Sunday, September 11, 2005

हम घिरे हैं पर बवालों से

http://web.archive.org/web/20140419052652/http://hindini.com/fursatiya/archives/44

मां-बेटा
गुलाब घिर गया है गुलालों से
हम जब से ब्लागर हुये घरवालों की नजरों में गिर गये है.गैरजिम्मेदार आइटम हो गये हैं.जिसको अपने ब्लाग के सिवा किसी से भी मतलब नहीं है.ये बहुत बोझिल इमेज है.बहुत दिन हो गये जब ढोते-ढोते तो एक दिन सोचा कौन है वो शख्स जिसने यह अफवाह उडा़ई.पता चला कि यह हमारी पत्नी की ही धारणा है जिसको घर के बाकी सद्स्यों ने परवान चढाया .जब पूछा तो बताया गया-इसमें झूठ क्या है? दिन-रात जुटे रहते हो लिखने-पढने कहीं ऐसा होता है.मैने कहा देश-दुनिया के बारे में लिखता हूं ज्ञान बढता है.वो बोली -मुझे तो नहीं दिखा कहीं बढा हुआ ज्ञान.तुम भ्रम के शिकार भी हो रहे हो.जितनी जल्द हो सके छोड़ दो यह सब खुराफात.मैंने कहा- अच्छा चलो आज तुम्हारे ऊपर कविता लिखते हैं.वो बोली -नहीं ,अभी नहीं ,अभी हमें तमाम काम पडे़ हैं.अच्छा जल्दी से सुनाऒ. मैंने सुनाया:-

ओस की बूंद

तुम,
कोहरे के चादर में लिपटी,
किसी गुलाब की पंखुङी पर
अलसाई सी,ठिठकी
ओस की बूंद हो.
नन्हा सूरज ,
तुम्हे बार-बार छूता ,खिलखिलाता है.
मैं,
सहमा सा दूर खड़ा
हवा के हर झोंके के साथ
तुम्हे गुलाब की छाती पर
कांपते देखता हूं.
अपनी हर धड़कन पर
मुझे सिहरन सी होती है
कि कहीं इससे चौंककर
तुम ,
फूल से नीचे न ढुलक जाओ.
वे बोली ये कविता कितनी बार सुनाओगे? ओस की बूंद तो उसी दिन सूख गई होगी जब सूरज ने उसे छुआ होगा. कुछ नया लिखा हो तो सुनाओ.मौका अच्छा मिला देखकर मैनें दूसरी कविता सुनाई:-

अलगाव का समय

तुमसे बिछुड़कर रहना भी
एक अजीब,
अनमना अनुभव है.
लगता है काम चल सकता है
बिना धड़कनों के भी-
बेकार ये शरीर घड़ी टिक-टिक करती है
एक मिनट में बहत्तर बार.
गुजरतीं हैं सामने से
लिपी-पुती,सजी-संवरी,
उत्फुल्ल,खिलखिलाती -
जिंदगियां सर्र से.
सिर्फ दिन गुजरता है
मंथर गति से,थका-थका
सूरज के पांव में मोच आ गयी हो जैसे
गिर ही पडे़गा मेरे ऊपर भहराकर.
मन करता है
दिन भी होते-कुम्हार की चाक से
घुमा देता पल भर में सैकड़ों-हजारों बार
बीत जाता अलगाव का समय देखते-देखते.
मैं तुमसे बताता-
हंसते हुये
‘देखो मैं भी क्या-क्या सोचता था-
तुमसे अलग रहने पर.’
पत्नी बोली इस कविता में दो दोष हैं.पहली बात तो यह कि यह अतीत के वियोग का गुणगान करती है.अगर किसी को अच्छी लग गयी तो ऐसी ही कविता लिखने के लिये घर त्यागने को उत्सुक हो सकता है.
मैंने कहा-क्या हमारी कविता में इतना दम है कि वह पाठक को सिद्धार्थ बना दे.वो बोली-संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन यह भी हो सकता है कि कोई खाली घर से निकल जाये फिर चाहे कुछ करे या न करे.
मैंने कहा खैर दूसरा दोष क्या है? बताया गया कि कविता भौतिकीय विचलन का शिकार है.गैलिलियो तक को पता था कि सूरज धरती के चारो तरफ नहीं घूमता.तुमफिर सूरज को क्यों घुमा रहे हो? चलो अच्छा कोई अभी तुरन्त कोई कविता लिखो .देखें तुम खुद लिखते हो या से लिखवाते हो किसी से! कोई यथार्थवादी घरेलू कविता लिखो तो जाने.खैर जब चुनौती मिली तो हमने तुरन्त कविता लिख मारी .पढ़ी जाये:-

हम घिरे हैं बवालों से

घर घिरा है घरवालों से,
हम घिरे हैं पर बवालों से.
तुम बगल में बैठी हो
लगती हो सात तालों में.
कैसे कुछ धमाल जैसा हो
सवाल उठता है सवालों में.
जिस हम खुद कर नहीं सकते
कराया जाता है अपने लालों से.
बच्चा चुम्बनों की झडी़ लगाता है
मां के उष्ण,गीले होते गालों में.
गाल असहज हैं या लाल गुस्से में
लगता गुलाब घिर गया है गुलालों से.
क्या खुराफात सिखाते हो बच्चों को,
आंख मुस्काई घिर गये हम उजालों से.
हर उजाले की अपनी फितरत होती है
जानते हैं,जो हैं शामिल-चाहने वालों में.
हम सोच रहे थे कविता कुछ वाह-वाह करवायेगी.लेकिन वहां आवाज सुनाई दी-चलो ज्यादा समय मत बर्बाद करो,सब लोग खाना खा लो.
घरेलू कविता की यही (घरेलू) परिणति हो सकती है शायद!

24 responses to “हम घिरे हैं पर बवालों से”

  1. sarika
    बहुत ही अच्छा लिखा है। लगा कि बस आपके हंसते-खिलखिलाते परिवार के बीच ही पहुंच गये। मुस्कुराती आंखों के उजालों में आप हमेशा घिरे रहें यही शुभकामना है।
    –स
  2. अनाम
    शुक्ल जी यह पोस्ट पढ़्कर बहुत अच्छा लगा..विशेषकर भाभीजी को यहाँ देखकर। आपको मैं पहले भी बोल चुका हूँ कि आप कितने किस्मत वाले हैं जो कि भाभीजी आपको इतना सब मनचाहा पढ़ने लिखने का समय देती हैं! भाई मेरी ओर से तो उनको बहुत बहुत धन्यवाद – मुझे आजतक लगता था कि आपके लिखन में उनका बहुत ही बड़ा योगदान है- आपकी लेखन कला को पनपने का अवसर तो उन्होंने ही दिया है। भैया अभी तो अपनी पत्नी जी का भी ऑर्डर आ गया है कि – उठो क्या फ़ालतू काम कर रहे हो- वैसे आपका लेख सबको अच्छा लगता है!
  3. आशीष
    बहुत खूब शुक्ला जी। अब घर वालों को भी चिट्ठे तक घसीट ही लिया आपने।
  4. आलोक
    पढ़ा दी यह प्रविष्टि धर्मपत्नी जी को भी।
    बढ़िया है।
  5. indra awasthi
    ब्लागर अपना फँस गया है
    नमक तेल और दालोँ मेँ
    घर पुतवाओ, सब्जी लाओ
    जूझो इन सवालोँ मेँ
    महारथी की हो गयी शादी
    जंग लग रही भालों में
    भौजी को हमारा नमस्कार
    मिलेंगे फिर कुछ सालों में
  6. प्रत्यक्षा
    आप तो मुस्कुराते चेहरों और चमकती आँखों से घिरे हैं…ऐसा ही हमेशा रहे.’समय का अलगाव’ बहुत भाया.
    प्रत्यक्षा
  7. Rajesh Kumar Singh
    प्रियवर,
    इस पोस्ट पर एक तस्वीर और दरकार है , यानी दूसरी तस्वीर “कवि-पिता” और कनिष्ठ पुत्र की ।
    -राजेश
  8. Atul
    पारिवारिक तस्वीर और कविता दोनो खूबसुरत है। परंतु गुरुदेव अगली बार तस्वीर चिपकाने से पहले रेड आई ईफेक्ट ठीक कर लिजिऐगा। अभी कोई लिंक नही दे रहा हूँ अन्यथा आप कहेंगे कि फिर इंग्लिश स्टाईल में ट्राई दिस ट्रई दैट का लिंक चेंप दिया। दरअसल कभी कभी कैमरा महाशय आँख की पुतली पर परावर्तित प्रकाश का अनचाहा लाल बिंदु चिपका देता है। इसको दुरुस्त करने के लिए आपके फोटो एडिटिंग साफ्टवेयर में प्रावधान अवश्य होगा। अगर आपके पास फोटो एडिटिंग साफ्टवेयर नही है तो माले मुफ्त दिले बेरहम के रचयिता से मिलिए , अगर है तो वे या पंकज बाबू आपका मार्गदर्शन कर देंगे।
  9. रमण कौल
    बहुत खूब। दिल खुश कीत्ता।
    भाभी जी की ओर से कुछ पंक्‍तियाँ
    विश्व का जाल पकड़ के बैठे हो,
    घर घिरा है मकड़ी के जालों से।
    माउस-कीबोर्ड से नहीं फुरसत तुम को,
    काम घर के कराते हो सालों से।
    ये तो हम हैं कि घर चलाते हैं
    पूछो कम चिट्ठे लिखने वालों से।
  10. Laxmi N. Gupta
    शुक्ल जी,
    बहुत बढ़िया लिखा है। तबियत खुश होगयी। आप और आपके सुन्दर परिवार को बधाई।
    लक्ष्मीनारायण
  11. kali
    Lekh chaukas, tippaniya bamdar. Maaja aa gaya is mithi nauk-jhok ko padh ke.
  12. Shashi Singh
    घरवालों के ये मीठी उलाहने न हों तो शायद हमारी रचनात्मकता समाप्त हो जाए. फुरसतिया भाई आपकी अनुमति हो तो आपका यह पोस्ट मैं तमाम ब्लॉगरों के परिवार वालों के नाम करना चाहूंगा.
  13. अक्षरग्राम  » Blog Archive   » बड़े भाई साहब को जन्मदिन मुबारक हो!
    [...] ��ँ हि हमेशा मार्ग दिखाता रहे और खुद प्यारे बवालो से हमेशा घिरा रहे। इनकी सामा [...]
  14. anita kumar
    हा हा हा …॥अंतिम कविता सबसे अच्छी लगी
  15. seema gupta
    तुम,
    कोहरे के चादर में लिपटी,
    किसी गुलाब की पंखुङी पर
    अलसाई सी,ठिठकी
    ओस की बूंद हो.
    ” kitne sunder prstutee hai, jvab nahee hum to pdhty hee reh gye sach ”
    Regards
  16. कविता वाचक्नवी
    आपकी कविताएँ तो अत्यन्त मनोहारी हैं, संवेदना और राग- विराग को छूती हुईं।
    आपने अलग अलग रस की इन कविताओं को पिरोने के लिए जिस सर्जनात्मक सूझ का सहारा लिया व अपने सहज पत्नी्प्रेम को अभिव्यक्ति दी है, वह प्रशंसनीय है। इस बहाने आपके परिवार से मिलने का भी सुख मिल गया।
    हाँ, एक बात तो कहना ही भूल गई।
    आपके घर में कवि और आलोचक दोनों विद्यमान हैं, पत्नी से कहें कि उनके प्रति लिखी गई कविताओं को वे प्रिया वाले भाव से सुनें, आलोचकीयता के लिए हम लोग अपनी कविताएँ भिजवा दिया करेंगे।
    चलेगा?
  17. गौतम राजरिशी
    देव….आह! ऊह!! उफ़्फ़!!!
    सोचता हूँ, आप जो ये लिंक न देते आज मुझे तो मैं तो वंचित ही रह जाता आपके इस “अवतार” से भी।
    “ओस की बूंद” में जो इमेज की कल्पना उभरी है…अहा! और फिर कविता की आखिरी पंक्तियां और निहित कवि का मासूम-सा भय…ओहो! क्या सचमुच भाभी जी की वही प्रतिक्रिया थी? मैं नहीं मानता! वो तो निहाल हो गयी होंगी…
    और “अलगाव आ समय” में सूरज का भहराकर गिर पड़ने की बात गुलज़ार की याद दिला गया।
    गुजारिश है देव, इस “अवतार” झलकी बीच-बीच में दिखाते रहें आप…
  18. जीवन पथ पर मिले इस तरह जैसे यह संसार मिला
    [...] हम घिरे हैं पर बवालों से :घर परिवार में कवितागिरी की स्थिति देखिये इसमें [...]
  19. : …तुम मेरे जीवन का उजास हो
    [...] तुम मेरे जीवन का उजास हो! [...]
  20. mukesh
    शानदार कविता . कुछ और हो जाये . कवी और इंजिनियर का सुन्दर मेल . कुछ अधिक स्टोर पर भी हो जाये.
  21. : ये पीला वासन्तिया चांद
    [...] हम घिरे हैं पर बवालों से [...]
  22. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] 4.जन्मदिन के बहाने जीतेन्दर की याद 5.हम घिरे हैं पर बवालों से 6.देबाशीष-बेचैन रुह का परिंदा 7.आवारा [...]
  23. : …एक ब्लॉगर पत्नी के नोट्स
    [...] पहले से था। हम आज से छह साल पहले ही लिख चुके हैं- हम जब से ब्लागर हुये घरवालों की नजरों [...]
  24. धीरेन्द्र पाण्डेय
    किताब छपेगी एक दिन

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