Monday, June 27, 2005

दीवारों का प्रेमालाप



कल कुछ संयोग हुआ कि हम अपने एक मित्र की कन्या के लिये वर टटोलने गये।टटोलने इसलिये कि दोनों पक्ष एक दूसरे को टटोल रहे थे। लड़की की लंबाई, गोरापन, नैन-नक्श तो फोटो में आ जाते हैं वहाँ ज्यादा सवाल नहीं रहते सिवाय इसके कि फोटो कब,कहाँ ,किससे खिंचवाये ? इससे भी कि काफी कुछ पता चल जाता है लड़की वाला कितने पानी में है। लड़का कहीं अमेरिका में था। बी.ए. करने के बाद किसी मैनेजमेंट इन्सटीट्यूट से डिप्लोमा करने के बाद विदेश चला गया। वर के पिता जानना चाह रहे थे कि कन्या कितनी धड़ल्ले से अंग्रेजी बोल सकती है। हम बताने में जुटे थे कि कन्या ने बी.एस.सी. की पढ़ाई की है। भारत में अभी राजभाषा इतनी समर्थ नहीं
हुई कि बी.एस.सी. की डिग्री दिला दे। लिहाजा काम भर की अंग्रेजी जानती है। लेकिन वे जांच अधिकारी की तरह अंग्रेजी में कन्या की गति जानने का प्रयास कर रहे थे। हमारी दुर्गति हो रही थी। नीट अंग्रेजी बोलनी पढ़ रही थी। आधे घंटे में ही सर भन्नाने लगा। चाय आई नहीं थी । मैं हिंदी का चिट्ठाकार अपराध बोध के साथ अंग्रेजी बोल रहा था।चौथी मंजिल में होने के कारण यह भी नहीं मना पा रहा था कि हाय यह धरती फट क्यों नहीं जाती-जान का खतरा था। खैर हमें उबारा वर की माँ ने जो चाय लेकर पधारीं।
हमने उनको नमस्ते किया वे बहू भले अंग्रेजी बोलने वाली चाहती हों पर बोलने में उनका भी साम्राज्य ‘एक्चुअली’, ‘एडजस्ट’,’ इकोनामिक्स’ तक ही था।इसके आगे हिंदी का कब्जा था उनके भाषा क्षेत्र में। वे मुझे बड़ी भली तथा प्यारी लगीं – भारत सरकार की तरह जिसने ढेर सारे हिंदी फान्ट जारी करके हिंदी की प्रगति का रास्ता खोल दिया हो।फिर तो धीरे-धीरे हिंदी का साम्राज्य फैल गया। हम ‘फीलगुडावस्था’ को प्राप्त हुये।अंग्रेजी के आतंक से हम मुक्त होकर चैन की दो-चार सांस ही ले पाये होंगे कि हम पर कन्या की ‘प्रोफेशनल क्वालीफिकेशन’ के सवालों ने हल्ला बोल दिया। हम अगर-मगर, किंतु-परंतु की बल्लियों से प्रश्न-सागर को पार करने का प्रयास कर रहे थे पर हर क्षण यह लग रहा था कि अब डूबे तब डूबे। मैंने यह भी बरगलाने का प्रयास किया कि देखिये मैं अपने जमाने का बहुत मेधावी छात्र रहा हूं लेकिन आज हालत यह है कि अपने पर तकनीकी ज्ञान की कोई स्पर्शरेखा तक नहीं पढी है। इस सबसे कुछ नहीं होता । असल चीज है बुद्धि जो कि लड़की में कहीं से कम नहीं है। काम भर की है।उनको लगा कि शायद मैं कन्या के बहाने अपने को बुद्धिमान साबित करने का प्रयास कर रहा हूँ। आगे जो कुछ उन्होंने कहा उससे साफ जाहिर हो रहा था कि उन्होंने मेरी तकनीकी अज्ञानता की बात तो उदारता पूर्वक मान ली लेकिन बुद्धिमान बनने के प्रयास को निष्ठुरता पूर्वक ठुकरा दिया। विचित्र किंतु सत्य कि इसमें मेरे मित्र की भी सहमति सी दीख रही थी – जिनकी कन्या के लिये मैं बिना पैसे की वकालत कर रहा था।
बहरहाल बातें वही हुयीं जो होती हैं।लड़का फोटो देखेगा फिर बाकी बाते लड़के के घर वाले करेंगे। सब बात हो चुकने के बाद नये जमाने, पुराने जमाने की बात चली। कुछ ‘शिष्टा’ की भी कि शादियां स्वर्ग में तय होती हैं वगैरह-वगैरह।वहीं मुझे यह भी ख्याल आया कि क्या स्वर्ग का पैकेजिंग सिस्टम इतना गड़बड़ है कि जोड़े को एक साथ नहीं भेज सकते ! भटकन से बचाव हो। फिर याद आया कि शायद दोनों की उम्र में अंतर के कारण जोड़े को एक साथ नहीं डिस्पैच किया जा सकता।पर अब शायद टैगिंग से कुछ सहूलियत हो लोग अपने जोड़े को खोज सके आसानी से बशर्ते वहां स्वर्ग वाले कुछ जानते हों टैगिंग के बारे में तब है।
लड़की-लड़के के इंच-दर-इंच मैच पर भी कुछ वाक्यों का आदान-प्रदान हुआ। लड़की 5’3” है अगर 5’4” होती तो वी कुड हैव गान फार इट। बाकी सब ठीक है -द गर्ल इज गुड ,हर कैरियर इज एक्सलेंट विद फोर फर्स्ट क्लास (आनर्स) लेकिन अगर रंग थोड़ा फेयर होता तो हम लोगों को हाँ कहने में थोड़ी(पूरी तब भी नहीं) आसानी होती यह सब बातें बहुत प्रारम्भिक स्थिति की हैं वे हालात तो आगे के हैं जब 10 लाख की शादियां पाँच हजार के लेन-देन की कमी के कारण टूट जाती हैं। इसी क्रम में हमें भी कुछ मौका मिला तो हम भी उवाचे:-
मुझे तो कुछ समझ में नहीं आता । हमारी शादी के काफी साल हो गये। पंद्रह मिनट में शादी का निर्णय लिया था हमने। अब कुछ-कुछ ऐसा लगता है जैसे हम लड़के-लड़कियों का ‘डिसेक्शन’ करके उनके टुकड़े-टुकड़े करके उनको परखते हैं। उनके गुण स्पेयर पार्ट हो गये हैं। मैंने अक्सर देखा है कि ये स्पेयर पार्ट तो बहुत अच्छे लगते हैं ।सारी चीजें मानक (स्पेशीफिकेशन)के अनुरूप पर पता नहीं क्या होता है कि अक्सर इन स्पेयर पार्ट की असेंबली गड़बड़ा जाती है।
अपनी समझ में मैंने बड़ी गम्भीर बात कही थी पर न जाने क्यों सब लोग सब लोग हंस दिये ।हमें भी हंसना पड़ा-क्या करते!
हंसने को तो हम हंस लिये पर बाद में काफी रोना आया कि यहां लड़के जब पश्चिम की सारी बेवकूफियां सीख रहे हैं तो अपने आप शादी करना क्यों नहीं सीख रहे हैं। प्रेम विवाह क्यों कम हो रहे हैं। आजकल मैं देखता हूँ कि लोग प्रेम भी वोकेशनल कोर्स की तरह करते है। साल दो साल प्रेम किया फिर यादें तहा के रख दी और भारतीय संस्कृति का आदर्श अनुकरण करके मां-बाप के बताये खूँटे से बंध गये। बाद में खूँटा तुड़ा के फूट लिये।दहेज समस्या का समाधान यही है कि प्रेम विवाह को प्रोत्साहन दिया जाये। इससे भ्रष्टाचार भी काफी कम हो सकता है। क्योंकि ज्यादातर लड़कियों के बाप कहते हैं -भइया लड़की का बाप कमाई न करे तो क्या लड़कियां घर मेंकुंवारी बैठाये रखे?
शादी-विवाह तो शिष्टा-संस्कार की बात है। लेकिन प्रेम की बात तो की जा सकती है। मैं कभी प्रेम के पचड़े में नहीं पड़ा लेकिन उसके बारे में बात करने से नहीं हिचकता। वैसे भी प्रेम और क्रांति के बारे में सबसे ज्यादा अधिकार पूर्वक वही बोल सकता है जो इन पचड़ों में कभी न पड़ा हो।जो पड़ेगा वो वोलने लायक
कहाँ से रहेगा आजके जमाने में।
पर मैं कुछ कहूं इससे पहले वह देखें जो हमारे साथी नामाराशि साथी अनूप भार्गव कह चुके हैं। कुछ बेहद खूबसूरत कविताओं तथा गीतिकाओं के बाद ,प्रेम की पहली अमेरिकी सीढ़ी ‘डेटिंग’ के दौर के लिये जोर मारते हुये वे कहते हैं:-
मैं और तुम
वृत्त की परिधि के
अलग अलग कोनों में
बैठे दो बिन्दु हैं,

मैनें तो
अपनें हिस्से का
अर्धव्यास पूरा कर लिया,
क्या तुम केन्द्र पर
मुझसे मिलनें के लिये आओगी ?

मैंने बताया कि भाई वृत्त में कोने नहीं होते तथा परिधि पर केन्द्र नहीं होता। तो पहली बात तो मान ली गई (हालाँकि कह सकते थे कि वियोग में वृत्त का हर बिंदु शूल सा चुभ रहा है सो वह शूल कोना ही है)लेकिन दूसरी मानने से मना कर दिया कि दो कदम हम चलें की तर्ज पर केन्द्र में मिलेंगे। हमने सोचा अगली कविता में नजदीकी बढ़ेगी लेकिन पहली कविता में शुरु हुई डेटिंग दूसरी मेंबोल गई -दूरी बढ़ गई:-
मैनें कई बार
कोशिश की है
तुम से दूर जानें की,
लेकिन मीलों चलनें के बाद
जब मुड़ कर देखता हूँ
तो तुम्हें
उतना ही
करीब पाता हूँ

तुम्हारे इर्द गिर्द
वृत्त की परिधि
बन कर
रह गया हूँ मैं

यह कविता भी गणितीय /भाषाई विचलन का शिकार हो गई। वृत्त पर मीलों चलने के बाद अगर कोई किसी को (हमेशा )उतना ही करीब पाये तो इसका मतलब दूसरा शख्स केन्द्र पर है तथा केन्द्र से परिधि की दूरी निश्चित होती है जबकि इर्द-गिर्द में दूरी बदलती है। इर्द-गिर्द मतलब इधर-उधर ,आस-पास । कभी दूरी कम कभी ज्यादा जो कि परिधि तथा केन्द्र के मामले में नियत रहती है। लड़कियों के इर्द-गिर्द ही घूमना मतलब कुछ प्रयास जारी हैं। वृत्त मानकर किसी के चारो तरफ घूमना मतलब कोई प्रयास नहीं दूरी कम करने के। प्रेम जब इतना अकर्मण्य होगा तो दूरी कैसे कम होगी। ‘डेटिंग ‘ के आगे मामला कैसे बढ़ेगा! बहरहाल बिना किसी मकसद के इतनी मौज लेने के बाद हमें भी कुछ मन कर रहा है कि कविता ठेल दें ज्यामिति तथा अनूप भार्गव की कविताओं का सहारा लेकर।
तो पेश है कुछ तुकबंदियाँ:-
1.मजबूरी

तुम्हारे बताये अनुसार मैं चली तो थी
अर्धव्यास की दूरी तय करके तुमसे मिलने को
मैं पहुंचने ही वाली थी केन्द्र पर
कि एक जीवा (chord)रास्ते में आ गई
रोक लिया रास्ता उसने मेरा
मुझे साफ सुनाई दे रही तुम्हारी बेचैन सांसें
जीवा -जो कि वास्तव में व्यास था वृत्त का
फूल पिचक रहा था
हमारी सांसों के स्पंदन से
पर हम उसे पिघला न सके
कहीं कुछ कमी रही होगी
हमारी ऊष्मा में ।
मैं लौट आयी चुपचाप
उल्टे पैर परिधि पर
तुम्हारी सांसों की
गरमी का अहसास लिये।

2.संभावनायें

हम दोनों समकोण समद्विबाहु त्रिभज की
दो संलग्न भुजाओं
पर स्थित बिन्दु हैं
दूर भाग रहे हैं एक दूसरे से
९० डिग्री का कोण बनाये।
यह हमारा विकर्षण नहीं है
न कोई पलायन,
हम भाग रहे हैं उस विकर्ण(Hypotaneous) की ओर
जो इन भुजाओं को जोड़ता है
जिस पर चलने से हमारे मिलने की कुछ
संभावनायें बाकायदा आबाद हैं।

3. दीवारों का प्रेमालाप -एक हायकू
दीवारें बोलीं
आओ चलें उधर
कोने में मिलें।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

12 responses to “दीवारों का प्रेमालाप”

  1. eswami
    गुरुवर,
    अतुकान्तक कविता क्या होती है? वो जो तुकबंदी मे ना होवे या वो जिसका कोई तुक ना निकलता हो?? :)
    (उत्तर इधर देवें या निरंतर में, कहीं भी चलेगा!)
  2. विनय
    अनूप भाई,
    बहुते अच्छा लिखा है। अब मैं कहूँगा (शरद)जोशी जी की याद दिला दी तो मानोगे नहीं; पर सच है। व्यंग्य लेख पर व्यंग्य थोड़े ही करूँगा। एकाध जगह प्रूफ़ की गलतियाँ रह गई हैं वरना सीधे कहीं छपने भेज सकते थे। अगली लड़की .. माने लेख का इंतज़ार रहेगा।
  3. पंकज नरुला
    अनूप भाई – खूब मजे ले के लिखे हो। अपनी शादी से पहले की कहानियाँ याद आ गई।
    स्वामी जी – हग बहुते ही बढ़िया लगा रखे हो। बस अब इसका वर्डप्रैस प्लगइन बना दीजिए।
    पंकज
  4. अनुनाद्
    शुक्ला जी ,
    लडके वाले आप का लोहा भले न माने हों , हम तो मान गये |आपका व्यंग बहुत सरस है , पर कविता के बारे मे कुछ नही कहूँगा |
    अनुनाद्
  5. Atul
    विनय भाई की टिप्पणी की पहली दो लाइनो से हमारी भी सहमति शामिल की जाये।
  6. सारिका सक्सेना
    अनूप जी,
    बहुत ही सुन्दर शब्दों में आपने भारत की एक ज्वलन्त समस्या पर व्यंग्य किया है। वैसे बात हंसने की नहीं, गहराई से सोंचने की है।
    आपके इस लेख को शब्दांजलि के जुलाई अंक में शामिल कर रहे हैं। {अनुमति आपने पहले ही दी हुई है ः).।
    धन्यवाद
    सारिका
  7. Atul
    प्रभु , यह हमारे नाम के आगे जी कब से लगाना शुरू कर दिया? कृपया ध्यान दे। इस एक अतिरिक्त शब्द का बोझ अपनी उँगलियो और मेरे हृदय से उतारने की कृपा करें।
  8. Anoop Bhargava
    सोचा था ज़रा चाँद सितारों से हट कर ‘तकनीकी जारगन’ में प्रेम कविता लिख कर ‘इम्प्रेस’ कर पायेंगे, अब उस में तो आप नें “गणितीय विचलन’ का शिकार बता कर ‘फ़ेल’ कर दिया । ये तो अच्छा है कि जिस के लिये कविता लिखी गई थीं वो आप का चिट्ठा नहीं पढती :-)
    व्यँग्य और आप की कविता बहुत अच्छी लगी , विशेष कर ‘हायकू’ । एक और कविता ‘पोस्ट’ कर रहा हूँ , देखियेगा ..

    अनूप भार्गव
  9. धरणी धर द्विवेदी
    बहुत बढिया!! नया चिठ्ठाकार हूं| आपके लेखों का इन्तज़ार रहता है!
  10. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] 1..एक चलताऊ चैनल चर्चा 2..जनकवि कैलाश गौतम 3..इतना हंसो कि आंख से आंसू छलक पड़े 4..हंसी तो भयंकर छूत की बीमारी है 5.देश का पहला भारतीय तकनीकी संस्थान 6.उभरते हुये चिट्ठाकार 7.बेल्दा से बालासोर [...]

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