Tuesday, May 31, 2005

आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं


pramod tiwari
प्रमोद तिवारी
कवि सम्मेलन अपने पूरे शबाब पर था । विनोद श्रीवास्तव पूरे हाल की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच सोम ठाकुर जी का आशीर्वाद पाकर बैठ चुके थे। संचालक डा. हसन मेंहदी ने कहा:-
मैं चाह रहा हूं कि मैं आपकी मुलाकात एक ऐसे कवि और शायर दोनों से करवाऊँ जिसका आजका दिन बड़ी उपलब्धियों का दिन है।गणेश चतुर्थी के अवसर पर ‘हेलो कानपुर’ के माध्यम से प्रमोद तिवारी मुख्य संपादक के रूप में पहचाने गये। एक अच्छा पत्रकार,एक अच्छा लेखक,एक अच्छा गीतकार और आज का दिन उनके लिये और भी खास है कि आज उनकी शादी की वर्षगाँठ भी है। यह संयोग है कि इस समय इनको जहाँ होना चाहिये वहाँ नहीं हैं और जहाँ नहीं होना चाहिये वहाँ हैं। लेकिन फिर भी आपका स्नेह इनको ऐसा मिलना चाहिये कि इन्हें लगे कि यह इनकी जिंदगी का खास दिन है।मैं भाई प्रमोद तिवारी को पूरे प्यार-सम्मान से बुलाते हुये अनुरोध कर रहा हूँ कि वे गीत पढें,गज़ल पढ़ें जो मन आये पढ़ें पर मेरी खास फरमाइस उनसे रिश्तों वाला वह गीत सुनाने की है जो कि गीत की विधा में अभिनव प्रयोग है।प्रमोद तिवारी अपनी तमामतर शायरी के हुस्न के साथ-
इस अनौपचारिक आमंत्रण के बाद प्रमोद तिवारी खड़े हुए। शुरु किया:-
आज सारा दिन इसी प्रेक्षागृह मे बीत गया। यहाँ कुछ चेहरे सुबह से मेरे साथ हैं इस समय भी हैं।क्या कहें कुछ समझ में नहीं आ रहा ।अपने घर में खड़े हैं।चार पंक्तियों से सीधे-सीधे अपनी बात शुरु कर रहा हूं:-
सच है गाते गाते हम भी थोड़ा सा मशहूर हुए,
लेकिन इसके पहले पल-पल,तिल-तिल चकनाचूर हुए।
चाहे दर्द जमाने का हो चाहे हो अपने दिल का,
हमने तब-तब कलम उठाई जब-जब हम मजबूर हुए।

हाल तालियों से गूँजने लगा।कई बार सुनानी पड़ीं ये लाईने प्रमोद तिवारी को। प्रमोद तिवारी कानपुर के दुलरुआ कवि हैं। ये कनपुरियों को तथा कनपुरिये इनकी कविता को बहुत अपना मानते हैं। अपनी पूरी कनपुरिया ठसक के साथ कविता पढ़ते हैं।प्रमोद तिवारी के बारे में शायर शाह मंजूर आलम ने लिखा है:-
हमारे प्रमोद तिवारी दीवाने पैदा हुये हैं, दीवाने होकर जवान हुये और जब भी इस दुनिया से उस दुनिया का सफर करेंगे तो दीवानगी के साथ ही झूमते हुये छलांग लगायेंगे।
कइयो कवितायें मुंहजवानी याद हैं लोगों को ।अक्सर होता है कि इधर मंच से प्रमोद कविता पढ़ रहे होते हैं,उधर श्रोता तालियों के कोरस में साथ दे रहे होते हैं। मुझे लगता है आज के देश के सबसे बेहतरीन गीतों का संकलन अगर किया जाये तो उनमें कुछ गीत प्रमोद तिवारी के जरूर होंगे।नीरज ने इनके बारे में लिखा है:-
हिंदी कविता के मंचों पर मुझे प्रमोद की तरह गजलें कहता और पढ़ता कोई दूसरा नहीं दिखाई देता।हिंदी में जब भी सही गजल लिखने वालों की तलाश होगी तो प्रमोद का नाम प्रथम पंक्ति में लिखा जायेगा।
अगला गीत जो प्रमोद तिवारी ने पढ़ा उसके पहले उनका परिचय जरूरी है। ३१जनवरी,१९६० को कानपुर में जन्में प्रमोद तिवारी पत्रकारिता में दैनिक जागरण समूह से १२ वर्ष तक जुड़े रहे। नरेन्द्र मोहन के रहने तक प्रमोद तिवारी जागरण समूह से जुड़े रहे। नरेन्द्र मोहन के बाद शायद उस समूह में प्रमोद की दीवानगी को सहेजने का माद्दा नहीं रहा ।बहरहाल वे जागरण ग्रुप से अलग होने बाद कुछ दिन इधर-उधर रहने के बाद प्रमोद तिवारी ने कानपुर से ‘हेलो कानपुर’ साप्ताहिक का प्रकाशन उसी दिन सबेरे शुरु किया था। यह अखबार उन स्थानीय समस्याओं को सामने लाने के उद्देश्य से शुरु किया गया जिनको बड़े, अखबार समूह अपनी व्यवसायिक मजबूरियों /समझदारी के चलते सामने लाने में हिचकते हैं। साप्ताहिक सहारा समय में शहरनामा में प्रमोद तिवारी के मखंचू मियां पूरे शहर का जायजा लेते रहते हैं। अगला गीत जिस तेवर का था वह प्रमोद तिवारी का खास ठसक वाला तेवर है:-

हम तो पिंजरों को परों पर रात-दिन ढोते नहीं,
आदमी हैं -हम किसी के पालतू तोते नहीं ।

क्यों मेरी आँखों में आँसू आ रहे हैं आपके
आप तो कहते थे कि पत्थर कभी रोते नहीं।
आप सर पर हाथ रखकर खा रहे हैं क्यों कसम,
जिनके दामन पाक हों वो दाग को धोते नहीं।
ख्वाब की चादर पे इतनी सिलवटें पड़ती नहीं,
हम जो सूरज के निकलने तक तुम्हें खोते नहीं।
दिल के बटवारे से बन जातीं हैं घर में सरहदें,
कि सरहदों से दिल के बटवारे कभी होते नहीं।
क्यों अँधेरों की उठाये घूमते हो जूतियाँ,
क्यों चिरागों को जलाकर चैन से सोते नहीं।
हम तो पिंजरों को परों पर रात-दिन ढोते नहीं,
आदमी हैं -हम किसी के पालतू तोते नहीं ।

संयोग कि मंच के एकदम सामने जागरण ग्रुप के वर्तमान प्रबंध संपादक बैठे थे।जब हमने पूछा कि क्या खासतौर पर उन्हीं को सुनाने के लिये था!
प्रमोदजी मुस्कराते हुये बोले-यार ,यह तो संयोग है -चपक गया
अगला गीत चांद के विभिन्न रूपों के बारे में था । कुछ पंक्तियाँ थीं:-
चाँद तुम्हें देखा है पहली बार
ऐसा क्यों लगता लगता हर बार
कभी मिले फुरसत बतलाना यार,
ऐसा क्यों लगता मुझको हर बार!

बादल के घूँघट से बाहर जब भी तू निकला है
मैं क्या,मेरे साथ समंदर तक मीलों उछला है,
आसन पर बैठे जोगी को जोग लगे बेकार,
चाँद तुम्हें देखा है पहली बार,
ऐसा क्यों लगता मुझको हर बार।

प्रमोद तिवारी किस संवेदना के कवि हैं यह बानगी मिलती है उनके उस समर्पण से जो उन्होंने अपने गज़ल संग्रह सलाखों के पीछे को अपने स्वर्गीय पिता को समर्पित करते हुये ने लिखा है:-
परम पूज्य स्वर्गीय पिता को जिन्हें मैं कभी अपनी ग़जलें न तो सुना सका और न पढ़ सका लेकिन छुप-छुपकर उन्होंने मुझे सुना भी और पढ़ा भी और फिर अपने मित्रों के बीच सराहा भी,भर-भर मुंह आशीष के साथ।
pramodji2
प्रमोद तिवारी कविता पाठ करते हुये
अगला गीत जो प्रमोद जी ने पढ़ा वह एकदम नये अंदाज में था।अभिनव प्रयोग। जिसके लिये संचालक ने खास फरमाइस की थी -रिश्तों वाला गीत।अहसास का यह गीत अपना पूरा मजा रूबरू होकर सुनने में ही दे सकता है। पचीसों बार सुन चुका हूं यह गीत। हर बार दुबारा सुनने का मन करता है। आओ बच्चों तुम्हें दिखायें झांकी हिंदुस्तान की या फिर मां कह एक कहानी वाले एकदम हल्के-फुल्के ,मजे-मजे वाले दोस्ताना अंदाज में शुरु हुई बात कैसे संवेदनात्मक अहसास से जुड़ती चली जाती है यह पता ही नहीं चलता। गीत है:-
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं
आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं
अपने संग थोड़ी सैर कराते हैं।

मेरे घर के आगे एक खिड़की थी,
खिड़की से झांका करती लड़की थी,
इक रोज मैंने यूँ हीं टाफी खाई,
फिर जीभ निकाली उसको दिखलाई,
गुस्से में वो झज्जे पर आन खड़ी,
आँखों ही आँखों मुझसे बहुत लड़ी,
उसने भी फिर टाफी मंगवाई थी,
आधी जूठी करके भिजवाई थी।
वो जूठी अब भी मुँह में है,
हो गई सुगर हम फिर भी खाते हैं।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
दिल्ली की बस थी मेरे बाजू में,
इक गोरी-गोरी बिल्ली बैठी थी,
बिल्ली के उजले रेशम बालों से,
मेरे दिल की चुहिया कुछ ऐंठी थी,
चुहिया ने उस बिल्ली को काट लिया,
बस फिर क्या था बिल्ली का ठाट हुआ,
वो बिल्ली अब भी मेरे बाजू है,
उसके बाजू में मेरा राजू है।
अब बिल्ली,चुहिया,राजू सब मिलकर
मुझको ही मेरा गीत सुनाते हैं।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
एक दोस्त मेरा सीमा पर रहता था,
चिट्ठी में जाने क्या-क्या कहता था,
उर्दू आती थी नहीं मुझे लेकिन,
उसको जवाब उर्दू में देता था,
एक रोज़ मौलवी नहीं रहे भाई,
अगले दिन ही उसकी चिट्ठी आई,
ख़त का जवाब अब किससे लिखवाता,
वह तो सीमा पर रो-रो मर जाता।
हम उर्दू सीख रहे हैं नेट-युग में,
अब खुद जवाब लिखते हैं गाते हैं।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
इक बूढ़ा रोज गली में आता था,
जाने किस भाषा में वह गाता था,
लेकिन उसका स्वर मेरे कानों में,
अब उठो लाल कहकर खो जाता था,
मैं,निपट अकेला खाता सोता था,
नौ बजे क्लास का टाइम होता था,
एक रोज ‘मिस’नहीं मेरी क्लास हुई,
मैं ‘टाप’ कर गया पूरी आस हुई।
वो बूढ़ा जाने किस नगरी में हो,
उसके स्वर अब भी हमें जगाते हैं ।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
इन राहों वाले मीठे रिश्तों से,
हम युगों-युगों से बँधे नहीं होते,
दो जन्मों वाले रिश्तों के पर्वत,
अपने कन्धों पर सधे नहीं होते,
बाबा की धुन ने समय बताया है,
उर्दू के खत ने साथ निभाया है,
बिल्ली ने चुहिया को दुलराया है,
जूठी टाफी ने प्यार सिखाया है।
हम ऐसे रिश्तों की फेरी लेकर,
गलियों-गलियों आवाज लगाते हैं,
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं,
आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं
अपने संग थोड़ी सैर कराते हैं।

गीत समाप्त हो गया ।गीत और तालियाँ मेरे कानों में अब भी गूँज रहीं हैं।
मुझे गर्व है कि ऐसे दौर में जब कवियों को देखकर श्रोताओं के भाग खड़े होने के तमाम चुटकुले चलन में हैं तब हमारे कानपुर शहर में प्रमोद तिवारी जैसे कवि हैं जिनके कुछ गीत बार-बार सुनने का मन करता है ।इनकी गजलों कुछ चुनिंदा शेर हैं:-
मुश्किलों से जब मिलो आसान होकर ही मिलो,
देखना,आसान होकर मुश्किलें रह जायेंगीं।

दिल़ में वो महकता है किसी फूल की तरह,
कांटे की तरह ज़ेहन में जो है चुभा हुआ ।
ये क्यों कहें दिन आजकल अपने खराब हैं,
कांटों से घिर गये हैं ,समझ लो गुलाब हैं।
मैं झूम के गाता हूँ ,कमज़र्फ जमाने में,
इक आग लगा ली है,इक आग बुझाने में।
ये सोच के दरिया में ,मैं कूद गया यारों,
वो मुझको बचा लेगा ,माहिर है बचाने में।
आये हो तो आँखों में कुछ देर ठहर जाओ
इक उम्र गुज़रती है ,इज ख्वाब सजाने में।
मैं दोस्ती में दोस्तों के सितम सह लूंगा,
दगा ने दें तो दुश्मनों के साथ रह लूँगा।
क्यों किसी भी हादसे से कोई घबराता नहीं ,
इस शहर को क्या हुआ ,कुछ समझ में आता नहीं।
कुछ न कुछ मकसद रहा होगा भी शायर का जरूर,
बेवजह हर शेर चट्टानों से टकराता नहीं।
मैना हमारे सामने गिरते ही मर गई,
कैसे कहें गुलेल मदारी के पास है।
मुस्करा कर जो सफर में चल पड़े होंगे,
आज बन कर मील के पत्थर खड़े होंगे।
ऐसा क्या है खास तुम्हारे अधरों में,
ठहर गया मधुमास तुम्हारे अधरोंमें।
लाख था दुश्मन मगर ये कम नहीं था दोस्तों,
बद्‌दुआओं के बहाने नाम वो लेता तो था।
मुझे सर पे उठा ले आसमां ऐसा करो यारों,
मेरी आवाज में थोडा़ असर पैदा करो यारो।
यूं सबके सामने दिल खोलकर बातें नही करते,
बड़ी चालाक दुनिया है जरा समझा करो यारो।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

26 responses to “आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं”

  1. जीतू
    वाह वाह! क्या बात है,
    फुरसतिया जी, ये तो पूरा पूरा कवि सम्मेलन ही हो गया, मजा आ गया,
    कई कई बार पढा, बहुत अच्छा लगा, ऐसे कवियों को वैब पर लाइये, चाहे तो हम सभी ब्लागर भाईयों की सेवायें लीजिये, हम उनके लिये टाइप कर देंगे. लेकिन ऐसे कवियों को बहुत बड़ा वर्ग मिलेगा देखने और पढने को. जैसे नर्मदातीरे टाइप की साइट है वैसी ही साइट बनायी जा सकती है, कानपुर के कवियों और साहित्यकारों के लिये.
  2. manoj
    आपकी करपा से प्रमोद तिवारी जी को पहली बार पढने का अवसर मिला उनके बारे में कहा आपका हर वाक्‍य सही हैा हिन्‍दी को ऐसे ही जिवन्‍त लोगो ने जिन्‍दा रहा हैा तिवारी जी की कविता अपने अन्‍दर दर्द का सागर भरे हुएे हैा सुनने के बाद भावुक होने से बचा नही जा सकताा आशा है इसी तरह अन्‍य कवियों की कविताएं भी जाल पर मिलेगी
  3. Raman B
    बड़ा अच्छा लगा प्रमोद जी और उनकी कविताओं के बारे में पढ़ के. अक्सर बहुत सारी कविताएं मेरी समझ से बाहर होती है.. लेकिन प्रमोद जी के गीत और गज़लों को समझने में कोई दिक्कत नहीं हुई और आनन्द भी आया. प्रमोदजी को हमारी तरफ़ से बहुत बहुत बधाईयां दीजियेगा.
  4. सारिका सक्सेना
    प्रमोद तिवारी जी से परिचय कराने के लिये बहुत धन्यवाद। बहुत ही अच्छी और दिल के करीब लगीं उनकी कवितायें। यह सोंचकर अफसोस हुआ कि इतने प्रतिष्ठित और प्रतिभाशाली कवि के नाम से भी परिचित नहीं थे हम। जीतू जी ने ठीक सुझाव दिया है कि हमें ऎसे कवियों को नेट की दुनिया में लाना है। हम किसी भी सहयोग के लिये प्रस्तुत हैं।
    धन्यवाद
    सारिका
  5. kali
    सही लिखे है । पूरा किव सम्मेलन का आन्नद घर बैठ िदऐ है
  6. फ़ुरसतिया » तुलसी संगति साधु की
    [...] आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं खानपान के बाद फ� [...]
  7. फ़ुरसतिया » नयी दुनिया में
    [...] होते हैं। आशीषआओ तुमको अपने संग भी थोड़ी सैर कराते हैं, कुछ किस्से कालेज के स� [...]
  8. फ़ुरसतिया » रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है
    [...] ��ं के लिये बवालेजान बन गया है। बकौल प्रमोद तिवारी:- ये इश्क नहीं आसां बस इतना � [...]
  9. Neeraj Tripathi
    Rishton waali kavita kai baar parhi , bahut achhi lagi ..
    मुश्किलों से जब मिलो आसान होकर ही मिलो,
    देखना,आसान होकर मुश्किलें रह जायेंगीं।
  10. फुरसतिया » ब्लागिंग में भी रिश्ते बन जाते हैं
    [...] कानपुर के गीतकार प्रमोद तिवारी की एक बहुत प्यारी पारिवारिक कविता है- राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं अपने संग थोड़ी सैर कराते हैं। [...]
  11. फुरसतिया »
    [...] Other posts 09/08/2007: मैं लिखता इसलिये हूं कि…01/10/2006: कान से होकर कलेजे से उतर जायेंगे31/10/2006: हिंदी में कुछ वाक्य प्रयोग06/08/2005: अधूरे कामों का बादशाह [...]
  12. Jagdish Bhatia
    अनूप जी,
    प्रमोद जी से परिचय करवाने के लिये धन्यवाद। जब आपने यह लिखा था तब हम चिट्ठाकारी में न थे।
    सुना है कि आप हमेशा दूसरों को उपहार में किताबीं ही देते हैं आज आपसे हक के साथ प्रमोद जी की ’सलाखों के पीछे’ मांग रहे हैं।
  13. Pramod Tewari
    I came across to this page by chance because I am not regular net surfer. My friend prabhakar is always seeking good hindi websites and blogs on hindi literature etc. One day while I was learning how to surf on internet, my friend Prabhakar came to me and shown me few good hindi sites and sitting together resulted in reaching to this page. I am highly surprised to see this page and realy highly keen to meet Mr Fursatiya Jee and all the personals who appreciated my poems and ghazals on this blog. I hope, I would be getting a reply and introduction of fursatiya ji and other fans of my poetries/ghazals.
    Pramod Tewari
  14. फुरसतिया » ब्लागिंग -सामर्थ्य और सीमा
    [...] यह बात नियमित पाठकों के लिये हैं। जो नये पाठक मिलते हैं वे अक्सर पुरानी पोस्टों से ही मिलते हैं। हमारी प्रमोद तिवारी के बारे में लिखी गयी पोस्ट को उन्होंने लिखने के साल भर बाद पढ़ा और टिपियाया। [...]
  15. deepa
    kavi pramod tewari ki kavita padke sach me bara anand aya. unki kavita saral hai jisse samjh me jyada ati hai. mai chahungi isi prakar ki aur kavitaye blog me dali jaye.
  16. होइहै सोई जो ब्लाग रचि राखा
    [...] प्रमोद तिवारी [...]
  17. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] कान से होकर कलेजे से उतर जायेंगे 2.विकिपीडिया – साथी हाथ बढ़ाना… 3.गलत [...]
  18. pratima yadav
    pramod ji aapne lekhan kya hota hai ye bataya mujhe dhanaywad.
  19. अजित वडनेरकर
    हमने भी आनंद लिया इस फुरसतिया मंच पर कविसम्मेलन का।
    प्रमोद तिवारी की कविताएं शानदार है।
    उन्हें जैजै
  20. अजित वडनेरकर
    जै हो। यहां से टिप्पणी ही नहीं जाती।
  21. Dipak 'Mashal'
    आभारी हूँ श्री प्रमोद जी की कवितायें यहाँ पढ़ाने के लिए सर..
  22. Sanjeet Tripathi
    5 saal baad yaha pahucha hu vo bhi anita jee ke marfat jinhone ye link diya mujhe,
    mujhe apne par ashchary ho raha hai ki itni behtareen link kaise meri nazar se bachi rahi ab tak.
    bhale hi 5 sal baad padh raha hu lekin jeetu ji ke 5 sal pahle kahe gaye kathan se sehmat hu, agar aise kavi ho to unke liye type karne ko ham taiyar hain…
    aur han
    khud pramod tiwari ji ka comment dekh kar lagaa ki ve anoop shukl aur fursariya ka bhed nahi jante,,,,, please unhe clear kijiye…
  23. आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं
    [...] के बारे में मैंने विस्तार से पहले भी लिखा है। बहरहाल आप कविता सुनें और साथ में [...]
  24. Anwar Ahamad
    Fursatiya ji, I leart your gajals today and i am virry happy that my fursatiya is one of the best gajlis in this whole world.
    Anwar Ahamad c/o sri Nawab khan(Dainik Jgran)
  25. Dr Mukesh Kumar Singh
    Adarniya Pramod Tiwari Ji ko mai Dronacharya ke rup mai hi manta hu aur apne aap ko Eklavya. Edyapi unhone kabhi kisi ka aguntha nahi manga. Pramod ji ki apni alag parmpara hai yani ki wo Pramod Parampara ke kavi hai. Unki kitni hi Gazlo aur geeto ko mai subah sham aarti ki tarah gungunata rahta hu. Mai kyu pura desh gungunata hai.
    Mere Kavya guru to Kavi Ansar Kambari Sahab hai lakin Pramod ji ki Kavitao ka asar bhi mere lekhan par pada hai. Unki kavitao ko adarsh mankar ham likhate rahe hai.
    Eshwar unko wo sabhi kuch pradan kare jiski unhone kalpana ki ho.
    Jai Hind
    Dr Mukesh Kumar Singh
    Govt Central Textile Institute, Souterganj Kanpur
  26. अन्ना का अनशन और कुछ इधर-उधर की : चिट्ठा चर्चा
    [...] ठंडी-ठंडी हवा कलम को लगी सुलाने शायर को, अंगारे स्याही में घोलो दोस्त यही आज़ादी है। प्रमोद तिवारी [...]

Sunday, May 29, 2005

गिरिराज किशोरजी से बातचीत

निरंतर में पूर्वप्रकाशित

Giriraj1

दुनिया के जिस किसी भी मंच पर महात्मा गांधी की बात होती तो 'पहलागिरमिटिया'की बात जरूर होती है।
गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका के प्रवास के समय के आधार पर लिखी गयी यह जीवनी दुनिया के लिये वह खिड़की है जिससे गांधी के निर्माण की प्रक्रिया के बारे में जाना जा सकता है।'
'पहलागिरमिटिया'के लेखक गिरिराज किशोर जी के लिये गांधी के बारे में लिखना आत्मसाक्षात्कार का एक जरिया रहा।

सन १९३७ में मुजफ्फरनगर में जन्में गिरिराज जी ने एम.एस.डब्ल्यू.(मास्टर्स इन सोसल वेलफेयर) की शिक्षा प्राप्त की। आई.आई.टी.कानपुर में रजिस्ट्रार (१९७५-८३)तथा रचनात्मक लेखन एवं प्रकाशन केन्द्र के अध्यक्ष (१९८३-९७)के पद पर रहे।

प्रमुख रचनाओं में लोग,चिड़ियाघर,जुगलबंदी,तीसरी सत्ता,दावेदार,यथा-प्रस्तावित,इन्द्र सुनें,अन्तर्ध्वंस,परिशिष्ट,यात्रायें,ढाईघर (सभी उपन्यास)के अलावा दस कहानी संग्रह,सात नाटक,एक एकांकी संग्रह,चार निबंध संग्रह तथा महात्मा गांधी की जीवनी 'पहला गिरमिटिया'प्रकाशित।उत्तर प्रदेश के भारतेन्दु पुरस्कार(नाटक पर),'परिशिष्ट'उपन्यास पर मध्यप्रदेश साहित्य परिषद के वीरसिंह देव पुरस्कार,साहित्य अकादेमी पुरस्कार (१९९२)उत्तर प्रदेश हिंदी सम्मेलन के वासुदेव सिंह स्वर्ण पदक तथा' ढाई घर'उ.प्र.के लिये हिंदी संस्थान के साहित्य भूषण से सम्मानित।

फिलहाल गिरिराज जी स्वतंत्र लेखन तथा कानपुर से निकलने वाली हिंदी त्रैमासिक पत्रिका 'अकार' त्रैमासिक के संपादन में संलग्न हैं।

आमतौर पर देखा गया है कि लेखक की शुरुआती दौर में लिखी गयी किसी मशहूर कृति की छाया से बाद की रचनायें निकल नहीं पातीं।गिरिराज जी का लेखन इसका अपवाद है और इनकी हर नयी रचना का कद पिछली रचना से के कद से ऊंचा होता गया ।देश के इस प्रख्यात साहित्यकार को'कनपुरिये' अपना खास गौरव मानते हैं।अपनी विनम्रता,सौजन्यता के लिये जाने जाने वाले गिरिराज जी मानते हैं -सख्त से सख्त बात शिष्टाचार के आज घेरे में रहकर भी कही जा सकती है।हम लेखक हैं।शब्द ही हमारा जीवन है और हमारी शक्ति भी ।उसको बढ़ा सकें तो बढ़ायें,कम न करें।भाषा बड़ी से बड़ी गलाजत ढंक लेती है।

नामसाम्य के कारण अक्सर लोग गिरिराजजी को उनसे धुर उलट सोच वाले आचार्य गिरिराजकिशोर के नाम से संबोधित कर बैठते हैं।

गिरिराज जी से 'निरंतर'के लिये जब बात करने पहुंचा तो पत्रिका के कलेवर,सोच और हिंदी चिट्ठाकारों की सहयोगी प्रवृत्ति को देखकर बहुत खुश हुये।उनसे हुयी बातचीत के प्रमुख अंश यहां प्रस्तुत हैं।

आपकी रचनायात्रा में आई.आई.टी.कानपुर का खासा योगदान रहा।इस दौरान काफी कष्ट भी उठाने पड़े।क्या परिस्थितियां रहीं।

देखिये जब मैं आई.आई.टी.गया था तो दो बातें थीं।एक तो मैं हिंदी का आदमी था दूसरे मैं 'नान टेक्निकल'।तो वहां के लोगों ने शुरु में मुझे बिल्कुल 'वेलकम' नहीं किया ।बल्कि विरोध किया और उसके कारण मुझे मुझे तमाम कष्ट उठाने पड़े।एक और बात थी कि मेरा लगाव वहां के छात्रों तथा दूसरी-तीसरी श्रेणी के कर्मचारियों (मिडिल लेवेल मैनेजमेंट )से ज्यादा था जिसे वहां के 'टाप लीडर्स' या फैकल्टी नापसंद करती थी। मेरे सामने एक बड़ा सवाल था (जैसा फिजिक्स के प्रोफेसर डायरेक्टर वेंकटेश्वर लू कहते भी थे)कि ये प्रोफेसर जो विदेशों में रहते हुये अपना सारा काम खुद करते हैं वे यहां चपरासियों को लेकर लड़ाई करते थे।इसी सब को लेकर वहां फैकल्टी से कभी-कभी कहा-सुनी,तनाव हो जाता था। सस्पेन्ड भी हुआ मैं। मुकदमा लड़ना पड़ा।हाईकोर्ट से बाद में जीता मैं।बहाल हुआ।डायरेक्टर को तथा चेयरमैन थापर को इस्तीफा देना पड़ा।तमाम कष्ट के बावजूद मैंने प्रयास किया कि इंस्टीट्यूट को नुकसान न होने पाये।

वहां हिंदी क्या स्थिति थी उन दिनों?आपके आने पर हालात कुछ बदले क्या?

मेरे आने से पहले वहां हिंदी में कोई बात नहीं करता था।सब जगह अंग्रेजी में बोर्ड लगे थे।मैंने द्विभाषी कराये। लोगों में बदलाव आये।लोग-बाग हिंदी में बात करने लगे। जब मैं जीतकर,बहाल होकर आया तो मैंने उनसे कहा-देखिये आपको भी मुझसे असुविधा है,मुझे भी आपसे।मैं एक रचनात्मक लेखन केन्द्र खोलना चाहता हूं।जिसे उन्होंने सहर्ष मान लिया।

आपके किसी उपन्यास में फैकल्टी द्वारा सताये जाने पर किसी छात्र की आत्महत्या का जिक्र है!

हां,सरकार का एक आदेश आया की एस.सी,एस.टी. छात्रों की भर्ती कोटे से की जाये।तो उनका 'कट प्वाइंट'बहुत'लो' कर दिया गया।तब तक कम्टीशन नहीं लागू हुआ था।इसका वहां के अन्य छात्रों व फैकल्टी के लोगों ने बहुत विरोध किया।जिसके कारण इन छात्रों को बहुत 'सफर 'करना पड़ा।उनकी पढ़ाई में समस्या आयी।उनको 'लुक डाउन'किया गया।लोग उनको सपोर्ट'नहीं करना चाहते थे।पढ़ाना नहीं चाहते थे उनको।'ह्यूमिलियेट' करते थे ।क्लास में ताने मारते थे उन पर कि आप लोग कहां से आ गये।इससे तंग आकर एक छात्र ने आत्महत्या कर ली।मैंने 'परिशिष्ट' उपन्यास में इसका जिक्र किया है।

मेरे एक मित्र जो कि स्वयं आई.आई.टी.में सहायक व्याख्याता हैं का मानना है कि करोड़ों अरबों के आई आई टी बनाने से, बेहतर होगा कि हम अच्छे पांलीटेक्निक और आई टी आई बनायें, ऐसे लोग जो कि सचमुच में इंजीनियेरिंग करते हैं । आप वहां लंबे अर्से रहे ।आपकी क्या सोच है इस बारे में?

मैं आपके मित्र की बात से सहमत हूं।यह सही है कि आई.आई.टी.से देश को कोई फायदा नहीं है।असल में ये टेक्निकल लेबर के रिक्रूटिंग इंस्टीट्यूट हैं।सेन्टर हैं विकसित देशों के लिये।हम अपने कुशल तकनीकी लेबर उनको सप्लाई करते हैं। ज्यादातर लोग विदेश चले जाते हैं जहां इनको हाथों-हाथ लिया जाता है।जो रह जाते हैं यहां वे बहुराष्टीय कम्पनियोंमें चले जाते हैं।देश को इनसे बहुत कम फायदा है।

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क्या कारण है कि यहां के भर्ती होने के बाद ज्यादातर छात्रों का तन तो यहां रहता है पर मन अमेरिका में?

यहां ज्यादातर छात्र मध्यवर्ग से आते हैं।वहां की सुख-सुविधायें आकर्षित करती हैं।यहां भी जो 'फैकल्टी' होती है वह ऐसा
वातावरण तैयार करती है । पाठ्यक्रम(केस स्टडी) वहां के हिसाब से होता है।अमेरिका से डाटा लेकर उसे यहां फीड करके प्लानिंग की जाती है।जिससे स्वाभाविक रूप से वहां जाने की ललक होती है। एक लड़का था जो विदेश नहीं जाना चाहता था बाद में वहां जाकर इतना रम गया कि वापस आने का नाम नहीं लिया।वह अपने सीनियर्स के लिये रोबोट की तरह हो गया।
मैंने अपने उपन्यास अन्तर्ध्वंस में इसका जिक्र किया है।इससे भी लोग यहां लोग मुझसे नाराज हुये।

देखा गया है कि परदेश जाने के बाद लोगों के मन में देश के लिये प्यार बढ़ जाता है।काफी आर्थिक सहायता करने लगते है वे देश की।

जब विदेश जाते हैं लोग तो देश की यादें आना,लगाव होना स्वाभाविक होता है।अतीत दूर तक पीछा करता है।एक लड़का विदेश में परिचित प्रोफेसर से मिलने जाता है तो वह पूंछता है कि तुम अरहर की दाल लाये हो?उसके पास सहगल,रफी के पुराने गानों के कैसेट हैं।वह कहता है कि जब मैं यहां की जिंदगी से ऊबता हूं तो इन रिकार्ड को सुनने लगता हूं।

जो आर्थिक सहायता वाली बात है वो कुछ हद तक सच है।होता यह है कि देश के लिये जो वो पैसा भेजते हैं उनका अधिकतर भाग 'फंडामेंटलिस्ट'के पास पहुंच जाता है।वे तो समझते कि वे देश की मदद कर रहे हैं लेकिन चक्र कुछ ऐसा बनता है कि उनका पैसा देश की मदद में न लगकर देश को बांटने में लग जाता है।

पहला गिरमिटिया लिखने के पहले और गांधी के बारे में आठ साल शोध करके इसे लिखने के बाद आपने अपने में कितना अन्तर महसूस किया?

देखिये मैं आपको एक बात सच बताऊं कि अगर मैं आई.आई.टी.न गया होता तो शायद पहला गिरमिटिया न लिख पाता। वहां मैंने जिस ह्यूमिलियेशन व कठिनाइयों का सामना किया तो कहीं न कहीं मुझे गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में जो अनुभव किये होंगे(हालांकि न मेरी गांधी से कोई बराबरी है न मैं वैसी स्थिति में हूं)उनके बारे में सोचने की मानसिकता बनी।मुझे लगा कि हमें इस बात को समझना चाहिये कि ऐसी कौन सी शक्ति थी जिसने इस आदमी को महात्मा गांधी बनाया।
एक आम ,डरपोक किस्म का आदमी जो बहुत अच्छा बोलने वाला भी नहीं था।वकालत में भी असफल।इतना फैशनेबल आदमी । वह इतना त्यागी और देश के लिये काम करने वाला बना ।मुझे हमेशा लगता रहा कि जरूर उसने अपने तिरस्कार से ऊर्जा ग्रहण की जिसके कारण वह अपने को इतना काबिल बना पाया।इससे मुझे भी अपने को प्रेरित करने की जरूरत महसूस हुई।

दक्षिण अफ्रीका में लोग गांधी को किस रूप में देखते हैं?
मैंने पहले भारत के गांधी के बारे में लिखना शुरु किया था।जब मैं दक्षिण अफ्रीका गया तो वहां हासिम सीदात नाम के एक सज्जन ने मुझसे कहा-देखिये गांधी हमारे यहां तो जैसे खान से निकले अनगढ़ हीरे की तरह आया था जिसे हमने तराशकर आपको दिया।आपको तो हमारा शुक्रिया अदा करना चाहिये। अगर आपको लिखना है तो इस गांधी पर लिखिये।उनकी बात ने मुझे अपील किया तथा मैंने उस पर लिखा।

जब यह प्रकाशित हुआ था तो कुछ लोगों मसलन राजेन्द्र यादव ने इसका भारी-भरकम होना ही एक विशेषता बतायी थी।

इसका एक कारण है कि हिंदुस्तान में एक वर्ग है जो गांधी को पसन्द नहीं करता।उनको लगता है कि गांधी के वर्चस्व से लेफ्टिस्ट मूवमेंट पर असर पड़ेगा।हालांकि वामपंथियों ने भी इसे बहुत सराहा।नामवर सिंह ने सराहना की।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े विष्णुकान्त शास्त्रीजी ने बहुत तारीफ की।हर एक की सोच अलग होती है।हर एक को अपनी धारणा बनाने का अधिकार है।

लोग कहते हैं गांधीजी अपने लोगों के लिये डिक्टेटर की तरह थे।अपनी बात मनवा के रहते थे।आपने क्या पाया ?वो तो देखिये जब आदमी कुछ सिद्धान्त बना लेता है तो उनका पालन करना चाहता है।जैसे किसी ने त्याग को आदर्श बनाया तो उपभोग की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना चाहता है।गांधीजी तानाशाह नहीं थे।हां उनके तरीके अलग थे।एक घटना बताता हूं:-
गांधी एक बार इटली के तानाशाह मुसोलिनी से मिलने गये।साथ में उनके सचिव महादेवदेसाई तथा मीराबेन और मुसोलिनी का एक जनरल था जिससे मुसोलिनी नाराज था।गांधीजी उसी जनरल के घर रुके।थीं।मुसोलिनी ने गांधी का स्वागत किया और एक कमरे में गये सब लोग जहां केवल दो कुर्सियां थीं।मुसोलिनी ने गांधी को बैठने को कहा।गांधी ने तीनों को बैठने को कहा।तो ये कैसे बैठें ?मुसोलिनी ने फिर गांधी को बैठने को कहा।गांधी ने फिर तीनों से बैठने को कहा।तीन बार ऐसा हुआ।आखिरकार
तीन कुर्सियां और मंगानी पड़ीं।तब सब लोग बैठे।तो यह गांधी का विरोध का तरीका था।कुछ लोग इसे डिक्टेटरशिप कह सकते हैं।
इसी तरह दूसरे विश्वयुद्ध में उन्होनें हिटलर को लिखा था:-यू आर रेस्पान्सिबल फार द वार एन्ड यू हैव टु वाइन्ड इट अप।मैंने इस पर हिटलर का जवाब भी देखा।उसने लिखा था:-नो दीस प्यूपल आर ब्लेमिंग मी अननेसेसरली.एक्चुअली दे आर रेस्पान्सिबल फार द वार.एन्ड यू मस्ट टाक टु देम।

मीरा बेन के बारे में सुधीर कक्कड़ ने लिखा है कि वे गांधीजी को चाहती थीं।गांधीजी के मन में भी उनके लिये कोमल भाव थे।सचाई क्या थी?

इस तरह से अनर्गल बातें लिखने का कोई आधार नहीं है।मीरा बेन लंदन से गांधी के लिये तो ही आयीं थीं।गांधी को समर्पित होकर।वे उनके प्रति आसक्त भी थीं।ब्रिटेन की संस्कृति के हिसाब से इसमें कुछ अटपटा नहीं था।पर गांधी ने कई बार उनको अपने से दूर रखा।समझाते रहे।पत्र लिखते रहे कि मेरे पास आने के बजाय तुम काम करो।सेवा करो।इससे तुम्हें शान्ति मिलेगी।

आपकी कौन सी कृति ऐसी है जिसे आप जैसा चाहते थे वैसा लिखपाये?

ऐसा कभी नहीं हुआ।रचनात्मकता में ऐसा होता है कि आदमी जो करना चाहता वह नहीं कर पाता ।और चीजें जुड़ती जाती हैं। मानव मस्तिष्क कुछ इस तरह है कि जब आप कुछ करना शुरु करते हैं तो काम शुरु करने पर नई-नई संभावनायें नजर आने लगती हैं।वह उस रास्ते चल देता है।पुरानी चीजें छूट जाती हैं।नयी दिशायें खुलती हैं।जब मैंने गांधी पर लिखना शुरु किया
तो भारत के गांधी मेरे सामने थे।जब दक्षिण अफ्रीका गया तो पाया कि असली गांधी तो यहां हैं-मैं उस तरफ चल पड़ा।यह रचनात्मकता की एक सीमा भी है और उसका विस्तार भी।

कानपुर के वर्तमान साहित्यिक परिवेश के बारे में क्या विचार हैं आप के?

पहले यहां साहित्यिक नर्सरी थी।रमानाथ अवस्थी,नीरज,उपेन्द्र जैसे गीतकार यहां हुये ।प्रतापनारायण मिश्र , विशंभरनाथशर्मा 'कौशिक'सरीखे गद्य लेखक थे।प्रेमचंद भी थे।अब छुटपुट लोग हैं।वे भी कितना कर पाते हैं।उनकी भी
सीमायें हैं।
कानपुर कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाता था।आज मिलें बंद हो गयीं।कानपुर किसी उजड़े दयार सा लगता है।क्या ट्रेड यूनियनों के ईंट से ईंट बजा देने के जज्बे की भी इस हालत तक पहुंचने के लिये जिम्मेदारी है?

मेरी व्यक्तिगत राय यह है कि विदेशों में जो मार्क्सवादी गतिविधियां हुयीं उसमें उन्होंने उत्पादन नहीं प्रभावित होने दिया।विरोध किया पर उत्पादन चलता रहा।हमारे यहां उत्पादन सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ।आप अधिकार मांगिये,सब बातें करिये पर जो मांगों का मूल आधार है(उत्पादन)उसे ठप्प कर देंगे ,फैक्ट्री बंद कर देंगे तो बचेगा क्या?लड़ेंगे किसके लिये?सन् ६७ में जब मैं यहां आया था तो ये सब फैक्ट्रियां चलतीं थीं।शाम को यहां सड़क पर घण्टे भर लोगों के सर ही सर नजर आते थे।दुकानें थीं।बहुत से लोग बैठते थे।सामान बेचते थे।लोग उधार ले जाते ।तन्ख्वाह मिलने पर पैसा चुका देते।लेकिन मिलों के बंद होने से सब बेरोजगार हो गये।पहले जब कोई मरता था तो उसके बच्चे को रोजगार मिल जाता था।अब खुद की नौकरी गयी,बच्चे का भी आधार गया।जो दुकानदार अपनी बिक्री के लिये इन पर निर्भर थे वे भी उजड़ गये।इस बदहाली के मूल में कहीं न कहीं आधार की अनदेखी करना कारण रहा।

आज दुनिया में अमेरिकी वर्चस्व बढ़ता जा रहा है।अपनी पिछली चीन यात्रा में आपने वहां क्या बदलाव देखे?

मैं पिछले साल अक्टूबर में चीन गया था।वहां देखा कि चीन एकदम अमेरिका हो गया है।चीनी महिलायें अपनी पारम्परिक पोशाक छोड़कर अमेरिकन शार्टस ,स्कर्ट में दिखीं।मेरे ख्याल में महिलायें ज्यादा आजाद हुयीं हैं वहां आदमियों के मुकाबले।

जब आपने अमेरिकन टावरों पर हमला होते देखा टीवी पर तो आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या थी?

हालांकि मैं हिंसा का हिमायती नहीं हूं पर मैंने इस बारे में 'अकार' के संपादकीय में लिखा था -ऐसा लगा जैसे किसी साम्राज्ञी को भरी सभा में निर्वस्त्र कर दिया गया हो।सारे देशों के महानायक उसे शर्मसार होने से बचाने के लिये समर्थनों
की वस्त्रांजलियां लेकर दौड़ पड़े हों।
उसके बाद हमें यह भी दिखा कि कितने डरपोंक हैं अमेरिकन।मरने से कितना डरते हैं वे। मुझे लगता है कि अगर एकाध बम वहां गिर जाते तो आधे लोग तो डर से मर जाते।वे।पाउडर के डर से हफ्तों कारोबार ठप्प रहा वहां।

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हंस में जो मेरे विश्वासघात के नाम से लोगों में अपने यौन विचलनों को खुल के लिखने की शुरुआत हुयी इसको आप किस तरह देखते हैं?

यह तो उकसावे का लेखन है।पानी पर चढ़ाकर लिखवाना।राजेन्द्रयादव ने देह वर्जनाओं से मुक्ति के नाम पर लिखने को उकसाया। बाद में रामशरण जोशी ने कहा भी कि इसे मत छापो पर राजेन्द्र यादव ने छाप दिया।इसी के कारण उसकी नौकरी भी चली गयी।दरअसल एक संपादक का यह भी दायित्व होता है कि वह देखे कि जो वह छापने जा रहा है उससे लेखक का कोई नुकसान तो नहीं हो रहा।राजेन्द्र यादव ने यह नहीं देखा।भुगतना पड़ा लेखक को।

आज देश की हालत को आप किस रूप में पाते हैं?भविष्य कैसा सोचते हैं आप इसका?
आज देश की राजनैतिक हालत बहुत खराब है।नेताओं में कोई ऐसा नहीं है जो आदर्श प्रस्तुत कर सके।अटलजी जैसे नेता तक रोज अपने बयान बदलते हैं।ऐसे में निकट भविष्य में किसी बड़े बदलाव के आसार तो मैं नहीं देखता।आगे यह हो सकता है कि युवा पीढ़ी अपने आदर्श खुद तय करे।ग्लोबलाइजेशन का यह फायदा हो सकता है कि लोगों में आगे बढ़ने की प्रवृत्ति बढ़े तथा वह आर्थिक समानता के लिये प्रयास करे और विकास की गति तय हो।

आपकी पसंदीदा पुस्तकें कौन सी हैं?
मुझे नरेश मेहता की -यह पथ बंधु था,यशपाल का -झूठा सच,अज्ञेय की -शेखर एक जीवनी काफी पसंद हैं।अभी मैं पाकिस्तान गया था तो वहां झूठा सच बहुत याद आया।

पसंदीदा व्यंग्य लेखक कौन हैं आपके?

शरद जोशी मुझे बहुत अच्छे लगते रहे।आजकल ज्ञानचतुर्वेदी बढ़िया लिख रहा है।

निरंतर पाठकों के लिये कोई संदेश !


मुझे तो आप लोगों का यह प्रयास बहुत अच्छा लगा।जिस तरह अलग-अलग देशों रहने वाले आप भारतीय लोग हिंदी के प्रसार के लिये प्रयत्नशील हैं वह सराहनीय है।मेरे ख्याल में इसकी इस समय जबरदस्त जरूरत है।इससे विज्ञान की भाषा बनने में भी बहुत मदद मिलेगी।आगे चलकर यह बहुत काम आयेगा।जिस तरह आज अखबार रीजनल,लोकल होते जा रहे हैं ,उनका दायरा सिमटता जा रहा है।ऐसे समय में नेट के माध्यम से दुनिया तक पहुंचने के प्रयास बहुत जरूरी हैं।आप सभी को मैं इस सार्थक काम में लगने के लिये बधाई देता हूं तथा सफलता की मंगलकामना करता हूं।

Saturday, May 28, 2005

चिट्ठी

जब रविरतलामी ने अनुगूँज का विषय दिया -' चिट्ठी' तो मुझे सबसे पहले याद आई अखिलेश की लिखी कहानी 'चिट्ठी' ।अखिलेश का जिक्र वर्तमान हिंदी साहित्य के समर्थ कथाकारों के रूप में किया जाता है।हिंदी जगत की सर्वाधिक पठनीय पत्रिकाओं में सुमार की जाने वाली पत्रिका 'तद्‌भव' के सम्पादक अखिलेश का जन्म उ.प्र. के सुल्तानपुर जनपद में ६ जुलाई,१९६० को हुआ।इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम. ए. करने के बाद पास-फेल की शिक्षा समाप्त।पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ दिनों सक्रिय।'वर्तमान साहित्य'के प्रथम तीन अंकों के सम्पादक।कुछ दिन बेरोजगार रहने के बाद 'माया' में चार महीने बतौर उपसम्पादक।फिर उसे भी छोड़कर लम्बे समय तक खाली। बाद में हिंदी साहित्य संस्थान की पत्रिका 'अतएव'में उपसंपादक। सम्प्रति 'तद्‌भव' का संपादन।इलेक्ट्रानिक मीडिया में ,हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकारों पर केन्द्रित दूरदर्शन धारावाहिक 'कालजयी'के लिये शोध, आलेख एवं पटकथा।टेलीफिल्म 'हाकिमकथा'की कहानी तथा पटकथा। दूरदर्शन धारावाहिक 'सात दिन सात वर्ष'की पटकथा और संवाद।

प्रकाशित पुस्तकें:आदमी नहीं टूटता,मुक्ति,शापग्रस्त (कहानी संग्रह)तथा अन्वेषण(उपन्यास)

पुरस्कार:'मुक्ति'के लिये परिमल सम्मान तथा 'अन्वेषण' के लिये हिन्दी संस्थान के बालकृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार से सम्मानित।

चिट्ठी कहानी से अखिलेश को कथाजगत में पहचान मिली।पाठक इस कहानी को पढ़ते हुये किसी न किसी पात्र के रूप में अपने को उपस्थित पाता है ।यह जुड़ाव और कहानी का अपनापन ही इस कहानी की विशेषता है।मैंने जब अपने साथियों को पढ़ाने के लिये लखनऊ निवासी अखिलेशजी से अनुमति मांगी तो उन्होने खुशी-खुशी अनुमति दी तथा देश-विदेश के पाठकों को अपनी शुभकामनायें दी। आप कहानी पढ़ें तथा अपनी राय से अवगत करायें।


कुटिया पर मुझे साढ़े सात तक पहुंच जाना था और सात बज गये थे।एक तो मेरी जेब में रिक्शे -भर के लिये मुद्रा नहीं थी, दूसरे आज इस जाड़े की पहली बारिश हुई थी और इस समय रात के साढ़े सात बजे तेज हवा थी।जाड़े में ठंडी के अनुपात में हमारा शरीर सिकुड़ जाता है और चाल धीमी हो जाती है।तो धीमी गति से कुटिया पर साढ़े-सात बजे कैसे पहुंचा जा सकता था।

मैंने मफ़लर के कानों के साथ-साथ समूचे सिर को ढंक लिया।गर्दन पर लाकर दोनों किनारों को गांठ लगाई।अब मैं अपनी समझ से सर्दी से महफ़ूज कुटिया तक पहुंच सकता था।मफ़लर के भीतर से मेरी आंखें और नाक झलक रही होंगी।


कुटिया में आज हम दोस्तों का सामूहिक विदाई समारोह था ।कहने को तो ,हम बड़े दिन की छुट्टियों में घर जा रहे थे।पर इस बार का जाना साधारण प्रस्थान नहीं था।इस बार हमारे गमन में उत्साह नहीं मजबूरी थी।घरों से मनीआर्डर आने की अवधि बढ़ती जा रही थी और हम किसी भी कंप्टीशन में उत्तीर्ण नहीं हो पा रहे थे।हमने कुछ अख़बारों के दफ्तरों और रेलवे स्टेशनों के चक्कर मारे।पहली बात तो वहां काम का टोटा था।गर काम था तो क्षणजीवी किस्म का ।उसमें भी श्रम ज्यादा और धन कम का सिद्धान्त सर्वमान्य था।

सबसे पहले रघुराज ने घोषणा की ,"मैं घर चला जाऊंगा।इलाहाबाद में मेरा पेट भी नहीं भर पाता है।"

कृष्णमणि त्रिपाठी ने गंभीरता का नाटक करते हुये कहा,"सब्र करो और ईश्वर पर भरोसा रखो।ऊपरवाला जिसका मुंह चीरता है उसे रोटी भी देता है।"

हम हंस पड़े।कृष्णमणि की यह पुरानी आदत थी।वह नास्तिक था और ईश्वर की बातें करके ईश्वर का मजाक उड़ाता था।उसका चेहरा मुलायम था और हाथों पर बड़े-बड़े घने बाल थे।

यह प्रारम्भ था।बाद में एक दिन हुआ यह कि फैसला होगया ,हम अपने अपने घरों को चले जायेंगे।

विनोद ने कहा था ,हम इस तरह नहीं जायेंगे।हम एक दिन जायेंगे और जाने के एक दिन पहले मेरे कमरे में बैठक होगी और उसमें मैं शराब सर्व करूंगा।

विनोद ने अपने कमरे का नाम 'कुटिया' रखा था।मैं विनोद के कमरे पर जा रहा था।कुटिया जा रहा था।जहां पर मेरे बाकी दोस्त मिलेंगे।वे भी कल मेरी तरह इस शहर को छोड़ देंगे।

आगे की कहानी संक्षिप्त ,सुखहीन और मंथर है,इसलिये मैं थोडा़ पहले की कहानी बताना चाहूंगा।उसमें उन्मुक्त विस्तार, प्रसन्नता और गति है।तो आखिर चीजें इतनी उलट-पुलट क्यों हो गईं,यह रहस्य मैं इस उन्मुक्त ,प्रसन्नता और गति से भरे हिस्से के बाद ,यानी अभी-अभी जहां पर कहानी ठहरी है,उसके अंश के बाद खोलूंगा....

विनोद से मेरी पहली मुलाकात एक गोष्ठी में हुई थी ।उसमें उसनें कवितायें पढ़ीं ,जिनकी मैंने जमकर धुनाई की।सचमुच उसकी कवितायें रुई थीं और मैं धुनिया।बस उस गोष्ठी के बाद विनोद मेरा दोस्त बन गया।हमारी गाढ़ी छनने लगी।हमारी जो कुछ लोगों की मंडली थी,उसमें शिफ़ारिस करके मैंने उसका दाखिला करा दिया।उधर उसका दाखिला हुआ इधर मेरा मकान -मालिक सात महीनों का बकाया किराया मांगने पर हरामीपन की हद तक उतर आया।एक बार मैंने मज़ाक में मामला रफ़ा-दफ़ा करने की गरज से कहा,"नौ महीने हो जाने दीजिये।सात महीने में जच्चा-बच्चा दोनो को खतरा रहता है।"सुनकर मकान-मालिक ने पिच्च से थूक दिया।पान की पीक ने मेरी वाक्‌पटुता की रेड़ मार दी थी।

आखिरकार मैंने पाया कि इस मामले में सात महीने का मुफ्त निवास भी उपलब्धि है,मंडली में कमरा तलाश करने की बात चलाई।अगले दिन सभी कमरे की खोज में सक्रिय हो गये।नवागंतुक विनोद भी इस काम में जोत दिया गया।

कमरे के मामले में मकान-मालिक सिद्धांतवादी होते हैं।उन्होंने कुछ सिद्धांत बना रखे थे,जैसे शादीशुदा को हीकिरायेदारबनायेंगे। नौकरी वालों को वरीयता देंगे।नौकरी स्थांतरणवाली हो।कुछ लोग गोस्त-मछली पर पाबंदी लगाते,तो कुछ रात को देर से आने पर।वगैरह...वगैरह!

मैं इन सभी मानदंडों पर अयोग्य था फिर भी छल प्रपंच कर कमरा प्राप्त कर ही लेता।दरअसल हम भी कोई कम ऐरे-गैरे नहीं थे।मेरा और मेरी मंडली का भी एक सिद्धान्त था कमरे को लेकर।कमरा उसी मकान में लिया जायेगा जिसके आसपास नैसर्गिक सौन्दर्य हो,यानी कि सुन्दरियां हों।इस बात की जानकारी के लिये हमारे पास उपाय था।हम पान और चाय की दुकानों पर गौर करते ,जहां मुस्टंडों का जमावड़ा होता,उसके आसपास कमरा पाने के लिये जद्दोजहद करते।कमरा न मिले यह दीगर बात है किंतु हमारे प्रयोग की प्रामाणिकता कभी भी संदेहवती हो पाई थी।वाकई वहां सुन्दरियां होतीं।चाय-पान की दुकानोख के अलावा एक और दिशा सूचक था हमारे पास पड़ताल का।हम मकान के छज्जों और छतों पर दृष्टिपात करते ।यदि शलवार,कुर्ते,दुपट्टे या अंतरंग वस्त्र लटकते होते ,तो हम वहां बातचीत करना मुनासिब समझते।

विनोद इस प्रसंग में कुछ ज्यादा ही मुदृहर निकला।नैसर्गिक सौन्दर्य या नैसर्गिक सौन्दर्य के वस्त्र देखता ,तो पहुंच जाता और पूछता,"मकान खाली है क्या?""नहीं "सुनने के बाद वह प्रश्न करने लगता कि बताया जाए कि आसपास में कोई मकान खाली है?खैर,काफी छानबीन के बाद एक कमरा मिला।बातचीत के पहले हमने छज्जे पर कुंवारे कपड़े देखे और छत पर तीन नैसर्गिक सौन्दर्य ।मकान-मालिक को तुरंत एडवांस दिया और पहली तारीख से रहने की बात पक्की कर ली।जब हम कमरे में आये तो यह जिंदगी का बहुत बड़ा घोटाला साबित हुआ था।मंडली के प्रत्येक सदस्य का चेहरा ग़मगीन हो गया था।वे तीनों सौन्दर्य विभूतियां रिश्तेदार थीं जो मंडली में बेवफाई करके घर चली चली गईं थीं।रघुराज ने कहा,"सालियों के शलवार,कुर्ते और दुपट्टे अब कहीं टँगते होंगे और युवा पीढ़ी को दिशाभ्रमित करते होंगे।" प्रदीप ने दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा,"सब माया है।"और कमरे में कोरस शुरु हो गया:

    माया महा ठगिनी हम जानी।
    तरगुन फाँस लिये कर डोलें
    बोलै मधुरी बानी।
    केशव के कमला ह्वै बैठी शिव के भवन भवानी।
    पंडा के मूरत ह्वै बैठी तीरथ में भई पानी...
    योगी के योगिन ह्वै बैठी राजा के घर रानी।
    काहू के हीरा ह्वै बैठी काहू के कौड़ी कानी...
    भक्त के भक्तिन ह्वै बैठी ब्रम्हा के ब्रम्हानी।
    कहै कबीर सुनो हो संतो वह अब अकथ कहानी...



मंडली में कई लोग थे,प्रदीप,रघुराज,कृष्णमणि त्रिपाठी,विनोद,दीनानाथ,त्रिलोकी,मदन मिश्रा आदि।हम विश्वविद्यालय के बेहद पढ़े-लिखे लड़को में थे।हमारी पढ़ाई -लिखाई वह नहीं थी ,जो गुरुओं के पाजामें का नाड़ा खोलने से आती है।हम उस तरह के पढ़नेवाले भी नहीं थे,जो प्रकट हो जानेवाले ग्रस्त रोगी की तरह अपने बाड़े रहते हैं।ऐसे को प्राय: हम डंडा करते थे।राजनीतिक रुझान भी थी हमारी।

हम लोग लड़कियों के दीवाने थे।कोई हमारी आंतरिक बातें सुनता तो हमें लंपट और लुच्चा मान लेता।मगर हम ऐसे गिरे हुये नहीं थे।लड़कियों के प्रति यह आसक्ति वास्तव में जिज्ञासा और खेल थी ।सीमा का अतिक्रमण हराम था हमारे लिए।सच कहूं, हम इतने नैतिक थे कि अवसर को ठुकरा देते थे।वैसे लो हम लोगों की तरफ अनेक लड़कियां लपकती थीं।हम अपने-अपने विभाग के हीरो थे।यह भी बता दूं कि चिकने-चुपड़े गालों सफाचट मूंछों और दौलत की वजह से हीरो नहीं थे।बल्कि हममें से अधिसंख्य तो दाढ़ी भी रखते थे।जहाँ तक दौलत का प्रश्न था तो हम लड़कियों से प्राय: चन्दा मांगते थे।इस राह पर त्रिलोकी दो डग आगे था।वह व्यक्तिगत कामों के लिये भी लड़कियों से चन्दा वसूलता।लेकिन वह उन नेताओं की तरह नहीं था जो सामूहिक कल्याण के लिए चन्दा लेकर अपने तेल-फुलेल पर ख़र्च करते हैं ।त्रिलोकी को जब निजी काम के लिए ज़रूरत होती, तो ज़रूरत बतलाकर पैसा लेता।वह कहता,"विभा,भोजन के लिये पैसा नहीं है,लाओ निकालो।"

एक बार एक लड़की ने त्रिलोकी से पूछा,"तुम हम लड़कियों से ही क्यों हमेशा चन्दा माँगते हो?"

"क्योंकि वे दयालु होती हैं।लड़के घाघ और क्रूर होते हैं।"

त्रिलोकी की इस स्थिति की वजह उसकी एक खराब आदत थी।घर से जब उसका मनीआर्डर आता तो वह सनक जाता।रिक्शा के नीचे उसके पांव नहीं उतरते थे।दोस्तों के साथ नानवेज खाता और सिनेमा देखता।एक-दो बार जन-कल्याण भी कराता।जन-कल्याण मंडली में शराब का कोड था और देशभक्ति प्यार-मुहब्बत का।हाँ तो हफ्ते-भर में त्रिलोकी के पैसे चुक जाते और वह सड़क पर आ जाता।

कमोवेश मंडली के हर सदस्य की स्थिति यही थी।हमारी त्रासदी थी कि हम सुखमय जीवन जीने की कामना करते थे किन्तु हमारे मनीआर्डर वानप्रस्थ पहुँचाने वाले थे।यह दीगर बात है सब लोग त्रिलोकी की तरह महीने के पहले हफ्ते में ही कंगाल नहीं होते थे लेकिन महीने के अंत में भोजन के लिये तीन तिकड़म करना सभी की बाध्यता थी।कृष्णमणि होटल के रजिस्टर देखता।जितने मीटिंग गेस्ट लिखा होता,उससे दो दो गुना मीटिंग वह अपने एक रिश्तेदार के यहाँ खाकर संतुलन स्थापितकरता। मदन मिश्र प्राय: कमरे में खिचड़ी पकाकर मेस में एब्सेंट लगवाता ।रघुराज भूखा रहकर भी हँसते रहने की क्षमता अर्जित कर चुका था।प्रदीप जिसमें ऐसी कोई योग्यता नहीं थी,लोगों के यहां घूम-घूमकर खाता।पंकज सक्सेना शर्मीला था,सो मंडली मे विनोद को समझा दिया था,वह उसका सत्कार करता ।विनोद फले-फूले परिचितों से सम्मानजनक रकम कर्ज लेता था,जिसे कभी नहीं चुकाता था।

छुट्टियों के बाद युनिवर्सिटी खुली थी,इसलिये लोगों के चेहरों पर एक खास तरह का नयापन और उल्लास था।पर ये चीजें उतनी नहीं थीं, जितनी इस मौके पर होनी चाहिये थीं।क्योंकि कल इस जाड़े की पहली बारिश हुई और आज हवा तेज़ चल रही थी,इसलिए लोग ठंड से सिकुड़े हुए थे।

मैं कुछ ज्यादा ही पहले अपने हिन्दी विभाग में आ गया था,इसलिये सामने के लान में खड़ा धूप खा रहा था।मुझे त्रिपाठी का इन्तज़ार था कि वह आये तो चलकर चाय पी जाये।मोहन अग्रवाल का पिरियड कौन अटेंड करे।मैं सदानन्दजी के अलावा और किसी का पीरियड अटेंड नहीं करता था क्योंकि बाकी अध्यापक पढ़ाई के नाम पर कथावाचन करते थे या खुद सही किताब से नकल करके इमला लिखवाते थे।एम.ए. में नकल का इमला।मैंने कक्षाओं का बायकाट कर दिया पर मेरे इस कुकर्म पर वे भन्नाने की जगह परम प्रसन्न हो गए।क्योंकि अब वे क्लास में निर्भीक भाव से लघुशंका-दीर्धशंका समाधान कर सकते थे...

मुझे त्रिलोकी पर झुँझलाहट हुई ,आ क्यों नहीं रहा है।कहीं डूब गया होगा बतरस में।त्रिलोकी को बोलने का भयानक चस्का था। उसके बारे में यह प्रसिद्ध था कि त्रिलोकी जब बोलना शुरु होता है तो सामने वाला केवल कान होता है और वह केवल मुँह।

मेरे विभाग में उसके आने का एक उद्देश्य सुन्दरियों को देखना भी होता था।यहां एम.ए. के दोनो भागों में लड़कियों की तादाद लड़कों से ज्यादा होती थी,इसलिए यह विभाग अन्य छात्रों का तीर्थ होता था।यहां लोग विपरीत सेक्स के चक्कर में इस तरह मँडराते ,जैसे अस्पताल और मंदिरों के आसपास मंडराते हैं।वैसे यह विद्यालय का मीरगंज बोला जाता था।मीरगंज इलाहाबाद वह स्थल है,जहाँ नैतिकतावादी लोग बहुत सतर्क होकर घुसते और टिकते हैं और बाहर निकलते हैं।

तभी सदानंदजी का स्कूटर रुका और वह अपना हेल्मेट हाथ में झुलाते हुये आने लगे।हमारी मंडली उनका बेहद सम्मान करती थी लेकिन उनसे हमारे सम्बन्ध बेतकल्लुफ थे।एक बार हमने उनसे शराब के लिये रुपये भी लिये थे।वह अपनी मेधा और वामपंथी रुझान के अतिरिक्त एक अन्य प्रकरण की वजह से भी चर्चित थे,उन्होंने प्रेम-विवाह किया था किन्तु विभाग की अध्यापिका सुनीता निगम से प्रेम करते थे।दोनों दुस्साहसी थे और भरे विभाग में एक दूसरे का हाथ पकड़ लेते थे।

सदानन्दजी मुझे देखकर मुस्कराये और पास आकर मेरी अभी हाल ही में छपी एक कविता की तारीफ करने लगे। मैंने सोचा इस तारीफ को कोई सुन्दरी सुनती तो आनन्द था। तभी एम.ए. प्रीवियस की नई किन्तु सुन्दर लड़की उपमा श्रीवास्तव दिखी। हम दोनों का हल्का -हल्का चक्कर भी चल रहा था। मैं उसे बुलाकर सदानन्दजी से परिचय कराने लगा। परिचय के बाद मैंने कहा,"हाँ तो सर,मेरी उस कविता में कोई कमी हो तो वह भी कहें, तारीफ तो आपने बहुत कर दी।"

वह मुस्कराकर बोले ,"नहीं भई, यह तुम्हारी बहुत अच्छी कविता है।"

"सर प्रणाम !" त्रिलोकी आ गया था। आज हम चार लोग धूप के वृत्त में खड़े थे। तभी विभागाध्यक्ष महेश प्रसाद जिन्हें मंडली गोबर-गणेशजी कहती थी ,लपड़-झपड़ आते दिखाई पड़े। उन्हें देखकर उपमा थोड़ी दूर खिसककर खड़ी हो गयी। कई दूसरे लोगों ने भी अपनी पोजीशन बदल ली। क्योंकि सदानन्दजी और गोबरगणेशजी में दाँतकाटी दुश्मनी थी। गोबर-गणेशजी हिंदी विभाग का अध्यक्ष होने के नाते अपने को साहित्यकार लगाते थे पर साहित्य में मान्यता सदानन्दजी की थी।इसके अतिरिक्त गणेशजी प्रो. वी.सी. लाबी में थे जबकि सदानन्दजी एंटी वी.सी. लाबी में थे।

और सबसे खासबात ,इस विश्विद्यालय के अध्यापकों में ब्राह्मण और कायस्थ जाति के लोग शक्तिशाली थे जबकि सदानन्दजी सिंह थे।इस मामले में गणेशजी का कहना था कि असल में वह सिंह नहीं यादव थे। सदानन्द मथुरा के नन्द कुलवंशी थे।

गणेशजी निकट आए, तो सदानंदजी ने नहीं लेकिन मैंने और त्रिलोकी ने प्रणाम किया।जवाब में उनका सिर कांपा तक नहीं और आगे बढ़ गये। त्रिलोकी उनके पीछे हो लिया,"सर,हमारा आपका मुद्दा आज हर हाल में साफ होजाना चाहिये।"

मैं भी सदानंद जी को छोड़कर लपका।त्रिलोकी गणेशजी के संग उनके कमरे में घुस गया,तो मैं चिक से सटकर खड़ा हो गया।

"कैसा मुद्दा?" गणेशजी हांफ रहे थे।

"भक्ति आंदोलन के सामजिक कारण क्या थे?"

"उस दिन बताया था।सुना नहीं क्या?" उन्होंने किसी बच्चे की तरह चिढ़कर कहा।

"उस दिन भक्ति आंदोलन के सामजिक कारण बताने के नाम पर आप सांप्रदायिकता फैलाने की कोशिश करते रहे।"

"मैं तुम्हें क्यों बताऊँ सामाजिक आधार? तुम तो हिंदी के छात्र हो नहीं। आउटसाइडर होकर मेरे विभाग में कैसे घुसे ?

त्रिलोकी कुर्सी खिसकाकर खड़ा हो गया।हाथ के पंजों को मेज पर रखकर थोड़ा झुक गया," भक्ति आंदोलन पर हिंदी का बैनामा है क्या ? रही बात आउटसाइडर की ,तो जो साले लुच्चे -बदमाश आपके विभाग में आंख सेंकने आते हैं,उनको कभी आपने मना किया ? मना किया? आँय ?उनको मना करने में आपकी दुप-दुप होती है।मीना बाजार बना रखा है हिंदी डिपार्टमेन्ट को।महानगर की सिटी बसें बना रखा है।"

"मैं कहता हूँ निकल जाओ यहाँ से।"

"तो आप मुझे बाहर निकाल रहे हैं।मैं हिंदी का विद्यार्थी न होते हुये भी आपको चैलेंज करता हूँ कि हिंदी साहित्य ही नहीं संसार के साहित्य के किसी मसले पर बहस कर लें।बहस में अगर जीत जायें तो मैं पेशाब से अपनी मूँछें मुड़ा दूँगा।"

"मैं कहता हूँ ,निकल जाओ...निकल जाओ..."

"मुझसे निकलने को कह रहे हैं ।दुरदुरा रहे हैं जबकि मैं साहित्य का योग्य अध्येता हूँ और गुडों को आप शेल्टर देते हैं। मैं जा रहा हँ लेकिन जाते-जाते एक बात कह देना चाहता हूँ कि क्या कारण है, जब से आप यहाँ के हेड हुए ,यहाँ केवल लड़कियों ने टाप किया...

वह तमतमाया हुआ बाहर आ गया। मैंने खुश होकर उसकी पीठ पर हाथ रखा ,"वाह गुरु! मजा आ गया।चलो ,लल्ला की दुकान पर चाय पिलाता हूँ।"

"अबे पहले एक ठो सिगरेट तो पिला।"

"हाँ..हाँ...गुरु..लो..।"

हम दोनों सिगरेट पी रहे थे।पढ़ने में रुचि रखने वाले लड़के-लड़कियाँ हमें मुग्ध भाव से देख रहे थे।लेकिन पास नहीं आ सकते थे।क्योंकि उन नन्हें-मुन्ने प्यारे बच्चों को अच्छे नम्बर लाने थे, जो वे समझते थे कि गणेशजी की लेंड़ी तर किये बिना नहीं मिल सकते थे।

उपमा श्रीवास्तव भी एक कोने में खड़ी होकर हमें रही थी।त्रिलोकी मुस्कराया ,"कहो कब तक भाभी को देवर दिखलाते रहोगे। वैसे उनकेबगलवाली मेरी श्रीमती हो सकती हैं।

"श्री शादीशुदा! सपने देखना छोड़ दो" मैंने कहा।

"लेनिन के अनुसार सपने हर इन्सान को देखने चाहिये।"

"वह तो दिनवाला सपना है,तुम तो रातवाले सपने देख रहे हो।"

"तुम कुवाँरे साले स्वप्न दोष से आगे जा ही नहीं पाते..."

"हा...हा...हा..." मैंने ठहाका लगाया और कहा ,"इस बात का फैसला लल्ला की दुकान पर होगा।"

लल्ला की दुकान पर लड़कों का खूब जमावड़ा होता था।जिसकी खास वजहें थीं।दुकान यूनिवर्सिटी और कई हास्टल के निकट थी।फिर सामने वीमेन्स हास्टल था। इसके अलावा लल्ला ने एक हिस्से में जनरल स्टोर्स की भी दुकान खोल ली थी। वीमेन्स हास्टल के आस-पास में इकलौती अच्छी दुकान थी,सो हमेशा दो-चार लड़कियाँ खरीद फरोख्त करती मिलतीं।

मैं और त्रिलोकी दुकान पर पहुँचे,वहाँ इलेक्शन की चर्चा की। हमने चर्चा में शरीक होने के पहले जनरल स्टोर्स की तरफ देखा,कुछ लड़कियां और कुछ सामान्यजन सामान खरीद रहे थे।त्रिलोकी ने मुझे कोंचा,"वो पीली साड़ीवाली को देखो।" मैंने देखा,गोरा रंग और बड़ी-बड़ी आँखों वाली थी वह।पीली साड़ी ने उसके गोरेपन को चन्दन का रंग बना दिया था।शेम्पू किये चमकते हुए बाल घँघराले और कटे हुए थे।

मैंने पहले भी कई बार उसे देखा था.वह भेष बदला करती थी।कभी शलवार कुर्ते में तो कभी पैंट-शर्ट में तो कभी स्कर्ट में।उसके कपड़े कभी ढीले होते तो कभी चुस्त । आज पीली साड़ी पहने थी और अलौकिक बाला लग रही थी।

"देख लिया।"मैंने बताया।

"क्या प्रतिक्रिया है?"

"भारत की मोनालिसा।"

"सी...ई...ई..."यह पंकज सक्सेना की है। दोनों एक दिन शादी करेंगे और हमें भविष्य भर दावतें देंगे। पंकज की योजना है ,नौकरी लगते ही शादी कर लेगा।"

"ईश्वर इसे अखंड सौभाग्यवती बनाये।" मैंने कहा।हम दोनों आकर दुकान के स्टूल पर बैठ गये।छात्र संघ के चुनाव परिणाम पर चर्चा चल रही थी ।इस बार हमारी मंडली जिस संगठन से जुड़ी थी,उसने भी अध्यक्ष पद के लिये प्रत्यासी खड़ा किया था जिसने अच्छी शिकस्त खायी थी। दरअसल आजा़दी के बाद इस विश्ववुद्यालय के छात्रसंघ का इतिहास रहा है कि अध्यक्ष की कुर्सीपर किसी ठाकुर या बाह्मण ने ही पादा है और प्रकाशन मंत्री की कुर्सी कोई हिजड़ा-भड़वा टाइप का ही आदमी गंधाता रहा है। अध्यक्ष विगत अनेक वर्षों से भारतीय राजनीति के एक धुर कूटनीतिक बहुखंडीजी की उँगलियों और आंखों की संगीत ,चित्रकला और भाषा को तत्क्षण समझ लेने वाला
रहा है।इसके मूल में छिपा रहस्य यह है कि बहुखंडीजी पहले इस बात का जायजा लेते थे कि कौन दो सबसे वरिष्ठ प्रतिद्वंदी हैं।फिर उनका कुबेर दोनों को समृद्ध करता है। इसके बावजूद इसबार हमारा संगठन बहुखंडीजी की मंशा को खंड-खंड करता ।बहुखंडीजी ही क्यों,शराब के बड़े ठेकेदार सीताराम बरनवाल, उद्योगपति हाफि़ज,सभी के फन कुचलता हमारा संगठन।सभी की लपलपाती जीभको सिद्धान्तों के धागे से नापता हमारा संगठन।लेकिन चुनाव की पिछली रात जनेऊ घूम गया। बहुखंडीजी का प्रत्याशी इस बार बाह्मण था।मशाल निकालजुलूस निकालने के बाद वह सभी छात्रावासों में गया और अपनी जाति के लोगों की मीटिंग कर पानी भरने के रस्सी जितनी मोटी जनेऊ निकालकर गिड़गिड़ाया,"जनेऊ की लाज रखो।" और हम हार गये।

हम छात्रसंघ की चर्चा में डूब-उतरा ही रहे थे कि रघुराज हाँफता हुआ आया और मुझसे तथा त्रिलोकी से एक साथ बोला,"छ: समोसे खिलाओ।"

हम समझ गये कि ,आज खाना नहीं खाया है इसने।इस समय वह थोड़ा बुझा हुआ भी था कि त्रिलोकी ने उससे पूछा,"कहाँ से आ रहे हो महाराज?"

"यार ,दो लड़कियों से आरूढ़ रिक्शे के पीछे साइकिल लगाई। रिक्शा सिनेमा हाल के पास रुका। मैं भी देखने लगा फिल्म।"

हम समझ गये,अब रघुराज शुरु हो गया है। मैंने पूछा," कैसी थी फिल्म?"

"ठीक ही थी ,बस अश्लीलता का अभाव था।" रघुराज की विशेषता थी कि मूड की स्थिति में संसार के सभी कार्य व्यापार के मूल्यांकन के लिये उसके पास इकलौता बटखंरा सेक्स था।

"और लड़कियाँ कैसी थीं?" त्रिलोकी का प्रश्न था।

"क्षमा करना यार ,मैं बताना भूल गया। उनमें एक लड़की थी, दूसरी नवविवाहिता थी,भाभीजी!"

"पर तुम किसके लिये प्रयासरत थे?"

"दोनों के लिये।बेशक दोनों के लिये,लेकिन ज्यादा भाभीजी के लिये।"

"लेकिन रघुराज, मैंने प्राय: देखा है कि तुम्हें शादीशुदा औरतें ज्यादा अच्छी लगती हैं।इसकी वजह क्या है?"

"इसकी वजह करते समय पर वे चीं...चीं...नहीं करतीं...।"

"वाह रघुराज, तुम्हारी पकड़ बहुत अच्छी है।तुमको लेखक होना चाहिये। उपन्यास पर काम करो रघुराज।"

"कर रहा हूँ। एक उपन्यास पर काम कर रहा हूँ- अतृप्त काम वासना का जिंदा दस्तावेज। और एक कहानी पूरी की है- इलाहाबाद के तीन लड़कों को देखकर दिल्ली की लड़कियाँ विद्रोह कर नंगी घर से बाहर।"उसने जोर का ठहाका लगाया,"साले लेखक की दुम। आज तक मैंने कुछ लिखा है? जो अब लिखूँगा। फिर आज तक बाँझ औरत के कभी सन्तान हुई है? हा...हा...हा..."

रघुराज अपनी रौ में था ।हमने वहाँ से उठ लेना ही बेहतर समझा, क्योंकि वहाँ मंडली से बाहर के कई लड़के थे जिनकी निगाह में हम ब्रह्मचारी किस्म के सरल सीधे माने जाते थे।

हम उठने लगे तो दूसरे लोगों ने हमें रोका लेकिन हम रुके नहीं।थोड़ी ही दूर बढ़े होंगे कि रघुराज ने अपना काम शुरु कर दिया। आने-जाने वाली प्रत्येक लड़की को वह टकटकी बाँधकर देखता। हमने टोंका तो कहने लगा ,"कहाँ कायदे से देख पाता हूँ। ईश्वर ने एक आँख पीछे भी होती ,तो कितना आनन्द होता।"

मैंने सलाह दी, "तुम इसके लिए तपस्या शुरु कर दो।"

"ठीक है।" वह ठिठक गया,"मैं यहीं धूनी रमाऊँगा।" ठीक सामने वीमेन्स हास्टल था। मुझे इसकी यह आदत बिलकुल अच्छी नहीं लगी,"देखो तुम वीमेन्स के बारे कुछ मत कहना।"

"क्यो"?

"क्योंकि जब सूरज डूब जाता है तो अँधेरे में लड़कियों का यह हास्टल मुझे एक अद्भुत रहस्य लोक -सा लगता है...मेरे भीतर इसके लिए एक पवित्र भाव है।"

"देखो बालक! वैसे मैं तुम्हारे तथाकथित पवित्र बोध को अपवित्र नहीं करना चाहता।" रघुराज गम्भीर हो गया, लेकिन अज्ञान की वजह से जन्मी पवित्रता कोई वजन नहीं रखती इसलिए तुम चाहो, तो मैं तुम्हारी जिज्ञासा को शान्त कर सकता हूँ। चाहते हो?"

त्रिलोकी बोल पड़ा "हाँ...हाँ...महाराज बताओ..."

"तो सुनो।" वह रुक गया। हम लोगों को पल-भर देखा। फिर धीरे-धीरे चलने हुए कहने लगा," मैं कुछ बताने से पहले एक सवाल करना चाहता हूँ। बताओ, इस हास्टल में पी.एस.एफ. से जुड़ी लड़कियाँ अधिक क्यों है? हमारे संगठन की तरफ वे ज्यादा आकर्षित क्यों नहीं होतीं?"

"तुम ही बताओ महाराज! सब तुम ही बताओ!" त्रिलोकी ने व्यग्र होकर कहा।

"ठीक है, मैं ही बताता हूँ। इसलिए कि पी.एस.एफ. भद्र लोगों के वर्चस्ववाली संस्था है। उसमें अपनेको विशिष्ट समझने का एहसास होता है। देखो,आजकल सम्पन्न घरों के सदस्यों में सामाजिक कार्य करने का चस्का जोर पकड़ता जा रहा है लेकिन उनके ये कार्य मूलत: जनता के संघर्ष की धार को कुंद करने के लिये होते हैं, यही बिन्दु
पी.एस.एफ. और इन सुविधाभोगी लड़कियों के बीच सेतु का काम करता है।"

"रघुराज ,हमने तुमसे पी.एस.एफ. और लड़कियों के सम्बन्ध पर प्रकाश डालने के लिये प्रार्थना की नहीं थीं।" मैंने अधीर होकर कहा।त्रिलोकी ने मेरी बात पर हामी भरी। रघुराज भड़क गया," तुम लोग तभी तो अच्छे लेखक नहीं बन सके।" वह जोर-जोर से बोलने लगा,"केन्द्रीय तत्व को समझे बिना यथार्थ को फैलाने की कोशिश करते हो।
यही हड़बड़ीवाली आदत अगर संभोग के समय रही, तो शीघ्रपतन के रोगी कहलाओगे और तुम्हारी बीबियाँ बदचलन हो जाएँगी..."

हमने हाथ जोड़ लिया ,"अच्छा भइया ,सुनाओ! सुनाओ!"

"चलो क्षमा कर देता हूँ। हाँ तो मेरी उपरोक्त बात में तथ्य निकला कि वीमेन्स हास्टल की अधिसंख्य लड़कियाँ आर्थिक दृष्टि से दुरुस्त परिवारों से जुड़ी हुयी हैं। लेकिन इससे होता क्या है। यहां भी कई तरह की विभिन्नतायें कई तरह के कलहों को जन्म देती हैं।अब बहुत सम्भव है,थानेदार की बिटिया का मनीआर्डर और जूनियर इंजीनियर की बिटिया का मनीआर्डर क्रमश:डिप्टी एस.पी. और असिस्टेन्ट इंजीनियर की बिटिया के मनीआर्डर से ज्यादा रुपयों का होता हो।ऐसी स्थिति में पहली दोनो को घमंड आपने बाप के पैसों का होगा तथा दूसरी दोनों को अपने-अपने बाप के पद का।दूसरी तरफ हीनता भी अपने बाप के कारण होगी कि एक का बाप पैसा रखते हुए भी मातहत है,दूसरे का बाप अफसर मातहत से कम समृद्ध ।लड़कियों के बीच कलह का प्रमुख कारण यह है ।तुम लोग जानते ही हो,इन लड़कियों में होड़ की भावना बड़ी प्रबल होती है।वे पैंटी से लेकर प्रेम तक में अपने को श्रेष्ठ देखना चाहती हैं।कम से कम दूसरे से उन्नीस तो नहीं ही देखना चाहती हैं।अब जिनकी माली हैसियत अपेक्षाकृत पिछड़ी होती है, वे गड़बड़-सड़बड़ हो जाती हैं। ऐसेमें पहला दम किसी मालदार प्रेमी को पटा लेने का होता है।इसके बवजूद कमी पड़ी तो पतन शुरु हो जाता है।..."इतना कहकर रघुराज चुप हो गया।हम भी चुप हो गये।कुछ देर बाद मैने कहा,"कुछ और ज्ञान दोगे?"

"समय क्या है?"

"तीन चालीस।"

"तो त्रिलोकी तुम भी सुनो, हमें चलना भी है। चार तीस पर जाकर सांस्कृतिक हस्तमैथुन का विरोध करना है?

"क्योंकि किसी भी स्वस्थ कला के निर्माण के लिए इसकी समाज से प्रतिक्रिया अनिवार्य होती है पर जिसको तुम लोग आज डंडा करोगे,वे स्वयं रचते ,स्वयं आनन्दित होते हैं।" हम अल्फ्रेड पार्क यहाँ से आधा घंटा में आसानी से पहुँच सकते हैं। यानी कि हमारे पास बीस मिनट का वक्त था पर हमने तय किया कि वहीं चलते हैं।वहाँ हम धूप का एक टुकड़ा खोजेंगे और बीस मिनट लेटे रहेंगे।

शहीद पार्क से इकट्ठा होकर हमें कला भवन के लिये कूच करना था।बाकी लोग वहीं मिलने वाले थे।

मंडली के नेतृत्व में तमाम युवा कलाकार छात्र भवन में हो रहे नाट्य समारोह का विरोध करने वाले थे। क्योंकि कला भवन एक सरकारी संस्था थी और इसके कार्यक्रम जनता और उसके अपने कलाकारों से मुँह मोड़े रहते थे। इसमें दर्शक श्रोता अफसर वगैरह होते और कलाकार विदेशी मेकअप में ऐंठे रहने वाले। यहाँ शराब की झमाझम
बारिस और रासलीला के प्रयत्न की सुरसुरी समय-असमय हर समय देखी जा सकती थी।

विनोद ने कहीं से कार्यक्रम का पास उपलब्ध कर लिया था। योजना यह थी कि वह हमारे विरोध के पर्चों का बंडल झोले में छुपाकर भीतर हो जायेगा।और भीतर जितना हो सकेगा बांटेगा ,बाकी लोग बाहर नारेबाजी करेंगे। कलाभवन की कमर तोड़ने की अब हम ठान चुके थे...।

तो मंडली के लोगों का एक रूप था बौद्धिक ,मस्त और निर्भय।

जिंदादिली की रोशनाई में डूबी कलमें थे हम।

पर हम और भी कुछ थे। कहीं कुछ बुरा देखें,बुरा सुनें - हम क्रोध से काँपने लगते। इतने अजीब थे हम कि खुद ही गलत कह या कर जाते तो खुद पर ही ख़फा होने लगते।

हम पोस्टर चिपकाते। नारे लगाते। हम जुलूसों में जाते, सभाओं में होते । हम पुलिस और गुप्तचरी के रजिस्टर में दर्ज थे। सचमुच हम पढ़ाकू और लड़ाकू थे।

हम गर्म सिंदूर पर पक रही रोटियाँ थे।

लेकिन हम ऊपर उड़ते गैस-भरे रंग-बिरंगे गुब्बारों की तरह थे। हम उड़ रहे थे...हम उड़ रहे थे...उड़ते-उड़ते हम ऐसे वायुमंडल में पहुँचे जहाँ हम फूट गये। अब हम नीचे की ओर गिर रहे थे। अपना संतुलन खोए हम नीचे की ओर गिर रहे थे। हमारा क्या होगा ,हमें पता नहीं था...।

हमें नौकरी मिल नहीं रही थी जबकि वह हमारे लिये सांस थी इस वक्त।

उपमा मुझसे उखड़ी-उखड़ी रहने लगी। जब भी मिलती मशविरा देती कि मुझे कंप्टीशन की पढ़ाई और मेहनत से करनी चाहिये।इस पर मैं क्रद्ध हो जाता हो जाता। धीरे-धीरे हमारे सम्बन्धों के पाँव उखड़ने लगे...।

सदानन्दजी भी मंडली से दोस्ताना अंदाज में नहीं मिलते। वह मंडलीपर दया करने लगे थे।

अब हम भोजन के लिए लाल-तिकड़म नहीं करते थे। न होने पर भूखे रह जाते। उधार लेने का मनोबल भी हम खो चुके थे।

कोई हमसे पूछता ,क्या कर रहे हो? तो प्रत्युत्तर में हम काँपने लगते।किसी से मिलने के पहले ही हमारी दिल की धड़कन तेज हो जाती कहीं पूछ न लिया जाये ,क्या कर रहा हूँ मैं।

आपस में मिलना भी कम होने लगा। हम परस्पर कतराने लगे।हमारे बीच मुहब्बत बदस्तूर थी पर बातचीत में हम कटखने हो गये थे।एक बार हम छुट्टियों में अपने-अपने घर गये। लौटने पर हम सभी थके और हारे हुये लग रहे थे। हमने अपने माता-पिता-परिचितों को निराश किया था जिससे वे चिढ़ गये थे।उन्होंने हमें हिकारत से देखा था और हम हार गये थे।थक गये थे।

फिर भी हमने तय किया था कि हम घर चले जायेंगे।हम 'कुटिया ' पर इकट्ठा होने वाले थे-अपने-अपने घरों को प्रस्थान करने के लिए।

हम खुशी या फायदे के किए नहीं वापस हो रहे थे। हम मजबूर थे।क्योंकि यहां तो जीना मुहाल हो गया था। गुजारा मुश्किल था।


बाद की कहानी यह है कि हम कुटिया पर इकट्ठा हो गये थे। विनोद का यह कमरा आधुनिक शैली का था पर उसकी जीवनपद्धति ने इस आधुनिकता का कबाड़ा कर दिया था। किताबें और कपड़े हर जगह फैले हुए थे।उसने हर जगह रंगीन तस्वीरें चिपका रखी थी। चेग्वारा की बगल में एक सुन्दरी कूल्हे मटका रही थी...

सबसे पहले त्रिलोकी बहका। वह हाथों में शराब का गिलास लेकर खड़ा हो गया और बोला ,"भाइयों और बहनों!"

"नेताजी यहाँ कोई लौंडिया नहीं है।" प्रदीप चिल्लाया। वह भी हल्के ,बहुत हल्के शुरूर में आ गया था।

"बड़े अफसोस की बात है।"त्रिलोकी दुखी होकर बोला," यह भारतवर्ष के लिये बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि हम जैसे महान युवकों के पास न प्रेमिकायें और न नौकरियां।हम किसके सहारे जियें?"

"मैं जानता हूँ...।जानता हूँ...।लो मैं बैठ जाता हूँ।..पब्लिक साली अब समझदार हो गई है...सवाल-जवाब करने लगी है..."

"सवाल-जवाब ही तो नहीं कर रही है जनता वर्ना हमारी यह दशा नहीं होती...।'दीनानाथ ने धीमे से अपने से ही कहा।

त्रिलोकी को छोड़कर बाकी मंडली अभी नशे में नहीं थी। नशे की पूर्वावस्था में सुरूर में थी।

"आखिर हम यहाँ इकट्ठे क्यों हुए हैं? "मदन मिश्र साहित्यिक अंदाज में बोला । मैंने कहा,"हम यहाँ विदाई समारोह के उपलक्ष्य में एकत्र हुए हैं।"

"नहीं।" प्रदीप ने बताया ."यह बैठक हमारे सुख की शोकसभा है। हमारे पास जो भी सुख था इस बैठक के पहले खत्म हो गया।कल से हम दुखी दुनिया के नागरिक होंगे।"

"हम नागरिक नहीं हैं। दुखी दुनिया के नागरिक मजदूर और किसान होते हैं जिनके श्रम का शोषण होता है। हमारे पास तो सामजिक श्रम करने का भी अधिकार नहीं है। "त्रिलोकी तैश में आ गया था,"जिनके पास कोई काम नहीं होता ,वह आदमी नहीं होता। हम आदमी नहीं हैं,...इस व्यवस्था ने हमें आदमी नहीं रहने दिया...हमसे हमारा होना छीन लिया गया...।" त्रिलोकी सुबकने लगा। वह सिर झुकाये सुबक रहा था।

जैसे काठ मार गया हो, हम सब स्तब्ध हो गये। इस बात को कृष्णमणि ने सबसे पहले भाँपा। वह आहिस्ते से त्रिलोकी के पास गया और उसके लटके हुये मुँह से एक सिगरेट लटका दी, नेताजी,ईश्वर एक दिन तुम्हारी सुनेगा जरूर। तुम इसी तरह भाषण करो लेकिन भाषण के बीच में सुबकना छोड़ दो तो एक दिन सच्ची-मुच्ची में नेता बन जाओगे और मौज करोगे।"

"हम एक दिन मर जायेंगे और कोई जानेगा भी नहीं।"

विनोद मेजबानी भूला नहीं ,"आप लोगों में जिसके गिलास खाली न हों ,कृपया उन्हें जल्द खाली कर लें। यह साकी जाम का दूसरा पैग ढालने के लिये उतावला है।"

"काश ,हम आज किसी रूपसी के हाथ पीते तो रात कितनी हसीन होती।"रघुराज था।

"मार साले को ।" हमने चौंककर देखा ,प्रदीप था। उसे भी चढ़ गई थी।उसने फिर कहा ,"मार साले को" और चुप हो गया।

मैंने पूछा,"किसे मार रहे हो।"

"अपने दोस्तों के लिये नहीं कर रहा हूँ ।बस।मार साले को।"

हम दूसरा पैग पीने लगे। रात और ठंड दोनो बढ़ गई थी। दीनानाथ ने उठकर खिड़कियाँ बन्द कर दीं। हमने सिगरेट सुलगा ली। उनका धुआँ कमरे में घुमड़ने लगा।मदन ने घूँट लेकर सिगरेट पी और कहा,"रोज़ मेरी मृत्यु होती है। रोज़ कई-कई बार मेरी मृत्यु होती है। कोई मुझसे पूछता है,'तुम क्या करते हो?'और मैं मर जाता हूँ।"

"मार साले को।" प्रदीप धुत होने के करीब पहुँच चुका था। वह किसे मारना चाहता था?

"तुम लोग समझते होगे,मैं नशे में हूँ लेकिन मैं होशोहवास में कह रहा हूँ।बेरोजगारी के कारण मैं कई-कई बार रोया हूँ। पिछली बार का रक्षाबन्धन था। बहन को देने के लिये मेरे पास कुछ नहीं था। भाई उसके लिये कपड़े ले आये थे। मेरे पास कुछ नहीं था। बहन ने मेरे सिरहाने की किताब में चुपके से सौ का नोट रख दिया।वह नोट अब भी मेरी डायरी में रखा है। मैं उसे देखता हूँ और उदास हो जाता हूँ।" कृष्णमणि अपने चेहरे पर हाथ पोछने लगा।

"माँ -बाप दो आँखे नहीं करते -यह झूठ है।" विनोद ने एक साँस में कह डाला ,"मेरे माँ-बाप मेरे कमासुत भाई की चापलूसी तक करते हैं पर मुझे देखकर जलभुन
जाते हैं।"

"और मैं।मेरा पिता से कोई संवाद नहीं । एक दिन उन्होंने गुस्से में चीखकर कहा,'लोग पूछते हैं कि तुम्हारा बेटाक्या करता है? मैं क्या बताऊँ उन्हें?बोल।जवाब दो। बोल।' बस, इसी दिन से हम एक दूसरे से नहीं बोले।"

दीनानाथ आँखें स्थिर कर कुछ देर सोचता लगा। कहीं खो गया था वह।

"लो मैं भी बता देता हूँ।" रघुराज ने अपना सिर उठाया, उसकी आँखें सुर्ख लाल थीं'मैं अपना रहस्य खोलता हूँ। अब हम जा रहे हैं ,तो क्या छिपाना। मैं लड़कियों के पीछे कभी नहीं भागा। मैं एक कपड़े की और एक दवा की दुकान पर पार्टटाइम काम करता रहा।मालिक मुझे ढाई सौ रुपये का चाकर समझते रहे।मैं...मैं...।" वह चुप हो गया,
उसकी आवाज फंसने लगी थी।

मंडली अवाक थी रघुराज की बात से। रघुराज ने अपना चेहरा फिर घुटनों में छिप लिया।

हम सभी ने अपने रामकहानी कही।हमने तीसरा पैग लिया। हमने चौथा पैग पिया। पाँचवाँ पिया...। हम लुढ़कने लगे।

विनोद ने कहा,"हम खाना कैसे खायेंगे?"

"भविष्य में हमें भूखे रहना है,हम आज भी भूखे रहेंगे।"मदन डाँवांडोल होते हुये उठ खड़ा हुआ। हम सभी खड़े हो गये।

हम कुटिय के बाहर खड़े थे, अलग-अलग दिशाओं में जाने के लिये।रात गाढ़ी थी और हवा सरसरा रही थी।हमारे मुँह बन्द और चेहरे भिंचे हुये थे।

"अच्छा दोस्तों!" रघुराज ने गला साफ करते हुये दुबारा कहा, "अच्छा दोस्तों! अब विदा लेते हैं...।"

एक क्षण सन्नाटा रहा फिर अचानक हम सब जोर से रो पड़े। हम सारे दोस्त फूट-फूटकर रो रहे थे.....

उस दिन अलग होने के पहले हमने तय किया 'हममें से यदि कोई कभी सुखी हुआ तो सारे दोस्तों को ख़त लिखेगा।'

लम्बा समय बीत गया इंतजार करते, किसी दोस्त की चिट्ठी नहीं आई। मैंने भी दोस्तों को कोई चिट्ठी नहीं लिखी है।