Saturday, August 06, 2005

अधूरे कामों का बादशाह


सबेरे से दोपहर तक का समय सफलतापूर्वक बरबाद करके देश की प्रगति में भरपूर योगदान कर चुकने के बाबजूद तिवारी जी अपने काम से खुश नहीं दिख रहे थे। मन कुछ बेचैन सा था।लंच होने ही वाला था लेकिन न जैने कैसे झटके से उठे। सामनेपर पड़ी फाईलों से कुछ बिना देखे उठाकर वे साहब के कमरे की तरफ चल दिये। रास्ते में अपने चेहरे पर ६७:३३ के अनुपात में जिम्मेदारी और बेचैनी का मिश्रण पोतकर वह साहब के कमरे के सिस्टम में चुपके से किसी वायरस की तरह घुसे तथा हालात का जायजा लेने लगे।
दफ्तर में सुव्यवस्थित अव्यवस्था फैली थी। साहब की मेज पर करीब १०० किलो फाईलें तथा सामने की कुर्सियों पर करीब ५०० किलो शरीर पसरे थे। साहब के मुंह के दांये कोने में ‘पारकर’ का पेन घुसा था तथा बायें कोने में पान का कब्जा था। मुंह के बीच का रास्ता आवाज की आवा-जाही के लिये था।माथे के ऊपर रंगीन चश्मा किसी कार के बोनट सा टंगा था।साहब की दशा फिलहाल सोचनीय थी लिहाजा यह अंदाज लगा पाना जरा कठिन था कि साहब के चेहरे से जो टपक रहा था उसे तनाव कहा जाय या तेज!
जैसा कि सर्वविदित है कि अधिकारी चाहे कर्मठ हो या कामचोर ,उसके काम करने का विशिष्ट तरीका होता है। इस सिद्धांत के अनुपालन में साहब के काम करने का भी खास तरीका था। वे मंजिल पाने से ज्यादा यात्रा करते रहने के हिमायती थे। कोई काम निपटाने की बजाय उसे करते रहने में साहब को ज्यादा सुकून मिलता। मातहतों से बातचीत करते तो भी इस अंदाज को नहीं छोड़ते। वे एक बार में कभी भी किसी व्यक्ति से कभी भी पूरी बात नहीं करते। दो-तीन मिनट किसी से बतियाते । फिर उसके बगलवाले से । फिर उसके भी बगल वाले से। उनके दफ्तर में लोग आते भले ही अलग-अलग समय पर हों पर जा हमेशा साथ-साथ ही पाते थे।
कुछ लोग मजाक में कहते कि साहब को किसी फकीर ने बताया है – ‘जिस दिन तुमने कोई काम पूरा कर दिया उसी दिन तुम्हारे दिन पूरे हो जायेंगे।’
अधिकारी चाहे कर्मठ हो या कामचोर ,उसके काम करने का विशिष्ट तरीका होता है।
शायद इसीलिये साहब की सक्रियता वहीं तक रहती जहां तक काम मुश्किल दिखता। जहां लगा कि काम को पूरा होने अब कोई नहीं रोक सकता ,वहीं साहब निष्क्रिय हो जाते। फिर भी यदि कहीं काम पूरा होने की आशंका दिखती तो अपने स्तर से काम को ‘लंबित’सूची में डाल देते।साहब के साथी प्यार से उन्हें अधूरे कामों का पूरा बादशाह कहते थे। मातहतों में वे कटियागुरु के नाम से जाने जाते थे-जो लोगों को हमेशा अपने से उलाझाये रखते।
बहरहाल साहब को लगा कि काम तेजी से बढ़ना चाहिये।सो उन्होंने डांटते हुये कहा-
मि.मिश्रा,यह लेटर मैंने आपको’पर्सनली लास्ट वीक’ दिया था-फोटोकापी कराके। दफ्तर की फोटो कापी मशीन तीन महीने से खराब थी है तो अपने पैसे से फोटो कापी करा यी। पर अभी तक आपने इसे पढ़ातक नहीं । कमाल है। कोई’ सेंस आफ अरजेंसी’ ही नहीं।
मिश्राजी शायद स्वामी रामतीर्थजी के झांसे में आकर सीखी ध्यानवस्था में थे। साहब ने दोबारा झल्लाहट बढ़ाकर सवाल दोहराया तो तिवारीजी ,जो कि बगलवाले साथी द्वारा कोहनियाये जाने की साजिस के कारण ध्यानावस्था से जाग्रतावस्था में आ चुके थे, बोले- साहब ,आपका यह आरोप मिथ्या है कि मैंने यह पत्र पढ़ा नहीं। अंग्रेजी का हर पत्र मैं कम से कम तीन बार पढ़ता हूं- अच्छी तरह समझने के लिये। इसे भी तीन बार पढ़ा। हां,यह संभव है कि पत्र को हमारे तथा आपके समझने में समझने में अंतर हो।क्योंकि समय की स्वाभाविक कमी की वजह से आप शायद एक बार ही पढ़ पायें हों।
साहब बोले-अरे,हमारे तुम्हारे पढ़ने से क्या पत्र का मतलब बदल जायेगा?
मिश्राजी बोले-निश्चित हुजूरेआला! अब आप यह समझिये कि पत्र लिखने वाले तथा पढ़ने वालों(मेरे,आपके) के अंग्रेजी सीखने के कार्यकाल में कुछ तो अंतराल होगा। इस अंतराल में शब्दों के मायने बदल गये होंगे। जैसे कि हमारे जमाने में फ्रेंडशिप का मतलब मित्रता होता था। अब इसका मायने अवसरानुकूलता जैसा हो गया है।
मिश्राजी ने जब दूसरे उदाहरण देने के लिये सांस ली तो पाया कि साहब उनके बगलवाले से मुखातिब थे तथा किंचित रोष से पूछ रहे थे-
आपको तीन दिन पहले दिया था यह काम मैंने ।अभी तक किया नहीं। क्या मजाक बना रखा है!
वर्माजी ने सहमने का नाटक करते हुये कहा-साब,सच कह रहे हैं आप। पर तमाम कोशिश के बावजूद मैं इसे कर नहीं सका। काफी मुश्किल है। समझ के ही नहीं दे रहा कि कैसे होगा?साहब उखड़ गये- क्या खाक मुश्किल है! तीस साल हो गये कलम घिसते ,बाबूगिरी करते हुये आपको। इतना छोटा सा काम नहीं कर पाये-तीन दिन में। ये तो कोई अफसर भी कर सकता है।
वर्माजी साहब के रोष के झांसे में आये बिना बोले-हां साब, सच कह रहे हैं आप। अब अफसर सिर्फ बाबूगिरी करने लायक तो रह गये है। सारी अफसरी तो नेताओं को ‘आउटसोर्स ‘कर दी है।तभी तो काम और देश ठहरा हुआ है।
काम के बीच में देश को फंसा पाकर साहब को लगा कि जरूर कोई ऊंची बात है। जिसको तुरंत समझना जरूरी है। लिहाजा वे सोचने के लिये लपककर चिंतनकक्ष ,जो कि दुनिया में बाथरूम के नाम से जाना जाता है,अंतर्ध्यान हो गये। लोग गप्पाष्टक में जुट गये।
अब अफसर सिर्फ बाबूगिरी करने लायक तो रह गये है। सारी अफसरी तो नेताओं को ‘आउटसोर्स ‘कर दी है।तभी तो काम और देश ठहरा हुआ है।
-यार ये कटिया गुरु कब छोड़ेगे?
-देखते जाओ आगे-आगे होता है क्या?
-समय की इतनी बरबादी! तीन घंटे से मीटिंग कर रहे हैं। नतीजा सिफर।
-तो तुम क्या समझते हो मींटिंग नतीजे के लिये होती है। मीटिंग ,मीटिंग के लिये होती है।
-हमें समझ में नहीं आता कि तुम लोग घंटे बरबादी के लिये काहे रोते हो? क्या डाक्टर ने बताया है घड़ी बांधने को? हम तो पिछले तीस साल से कैलेंडर से काम कर रहे हैं। आजतक कभी घड़ी के मोहताज नहीं रहे।
बातें शायद और से चलतीं तब तक कमरे में इधर से साहब तथा उधर से मातहतों की नयी खेप घुसी।घुसते ही सबने बची कुर्सियों पर पिंडारियों की तरह कब्जा कर लिया। एक व्यक्ति एक पद के सिद्धान्त के अनुसार कमरे की सारी कुर्सियों पर लोगों का कब्जा हो गया। साहब ने कमरे के बाहर लगा लाल बल्ब जला दिया।कमरा रेड लाइट एरिया में तब्दील हो गया।
साहब दुबारा लोगों से मुखातिब हुये। बोलना शुरु करते ही दरवाजा ‘फ्लडगेट’ की तरह झटके से खुला। तथा पांडेजी हड़बड़ाते हुये अंदर घुसे।वे कुर्सियों को अनदेखा करके साहब के बगल में जाकर खड़े हो गये।कागज साहब के सामने फैलाते हुये बोले-साहब जरा इनमे दस्तखत कर दीजिये।
साहब- देखिये ,अभी मैं कुछ जरूरी मीटिंग कर रहा हूं। इसीलिये बाहर लाल बल्ब जला रखा है।
पांडे जी को लगा जैसे उनको किसी होमगार्ड ने चौराहे पर लाल बत्ती क्रास करते गाड़ी सहित पकड़ लिया हो तथा आखों ही आंखों में पूछ रहा हो -मार दिया जाये कि छोड़ दिया जाये!
वर्माजी बोले-हुजूरेआला, आप मीटिंग करते रहिये। हम कौन होते हैं रोकने वाले आपको। रही बात लालबत्ती को अनदेखा करने की तो इसे मेरी बेअदबी या गुस्ताखी न समझा जाये । हम तो हुजूर के दरबार में सर झुकाकर सजदा करने आते हैं देखते ही नहींकि ऊपर लाल-बल्ब जल रहा है या नीला।आप तो फिर भी कमरे में बल्ब जला के बैठते हैंकमरे में । पहले वाले साहब तो कमरे के बाहर बल्ब जला के तड़ी पार कर जाते थे। हम लोग दिन भर बल्ब लाल से हरा होने के इन्तजार में रहते । शाम को पता चलता कि साहब दूसरे शहर में बास के कमरे के बाहर बत्ती हरी होने का इंतजार कर रहे होते हैं। खैर आप दस्तखत कर दीजिये ।हम चलें
साहब बोले-अरे पहले पढ़ तो लेने दो।
वर्माजी बोले- अरे साहब,क्या फायदा ! आपकी समझ में कुछ आयेगा नहीं। मैं बीस साल से रिपोर्ट बना रहा हूं मुझे कुछ नहीं समझ आया आज तक तो आप क्या समझेंगे।आज आखिरी तारिख है रिपोर्ट भेजने की। अगर आज नहीं गयी तो सोमवार को रिमान्डर आ जायेगा।
साहब को हेडक्वार्टर ,रिमान्डर के अलावा कुछ समझ में नहीं आया। जब किसी अधिकारी को कुछ नहीं समझ आता तो वह दस्तखत कर देता है यह मानते हुये उन्होंने दस्तखत कर दिये।
साहब ने काम में मन लगाने की कोशिश की । एक काम पूरा होने के नजदीक पहुंच गया । यह देखकर साहब घबरा गये। तब तक फोन बजा। साहब ने हलो किया। उधर से फोन कट गया ।फिर भी साहब बोले,तुम खाना लगाओ मैं आ रहा हूं। मातहतों से बोले-सी इज वेटिंग फार लंच।
तिवारीजी कैंटीन की तरफ बढ़ते हुये सोच रहे हैं जब मेमसाहब घर में है तो वे कौन मैडम हैं जिनके आदेश पर उनकी पत्नी उनको कैंटीन के भरोसे छोड़कर किटी पार्टी में शामिल होने गयी हैं!
अधूरे कामों के बादशाह उर्फ कटिया गुरु की कार धुंआ उड़ाते हुये उनके सामने से गुजर गई।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

5 responses to “अधूरे कामों का बादशाह”

  1. प्रत्यक्षा
    बहुत अच्छे !क्या खाका खींचा है……..मज़ा आ गया…
    प्रत्यक्षा
  2. Atul
    एक हास्य पढा था शायद अभिव्यक्ति पर “भाबू”, उसकी याद ताजा हो गयी। वह और यह लेख दोनो हमारी कार्य संसकृति का जीवंत चित्रण हैं।
  3. syllable
    syllable
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