Thursday, June 30, 2005

माज़रा क्या है?



मैं सन्‌ २०२० तक भारत को विकसित राष्ट्र के रुप में देखना चाहता हूं।अपनी क्षमताओं का समुचित उपयोग करके हम यह लक्ष्य हासिल कर सकते हैं।*डा.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम
भारतवर्ष में अराजकता और अस्तव्यस्तता को झेलने की असाधारण क्षमता रही है। इसी तर्ज पर आप कह सकते हैं कि देश में लोकतंत्र का जो वर्तमान है वही भविष्य है। निकट भविष्य में मुझे किसी खास बदलाव के आसार नजर नहीं आते।*श्रीलाल शुक्ल
Akshargram Anugunj
जब से मैं अनुगूँज में लिखने की सोच रहा हूँ तबसे उपरोक्त दोनों कथन मेरे सामने जमें हुये हैं। किसको सही मानूँ । दोनों के तर्क हैं। दोनों अपने-अपने क्षेत्र के महारथी हैं। अनुभव-समृद्ध हैं।महामहिम राष्टपति जी ने तो विकसित बनने का पूरा ‘ब्लू-प्रिंट’ तक बनाया है तथा अपने कार्यकलाप में इसके प्रति अपनी आशा व प्रतिबद्धता दिखाते रहते हैं। पर जो लोग भारतीय जनमानस के चितेरे है वे महामहिम के सभी तर्कों से सहमत होने के बावजूद श्रीलाल शुक्ल जी के विचार से इत्तफाक रखते हैं।समझ में नहीं आता —माज़रा क्या है?
महामहिम जी से तो मिलना संभव न हुआ पर सोचा कि श्रीलाल शुक्ल जी से पूछा जाये कि ऐसा कैसे कहते हैं कि देश में अराजकता और अस्तव्यस्तता को झेलने की असाधारण क्षमता है तथा भविष्य में किसी बदलाव के आसार नजर नहीं आते। पूछने पर शुक्लजी ने अपनी बात साफ की- देश में आठवीं सदी के बाद हर्षवर्धन के बाद से लेकर अकबर के समय तक (लगभग ६ शताब्दी) पूरे देश में अफरा-तफरी मची रही। लोग आते-जाते ,लूट-पाट करते रहे। बसते-उजड़ते रहे।छोटे-छोटे राजा,रजवाड़े जिनकी कभी भी समन्वयक दृष्टि नहीं रही।फिर अकबर ,जहाँगीर,शाहजहाँ,औरंगजेब के बाद से आजादी की पहली लड़ाई तक भी(लगभग २ शताब्दी) पूरे देश में किसी का अखंड राज्य नहीं रहा। जनता भगवान भरोसे जीती रही। तमाम दैवीय मानवीय आपदायें झेलती रहीं । कहीं किसी जगह से बदलाव के सामूहिम सार्थक प्रयास नहीं हुये। इसीलिये मेरा मानना है कि हमारे देश में अराजकता और अस्तव्यस्तता को झेलने की असाधारण क्षमता है तथा भविष्य में किसी बदलाव के आसार नजर नहीं आते।
अतीत की बात प्रथम दृश्ट्या सच लगते हुये भी भविष्य भी अतीत जैसा ही मानने का मन नहीं होता। पर विसंगतियां हैं कि मुँह बिराती हैं। कहती है कि कहाँ तक मुंह चुराओगे सच से। देखा जाये तो विसंगतियां हर समाज का हिस्सा होती हैं। सन्‌ ३० के दशक में शायद बालकृण्ण शर्मा ‘नवीन’ ने लिखा था:-
श्वानों को मिलता दूध भात,भूखे बच्चे अकुलाते हैं,
माँ की छाती से चिपक,ठिठुर जाड़े की रात बिताते हैं।

उस समय के कवि की कूवत रही होगी की वह यह देखकर दुनिया में आग लगाने की सोचने लगता था। समय के साथ यह कूवत कम होती गयी तथा कवि गीत-फ़रोश बनने पर मजबूर हो गया:-
यह गीत भूख और प्यास भगाता है,
जी यह मसान में भूत जगाता है,
यह गीत भुवाली की है हवा हुजूर,
यह गीत तपेदिक की है दवा हुजूर,
जी और गीत भी हैं दिखलाता हूँ,
जी सुनना चाहें आप तो गाता हूँ।

समाज में विसंगतियां बढ़ती जा बढ़ती जा रही हैं। अनगिनत उदाहरण हैं। हम भूखे नंगे देश हैं। खाये-पिये-अघाये का अनुकरण कर रहे हैं। जब मै ‘हम’ की बात कर रहा हूं तो उसमें देश का बहुसंख्यक तबका शामिल है जिसके खाने-पीने-जीने की स्थितियां दिन पर दिन भयावह होती जा रही हैं।
यह वह तबका है जिसे यह पता नहीं कि कैसे हालात सुधरेंगे। जैसे-तैसे दिन काटना ,बस जिये-जिये रहना। इन्ही की बात शायद मेराज़ फैजाबादी कहते हैं जब वे कहते हैं:-
चाँद से कह दो अभी मत निकल,
अभी ईद के लिये तैयार नहीं हैं हम लोग।

तथा
मुझे थकने नहीं देता जरूरत का पहाड़,
मेरे बच्चे मुझे बूढ़ा नहीं होने देते ।

अजब माज़रा है कि हमारी ज़रूरते दूसरे तय कर रहे हैं। वे -जिनको हमारे सुख-दुख से कोई मतलब नहीं। एक विज्ञापन में दिखाया जाता है कि लंबी लाइन लगी है। पी.एस.पी.यू.पंखा खरीदने के लिये। एक नया आदमी पूछता है कि ये पी.एस.पी.यू.क्या होता है ? तो वहीं पहले से लगा आदमी भागता,चिल्लाता हुआ कहता है-ये पी. एस. पी. यू. नहीं जानताऽऽऽ। घबराकर वह आदमी भी लाइन में लग जाता है यह कहते हुये कि मैं तो मजाक कर रहा रहा था। यह बाजार का आतंक है जो आदमी की जरूरते तय कर रहा है। पैसे नहीं हैं कोई बात नहीं लोन तो है ही।ले लो लोन हम तुम्हें खुशहाल बना के ही छोड़ेंगे।
बहुत दिन नहीं हुये जब हमारी बुजुर्ग पीढ़ी अपनी शादी के सूट को बुढ़ापे तक पहनती थी। आज हालात में सुधार आया है। अब हम एक पार्टी में पहनी हुयी शर्ट दूसरी पार्टी में पहन के जाने की हिम्मत नहीं कर पाते। कहा जाता है-पिछली पार्टी में भी तो यही पहनी थी। विकसित देशों में शायद मामला और आगे है -सुना है वहां के लोग हर पार्टी में साथी बदल लेते हैं।
दुनिया का लगभग हर देश कई शताब्दियों में एक साथ जी रहा है। हमारा देश चूंकि ज्यादा विभिन्नतायें समेटे है लिहाजा यहां शताब्दियों का कोलाज ज्यादा बड़ा है। यदि किसी इमरानाको पांच बच्चे जन चुके पति को बेटा मानने का हुक्म पंचायते सुनाती हैं तो वहीं लड़कियां दूल्हे की हरकतों से झुब्ध होकर बारात दरवाजे से लौटाने की हिम्मत भी दिखा रही हैं। दंगों के दौरान अगर चोटी,खतना देखकर मारने तथा धर्म का प्रसार करने की मनोवृत्ति लौट रही है तो वहीं जानपर खेलकर लोगों को बचाने का जुनून भी पीछे नहीं है।अंधेरे बढ़ते जा रहे हैं, हालात बदतर होते जा रहे हैं लेकिन कुछ रोशनियां भी अक्सर दिखाई देती हैं जो सारे अंधेरे की बत्तियां गुल कर देती हैं।
देश की बिडम्बना है कि आम आदमी शिदृत से बदलाव की जरूरत नहीं महसूस करता। तथा जो मध्यवर्ग यह समझ जगा सकता है वह अपने में, बीबी बच्चों में मस्त हैं । उससे भी और बुद्दिमान जो लोग हैं वे इस पचड़े में भी नहीं पड़ते। बहुत ज्यादा बुद्धि अक्सर निष्क्रियता ,अलाली, यथास्थितिवाद की गोद में जा बैठती है।कुछ ऐसे ही बुद्धिमान लोगोंसे राष्ट्रपति महोदय पूछते हैं आप देश के लिये क्या कर रहे हैं?
हर समाज का बहुसंख्यक समुदाय पिछलग्गू होता है। वह देखा-देखी काम करता है। उसे अगर प्रगति के पथ पर चलने वाले लोग दिखेंगे तो वे उधर भी चलेंगे। पर आदर्श प्रस्तुत करते समय खालिस लखनौवे हो जाते हैं-पहले आप,पहले आप।इसी में गाड़ी छूट जाती है।नेता लोकसेवक को दोष दे रहा है,लोकसेवक कहता है कि सारी गड़बड़ी राजनेता करता है देश में,जनता बेचारी समझ नहीं पा रही है माज़रा क्या है?
ऐसा नहीं कि लोग परेशान न हों ।लोग परेशान है मगर आराम के साथ ।बकौल अकबर इलाहाबादी:-

कौन से डर से खाते हैं डिनर हुक्काम के साथ,
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ।

माज़रा यह हैं कि सही स्थिति का अन्दाजा उसे भी नहीं हो रहा है जो इस झमेले में फंसा है,लिहाजा परिवर्तन के लिये कोई आवाज नहीं उठती।बकौल कन्हैयालालनंदन:-
वो जो दिख रही है किश्ती ,इसी झील से गई है,
पानी में आग क्या है, उसे कुछ पता नहीं है।

वही पेड़ ,शाख ,पत्ते, वही गुल -वही परिंदे,
एक हवा सी चल गई है ,कोई बोलता नहीं है।

इतिहास जैसा भी हो लेकिन मेरा यह मानने का मन नहीं करता कि भविष्य भी वैसा ही होगा। कोई गणित नहीं होता प्रगति का।कोई एकिक नियम नहीं होता कि सौ साल में दस कदम चले तो दो सौ साल में बीस कदम चलेंगे। मेधा किसी कौम की बांदी नहीं होती। मेरा मानना है कि लगन तथा मेहनत किसी भी कमी को पूरा कर सकते हैं। मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि दो व्यक्तियों ,कौमों में उन्नीस-बीस,पंद्रह-सोलह का अंतर हो सकता है सौ-दो सौ का अंतर कभी नहीं होता । जो यह मानता है वह मेहनत ,लगन,समर्पण की ताकत से बेवाकिफ है।
मेरा तो मानना है कि हम जहां हैं जिस स्थिति में हैं वहीं से जो ठीक समझते हैं वह करते रहें । बहुत छोटी कोशिशें न जाने कब बड़ी सफलताओं में बदल जायें। काफिले की शुरुआत भी अकेले से ही होती है। सफलता -असफलता का मूल्यांकन आगे आने वाला समय करेगा। अभी न कुछ शुरु किया तो जिंदगी बीत जायेगी सोचते-सोचते -माज़रा क्या है?

मेरी पसंद

आइए,टाइम पास करते हैं
दीवारों से बात करते हैं
सितारों से बात करते हैं
केरल के मछुवारों से बात करते हैं
आप थक गये हैं तो कहिये
दिल्ली के गद्दारों से बात करते हैं।
हावर्ड युनिवर्सिटी से सीखकर आते हैं
कुछ लोग
वतनफरोशी का अर्थशास्त्र
क्यों हो जाती है अचानक रसोई गैस मंहगी
और मोटरकार सस्ती
आइये वित्तमंत्री की भाषा में बात करते हैं।
मैं जानता हूं
आपको नींद नहीं आती
बहुत खतरनाक होती है
नींद की बीमारी
उससे भी ज्यादा
खतरनाक होती है भूख
अगर आपको कोई खास एतराज न हो
आइए,आज भूख पर बात करते हैं।
प्रकृति में कितने रहस्य हैं
और हिंदुस्तान में कितने समाजवाद
इस पर बात करते हैं
पता नहीं
कैसा लगता होगा
कालाहांडी में ढलती शाम का दृश्य
कलकत्ता को सिंगापुर बनाने वाले
अंग्रेजों को फिर से बुलाने वाले
बंगाल के कम्युनिस्टों से बात करते हैं।
बातें करने के लिये बहुत हैं ,मेरे भाई!
वकील साहब की फीस
खजुराहो में कैसीनो
दुबई के फोन
करोड़पति लेखक
न समझ में आने वाली कवितायें
उत्तरप्रदेश के डाकू
बिहार के विधायक
आजादी का जश्न
पसंद आपकी,धीरज आपका
जब तक आप चाहें,बाते करते हैं।
बात ही तो करनी है
खौफ में डूबे हुये शख्स की
कर्ज में डूबे मुल्क की
जितना चाहें,उतनी बात करते हैं
आप चाहें तोदबी जुबान में बात करते हैं
आप चाहें तो इन्टरनेट पर बात करते हैं
आइये ,टाइम पास करते हैं
चलिये अच्छा ईश्वर पर बात करते हैं।
–अक्षय जैन,मुंबई

8 responses to “माज़रा क्या है?”

  1. पंकज
    यह बाजार का आतंक है जो आदमी की जरूरते तय कर रहा है।
    बहुत बढ़िया, अमरीका देश में यह आंतक अपनी चरम सीमा पर है। मेरी कार तेरी कार से अच्छी है। यहाँ कर हर आदमी कर्ज से डूबा है। किराए पर रहने वाले कर्ज में नहीं पर घर खरीदने के सपने देखते हैं। अब क्या कहूँ। फिर कभी।
  2. eswami
    गुरुदेव,
    आप हकीकत जानते ही हो, और शानदार तरीके से लिखे, वैसे ही दुखी मन से जैसे की मैंने; फिर आखिरी पेरे में इधर आशावाद का पोछा लगा कर उधर मुझे कहते हो स्वामी तुम ऊल्-जूलूल पेले!
    ये क्या माजरा है? माजरा नही है गोरखधंधा है!! आपने वो रिपोर्टें पढीं जिनकी कडियां मैंने दी थीं – मैंने जो भी कहा वो उन जैसी शोध की रिपोर्ट्स के आधार पर कहा , मनगढंत नही!
    आप मुझे एक बात बताईये – हमारे देश मे अरेन्ज्ड शादी-ब्याह के समय परिवार-खानदान देखा जाता है – तो क्या देखते है बडे-बुजुर्ग? भई जिनेटिकल पेटर्न, बिहेवियरल पेटर्न ही तो देखते हो ना! वही मैं भी बोल रहा हूँ – अपनी देसी जीन में थोडी बहुत काम चलाउ अक्ल है पर उसके इस्तेमाल की भी तमीज नही है, इतिहास का पेटर्न देखो ना आप!
    पहले भी कुछ प्रबंधन, प्रशासन की तमीज गोरे सिखा के गए और आगे भी वो बाहर के देखा देखी ही सीखी जाएगी. खरबूजे को देख के खरबूजा रंग बदलेगा – अपनी भली निबेडने की तमीज भी जो है ना, वो भी पिछलग्गुगिरी से ही आएगी – आ रही है! अपनी भाषा से प्रेम ये देख कर आएगा की वो उनकी भाषा से कितना प्रेम करते हैं – यह प्रतिक्रियात्मक भलाई है बहुत हद तक! ये जितने भी नए सुधार हो रहे हैं ना वो बहुत हद तक बाहर के देखा देखी मे हैं! अब हर घर से एक-आध पुत्तर इधर H1/B1/L1 visa पे कंप्युटर संभाल बैठा है तो हवा तो लगेगी ना उधर कुछ! :)
    मै बाजारवाद का हिमायती नहीं हूँ पर आज के समय में बाजारों पर पकड ही कौमों के पुरुषार्थ का पैमाना है – हमारी मर्दानगी देखो, अपना काम करने के लिए भी रिश्वत लेता है भारतीय, पूरे हक के साथ. भारतीय २१,००० करोड सालाना रिश्वत देते हैं. आज की खबर है.
    कोई भी समझदार कौम ऐसी घटिया हरकत करेगी बताईये? attitude, approach, जीवन मे कुछ कर गुजरने की तमीज एक दिशा देने का बल भी कोई चीज होती है – हम मे नही है! ज्यादा दिन नही हुए जब बिहार में IITian इन्जीनियर को जान से मार दिया गया था. बहुत इज्जत होती है पढे लिखों की – है ना? और अगर कभी गलती से होने लगे तो उनके अहं से खुदा डर जाए! २ कौडी का काम करेंगे और २ दिन का समारोह कर के लोकार्पण होगा हिंदी फाण्ट्स का! हद्द है यार.
    पूत के पाँव तो पालने मे दिख जाते हैं – हमरे नेहरु और जिन्ना ने ही भविष्य का ट्रेलर दिखा दिया था आगे क्या हुआ वो आपने हम से ज्यादा देखा भोगा है!
    कोई गणित नहीं होता प्रगति का।कोई एकिक नियम नहीं होता कि सौ साल में दस कदम चले तो दो सौ साल में बीस कदम चलेंगे। मेधा किसी कौम की बांदी नहीं होती।
    हम मे अकल है ये बात किसी दिन जर्मनी या जापान वाले को बोलने दो, जिस दिन कोई मर्सीडीज/बीएमडब्लू या सोनी/होंडा बनायेगा देसी और दुनिया में झण्डे गाड देंगे उत्पाद – मान लेंगें कुछ दम है. जिस दिन निंबुपानी का कोई ब्राण्ड कोका-कोला की टक्कर में अमरीका में उतार देंगे और उनके गले में नीचे भी – मान लूँगा. अभी तो दो दिन में १ बार २० मिनट पानी आता है भारत में और तीस पर भी जनता शुक्र मनाती है!
    आपका ये टिपिकल भारतीय आशावाद मेरी समझ और तार्किकता के परे है – खोपडी के टोटली बाहर की चीज है! आप यथार्थपरक और विश्लेषक होते हुए किस आधार पर इतने आशावान हो की हम बिना बाहर से कुछ गुर सीखे ही आगे बढ लेंगे? मुझे तो नही लगता!
  3. अनुनाद्
    अनूप भाई , आपकी “टिप्पणी पर टिप्पणी” भी बहुत असरदार है | इसकी हर बात मुझे पाण्डित्यपूर्ण और तर्काधारित लगी |
    अनुनाद
  4. आशीष
    अनूप भाई, आपका लेख पढ कर दोनों आशा और निराशा जागृत हुये। मेरा मानना है कि निराशा का दौर इसी तरह से शायद नहीं चल पायेगा। और आपकी ये बात रही है कि अगर समझदार और पढ़े लिखे लोग ही उदाहरण पेश नहीं कर पायेंगे तो बहुसंख्यक समाज का कुछ नहीं होगा। ज़िम्मेदारी हम लोगों पर है। आम आदमी समाज में लोगों को देख कर काम करता है और उसके लिये अच्छे उदाहरणों का होना आवश्यक है जिसकी भरपायी हम लोग ही कर सकते हैं। और जहां तक भावना का सवाल है, भावना का होना आवश्यक है एक सीमा तक, क्योंकि बिना उसके काम करने में मज़ा नहीं आता है। और ये बात भी सही है कि मेधा किसी की बपौती नहीं। मिल कर जुट कर काम करने की ज़रूरत है, होंडा, बी एम डब्लू तो क्या और भी बहुत अच्छा सामान बनेगा। अगर मेधा न होती तो संस्कृत जैसी भाषा, गणित, शून्य, दशमलव, पाई का मान, खगोल शास्त्र इत्यादि का वर्षों पहले विकास न हुआ होता। उदाहरण के लिये आज रूस और आसपास के देशों का बुरा हाल है लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि वहां के लोग गधे हैं। ये वही लोग हैं जिन्होंने अमेरिका से कई साल पहले मीर अन्तरिक्ष स्टेशन बना लिया था वो भी अमेरिका से काफ़ी कम खर्च पर। हमारे यहां दबी हुई मेधा को उभारना है, और उसके लिये शिक्षा, उत्तम शिक्षा की आवश्यकता है और आवश्यकता है कुछ लोगों की जो कि उदाहरण बना सकें।
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  7. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
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Monday, June 27, 2005

दीवारों का प्रेमालाप



कल कुछ संयोग हुआ कि हम अपने एक मित्र की कन्या के लिये वर टटोलने गये।टटोलने इसलिये कि दोनों पक्ष एक दूसरे को टटोल रहे थे। लड़की की लंबाई, गोरापन, नैन-नक्श तो फोटो में आ जाते हैं वहाँ ज्यादा सवाल नहीं रहते सिवाय इसके कि फोटो कब,कहाँ ,किससे खिंचवाये ? इससे भी कि काफी कुछ पता चल जाता है लड़की वाला कितने पानी में है। लड़का कहीं अमेरिका में था। बी.ए. करने के बाद किसी मैनेजमेंट इन्सटीट्यूट से डिप्लोमा करने के बाद विदेश चला गया। वर के पिता जानना चाह रहे थे कि कन्या कितनी धड़ल्ले से अंग्रेजी बोल सकती है। हम बताने में जुटे थे कि कन्या ने बी.एस.सी. की पढ़ाई की है। भारत में अभी राजभाषा इतनी समर्थ नहीं
हुई कि बी.एस.सी. की डिग्री दिला दे। लिहाजा काम भर की अंग्रेजी जानती है। लेकिन वे जांच अधिकारी की तरह अंग्रेजी में कन्या की गति जानने का प्रयास कर रहे थे। हमारी दुर्गति हो रही थी। नीट अंग्रेजी बोलनी पढ़ रही थी। आधे घंटे में ही सर भन्नाने लगा। चाय आई नहीं थी । मैं हिंदी का चिट्ठाकार अपराध बोध के साथ अंग्रेजी बोल रहा था।चौथी मंजिल में होने के कारण यह भी नहीं मना पा रहा था कि हाय यह धरती फट क्यों नहीं जाती-जान का खतरा था। खैर हमें उबारा वर की माँ ने जो चाय लेकर पधारीं।
हमने उनको नमस्ते किया वे बहू भले अंग्रेजी बोलने वाली चाहती हों पर बोलने में उनका भी साम्राज्य ‘एक्चुअली’, ‘एडजस्ट’,’ इकोनामिक्स’ तक ही था।इसके आगे हिंदी का कब्जा था उनके भाषा क्षेत्र में। वे मुझे बड़ी भली तथा प्यारी लगीं – भारत सरकार की तरह जिसने ढेर सारे हिंदी फान्ट जारी करके हिंदी की प्रगति का रास्ता खोल दिया हो।फिर तो धीरे-धीरे हिंदी का साम्राज्य फैल गया। हम ‘फीलगुडावस्था’ को प्राप्त हुये।अंग्रेजी के आतंक से हम मुक्त होकर चैन की दो-चार सांस ही ले पाये होंगे कि हम पर कन्या की ‘प्रोफेशनल क्वालीफिकेशन’ के सवालों ने हल्ला बोल दिया। हम अगर-मगर, किंतु-परंतु की बल्लियों से प्रश्न-सागर को पार करने का प्रयास कर रहे थे पर हर क्षण यह लग रहा था कि अब डूबे तब डूबे। मैंने यह भी बरगलाने का प्रयास किया कि देखिये मैं अपने जमाने का बहुत मेधावी छात्र रहा हूं लेकिन आज हालत यह है कि अपने पर तकनीकी ज्ञान की कोई स्पर्शरेखा तक नहीं पढी है। इस सबसे कुछ नहीं होता । असल चीज है बुद्धि जो कि लड़की में कहीं से कम नहीं है। काम भर की है।उनको लगा कि शायद मैं कन्या के बहाने अपने को बुद्धिमान साबित करने का प्रयास कर रहा हूँ। आगे जो कुछ उन्होंने कहा उससे साफ जाहिर हो रहा था कि उन्होंने मेरी तकनीकी अज्ञानता की बात तो उदारता पूर्वक मान ली लेकिन बुद्धिमान बनने के प्रयास को निष्ठुरता पूर्वक ठुकरा दिया। विचित्र किंतु सत्य कि इसमें मेरे मित्र की भी सहमति सी दीख रही थी – जिनकी कन्या के लिये मैं बिना पैसे की वकालत कर रहा था।
बहरहाल बातें वही हुयीं जो होती हैं।लड़का फोटो देखेगा फिर बाकी बाते लड़के के घर वाले करेंगे। सब बात हो चुकने के बाद नये जमाने, पुराने जमाने की बात चली। कुछ ‘शिष्टा’ की भी कि शादियां स्वर्ग में तय होती हैं वगैरह-वगैरह।वहीं मुझे यह भी ख्याल आया कि क्या स्वर्ग का पैकेजिंग सिस्टम इतना गड़बड़ है कि जोड़े को एक साथ नहीं भेज सकते ! भटकन से बचाव हो। फिर याद आया कि शायद दोनों की उम्र में अंतर के कारण जोड़े को एक साथ नहीं डिस्पैच किया जा सकता।पर अब शायद टैगिंग से कुछ सहूलियत हो लोग अपने जोड़े को खोज सके आसानी से बशर्ते वहां स्वर्ग वाले कुछ जानते हों टैगिंग के बारे में तब है।
लड़की-लड़के के इंच-दर-इंच मैच पर भी कुछ वाक्यों का आदान-प्रदान हुआ। लड़की 5’3” है अगर 5’4” होती तो वी कुड हैव गान फार इट। बाकी सब ठीक है -द गर्ल इज गुड ,हर कैरियर इज एक्सलेंट विद फोर फर्स्ट क्लास (आनर्स) लेकिन अगर रंग थोड़ा फेयर होता तो हम लोगों को हाँ कहने में थोड़ी(पूरी तब भी नहीं) आसानी होती यह सब बातें बहुत प्रारम्भिक स्थिति की हैं वे हालात तो आगे के हैं जब 10 लाख की शादियां पाँच हजार के लेन-देन की कमी के कारण टूट जाती हैं। इसी क्रम में हमें भी कुछ मौका मिला तो हम भी उवाचे:-
मुझे तो कुछ समझ में नहीं आता । हमारी शादी के काफी साल हो गये। पंद्रह मिनट में शादी का निर्णय लिया था हमने। अब कुछ-कुछ ऐसा लगता है जैसे हम लड़के-लड़कियों का ‘डिसेक्शन’ करके उनके टुकड़े-टुकड़े करके उनको परखते हैं। उनके गुण स्पेयर पार्ट हो गये हैं। मैंने अक्सर देखा है कि ये स्पेयर पार्ट तो बहुत अच्छे लगते हैं ।सारी चीजें मानक (स्पेशीफिकेशन)के अनुरूप पर पता नहीं क्या होता है कि अक्सर इन स्पेयर पार्ट की असेंबली गड़बड़ा जाती है।
अपनी समझ में मैंने बड़ी गम्भीर बात कही थी पर न जाने क्यों सब लोग सब लोग हंस दिये ।हमें भी हंसना पड़ा-क्या करते!
हंसने को तो हम हंस लिये पर बाद में काफी रोना आया कि यहां लड़के जब पश्चिम की सारी बेवकूफियां सीख रहे हैं तो अपने आप शादी करना क्यों नहीं सीख रहे हैं। प्रेम विवाह क्यों कम हो रहे हैं। आजकल मैं देखता हूँ कि लोग प्रेम भी वोकेशनल कोर्स की तरह करते है। साल दो साल प्रेम किया फिर यादें तहा के रख दी और भारतीय संस्कृति का आदर्श अनुकरण करके मां-बाप के बताये खूँटे से बंध गये। बाद में खूँटा तुड़ा के फूट लिये।दहेज समस्या का समाधान यही है कि प्रेम विवाह को प्रोत्साहन दिया जाये। इससे भ्रष्टाचार भी काफी कम हो सकता है। क्योंकि ज्यादातर लड़कियों के बाप कहते हैं -भइया लड़की का बाप कमाई न करे तो क्या लड़कियां घर मेंकुंवारी बैठाये रखे?
शादी-विवाह तो शिष्टा-संस्कार की बात है। लेकिन प्रेम की बात तो की जा सकती है। मैं कभी प्रेम के पचड़े में नहीं पड़ा लेकिन उसके बारे में बात करने से नहीं हिचकता। वैसे भी प्रेम और क्रांति के बारे में सबसे ज्यादा अधिकार पूर्वक वही बोल सकता है जो इन पचड़ों में कभी न पड़ा हो।जो पड़ेगा वो वोलने लायक
कहाँ से रहेगा आजके जमाने में।
पर मैं कुछ कहूं इससे पहले वह देखें जो हमारे साथी नामाराशि साथी अनूप भार्गव कह चुके हैं। कुछ बेहद खूबसूरत कविताओं तथा गीतिकाओं के बाद ,प्रेम की पहली अमेरिकी सीढ़ी ‘डेटिंग’ के दौर के लिये जोर मारते हुये वे कहते हैं:-
मैं और तुम
वृत्त की परिधि के
अलग अलग कोनों में
बैठे दो बिन्दु हैं,

मैनें तो
अपनें हिस्से का
अर्धव्यास पूरा कर लिया,
क्या तुम केन्द्र पर
मुझसे मिलनें के लिये आओगी ?

मैंने बताया कि भाई वृत्त में कोने नहीं होते तथा परिधि पर केन्द्र नहीं होता। तो पहली बात तो मान ली गई (हालाँकि कह सकते थे कि वियोग में वृत्त का हर बिंदु शूल सा चुभ रहा है सो वह शूल कोना ही है)लेकिन दूसरी मानने से मना कर दिया कि दो कदम हम चलें की तर्ज पर केन्द्र में मिलेंगे। हमने सोचा अगली कविता में नजदीकी बढ़ेगी लेकिन पहली कविता में शुरु हुई डेटिंग दूसरी मेंबोल गई -दूरी बढ़ गई:-
मैनें कई बार
कोशिश की है
तुम से दूर जानें की,
लेकिन मीलों चलनें के बाद
जब मुड़ कर देखता हूँ
तो तुम्हें
उतना ही
करीब पाता हूँ

तुम्हारे इर्द गिर्द
वृत्त की परिधि
बन कर
रह गया हूँ मैं

यह कविता भी गणितीय /भाषाई विचलन का शिकार हो गई। वृत्त पर मीलों चलने के बाद अगर कोई किसी को (हमेशा )उतना ही करीब पाये तो इसका मतलब दूसरा शख्स केन्द्र पर है तथा केन्द्र से परिधि की दूरी निश्चित होती है जबकि इर्द-गिर्द में दूरी बदलती है। इर्द-गिर्द मतलब इधर-उधर ,आस-पास । कभी दूरी कम कभी ज्यादा जो कि परिधि तथा केन्द्र के मामले में नियत रहती है। लड़कियों के इर्द-गिर्द ही घूमना मतलब कुछ प्रयास जारी हैं। वृत्त मानकर किसी के चारो तरफ घूमना मतलब कोई प्रयास नहीं दूरी कम करने के। प्रेम जब इतना अकर्मण्य होगा तो दूरी कैसे कम होगी। ‘डेटिंग ‘ के आगे मामला कैसे बढ़ेगा! बहरहाल बिना किसी मकसद के इतनी मौज लेने के बाद हमें भी कुछ मन कर रहा है कि कविता ठेल दें ज्यामिति तथा अनूप भार्गव की कविताओं का सहारा लेकर।
तो पेश है कुछ तुकबंदियाँ:-
1.मजबूरी

तुम्हारे बताये अनुसार मैं चली तो थी
अर्धव्यास की दूरी तय करके तुमसे मिलने को
मैं पहुंचने ही वाली थी केन्द्र पर
कि एक जीवा (chord)रास्ते में आ गई
रोक लिया रास्ता उसने मेरा
मुझे साफ सुनाई दे रही तुम्हारी बेचैन सांसें
जीवा -जो कि वास्तव में व्यास था वृत्त का
फूल पिचक रहा था
हमारी सांसों के स्पंदन से
पर हम उसे पिघला न सके
कहीं कुछ कमी रही होगी
हमारी ऊष्मा में ।
मैं लौट आयी चुपचाप
उल्टे पैर परिधि पर
तुम्हारी सांसों की
गरमी का अहसास लिये।

2.संभावनायें

हम दोनों समकोण समद्विबाहु त्रिभज की
दो संलग्न भुजाओं
पर स्थित बिन्दु हैं
दूर भाग रहे हैं एक दूसरे से
९० डिग्री का कोण बनाये।
यह हमारा विकर्षण नहीं है
न कोई पलायन,
हम भाग रहे हैं उस विकर्ण(Hypotaneous) की ओर
जो इन भुजाओं को जोड़ता है
जिस पर चलने से हमारे मिलने की कुछ
संभावनायें बाकायदा आबाद हैं।

3. दीवारों का प्रेमालाप -एक हायकू
दीवारें बोलीं
आओ चलें उधर
कोने में मिलें।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

12 responses to “दीवारों का प्रेमालाप”

  1. eswami
    गुरुवर,
    अतुकान्तक कविता क्या होती है? वो जो तुकबंदी मे ना होवे या वो जिसका कोई तुक ना निकलता हो?? :)
    (उत्तर इधर देवें या निरंतर में, कहीं भी चलेगा!)
  2. विनय
    अनूप भाई,
    बहुते अच्छा लिखा है। अब मैं कहूँगा (शरद)जोशी जी की याद दिला दी तो मानोगे नहीं; पर सच है। व्यंग्य लेख पर व्यंग्य थोड़े ही करूँगा। एकाध जगह प्रूफ़ की गलतियाँ रह गई हैं वरना सीधे कहीं छपने भेज सकते थे। अगली लड़की .. माने लेख का इंतज़ार रहेगा।
  3. पंकज नरुला
    अनूप भाई – खूब मजे ले के लिखे हो। अपनी शादी से पहले की कहानियाँ याद आ गई।
    स्वामी जी – हग बहुते ही बढ़िया लगा रखे हो। बस अब इसका वर्डप्रैस प्लगइन बना दीजिए।
    पंकज
  4. अनुनाद्
    शुक्ला जी ,
    लडके वाले आप का लोहा भले न माने हों , हम तो मान गये |आपका व्यंग बहुत सरस है , पर कविता के बारे मे कुछ नही कहूँगा |
    अनुनाद्
  5. Atul
    विनय भाई की टिप्पणी की पहली दो लाइनो से हमारी भी सहमति शामिल की जाये।
  6. सारिका सक्सेना
    अनूप जी,
    बहुत ही सुन्दर शब्दों में आपने भारत की एक ज्वलन्त समस्या पर व्यंग्य किया है। वैसे बात हंसने की नहीं, गहराई से सोंचने की है।
    आपके इस लेख को शब्दांजलि के जुलाई अंक में शामिल कर रहे हैं। {अनुमति आपने पहले ही दी हुई है ः).।
    धन्यवाद
    सारिका
  7. Atul
    प्रभु , यह हमारे नाम के आगे जी कब से लगाना शुरू कर दिया? कृपया ध्यान दे। इस एक अतिरिक्त शब्द का बोझ अपनी उँगलियो और मेरे हृदय से उतारने की कृपा करें।
  8. Anoop Bhargava
    सोचा था ज़रा चाँद सितारों से हट कर ‘तकनीकी जारगन’ में प्रेम कविता लिख कर ‘इम्प्रेस’ कर पायेंगे, अब उस में तो आप नें “गणितीय विचलन’ का शिकार बता कर ‘फ़ेल’ कर दिया । ये तो अच्छा है कि जिस के लिये कविता लिखी गई थीं वो आप का चिट्ठा नहीं पढती :-)
    व्यँग्य और आप की कविता बहुत अच्छी लगी , विशेष कर ‘हायकू’ । एक और कविता ‘पोस्ट’ कर रहा हूँ , देखियेगा ..

    अनूप भार्गव
  9. धरणी धर द्विवेदी
    बहुत बढिया!! नया चिठ्ठाकार हूं| आपके लेखों का इन्तज़ार रहता है!
  10. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] 1..एक चलताऊ चैनल चर्चा 2..जनकवि कैलाश गौतम 3..इतना हंसो कि आंख से आंसू छलक पड़े 4..हंसी तो भयंकर छूत की बीमारी है 5.देश का पहला भारतीय तकनीकी संस्थान 6.उभरते हुये चिट्ठाकार 7.बेल्दा से बालासोर [...]

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Friday, June 10, 2005

कहानी के आगे की कहानी



और हम श्रेष्ठ आलोचक की गति को प्राप्त हुये।
अतुल ने हमारे साथ खड़ा किया स्वामीजी को।हम दोनों हिंदी के साठ ब्लागों का तियां-पांचा करते रहेंगे। बहरहाल!
चिट्ठीकहानी मैंने कई बार पढ़ी थी। उसके पढ़ने के बाद अखिलेशजी से बहुत बार बातचीत हुई।मुलाकातभी। एक बेहतरीन कथाकार के अलावा अखिलेशजी हिंदी साहित्य की सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली पत्रिकाओं में से एक- तद्‌भवके संपादक है। वो बीहड़ संपादक माने जाते है,जो नामी लेखकों से रचनायें लिखवा लेते हैं पर उनकी प्रकाशन की कसौटी रचना का स्तरीय होना है न कि लेखक का प्रभामंडल।
हमने जब बताया उनको उनकी कहानी पर लोगों की प्रतिक्रयाओं के बारे में तो उन्होंने खुशी जाहिर कि लोगों को कहानी पसंद आयी।मैंने उनको स्वामीजी की प्रतिक्रिया पढ़कर सुनाई । उनका कहना था कि हां ,यह भी कहानी का एक अंग था। स्वामीने उसे ‘भदेस’ (एकदम खुले)अंदाज में रेखांकित किया। हमारे दोहरे मापदंड होते है। हम बच्चों को एकतरफ दीन दुनिया से काटकर अपने तक सीमित रखकर खुद की उन्नति में लगाकर उन्हें उदात्त गुणों-सामाजिकता आदि से विमुख कर देते हैं। बाद में
शिकायत कि बच्चे हमारा ख्याल नहीं रखते। बिगड़ गये हैं। उनके निर्माण प्रकिया के दौरान हम उदासीन रहते हैं बाद में अपेक्षायें ढेर सारी रखते हैं । इसी घालमेल में कहीं आक्रमण होता है यथार्थ का।कुल मिलाकर वे संतुष्ट दिखे स्वामीजी की प्रतिकिया से तथा इस प्रतिक्रिया पर हुई प्रतिक्रियाओं से।
आजकल हिंदी साहित्य में जिन कुछ कथाकारों की चर्चा है उनमें युवा लेखिका नीलाक्षी सिंह प्रमुख है। उनकी कहानी सूत्र लगता है कि चिट्ठी कहानी का विस्तार है जिसमें असफलता के पाले में फंसे नौजवान से कहा जाता है-मेरे बच्चे! अगर तुमने उसी बच्चे वाले जुनून और एकाग्रचित्तता से ज़िन्दगी को पकड़ा होता तो आज तुम्हारी मुट्ठी खाली नहीं होती।’
कहानियों के अलावा नीलाक्षी सिंह के व्यक्तित्व की एक और खासियत दिखी। दुनिया में सफलता का आम रास्ता गाँव से नगर ,नगर से महानगर तक जाता है। इसके उलट नीलाक्षी सिंह काशी हिंदू विश्विद्यालय से बी.ए. के बाद एम.ए. की प्रवेश परीक्षा में चौथे स्थान पर रहने के बावजूद वापस अपनेगाँव लौट गई तथा वहां दिया-बत्ती-लालटेन में अपना अध्ययन ,लेखन जारी रखा:-
विद्यार्थी काल में अपने कैरियर के लिए देखे गए सारे सपने खोकर और सबके खिलाफ होकर मैंने अपने लिए कठिन और शर्तिया रूप से असफल होने वाला रास्ता चुना था। छोटा सा गांव न कस्बा, जो कहें। घर की अवस्थिति कुछ इस प्रकार थी कि उसे चौराहा कहना ज्यादा माकूल जान पड़ता है। कारण घर की सरहदें पड़ोसी (पट्टीदारों) के घर से इस कदर घुली मिली थीं कि उस पार के संवाद सारे, इस मंच से ही आते जान पड़ते थे। नाद तत्त्व की वहां प्रधानता थी। ईर्ष्या, द्वेष, कलह। अपनी पूरी ताकत से चीखते सस्ते फिल्मी गानों की तान। बिजली चोरी के कुख्यात डॉनों की कलाकारी से बिजली आपूर्ति के पांच से सात मिनट के भीतर बस फिलामेंट भर उपस्थिति रह जाती थी रोशनी की। लिहाजा लालटेन ज़िन्दाबाद! ज़मीन बहुत उपजाऊ थी। सांप-बिच्छू तक इतने पैदा कर रखे थे कि वे हर जगह, हर मोड़ पर मिल जाकर चौंका देने को तत्पर। तो पड़ोस के सो चुकने के बाद, सारे दरवाजे बदं करज्ञ् सांप बिच्छुवों के खिलाफ मोर्चाबंदी पक्की हो जाने पर लालटेन की रोशनी के साये में अध्ययन / लेखन परवान चढ़ता। मौसम चाहे कोई भी हो, फर्क नहीं। कहानियां सबसे सहज रूप में तभी मुझ तक आतीं।
शायद यही कारण है कि उनकी कहानियों में नयापन सा है।
अतुल तथा स्वामीजी की बात के बाद जीतेन्दर के बारे में कुछ न लिखा जाये तो वो नाराज हो जायेंगे। भारत भी आना है उनको कुछ दिन में। कुछ दिन पहले जब उन्होंने अपने एक सपने की बात लिखी थी तो अपने एक मित्र की मदद से मैंने उनके सपनों की व्याख्या लिखी थी। तब मुझे भी अन्दाजा नहीं था कि कितनी सही होगी व्याख्या होगी। पर बाद में देखा गया कि अनुभव की तीव्रता से वंचित रह जाने की टीस की बात सही निकली जब जीतू बाबू को लगा कि केवल दो ही लोगों के विचार हैं । जाहिर है बाकी काफी लोगों से लगाई उम्मीद परवान नहीं चढ़ी। सो बालक अनुभव की तीव्रता से वंचितावस्था को प्राप्त हुआ।
उधर ग्याहरवीं अनुगूंज में अभी तक खाता नहीं खुला है। हमेशा विषय देने के पहले ही (?)पोस्ट चिपका देने वाले प्रेमपीयूष भी नदारद हैं।कोई लिख नहीं रहा- माजरा क्या है ?
आज ठेलुहा नरेश का भारत आगमन हुआ। मौंरावाँ नरेश अपने गाँव से फोनियाये -हमारे चरण-कमल कृतार्थ कर चुके हैं भारत भूमि को सो जानना। पहली बातचीत जाहिर है ब्लागजगत के इर्द-गिर्द ही घूमती रही। लगता है कि जल्द ही दो ब्लागरों का मिलन हो के रहेगा और चिट्ठाविश्व में -’क्या आप जानते हैं’ में एक सवाल और जुड़ जायेगा -क्या आप जानते हैं कि हिंदी चिट्ठा जगत में पहली ब्लागर मीट कहां-कब-किसके बीच संपन्न हुई ? जवाब बताना बहुत नाइंसाफी होगी उन तमाम लोगों के साथ जो अभी भी उचक के अपना नाम जवाब में लिखवा सकते हैं।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

12 responses to “कहानी के आगे की कहानी”

  1. Atul
    अगर अब तक किसी की नही हुई तो कल हमारी और रमण कौल की होने जा रही है।
  2. eswami
    आपने मुझे इतने प्रेम से पढा-पढवाया, आभारी हूँ.
    आपके हाल ही के इन प्रयासों से ना सिर्फ़ पढनीय हस्ताक्षरों को पढने और ज़रा करीब से जान पाने का अनुभव ही मिला है, बल्की अपना ब्लाग ज़रा तमीज़ से लिखने के वाजिब दबाव मे भी हूं! इसको कहते हैं “Leading by example”!
  3. Pankaj Narula
    हिन्दी ब्लॉगमंडल के पहले सितारों में संजय व्यास जी का नाम अभी भी सभी को याद है। जिंदगी की भीड़ में शायद कहीं गुम हो गए हैं। वे अमेरिका में व्यव्साय के सिलसिले में आए थे व अपने अग्रज से मिलने कैलिफोर्निया के डबलिन शहर में आए। यहीं उनसे भेंट हुई थी। तो भईया फोटू तो नहीं है पर मीटिंग तो हो चुकी है आप मानें न मानें पर हिन्दी चिट्ठा जगत में अंतर्जाल से वास्तविकता में मिलने का पुरस्कार तो मुझे ही मिलना चाहिए।
    पंकज
  4. जीतू
    अब भइया, हम इन्डिया आ रहा हूँ, ‌और अपना कैमरा भी साथ ला रहा हूँ, एक दो फोटो क्या, पूरा का पूरा फोटो फीचर ही छाप दूँगा, हिन्दी चिट्ठाकार मिलन समारोह पर.
    तो फुरसतिया,आशीष और ठलुआ भईया, अपने अपने चेहरे की चमक बरकरार रखो, जुलाई मे मिलना तय है.
    और पंकज भाई, प्रतियोगिता की शर्तों के मुताबिक फोटो बिना प्रविष्ठि वैध नही मानी जायेगी, अगर जीतना चाहते हो, फोटो चिपका दो, नही तो फर्स्ट आकर भी जीत नही पाओगें.
  5. पंकज नरुला
    फोटू का उसी मीटिंग का ही जरूरी है। फोटोशॉप में संजय और मेरी फोटू किसी मेज के चारों ओर जोड़ कर चिपका देते हैं।
    पंकज
  6. अक्षरग्राम  » Blog Archive   » हिंदी ब्लागजगत का पहला आधिकारिक चिठ्ठाकार सम्मेलन
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