अंतिम समय पत्नी के पास न रहने का अफसोस जिंदगी भर रहता।

पत्नी की मृत्यु के समय दीपक की उम्र बमुश्किल ३५ साल की रही होगी। तमाम लोगों ने समझाया तो दीपक बच्चों की बात सोचकर दुबारा शादी के लिये राजी हुये।एक सजातीय रिश्ते के बारे में पता चला। लड़की के पति तथा बच्चे की एक सड़क दुर्धटना में ६ साल पहले मौत हो गई थी। लड़की के भी काफी चोट थी आई थी । पैर अभी भी सीधा नहीं नहीं होता था। चेहरे पर भी चोट के निशान थे। पैर तथा चेहरे की बात सुनकर दीपक ने शादी की बात से (अपने पिताजी को) इंकार कर दिया।

इंकार के बाद दीपक को अफसोस हुआ कि इस दुर्घटना में लड़की का क्या दोष? यह सोचकर फिर तुरंत दीपक अपने दोनों बच्चों के साथ लड़की के पास आगरा पहुंचे। बच्चे तुरंत हिलमिल गये । कुछ दिन बाद दीपक की शादी हो गई । आज पूरा परिवार खुशहाल है। दीपक को बहुत दिन इंतजार करना पड़ा खुश होने के लिये।
हम जब बनारस पहुंचे तो सीधे बीएचयू में दीपक के घर गये। वहीं रुके। दीपक के पिताजी, प्रोफेसर बृज किशोर मेकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग के जाने माने प्रोफेसर थे।संघी विचारधारा के प्रोफेसर किशोर का ज्योतिष में भी काफी दखल था।

थके होने के कारण हम खाना खाकर जल्द ही सो गये।अगले दिन बनारस घूमना था।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

3 responses to “इलाहाबाद से बनारस”

  1. Raag
    महोदय,
    क्षमा किजिएगा, बहुत ढुँढ्ने पर भि आपका “प्रोफाईल” नही ढुँढ् पाया, इसिलीये आपको आपके नाम से सम्बोधित नहिँ कर पा रहा हूँ. मेरी हिन्दि उतनी अछ्छी नहिँ है पर प्रयत्न करुँगा. पहली बार आपके “ब्लाग” पर आया था – बहुत अछ्छा लगा. “मजा ही कुछ और है” का क्या कहना! निस्चय, “फुरसतिया” अब “इँटरनेट” पर मेरे पसन्दिदा “डेस्टीनेशनस्” मे से एक हो गया है.
    आपके कलम [या फिर "कि-बोर्ड" को कहिये :-) ] को और शक्ति मिले.
    शुक्रिया,
    राग
  2. देबाशीष
    अनूप भाई,
    आपके फैन बढ़ते जा रहे हैं अब वाकई आपको एक परिचय पृष्ठ बना लेना चाहिये।
  3. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] 9.जाग तुझको दूर जाना! 10.मजा ही कुछ और है 11.इलाहाबाद से बनारस 12.जो आया है सो जायेगा 13.कनपुरिया अखबार [...]

Thursday, December 22, 2005

मजा ही कुछ और है

http://web.archive.org/web/20110101201625/http://hindini.com/fursatiya/archives/92


पिछले दिनों जब अमिताभ बच्चन स्वस्थ होकर वापस आये तो सहारा वन टीवी पर उस दिन के कार्यक्रम का प्रसारण किया जिसके बाद से अमिताभ बच्चन की तबियत खराब हुई। इसमें हरिवंशराय बच्चन की स्मृति में लखनऊ में आयोजित कवि सम्मेलन की झलकियां दिखाईं गई। उज्जयिनी के कवि ओम व्यास ने एक कविता पढ़ी थी -मजा ही कुछ और है। यह कविता पंक्ति दिमाग में फंसी थी। आज सोचा इसे निकाल ही दिया जाये। अब जब इसे निकाला तो तमाम और लाइनें भरभरा कर निकल पड़ीं। इसे बिना किसी लाग-लपेट के यहां दे रहा हूं। तमाम पहलू छूट रहे हैं। लेकिन आफिस भी पुकार रहा है लिहाजा जितना है उतने में ही मौज का जुगाड़ करे।
आपके दिमाग में कुछ कुलबुला रहा हो तो उसे यहीं या फिर अपने ब्लाग में निकाल के धर दें। इसका भी मजा ही कुछ और है।
जाडे़ में बिस्तर पर बैठ कर खाने का,
बाथरूम में बिन नहाये पानी गिराने का,
हल्ला मचा कर अवकाश पर जाने का
अनुगूंज का बूथ कब्जिया के जीत जाने का -

मजा ही कुछ और है।
हिंदी प्रेमियों का अंग्रेजी में लटपटाने का
गरियाने के बाद उसे मौज बताने का
२० साल पुरानी साइकिल फिर से चलाने का
फाइलों के बीच से कविता निकाल लाने का
मजा ही कुछ और है।
हिंदी पोस्ट पर अंग्रेजी में टिपियाने का
हर फिसली कन्या का गाडफादर बन जाने का
कुंवारे की कंडली में शादी योग खोज लाने का
गणितीय भाषा में प्रेम का झंडा लहराने का
मजा ही कुछ और है।
शादी लायक लड़के को नंगा दिखाने का
कविता पढ़कर ‘प्रतिकविता’ झिलाने का
ग्राहक पाकर पुराना स्टाक निकालने का
रोज-रोज,नये-नये उपदेश पिलाने का
मजा ही कुछ और है।
हर नयी नवेली को कुंवारी न बताने का
मिर्जा के मुंह से मामला रफा-दफा करवाने का
बिना सोचे नई-नई योजनाये उछालने का
करने के समय हे-हे-हे करके मुकर जाने का
मजा ही कुछ और है।
विदेश में जाकर देश के बारे में आंसू बहाने का
जहां हैं उसे कोसते हुये वहीं टिके रह जाने का
रोते हुये देश के प्रेम में पागल बन जाने का
शहीदाना अंदाज में पेड़ का टूटा-पत्ता बन जाने का
मजा ही कुछ और है।
रोजमर्रा के लेनदेन को टीवी पर दिखाने का
पकड़े जाने पर थू-थू,शर्म-शर्म मच जाने का
साजिश है हमको फंसवाने की का बहाना बनाने का
निर्लप्त देशवासियों का काम-धंधे में लग जाने का
मजा ही कुछ और है।
ये लगता है फिर आ जायेगा टीम में- बताने का
फिर लफड़ा करेगा कहकर गांगुली को गरियाने का
निकाले जाने पर ये तो ‘गल्त हुआ’ बताने का
फिर ये तो चलता ही रहता है बताने का
मजा ही कुछ और है।
आंख खुलते ही लैपटाप से चिपक जाने का
चाय लाती पत्नी को देखकर सकपकाने का
‘बड़ी अच्छी लग रही हो’ कह मस्का लगाने का
‘उठो बच्चों’ कह फिर से टाइपिंग में जुट जाने का
मजा ही कुछ और है।
सबेरे-सबेरे स्वामी से नेट पर बतियाने का
व्यस्त जीतू से ‘कमेंट करो यार’ कहलाने का
भाभियों को साष्टांग करके प्यारा बन जाने का
आफिस जाने से तुरंत पहले कविता झिलाने का
मजा ही कुछ और है।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

12 responses to “मजा ही कुछ और है”

  1. eswami
    आपके अँदाज-ए-बयाँ से दिल की बात सुनने का
    सार्वजनिक सामूहिक खिंचाई पे मूह फाड के हंसने का
    क्रिसमस पे खाली दफ्तर मे तुकबँदी बुनने का
    काम का ढेर पडा है सोच के सिर धुनने का
    मजा ही कुछ और है.
  2. vinayjain
    बाँच चुके ब्लॉगों को
    देख चुके ख़बरें सब
    काम-काज निपटा के
    खाली-खाली बैठें जब
    शुकुल जी के लिक्खे को
    चाय संग पढ़ने का
    साथ-साथ हँसने का

    मजा ही कुछ और है
    :)
  3. Ashutosh Dixit
    क्राइस्ट चर्च के सामने आंखै सेन्क्ने का,
    रिजर्व बैन्क के सामने “वेलू” के दोसे खाने का,
    ठग्गु के लड्डू/कुल्फी खाने का,
    और कानपुर मॅ बिना हेल्मेट/सीट बेल्ट के वाहन चलाने का,
    मजा ही कुछ और है…..
  4. Ashutosh Dixit
    संगी साथियॉ के साथ “विष-अम्रृत” खेलने का, शाम को छत पे लेट कर अपने घोन्सलो को वापस जाते तोतॉ को गिनना, वो मम्मी के बनाये बेसन के लड्डू एक ही दिन में खत्म कर देना, हैन्ड पम्प से पानी भरना, लाइट के जाने और आ जाने पे शोर मचाना. — छुटपन की ऐसी बात को याद करने का मजा ही कुछ और है.
  5. Manoshi
    आगे और नहीं जोडूँगी कि मज़ा ही कुछ और है पर अशुतोष जी की टिप्पणी ने बहुत सी यादें ताज़ा कर दीं| “पोसम्पा भई पोसम्पा, सवा रुपये की घडी चुराई, अब तो जेल को जाना पडेगा, जेल की रोटी खाना पडेगा…”आदि आदि…
  6. प्रत्यक्षा
    और इसी तरह ढेर सारी टिप्पणियाँ
    साथ साथ बटोरने का भी फुरसतियाजी
    मज़ा ही कुछ और है :-)
  7. kali
    Shukla ji bahut bhadiya tarika hai commentors ki sankhya bhadane ka. Matlab jiske mirchi lage woh bhi commentiyaga hi bilkul Jitu jaise (bhale hi bolen hume koi farak nahi, magar aag uthi hai, dhuna nikla hai, badbu faili hai Jitu guru !) , jiske sir main khujli lagi Jhak ko aage bhadane ki woh bhi tankan karega. Aur humre aur pratyaksha jaise jo trick notice karenge who bhi vuvachenge hi. Dhanya ho gurudev :)
  8. सारिका सक्सेना
    अनूप जी की कविता के साथ-साथ सभी की टिप्पणियों को पढने में भी बहुत मजा आया।
  9. r p singh sadana
    dear friends, its been a great pleasure to go through this mazaa kucchh aur hai thing.its good to know that people like you guys are still there . i simply loved all those things related to kanpur as i belong to this city. my best wishes for more such work .doosaron ki shararaton ko padh ke, un men apne bachpan ki tasveer dekhne ka mazaa i kucchh aur hai. apni aap beeti ke jag beeti mein mil jane ka mazaa bhi kucchh aur hi hai .bhai bahut mazaa aaya.thanks.
  10. विवेक सिंह
    आंख खुलते ही लैपटाप से चिपक जाने का
    चाय लाती पत्नी को देखकर सकपकाने का
    ‘बड़ी अच्छी लग रही हो’ कह मस्का लगाने का
    ‘उठो बच्चों’ कह फिर से टाइपिंग में जुट जाने का
    मजा ही कुछ और है।
    ऊपर वाला हमारे लिए लिखा गया है :)