Saturday, November 26, 2005

हेलो हायकू टेस्टिंग



लिखोगे कुछ
कविता सविता में,
ऊट-पटांग?
मन नहीं है
कविता लिखने का
बड़ा हैरान!
अजीब बात
कह रहे हो यार
लिखोगे नही?
लिखूंगा भाई,
अभी देख रहा हूं
कैसा लगेगा!
कैसा लगेगा
यदि हायकू लिखूं
-सिर्फ हायकू.
लम्बे वाक्य
हाहा,हीही,हेहे व
मजा आ गया!
ये सब कुछ
कैसे लिखा जायेगा
इस विधा में?
टेस्टिंग है ये
हेलो हेलो टाइप
बस टेस्टिंग
असली माल
बाद में ही आयेगा
मजा आयेगा.
अभी बताओ
ये कइसा लगेगा
ठीक रहेगा?
कैसा रहेगा
हायकू में व्यंग्य
हास्य लिखना?
खिंचाई होना
जीतू का ख्याल भी है
है कि नहीं ये?
प्रेम कविता
में हायकू कितना
समर्थ होगा?
कुछ ऐसा सा
कैसे कर होगा जी
चांद रोयेगा?
बहरहाल
इतना तो लिखा ही
अब बताओ.
आगे बढ़ायें
ये हायकू कथा को
या रुक जायें?
सच बताना
बुरा नहीं मानेंगे
रुक जायेंगे.
ये न कहना
ये हायकू नहीं हैं
दुख लगेगा.

15 responses to “हेलो हायकू टेस्टिंग”

  1. Pratik
    अगर यह
    कविता कहलाए तो
    हर कवि रोएगा
  2. sanjay bengani
    हास्य हाइकू ?
  3. Raman Kaul
    कोई पढ़े न पढ़े
    सोचो काइकू
    खूब लिखो हाइकू।
  4. kali
    होने दो अब
    हाीईकु में संवाद;
    जीतु जी काँपे
    चौकस मौज
    शब्द फूल समान !
    या होंगे काँटें
  5. Manoshi
    अरे बाप रे
    कैसे हैं ये हाइकु
    ये हाइकु हैं?
    सार्थक वो हैं
    दृश्य कोई दिखा दे
    तीन पँक्तियाँ
    हर पँक्ति हो
    संपूर्ण अपने में
    अर्थ सरल
    लँबी सी पँक्ति
    तोड तोड के लिखा
    हाइकु नहीं
    दिग्गज नहीं
    बाँट के सीखा है
    जितना जाना
    वैसे हिन्दी मेंहाइकु लिखने का सही नियम http://www.abhivyakti-hindi.org/rachanaprasang/2005/hindi_haiku.htm पर जगदीश व्योम ने बहुत अच्छे से बताये हैँ|
    –मानोशी
  6. अनूप भार्गव
    अब क्या कहें
    अच्छा नही लगेगा
    नाम राशि हैं
  7. अनूप भार्गव
    अनूप भाई
    मानोशी समझाये
    मान भी जाओ
  8. Anunad Singh
    अब पता चला कि स्वामी को कविता से इतनी चिढ क्यों है |
  9. आलोक कुमार
    हायकू नहीं सवालकू है ये
    है
    न?
  10. प्रत्यक्षा
    ऐसा जुलुम
    दुहाई सरकार
    रहम करें
    हायकू छोडो
    लेख लिखना भला
    समझा करो
    प्रत्यक्षा
  11. फ़ुरसतिया » धूप छू खिल उठे आपका मन
    [...] ना झटका हमारे दोस्तों को लगा हमारे हायकू टेस्टिंग से उससे कुछ ज्यादा ही झटका [...]
  12. प्रेमलता पांडे
    हाइ हाइहू
    लिख राखे हाइकु
    हाय हाय यूं?
  13. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] 1.दीपावली खुशियों का त्योहार है 2.ढोल,गंवार,शूद्र,पशु,नारी… 3.तुम मेरे होकर रहो कहीं… 4.शरमायें नहीं टिप्पणी करें 5.बड़े तेज चैनेल हैं… 6.गुम्मा हेयर कटिंग सैलून 7.एक गणितीय कवि सम्मेलन 8.हेलो हायकू टेस्टिंग [...]
  14. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] 1.दीपावली खुशियों का त्योहार है 2.ढोल,गंवार,शूद्र,पशु,नारी… 3.तुम मेरे होकर रहो कहीं… 4.शरमायें नहीं टिप्पणी करें 5.बड़े तेज चैनेल हैं… 6.गुम्मा हेयर कटिंग सैलून 7.एक गणितीय कवि सम्मेलन 8.हेलो हायकू टेस्टिंग [...]

Thursday, November 24, 2005

श्रीलाल शुक्ल से एक बातचीत

स्वातन्त्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत-दर-परत उघाड़ने वाले अपने ढंग के पहले व्यंग्य उपन्यास 'रागदरबारी' के लेखक श्रीलाल शुक्लजी समकालीन कथा साहित्य में निस्संग और उद्देश्यपूर्ण व्यंग्य के लिये विख्यात हैं। ३१ दिसम्बर,१९२५ को लखनऊ जिले के अतरौली गांव में जन्मे श्रीलाल जी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की शिक्षा के बाद उत्तरप्रदेश प्रशासनिक सेवा में तमाम महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। साहित्य की विविध विधाओं में लेखन करने वाले श्रीलाल जी की प्रमुख कृतियां निम्नवत हैं:-
उपन्यास: सूनी घाटी का सूरज, अज्ञातवास, रागदरबारी, आदमी का जहर, सीमायें टूटती हैं, मकान, पहला पड़ाव, विश्रामपुर का संत

कहानी संग्रह: यह घर मेरा नहीं , सुरक्षा तथा अन्य कहानियां

व्यंग्य संग्रह: अंगद का पांव, यहां से वहां ,मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनायें,उमरावनगर
में कुछ दिन,कुछ जमीन पर कुछ हवा में,आओ बैठ लें कुछ देर, अगली शताब्दी का शहर, जहालत के पचास साल

आलोचना: अज्ञेय:कुछ राग और कुछ रंग

विनिबंध: भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर

बाल साहित्य: बढ़वर सिंह और उसके साथी

रागदरबारी का अंग्रेजी सहित सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ तथा दूरदर्शन धारावाहिक का भी निर्माण हुआ।

रागदरबारी के लिये १९६८ में साहित्य अकादमी से सम्मानित श्रीलालजी को प्राप्त अन्य सम्मानों में प्रमुख हैं साहित्य भूषण सम्मान, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय का गोयल साहित्य पुरस्कार, लोहिया अतिविशिष्ट सम्मान, म.प्र. शासन का शरद जोशी सम्मान , मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, व्यास सम्मान।

इसी माह की ३१ तारीख को श्रीलालजी अपने जीवन के ८१ वें वर्ष में प्रवेश करने वाले हैं। इस अवसर पर श्रीलाल शुक्ल जी के स्वस्थ-दीर्घायु की कामना करते हुये हम शब्दांजलि के पाठकों के लिये श्रीलालजी से प्रख्यात कथाकार व तद्भव के संपादक अखिलेश से तद्भव के प्रथम अंक के लिये हुयी बातचीत के प्रमुख अंश प्रस्तुत कर रहे हैं।


-बचपन का गांव किस तरह याद करते हैं?
इसके दो पक्ष हैं। जमींदारी वाले दिनों की व्यवस्था में जकड़ा हुआ गांव जिसमें अलग-अलग जातियों की अपनी-अपनी परम्परायें
,अपने तौर तरीके थे। किसी भी तरह की वर्ग चेतना नहीं थी। हर आदमी की अपनी हैसियत मुकर्रर थी। गंदी गलियां,बच्चे रास्ते आदि थे और एक भी पक्का मकान नहीं था। दूसरा पक्ष परिवेश और प्रकृति का था। गांव के तीन ओर खेत और विस्तीर्ण जंगल थे। चौथी ओर लखनऊ जाने वाली सड़क थी और घनी अमराइयों का सिलसिला था। आज जब उस गांव के बारे में सोचता हूं तो वह एक ओर कई अद्भुत व्यक्तित्वों और दूसरी तरफ अपनी प्राकृतिक मोहकता के कारण याद आता है।

-उस गांव में आप बड़े हो रहे थे। घर परिवार,साहित्यिक वातावरण कैसा था?
गांव में मेरे वंश के कई परिवार थे जिनमें दो सम्पन्न थे,बाकी बहुत गरीब थे। मेरा परिवार गरीबों कापरिवार था पर पिछली दो-तीन पीढ़ियों से पढन-पाठन की परम्परा थी। बचपन से लेकर १९४८ तक जब मुझे विपन्नता के कारण एम.ए. और कानून की पढ़ाई छोड़नी पड़ी गरीबी तथा साहित्य के प्रति अदम्य आग्रह, इम तत्वों के द्वारा मेरे व्यक्तित्व का संस्कार
होता गया।

-आपने अपने परिवार में दो तीन पीढ़ियों से पठन पाठन की परम्पराकी बात कही है, उसके बारे में कुछ अधिक बतायें।
मेरे बाबा अध्यापक थे और उर्दू फारसी की सामान्य जानकारी के साथ संस्कृत के बहुत अच्छे पंडित थे। उनके द्वारा रचित कुछ श्लोक भी उपलब्ध हैं। मेरे पिता बहुत छोटे किसान थे; उन्होंने स्कूली शिक्षा नहीं पायी थी पर हिंदी ,उर्दू ,संस्कृत का उन्हें सामान्य ज्ञान था। पिता के चचेरे भाई चंद्रमौलि शुकुल १९०७ के ग्रेजुएट थे और बी.ए. की परीक्षा में उन्होंने सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया था। अपने समय के वे अच्छे लेखक और शिक्षाशास्त्री थे। इस वातावरण के कारण मुझे १०-११ वर्ष की अवस्था से ही हिन्दी की तत्कालीन सभी पत्र-पत्रिकायें और पुस्तकें पढ़ने का अवसर मिलने लगा था;उसी के साथ साहित्यिक रचना का प्रोत्साहन भी।



-उक्त प्रोत्साहन से क्या-क्या लिखा?
बहुत अच्छा है कि उन दिनों की लिखी हुई चीजें अब उपलब्ध नहीं हैं। पर ग्यारह वर्ष की अवस्था से लेकर उन्नीस वर्ष तक मैंने उन दिनों के फैशन के अनुकूल न जाने कितनी कवितायें लिखीं,कहानियां लिखीं और उपन्यास भी लिखे,कुछ आलोचनात्मक निबंध भी। इनमें से कुछ की प्रशंसा भी हुई और कुछ कवितायें छपीं भी। इनमें से दो-तीन कहानियां मेरे संग्रह 'यह घर मेरा नहीं है' में देखी जा सकती हैं जैसे 'अपनी पहचान',और 'सर का दर्द'। पर बी.ए. तक आते-आते
मेरा रचनात्मक उफान खत्म हो गया था और मैं अपनी शिक्षा तथा जीवन यापन की समस्याओं में धंस गया था।

-लेखन में वापसी कब और कैसे संभव हुई?
लिखने से विरत हो जाने के दिनों में भी मैं आधुनिक हिन्दी और अंग्रेजी साहित्य बराबर पढ़ता रहता था। उ.प्र. प्रशासनिक सेवा में मेरे आ जाने के बाद १९५३-५४ में हमीरपुर जिले के दूरस्थ क्षेत्रों में रहते हुये वहां के अपेक्षाकृत शांत जीवन में मुझे पुन: लिखने की प्रेरणा मिली। एक रेडियो नाटक की रूमानियत और अवास्तविकता से भरी हुई प्रवृत्ति के खिलाफ प्रतिक्रिया दिखाते हुये मैंने 'स्वर्णग्राम और वर्षा' नाम की एक घोर यथार्थपरक व्यंग्यपूर्ण रचना लिखी। इसे धर्मवीर भारती ने निकष-१ में स्थान दिया। मुझे सुखद विस्मय हुआ कि निकष-१ पर आने वाली पाठकों की चिट्ठियों में मेरी इस रचना का उत्साह
से स्वागत हुआ और कई पत्र पत्रिकाओं के सम्पादकों ने भारती से मेरे बारे में पूछताछ की। उसके बाद भारती ,विजयदेवनारायण साही और केशव चंद्र वर्मा जैसे मित्रों के प्रोत्साहन से मैंने नियमित लेखन शुरु कर दिया। वास्तव में मेरा उपन्यास 'सूनी घाटी का सूरज' इन्हीं मित्रों को समर्पित है।

-आपके ये मित्र साहित्य की यथार्थवादी परम्परा के लेखन के घोर विरोधी संगठन 'परिमल' के आधार स्तम्भ थे। आपका परिमल से क्या नाता बना?
लेखक के रूप में जब मैं उभरा तब तक इलाहाबाद में परिमल की धार खत्म हो चुकी थी और उसके सदस्य अलग-अलग ढंग से अलग-अलग स्थानों पर जाकर लिखने लगे थे।
-लेकिन परिमल के बारे में आपका अपना दृष्टिकोण क्या रहा?
विजय देव नारायण साही,भारती,सर्वेश्वर,केशवचंद्र वर्मा से मेरी घनिष्ठ मैत्री थी। ये सब परिमल के सक्रिय सदस्य थे लेकिन परिमल ने मुझे कभी आकृष्ट नहीं किया।

-आपके रागदरबारी के पूर्व के दो उपन्यासों में ग्रामीण जीवन के दुखों,संघर्षों,मुसीबतों के प्रति आपका रवैया सहानुभूतिपूर्ण दिखता है। उसे मैं पक्षधरता भी कहना चाहूंगा लेकिन तमाम लोगों का कहना है कि राग दरबारी में गांव के प्रति आपका दृष्टिकोण उपहासपूर्ण है।
उपहासपूर्ण दृष्टि मैंने नहीं डाली है। ग्रामीण जीवन में जो प्रवत्तियां थीं मैंने उन्हें लिखा । गांव में आदमी भांग घोटता है,नंगे बदन रहता है,विपन्न है तब भी वह ठिठोली करता है,हंसता है,बातें करता है,एक जीवंत वातावरण सृजित करता है...

-राग दरबारी में ग्रामीण समाज की संकट में भी हंसते रहने की दुर्घर्ष क्षमता का चित्रण है कि या समाज में व्याप्त पतनशीलता का चित्रण है?
दोनों है।
-लेकिन कभी-कभी ऐसा हुआ कि जिसे सहानुभूति मिलनी चाहिये वह आपके निशाने पर है,जैसे लंगड़।
राग दरबारी में अनेक छोटे-छोटे चरित्र हैं जिनकी उपहास्पदता को लेकर मैंने सम्पूर्ण वातावरण का निर्माण किया है,मगर अंतत:
वे तंत्र के ऊपर किये गये मेरे आघात को अधिक तीव्र बनाते हैं। लंगड़ को ही लें, उसका चरित्र उपहास्पदता ज्यादा प्रकट करता है या सत्ता तंत्र के अन्याय को?

-क्या ऐसा नहीं सम्भव हो सकता था कि लंगड़ को बख्स देते और सिर्फ सत्ता तंत्र को ही निशाने पर रखते?
लंगड़ को बख्शने न बख्शने का क्या सवाल है? वह जैसा है मैंने वैसा ही चित्रित किया है। उस पर मैंने कोई वैल्यू जजमेण्ट नहीं दिया है।

-रागदरबारी व्यंग्य का महाविस्तार है लेकिन कुछ आलोचकों का कहना है कि रागदरबारी का जो व्यंग्य है वह कथा के बाहर की टिप्पणियों में है न कि स्थितियों में।
वे मानकर चलते हैं कि व्यंग्य को स्थितियों में ही अंतर्निहित होना चाहिये। अपनी उसी मान्यता पर वे राग दरबारी को कसते हैं। जबकि मैं दूसरी तरह की लेखन शैली अपने लिये चुनता हूं। और यह तो मानना पड़ेगा कि कोई लेखक अपनी विषयवस्तु के अनुरूप शैली चुनने के लिये स्वतंत्र है। अगर यथार्थ के उद्‌धाटन में मेरी शैली आलोचकों के ढांचे से अलग चली जाती है तो यह मेरा दोष नहीं है, उनके बनाये पूर्व निर्धारित ढांचे की अपर्याप्तता है।

राग दरबारी में जो भाषा है ,वह आपके यहां पहले नहीं थी,बल्कि समूचे हिंदी लेखन में वह सम्भव न थी। वह भाषा एक विस्फोट थी। कैसे वह भाषा आविष्कृत हुई?
एक तरफ अवधी है और दूसरी तरफ आपने गौर किया होगा ,अंग्रेजी के मुहावरे आते हैं। अंग्रेजी का मुहावरा जहां मैंने इस्तेमाल किया है ,वह अनुवाद कर के नहीं ,उसकी प्रकृति को हिंदी में आत्मसात करने की कोशिश की है। हां ज्यादा मूलभूत रूप से अवधी है जिसको इस्तेमाल किया है खड़ी बोली के क्रियापदों और व्याकरण के अंतर्गत।

राग दरबारी में बेला को छोड़ कर स्त्री पात्र नहीं हैं। और बेला की भी कोई खास अहमियत नहीं है।
दरअसल भारतीय ग्राम पुरुष प्रधान है। वहां स्त्री आनुषांगिक अस्तित्व मात्र है। मगर राग दरबारी में स्त्री चरित्रों के न होने के पीछे अनिवार्यत: यह कारण नहीं है। राग दरबारी का जो तंत्र है, कथा का सूत्र है, उसमें स्त्री चरित्रों की गुंजाइस नहीं बनती।
राग दरबारी छपने से पूर्व आपको यह उम्मीद थी कि यह इतनी महत्व पूर्ण कृति सिद्ध होगी?
मेरे दिमाग में यह बात स्पष्ट थी कि कुछ हो न हो ,भौतिक तथ्य तो यह था ही कि परिहास की मुद्रा में ४५० पृष्ठों का हिन्दी का तो क्या, मैं समझता हूं कि समस्त भारतीय भाषाओं का यह पहला उपन्यास है। जब एक नितांत भिन्न प्रकार का प्रयोग किया जायेगा तो तो कहीं न कहीं खामियां भी होंगी;यही हुआ। तब भी और आज भी मेरे भीतर स्पष्ट है कि अच्छी रचना दोषरहित हो यह आवश्यक नहीं। बहरहाल... राग दरबारी लिख लेने के बाद यह तो मुझे मालूम था कि इसमें खामियां भी हैं लेकिन इसकी अन्य विशेषताओं के कारण मैं अवश्य आशा करता था कि इसका कोई विशेष प्रभाव होना चाहिये।
उपन्यास को आप कितनी बार लिखते हैं?
कम से कमतीन बार तो लिखना ही पढ़ता है।
सबसे अधिक ड्राफ्ट किस उपन्यास के हुए?
मैं समझता हूं कि राग दरबारी भी तीन चार बार लिखा गया था।विस्रामपुर का संत बहुत बार लिखना पड़ा।

कौन सी चीजें आपको एक ही कृति को पुन: लिखने को विवश करती हैं?
दो चीजें । एक तो उपन्यास लिखने में जो उपकथायें होती हैं उन्हें मैं पहले से पूरी तरह सोचता नहीं हूं, उनका आविष्कार लिखते समय ही होता है। बाद में पहले की घटनाओं का भी रूप बदलना पड़ता है और कभी- कभी वे घटनायें खारिज कर दी जाती हैं। दूसरी चीज ,जहां मुझको भाषागत कृत्रिमता नजर आती है या पता चला कि भावना का आवेग उसमें ज्यादा है या अनावश्यक विशेषणों की भरमार हो रही है तो उनको काटता छांटता हूं। कोशिश करता हूं कि वह देखने में, पढ़ने में बहुत ही साधारण मालूम दे,हां ध्वनि उसकी असाधारण मालूम हो।
जैसा आपने कहा है कि कहानी को आप दोयम दर्जे की विधा मानते हैं उपन्यास की तुलना में ,फिर भी आपने कहानियां लिखीं?

मेरे कहने का अर्थ यह नहीं कि मुझे कहानियों से परहेज है या उसके प्रति मेरे मन में कोई आकर्षण नहीं । दूसरे यह भी था कि हिन्दी में पांचवे या छठे दशक में कहानियों के बहुत से आंदोलन चले,उनको लेकर जो घालमेल था उससे मुझे लगता था कि इस समय कहानियां लिखना केवल कहानियां लिखना नहीं है। उसे लिखने का अर्थ है किसी आंदोलन में शामिल होना, जो स्वभाववश मेरे लिये बहुत पसंदीदा स्थिति नहीं थी।

व्यंग्य आपकी रचना का मूल स्वर रहा है पर कहानियों में व्यंग्य की आजमाइश कम है?
बहुत सी कहानियां आपको ऐसी मिलेंगी जिसमें व्यंग्य का स्वर परिस्थिति में अंतर्निहित हुआ है।मेरी आरम्भिक कहानियां'अपनी
पहचान' और बाद की 'दंगा','सुरक्षा','शिष्टाचार' आदि ऐसी कहानियां हैं।

व्यंग्य को लेकर आपकी स्थापना है कि व्यंग्य विधा नहीं,एक शैली है ,इसे थोड़ा स्पष्ट करेंगे?
भारतीय साहित्य की परम्परा में व्यंग्य अभिव्यक्ति की एक भंगिमा है। अमिधा,लक्षणा,व्यंजना में व्यंजना का प्रयोग करते समय आपका जो आधार रहता है वह व्यंग्य है। इस रूप में भारतीय साहित्य में व्यंग्य को कभी वैसी विधा नहीं माना गया जिस रूप में नाटक या कविता आदि थे। पाश्चात्य साहित्य में जरूर यह एक विधा के रूप में रहा मगर बीसवीं सदी तक आते-आते वहां भी यह एक विधा के रूप में समाप्तप्राय हो गया। हुआ यह कि व्यंग्य के सभी महत्वपूर्ण तत्व सामान्य लेखन में घुलमिल गये। कहानी में,कविता में ,उपन्यास में उन सभी विशेषताओं का समावेश सम्भव हो गया जो प्राचीन समय में व्यंग्य के उपासन माने जाते थे। लेकिन जब मैं यह कहता हूं तो इसका मंतव्य यह नहीं कि व्यंग्य नाम की चीज ही समाप्त हो गयी। आज भी व्यंगात्मक शैली में लिखी गयी कहानी या उपन्यास का रस दूसरा होगा,दूसरी शैली में लिखी गयी
रचना का दूसरा।

व्यंग्य के दो रूप माने जाते हैं,त्रासदीपूर्ण व्यंग्य और हास्य व्यंग्य,आपकी दृष्टि में कौन अधिक महत्वपूर्ण है?
मैंने जिसे हाई कामेडी कहते हैं,उसी में ज्यादातर कृतियां लिखी हैं,कम से कम राग दरबारी का वही मूड है।
एक बड़े लेखक के रूप में आप भारतीय समाज की मुख्य चुनौतियां क्या पाते हैं?
बड़े लेखक की बात जाने दें ,व्यक्तिगत रूप से मेरी दृष्टि में सबसे बड़ी चुनौती राजनीतिक दिशाहीनता की है जिससे लगभग सभी पार्टियां ग्रस्त हैं। वे अपने चुनाव घोषणा पत्र भले ही अलग-अलग निकालें लेकिन किसी के घोषणापत्र में यह स्पष्ट नहीं होता कि उस पार्टी के विचार से समग्र रूप से समाज का क्या स्वरूप होना चाहिये। सभी पार्टियों के तात्कालिक लक्ष्य हैं । इसी का परिणाम है कि समाज के सर्वांगीण विकास की कोई दिशा नहीं दिखाई दे रही है।

भारतीय लोकतंत्र का भविष्य?
भारतवर्ष में अराजकता और अस्तव्यस्तता को शताब्दियों तक झेलने की असाधारण क्षमता रही है। इसी आधार पर आप कह सकते हैं कि भारतीय लोकतंत्र का भविष्य वही है जो उसका वर्तमान है।

आपके लिये सुख का क्या अर्थ है?
मेरा एक लेख है 'जीवन का एक सुखी दिन'। उसमें मैंने सब निषेधात्मक पक्षों को लिया है कि आज यह नहीं हुआ आज वह नहीं हुआ। आधुनिक जीवन के जितने भी खिझाने वाले पक्ष हैं , उनकी सूची दे दी है कि यह नहीं तो दिन अच्छा बीता । लेकिन सुख का पाजिटिव पक्ष होता है वह बहुत आध्यात्मिक विषय है। सच्चाई यह है कि इस प्रश्न के मेरे दिमाग में कई उत्तर हैं जिनका एक बातचीत में विश्लेषण करना मेरे लिये मुश्किल होगा। अब एक पहलू तो यही है कि नितांत अभाव ,कमियों के होते हुये भी एक दार्शनिक स्तर पर सुख की कल्पना की जा सकती है। जैसे जिस समय महात्मा गांधी लम्बे-लम्बे अनशन कर रहे थे ,भूखे प्यासे थे तो क्या कहा जाये कि वे बहुत दुखी थे? या सुखी ? हां,सहज ढंग से कहा जा सकता है कि कि सुख यह है कि कोई आकांक्षा न हो जो आपको कचोटती हो, ऐसा कोई तात्कालिक अभाव न हो जिससे आपके ऊपर दबाव पड़ रहा हो,मनुष्य या प्रकृति द्वारा सृजित ऐसा कोई कारण न हो जो आपको शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट दे रहा है।
यहां भी आप देख रहे हैं कि कोई पाजिटिव बात नहीं ,निषेधात्मक चीजें ही हैं। इसी रूप में मैं भौतिक सुख की कल्पना करता हूं।

पाजिटिव चीजें मसलन संगीत,अच्छा संग,प्रकृति आदि...
एक समय था जब ये सब चीजें मुझे उत्साहित करती थीं,मगर धीरे-धीरे शायद इस समय मेरी प्रवृति बदल रही है। मुझे लगता है कि शायद इन सबके बिना भी एक ऐसे मनोलोक की सृष्टि की जा सकती है जिसमें संतोष ,आत्मिक शांति यानी सुख का अनुभव हो सकता है। हो सकता है कि यह अवस्था के कारण हो...

जिस तरह की दृष्टि की बात आप कर रहे हैं उसकी रचना में बाह्य जगत के उपादान हैं या वह पूरी तरह आत्यंतिक और निरपेक्ष सृष्टि है?
चारो ओर जो हताशा का वातावरण बन रहा है राजनीतिक,सामाजिक,आर्थिक परिदृश्य पर ,उसके भीतर रहते हुये आपको कुछ न कुछ ऐसी युक्तियां खोजनी पड़ेंगी जिनसे आप संतोष और सार्थकता का अनुभव कर सकें, अन्यथा आप खीझ की स्थिति में रहेंगे। इनसे बचने के लिये संगीत,विविध कलायें,अच्छे मित्रों का साथ, ये स्थूल आधार मदद करते हैं। मगर कुछ समय बाद ये अपना जादू खोने लगते हैं। तब आपको अपने भीतर ,कह लीजिये कि आध्यात्मिक स्तर पर कोई खोज करनी पड़ेगी। में आध्यात्मिक शब्द का प्रयोग कर रहा हूं,किसी धार्मिक अनुष्ठान की बात नहीं कर रहा हूं।

एक समय तो ऐसा था ही जब आपको संगीत से गहरा लगाव था। मेरे ख्याल से वैसा उत्साह भले न हो लेकिन लगाव अभी भी है,आपको किस तरह का संगीत पसंद है?

संगीत अगर अच्छा हो तो सब तरह का पसंद है मगर मुख्यत: शाष्त्रीय संगीत ,ख्याल की गायकी ज्यादा आकर्षित करती है।

कोई ऐसी ध्वनि ,संगीत से इतर कोई ध्वनि जो आपको आकर्षित करती है?
कुछ ध्वनियां तो मुझे बहुत आकर्षित करती हैं। जैसे रात को और अलस्सुबह खिड़की के बाहर बारिश की आवाज। इसी प्रकार खास तौर पर जाड़े में,हल्की हवा की आवाज मेरे लिये अत्यंत उत्तेजक है।

पसंदीदा रंग कौन सा है?
फूलों को छोड़कर चटक रंग मुझे पसन्द नहीं । मेरे पास शायद ही कोई कमीज ,कुर्ता या ऐसी शर्ट होगी जो गाढ़े रंग की हो। हल्का भूरा,हल्का नीला,स्लेटी,सफेद कुछ इस प्रकार के रंग मुझे ज्यादा आकर्षित करते हैं।

आपके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी शक्ति क्या है और सबसे बड़ा दुर्गुण क्या है?
दुर्गुण मैं बड़ी आशानी से बता सकता हूं। वह यह है कि मैं किसी भी विषय के ऊपर एकाग्र होकर लम्बे समय तक काम नहीं कर पाता हूं। शक्ति अगर है तो वह है कि मैकेनिकल और तकनीकी चीजों को छोड़कर नयी चीजों ,नये व्यक्तियों,नये विचारों के प्रति मुझमें तीव्र जिज्ञासा रहती है। इन सबको जानने ,समझने या कहूं किसी मानवीय अनुभव के लिये मेरा दिमाग ज्यादा खोजपूर्ण है।

ऐसी कोई चीज जिससे आप मुक्त होना चाहें?
पान तम्बाकू की लत थी लगभग तेरह वर्ष पहले छोड़ दी। रहा सुरापान ,मैं चाहता हूं उससे भी पूरी तौर पर मुक्त हो जाऊं। लम्बे-लम्बे समय तक उससे मुक्त भी रहा। मैं सुरापान को अपने व्यक्तित्व की समग्रता में असंगत पाता रहा हूं । इसी से आगे के लिये आशान्वित हूं।

खाने में क्या पसंद है?
खाने में कोई विशेष रुचियां नहीं हैं।मैं शाकाहारी हूं । दूसरी संस्कृतियों के भोजन एग्जाटिक फूड में मेरी विशेष दिलचस्पी नहीं है। शाकाहारी भोजन जो भी ठीक ढंग से बना हुआ हो , वही अच्छा लगता है। मिर्च मशाले ज्यादा पसंद नहीं ,पर 'ब्लैंड' चीजें भी उतनी ही कम पसंद हैं।

दोस्त कैसे अच्छे लगते हैं?
पारस्परिक निष्ठा और निश्छलता तो होनी ही चाहिये। इसके अलावा जिन विषयों में मेरी रुचियां हैं ,साहित्य,संगीत,इतिहास,नाटक,सिनेमा आदि में जिनसे इन विषयों पर संवाद बन सके। इसके अतिरिक्त लेखक कलाकार
तो आते ही हैं मुकाबले दूसरे व्यवसाय के लोगों के । साथ ही वंश के लोगों से, रिश्तेदारों से भी मेरे बराबर मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बने रहे हैं।उनके साथ बैठकर अवधी में गांव घर की बातें करने का अटूट आकर्षण है। इसके अवसर भी बराबर मुझे मिलते रहते हैं।
कैसी स्त्रियां आपको सुंदर लगती हैं?आपका यह प्रश्न सुनकर मेरे दिमाग में कई चेहरे कौंधे और लगता है कि चेहरे का कोई ऐसा माडल नहीं है जो सभी में समान रूप से मौजूद हो। फिर भी जो रूप की सुंदरता है वह कुछ हद तक तो होनी ही चाहिये। घरेलूपन की कद्र करता हूं पर मात्र घरेलूपन उबाऊ चीज है। जीवन की विराट सम्भावनाओं से से कुछ खींचने की जिसमें रुचि हो,चाहे वह साहित्य संगीत कला का क्षेत्र हो या किसी व्यवसायिक विशिष्टता का वही मुझे ज्यादा आकर्षित कर सकती है। अत्यंत बहिर्मुखी प्रवृत्ति न
तो मुझे पुरुष मित्रों में अच्छी लगती है , न नारी मित्रों में ही। और कहने की शायद जरूरत नहीं कि व्यवहार में निष्कपटता भी सौन्दर्य का लक्षण है।
इन गुणों की कसौटी पर किसे खरा पाया आपने?इसे दिखावा न समझें तो मैं अपनी दिवंगता पत्नी का जिक्र कर सकता हूं। इसके अलावा ,मेरा सौभाग्य रहा कि पुरुष मित्रों की तरह इस कोटि की नारी मित्रों को लेकर भी मैं सर्वथा विपन्न नहीं हूं। पर उनका नाम न लेना ही बेहतर होगा क्योंकि उसके बाद हो सकता है आपके प्रश्न साक्षात्कार को छोड़कर जिरह के दायरे में पहुंच जायें।

लेखक का विचारधारा से क्या रिश्ता होता है?
लेखक अपने सामान्य जीवन व्यापारों में किसी भी विचारधारा से प्रतिबद्ध रहे,यह उसका हक है। पर रचनाकार की हैसियत से
लेखक की प्रतिबद्धता उसको राह खोजने की ,चुनौतियों से जूझने की ,भटकने की कठिनाइयों से बचा लेती है। यदि लेखक वास्तव में अत्यधिक संवेदनशील और प्रतिभाशाली न हुआ तो वह इसके रूढ़िग्रस्त इकहरेपन में फंसने का खतरा भी पैदा कर सकती है।
आपकी विचारधारा क्या है?
जिसे आप दक्षिणपंथ कहते हैं ,उससे मैं बहुत दूर हूं। मैं भारतीय परिस्थितियों में रचनाकर्म की पहली शर्त उसकी समाज धर्मिता को मानता हूं और इस सिद्धांत को कि रचनाकार की मूल प्रतिबद्धता केवल अपनी रचना के प्रति होती है एक अस्पष्ट और वायवीय वक्तव्य मानता हूं। लेकिन पिछले कई दशको में राजनीतिक उठापटक के दौरान साहित्य में प्रगतिशील विचारधारा की जो गति बनी है और उसे अपने बचाव के लिये जितने मैकेनिज्म खोजने पड़ रहे हैं,उससे मैं बहुत ज्यादा आश्वस्त नहीं हो पा रहा हूं। संक्षेप में ,भले राजनीति की भाषा में इस रुख को संदिग्ध माना जाये,मैं सड़क के बीच कुछ कदम पर बायीं ओर खड़ा हूं।

आज आप मुड़कर अपने अब तक के लेखन को देखते हैं तो कैसा लगता है?शायद प्रत्येक लेखक का यह अनुभव हो ,मुझे य ही लगता है कि अब तक जितना हुआ तटवर्ती लेखन भर है, अभी धारा के बीच जा कर लहरों से मुकाबला करना बाकी है।

Tuesday, November 22, 2005

एक गणितीय कवि सम्मेलन

http://web.archive.org/web/20110101193618/http://hindini.com/fursatiya/archives/68

आज मन कुछ अनमना सा हैं। कारण पता नहीं । कुछ ऐसा भी लग रहा है कि साजिशन हम अपने मन का तंबू ढीला किये हैं।कतिपय चिट्ठाकार हमारी खिंचाई के लिये दंड पेल रहे हैं। हमारे दोस्त भी मजा ले रहे हैं। लोग और उकसा रहे हैं लोगों को। हम गरीब की लुगाई हो गयें कि लोग-लुगाइयां हमें छेड़ रहे हैं और हम भी छिड़ रहे हैं। छिड़ाई तो खैर क्या लेकिन अब मज़ा आ रहा है।हमारे स्वामीजी शराफत ओढ़ लिये हैं,जीतू थाली के बैगन हो गये और खिंचाई करने वालों के साथ ताली बजा रहे हैं। अवस्थी जो काम खुद नहीं किया वो अब कर रहे हैं -बिटिया को पढ़ा रहे हैं। अतुल अभी तक धर्मेंद्र के रोल पर फिदा थे अब वे भी कटिंग कराने आ गये। देबू जुट गये हैं अपना अखाड़ा लीपने-पोतने में। हम रह गये अकेले। खीचने वाले खीच रहे हैं ऐसे कि जो पढ़ेगा समझ शायद ही पाये। ये नैन-बैन-सैन अदा है। बहरहाल हमारे करम हैं। मौज लेंगे तो ली भी जायेगी
खिंचाई करने वालों ने सारे समाधान हमारी पत्नी के आगमन में खोजें।गोया हमारी एकमात्र पत्नी, पत्नी न होकर चलता-फिरता आपातकाल हो जिसके लगते ही हम अनुशासित हो जायेंगे। हमने अपने बच्चे से पूछा – क्यों बेटा अनन्य क्या मम्मी तुम्हारी इतनी डरावनी हैं कि उनके डर से हम सुधर जायेंगे? बच्चा बोला-मेरी मम्मी डरावनी ? यह किसने कहा? मैंने बताया ये लोग कह रही हैं । वो बोला-पिताजी,मैंने बहुत पहले कहा था कि जो जैसा होता है वैसा कहता है।आंटी लोग जैसे अंकल लोगों को डरा के रखती होंगी वैसा ही मम्मी के बारे में सोचती होंगी। मैंने कहा -नहीं बेटा ,ऐसी बात नहीं हैं ये लोग तो बहुत अच्छा व्यवहार करने वाली हैं।मीठा-मीठा बोलती हैं। बहरहाल वह माना नहीं -बोला छोड़िये इसको। आप परेशान न हों । बहुत दिन से कविता नहीं लिखी । कविता लिखिये-मूड ठीक हो जायेगा।
तो हमने अपने को कविता रस सागर में डुबा दिया। कवितायें लिखने के विचार से शुरु किया तो लगा कि अपने नामाराशि अनूप भार्गव के अंदाज में कुछ कहा जाये। वे गणित के बहुत अच्छे जानकार हैं। सारी गणित की जानकारी कविता में ढेल देते हैं। हमारी न गणित मजबूत है न कविता ।लेकिन गणितीय कवि सम्मेलन की इच्छा बहुत हो रही है। सो दिल के हाथों मजबूर कवि सम्मेलन का आयोजन कर रहा हूं। तमामकवि बुला लिये। संयोजक मिला नहीं तो संचालन खुद ही करना पढ़ रहा है।
सभी संत-असज्जनों के चरणों में प्रणाम निवेदित करते हुये मैं अनुरोध करता हूं वरिष्ठ कवि गोलापरसाद से कि वे आकर अध्यक्ष पद को सुशोभित करें।इसके बाद मैं अनुरोध करूंगा माननीया रेखा जी से कि इस अनूठे गणितीय कवि सम्मेलन
का आरम्भ मां सरस्वती की वंदना से करें।आइये रेखा जी:-
रेखाजी ने इस बीच अपने जेबी आइने में चेहरा-मोहरा देख लिये था। साड़ी का पल्लू पहले फहराया फिर समेटा। माइक
पर आईं। सांस ली। छोड़ी। चारो तरफ देखा। आंखें बंद की ।खोली फिर ऊँऊँऊँ … करके वंदना शुरु की:-
वर दे,
मातु शारदे वर दे!
कूढ़ मगज़ लोगों के सर में
मन-मन भर बुद्धि भर दे।

बिंदु-बिंदु मिल बने लाइनें
लाइन-लाइन लंबी कर दे।
त्रिभुज-त्रिभुज समरूप बना दो
कोण-कोण समकोण करा दो
हर रेखा पर लंब गिरा दो
परिधि-परिधि पर कण दौड़ा दो
वृत्तों में कुछ वृत्त घुसा दो
कुछ जीवायें व्यास बना दो
व्यासों को आधार बना दो
आधारों पर त्रिभुज बना दो
त्रिभुजों में १८० डिग्री धर दो।
वर दे,
वीणा वादिनी वर दे।

भाव विभोर श्रोताओं ने तालियां बजाईं। रेखाजी अपनी डायरी तथा खुद को समेट कर श्रोताओं को नमस्ते करके बैठ गईं।
रेखाजी की इस सरस्वती वंदना के बाद अब मैं आवाज देता हूँ युवा कवियत्री स्पर्शरेखाजी को। आप देखेंगे कि उनके गले में जादू है। कथ्य में गहराई है। तथा नये जमाने की बहादुराना बेवकूफी भी है किसच को स्वीकारने का साहस है। अभी हाल ही में उनका कविता संग्रह आया है -हेरी मैं तो वृत्त दीवानी। मैं बडे़ प्रेम तथा आदर के साथ बुला रहा हूं स्पर्शरेखाजी को। वे आयें तथा श्रोताओं को अपने कलाम से नवाजें:-
स्पर्शरेखाजी नाजुक अंदाज में थोड़ा लापरवाही से उठीं। श्रोताओं ने उनके सम्मान में तालियां-सीटियां बजाई। वे मुस्काईं। बोलीं:-
आप सब लोगों ने जो हौसला आफजाई की है मैं उसका तहेदिल से शुक्रिया अदा करती हूं। मैं आपको अपनी सबसे पसंदीदा कविता सुनाती हूं:-
हेरी मैं तो वृत्त दीवानी
मेरो दरद न जाने कोय।
नैन लड़े हैं वृत्त देव से
किस विधि मिलना होय।

बस एक बिंदु पर छुआ-छुई है
केहिं विधि धंसना होय ?
जबसे छुआ है मैंने प्रिय को
मन धुकुर-पुकुर सा होय।
पर प्रियतम पलटा है नेता सा
मुझसे बस दूर भागता जाता
बस छुअन हमारी परिणति है
वह बार-बार चिल्लाता ।
जुड़वा बहना भी संग चली थी
उसको भी ये भरमाता है।
मैं इधर पड़ी वो उधर खड़ी
ये भी कैसा सा नाता है।
अनगिन रेखाओं को स्पर्शित कर
इस मुये वृत्त ने भरमाया ।
खुद बैठा है मार कुंडली
पता नहीं किस पर दिल आया।
मैं भी होती जीवा जैसी
इसके आर-पार हो जाती।
भले न पाती इस बौढ़म को
छेद, चाप दे जाती ।
शायद दूर पहुंचकर लगता
मैंने जीवन में क्या पाया!
हाय उसी को छेदा मैंने
जिस पर मेरा दिल आया।
इसी सोच की बंदी हूं मैं
बनी अहिल्या ऐंठी हूं।
स्पर्श बिंदु पर वृत्त देव के
मीरा बनकर बैठी हूं।
कभी प्रेम की ज्वाला से मैं
पिघल-पिघल भी जाऊँगी।
जिसे चाहती उसी परिधि पर
कभी विलीन हो जाऊँगी ।

तालियों की गड़गड़ाहट तथा वंसमोर के बाद दुबारा-तिबारा कई पंक्तियां सुनने के बाद जब श्रोता थक गये तथा जी भर के
देख चुके स्पर्शरेखाजी को तो वे बैठ गईं। तथा कवि वृत्तानंद उर्फ सर्किलपरसाद बिना परिचय के शुरु हो गये:-

ये राह बड़ी रपटीली है
रपटन से चढ्‌ढी ढीली है।
हर लाइन छेड़ती है मुझको
मानों मैं कोई मजनूँ हूं।
छू-छूकर खिल-खिल जाती हैं
गोया मैं कोई जुगनू हूं।
कुछ मुई लाइने हैं ऐसी
जो बर्छी सी चुभ जाती हैं।
प्रियतम मैं तेरी जीवा हूं
अन्दर ले लो कह धंस जाती हैं।
थोडा़ कहकर अंदर धंसती
फिर उथल-पुथल कर जाती हैं,
इधर काटती-उधर फाड़ती
सब बेशर्मी बहुत मचाती हैं।
कुछ त्रिभुज बनाती ,चाप काटती
सब घमासान मच जाता है,
इन लाइनों पर लाइन मारने
कोई वृत्त बेशरम घुस आता।
कुछ रेखाओं के छूने से
मन गुदगुदी मचाता है,
ये छुअन-बिंदु पर बनी रहें
ये ही अरमान जगाता है।
छुआ-छुऔव्वल से आगे
करने की मुझमे चाह नहीं,
छुअन-छुअन भर बनी रहे,
दुनिया की मुझको परवाह नहीं।
बस एक केंद्र ही ऐसा है
जो किंचित भी नहीं सनकता है,
कोई आये कोई जाये
ध्रुवतारे सा अविचल रहता है।
ये परिधि राह पर चलने वाले
बौढ़म भी बहुत भटकते हैं,
अनगिन चक्कर लगाकर भी
थे जहां वहीं पर रहते हैं।
इन बेढब चालों की चिंता ने
मेरी सारी निद्रा हर ली है,
ये राह बड़ी रपटीली है,
रपटन में मेरी चढ्ढी ढीली है।

आखिरी लाइन तक पहुंचते पहुंचते लोगों ने हूट कर दिया वृत्तानंदजी को। कुछ का विचार था कि ढीली चीज को या तो कसा जाये या उतरवा लिया जाये। इरादे किसी निर्णय के अभाव में अमल में लाये जा सके तथा वृत्तानंदजी लुढ़ककर बैठ गये।
इसके बाद बारी आई संख्यापरसाद उर्फ नंबरीदीन के। वे कविता पढ़ते हैं तो लगता है गिनती सिखा रहे हैं। पेशे से अध्यापक संख्यापरसाद जी ने जिसे गिनती सिखाई वो कविता करने लगा। जिसे कविता सिखाई वो गिनती गिनता रहा। जिसे दोनो चीजें सिखाईं वो कुछ न सीख पाया। यह संयोग है कि वे अपने हर छात्र को दोनों चीजें सिखाने की कोशिश करते। संख्यापरसाद जी ने भरे गले से शुरु किया:-

तुम दो दूनी चार पढ़ो
हम एक और एक ग्यारह
वे ३६ उलट गये ६३ में
अब तो उनकी भी पौ बारह।

नौ दो ग्यारह ही होते हैं
काहे को घर से भगते हो!
ये तीन में थे न तेरह में
काहे को इनसे डरते हो?
नौ की लकड़ी लाकर तुम
नब्बे का खर्च दिखाओगे,
निन्न्यानबे के चक्कर में
कौड़ी के तीन हो जाओगे।
हम नौ हैं उनकी तिकड़ी है,
पकड़ेंगे उनको बीन-बीन,
रगड़-रगड़ कर मारेंगे,
चढ़ एक-एक पर तीन-तीन।

इसके बाद बारी आई वीर रस के कवि त्रिभुजप्रसाद की। वे जब वीर रस की कविता पढ़ते तो लगता डर के मारे कांप रहे हैं। जाडे़ के मौसम में जब वे कविता पढ़ते हुये कांपने लगते तो लोग सोचते उन्हें ठंड लग रही है। पुलिस केस से बचने के लिये लोग उन्हें कंबल या शाल ओढ़ा देते। ये समझते लोग हमारी कविता से प्रभावित हैं। कई गलतफहमी में धक्कामुक्की हो जाती। त्रिभुजप्रसाद ने शुरु किया-कांपते हुये:-
हे ज्यामिति देवी नमस्कार
अपनी सभी भुजाओं के संग
करता हूं तुमको बहुत प्यार।

सब देशों की सीमाओं सा
मैं रेखायें जोड़े रहता हूं,
ये इधर भागतीं उधर भागतीं
मैं इनके सब नखरे सहता।
ये तीनों कोण संभाले हैं,
लालच में कभी नहीं आता,
१८० डिग्री में गुजारा करता हूं,
उतने में ही मन भर जाता।
अनुशासित रहता आया हरदम,
रेखाओं को हरदम हटका ,
एक-दूजे पर कभी मत लेटो,
बाकी सब कुछ करो बेखटका।
तीन तिगाड़ा ,काम बिगाड़ा
कह सबने मुझे चिढ़ाया है,
इतिहास जानता है लेकिन
मैंने जनहित में कितना खून बहाया।
जब पड़ी जरूरत तुमको है,
मैंने अपने कोने कटवाये हैं,
त्रिभुजों का वेतन लेकर के
बड़े बहुभुजों के काम कराये हैं।
जब पड़ी आफतें वृत्तों पर,
अपने अंदर कर लाड़ किया,
जब-जब उनने भौंहें ऐंठीं
अन्दर घुस उनको फाड़ दिया।
समबाहु-द्विबाहु,सम-विषमकोण,
चाहे जैसा हो मेरा आकार,
जब पड़े जरूरत बुलवाना,
दौड़ा आऊंगा सुनकर पुकार।
हे ज्यामिति देवी नमस्कार,
अपनी सभी भुजाओं के संग
करता हूं तुमको बहुत प्यार।

त्रिंभुजप्रसाद के इस जबरदस्ती तथा जबरदस्ती कविता पाठ के बाद मैं अब आवाज दे रहा हूं फिर से जानी-मानी कवियत्री रेखा देवी से। वे हायकू भी बहुत अच्छे लिखती हैं। इतने अच्छे कि अक्सर लोग उन्हें हायकू मानने से इंकार कर देते। मैं अनुरोध करूंगा कि वे अपने कुछ हायकू सुनायें।रेखाजी:-
रेखाजी ने कहा-साथियों आप लोग जिस मूड से कविता सुन रहे हैं उससे मुझे लग रहा है कि मैं अपनी सारी रचनायें सुना डालूं। लेकिन रात काफी हो रही है लिहाजा मैं अपने कुछ ताजा तरीन हायकू सुनाकर इजाजत चाहूंगी। ये वे हायकू हैंजो मैंने अभी-अभी लिखे। कुछ का मतलब मेरे भी समझ में नहीं आया हैं ।लेकिन मुझे यकीन है कि आपलोग मतलब समझ लेंगे। इसमें मैंने वृत्त आदि का मानवीकरण करके अपनी बात कहने की कोशिश की है। मुलाहिजा फरमायें:-

हे मेरे देव,
किये बढ़िया सेव,
पास आओ न!
तुमको देखा
अंखियां तर गईं
दूर जाओ न!
रेखायें बोलीं,
चलो करें ठिठोली
गोले पे चढ़ें।
त्रिभुज बोला
ये भैया मेरे गोला
छानोगे गोला!
समांतर हूं
मिलूंगी नहीं भाई
दूरी निभाओ।
बिंदु बिंदु से
लाइन निकली है
दूर भागतीं।
छुओ मत रे
गुदगुदी होती है
रेखा बिंहसी।
अच्छा चलो
आंख दो चार करे
पियार करें।
मिट जाऊंगी
रोशनी बनकर
तुम्हारे नाम।
लोग कहेंगे
बेकार में हो गया
काम तमाम।
यही होता है,
भंवर देखा,कूदे
व डूब गये।

रेखाजी को लोग वाह-वाह करके बैठने ही नहीं दे रहे थे। उधर वाह-वाह के हल्ले से अध्यक्ष गोलापरसाद की नींद टूट गई तथा वे लुढकते पुढकते हुये बिन बुलाये माइक पर आ गये। रेखाजी कुछ देर पास में यह सोचकर खड़ीं रहीं कि शायद अध्यक्षजी उनकी किसी कविता की तारीफ करें लेकिन वे खुद शुरु हो गये तो वे बुझे मन से सबको प्रणाम निवेदित करके बैठ गईं। गोलापरसाद दगने लगे:-
मैं गोला हूं बम भोला हूं
बाहर कड़ा अंदर से पोला हूं।

मैं गोलमटोल बना बैठा
सबको गोली दे जाता हूं।
सब गोली में जब होंय टुन्न
मैं कहीं लुढ़क सा जाता हूं।
मैं धक्कामुक्की से डरता हूं
बस एक बिंदु पर लड़ता हूं
हर ओर एक सा रहता हूं
चिकने पर सरपट भगता हूं।
हैं मेरे कितने रूप अनेक
मैं अब तक खुद न समझ पाया,
मूझे बुलाया था आपने यहां
या खुद ही चलता फिरता आया?
ये सम्मेलन लंबा चलेगा तो
मैं यहीं लुढ़क गिर जाऊँगा,
मैं यहीं समापन करता हूं
फिर आगे कभी सुनाऊंगा।

कहकर गोलापरसाद लुढ़कने लगे। श्रोता उनके वजनी शरीर के नीचे दबने से बचने के लिये जहां जगह मिली भागने लगी। सब जगह भगदड़ मच गई।पहले गणियीय कवि सम्मेलन का गणित बिगड़ गया। इसलिये लोग घरों को लौटने लगे।
हमारा मूड भी कवितायें सुनकर कुछ ठीक सा होने लगा ।आपके क्या हाल हैं?

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

16 responses to “एक गणितीय कवि सम्मेलन”

  1. सारिका सक्सेना
    मजा आ गया अनूप जी! और आपकी प्रतिभा के भी कायल हो गये। इतनी सारी हास्य कविताओं के गोले एक ही दिन में…..हंसते- हंसते पेट दर्द हो गया।
    कोई कुछ भी लिखे हिन्दी चिट्ठा जगत के आप ही बेताज बादशाह हैं।
    (कैसी रही तारीफ:-))
  2. kali
    Jis tarah bhagwan krishna ne apne anek rup Arjun ko dikhaye the usi tarah Shukl dev apne vihangam roop dikha kar bhakton ko vismay mishrit anand-anubhuti karwa rahe hain. Anugrahit hua prabhu, kali charan aapko bhi naman karta hai.
  3. मिर्ची सेठ
    शुक्ल देव जी बच्चे का सहारा लेते हो। तुलसीदास जी की तरह अपने सबसे प्रिय पात्र यानि स्वयं से कहलाओं ये बाते।
    गणित कवि सम्मेलन आज पहली बार पढ़ा वृत्त और जीवाओं की अठखेलियाँ बहुत पसंद आई लगा किसी नए नए जीजा को सालियाँ तंग कर रही हैं।
    पंकज
  4. जीतू
    तुम्हरा कोई पता ठिकाना है कि नही, कभी सैलून सैलून घूमते हो कभी गणित सम्मेलन। फ़ार ए चेन्ज कभी कभी घर आफ़िस का काम भी कर लिया करो। लोग कम्प्लेन कर रहे है, बोलते है, जब भी मीटिंग होती है, कविता सुनाये बिना खतम नही करने देते। अब तुम अपने मातहत को मत हड़काना, उसने हमे गोपनीयता की शर्त पर ये सब बाते बतायी है।
    वैसे लेख तो शानदार लिखा हो, गणित मे हमारी फ़ीस माफ़ थी, किसी तरह टीचर को सैट करके पास हो गये थे, इसलिये हमारी समझ मे पूरी तरह से तो नही आयी, दो चार बार पढेंगे तो शायद कुछ पल्ले पड़े।
    और हाँ, आजकल चिट्ठा चर्चा काहे बन्द कर दिये हो?
  5. अनूप भार्गव
    जितनी भी गणित आती थी उस से ज्यादा उँढेल चुके हैं कविता में । अब आप के गणितीय कवि सम्मेलन के बाद लगता है MATH 101 का रीफ़्रेशर कोर्से लेना होगा, आगे कविता लिखनें के लिये ….
    बधाई …. एक बहुत अच्छे लेख के लिये ।
    छू गई मन को, तुम्हारे व्यंग की वो स्पर्श रेखा …
    अनूप (भार्गव)
  6. Manoshi
    वाह शुकुल देव। आप की जय हो। आप ने बहुतों को अपने साइड में कर लिया। और एक कहावत है कि हर शरीफ़ इन्सान अपनी बीवी से डरता है, तो इसमें बुराई क्या कि सफ़ाई देनी पड रही है आपको (वैसे ये लेख अपनी पत्नी को ज़रूर पढाइयेगा…कूट नीति यू नो)
    वैसे, आपके टैलेंट की दाद देनी पडेगी। गणित तो है ही, मगर ये जो हाइकुनुमा कविता है…उसमें भी गणित…बहुत अच्छा लेख लिखा है आपने और हमेशा लिखते रहिये।
  7. प्रत्यक्षा
    अनूपजी ने श्रीमति जी से इज़ाजत ले ली है कि वो डँके के चोट पर एलान कर सकें कि वो उनसे डरते नहीं.
    वैसे कवि सम्मेलन मे मज़ा आया. गणित बेचारी आई थी ,कह गई
    गणित बोली
    ऐसी जग हँसाई
    रो पडूँगी मैं
    याद रखना
    काम हमसे तुम्हें
    पडेगा फिर
    मैं भी तब यूँ
    खिसका दूँगी शून्य
    तेरे अँगना
  8. अतुल
    मान्यवर शुकुल देव फुरसतिया गुरू जी
    कृपया नोट किया जाये, आपके खिंचाई अभियान में हमारा कोई योगदान नही है। हमारा कटिंग सैलुन तो आपकी ही प्रेरणा से लिका गया है। यहाँ गणित का यह हाल देख श्री बी जी द्विवेदी न जाने क्या सोचेंगे। बाकी सारी कविताऐ तो अति सुँदर हैं पर एकाध कविता के कुछ अँश अगर संदर्भ से बाहर निकाल लिये जाये तो आजकल निरंतर के (अ)भूतपूर्व संपादक मँडल में छिड़ी चर्चा के दायरे में आ सकते हैं।
    कुछ मुई लाइने हैं ऐसी
    जो बर्छी सी चुभ जाती हैं।
    प्रियतम मैं तेरी जीवा हूं
    अन्दर ले लो कह धंस जाती हैं।
    थोड़ा कहकर अंदर धंसती
    फिर उथल-पुथल कर जाती हैं,
    इधर काटती-उधर फाड़ती
    सब बेशर्मी बहुत मचाती हैं
  9. रवि
    क्या बात है! व्यंग्य भरी इन कविताओं को रचनाकार में पुनः प्रकाशित करने की अनुमति चाहिए.
    पर, आपकी साइकिल यात्रा कहां अटक गई?
  10. Laxmi N. Gupta
    वाह भाई अनूप जी,
    आप फिर बाजी मार ले गये। मैं गणित का अध्यापक हूँ और कविता भी लिखता हूँ लेकिन दोनों का बेहतरीन समन्वय तो आपने किया है। मैं आपकी प्रतिभा का कायल हूँ।
  11. फ़ुरसतिया » सितारों के आगे जहाँ और भी हैं…
    [...] कुछ दिन बाद हमनें अनूप भार्गव की कविताओं से प्रभावित होकर या कहें प्रतिक्रिया मेंपूरा गणितीय कवि सम्मेलन लिखा। जिसकी अनूप भार्गव ने तारीफ की। इससे हमें लगा कि मानोशी के दादा वाकई कुछ-कुछ अच्छे होंगे।फिर भी हम लगातार मानोशी को चिढा़ते रहे कि अरे ऐसे ही हैं तुम्हारे दादा। तमाम प्रमाण देने के बाद भी हमने नहीं माना कि वो सबसे अच्छे हैं। कैसे मान लेते भाई ! सुनी-सनाई बातों पर यकीन नहीं न करना चाहिये। [...]
  12. संजय बेंगाणी
    आपमें निवास कर रहे कवि को नमन करता हूँ.
  13. फुरसतिया » एक गणितीय कवि सम्मेलन फिर से
    [...] [ महाजनो येन गत: स: पन्था। आज ज्ञानजी की पोस्ट की रिठेल देखकर हमें यह कहावत फिर याद आ गयी। सोचा अमल भी हो जाये। द्शहरा ,दीपावली का मौसम कवि सम्मेलनों का सबसे सहालगी मौसम होता है। दो साल पहले हमने ऐसे ही एक गणितीय कवि सम्मेलन का आयोजन किया। अनूप भार्गव जी की एक कविता इसकी प्रेरणा थी। कवि गण जब अपनी जवानी में लिखी कवितायें बुढ़ापे के बाद तक सुनाते हैं तो हमने कौन सा अपराध किया है कि दो साल पहले लिखा रचना दुबारा न पढ़वा सकें। आखिर इस दो सालों में ब्लागर बने पाठकों ने कौन सा पाप किया है जो उनसे इसे छिपाया जाये। तो आइये शुरू किया जाये। अच्छा लगे तो आशीर्वाद दीजियेगा (कवि यही मांग पाता है बाकी मिल जाये तो हरिइच्छा)।खराब लगे तो ज्ञानजी को कोसिये जिन्होंने ये ठेला-ठेली शुरू की] आज मन कुछ अनमना सा हैं। कारण पता नहीं । कुछ ऐसा भी लग रहा है कि साजिशन हम अपने मन का तंबू ढीला किये हैं।कतिपय चिट्ठाकार हमारी खिंचाई के लिये दंड पेल रहे हैं। हमारे दोस्त भी मजा ले रहे हैं। लोग और उकसा रहे हैं लोगों को। हम गरीब की लुगाई हो गयें कि लोग-लुगाइयां हमें छेड़ रहे हैं और हम भी छिड़ रहे हैं। छिड़ाई तो खैर क्या लेकिन अब मज़ा आ रहा है।हमारे स्वामीजी शराफत ओढ़ लिये हैं,जीतू थाली के बैगन हो गये और खिंचाई करने वालों के साथ ताली बजा रहे हैं। अवस्थी जो काम खुद नहीं किया वो अब कर रहे हैं -बिटिया को पढ़ा रहे हैं। अतुल अभी तक धर्मेंद्र के रोल पर फिदा थे अब वे भी कटिंग कराने आ गये। देबू जुट गये हैं अपना अखाड़ा लीपने-पोतने में। हम रह गये अकेले। खीचने वाले खीच रहे हैं ऐसे कि जो पढ़ेगा समझ शायद ही पाये। ये नैन-बैन-सैन अदा है। बहरहाल हमारे करम हैं। मौज लेंगे तो ली भी जायेगी [...]
  14. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] चैनेल हैं… 6.गुम्मा हेयर कटिंग सैलून 7.एक गणितीय कवि सम्मेलन 8.हेलो हायकू [...]
  15. Dr.Rama Dwivedi
    अनूप जी ,
    आपका गणतीय कवि सम्मेलन वाकई काबिले तारीफ़ है…पढ़कर मज़ा आ गया …लिखते रहिए…शुभकामनाओं सहित..

Monday, November 21, 2005

गुम्मा हेयर कटिंग सैलून

http://web.archive.org/web/20110101190047/http://hindini.com/fursatiya/archives/67

अब जब से भारत में विश्व सुन्दरियां पैदा होने लगीं तब से सौन्दर्य के प्रति जागरुकता बढ़ी है। मध्यम वर्ग कुछ ज्यादा ही जागरूक हुआ है इस दिशा में। लोग दुबले होने की चाह में दुबले हो रहे हैं। शरीर के खानपान के अलावा टीम-टाम पर भी काफी खर्चा होने लगा है। शरीर में भी सबसे ज्यादा देखभाल लगता है कि सर के बालों की होती है। पहले लोग कडुआ तेल डालकर सर को पटा लेते थे। अब मामला इतना आसान नहीं रहा। सर के बालों के लिये तमाम तरह के शैम्पू,जेल,तेल,डाई वगैरह तो नियमित देखभाल के लिये चाहिये। इसके अलावाबालों के बनवाने में भी अच्छा खासा खर्चा हो जाता है।
जगह-जगह ब्यूटी पार्लर ,मसाज सेंटर खुल गये हैं। इन जगहों पर एक बार जाने का खर्चा कभी-कभी एक मजदूर के आधे माह की कमाई के बराबर बैठता है। कुछ दिन पहले तक ऐसा नहीं था। जगह-जगह पर नाइयों की दुकाने थीं। वहां सिर्फ बाल बनवाने का काम होता था। धीरे-धीरे ब्यूटी पार्लरों तथा मसाज सेंटरों ने इन दुकानों तथा फुटपाथ पर बैठने वाले नाइयों का धन्धा चौपट कर दिया है।

जमीन से जुड़ी दुकान
मुझे याद है कि छुटपन में हमारे पिताजी घर के पास लेनिन पार्क के सामने की फुटपाथ पर दाढ़ी- बाल बनवाने जाते थे। हम लोगों को भी ले जाते कटिंग कटवाने के लिये। वहां धूप में जमीन पर बिछी चादर पर बैठा कर नाई कटिंग करते। बैठाने के लिये चादर के नीचे या ऊपर ही एकाध ईंट रख लेते ताकि बैठने में आसानी रहे। कम पैसे में बाल कट जाते। उन दिनों हमारे घर के सामने स्थित ‘रंगीला हेयर ड्रेसर’ के मुकाबले ये फुटपाथिया कटिंग सैलून आधे पैसे लेता। खाली कुर्सी पर बैठकर बाल कटवाने के लिये दुगुने पैसे देने के मुकाबले जमीन से जुड़कर बाल कटवाना पिताजी को समझदारी लगती । इसमें कोई हीन भावना नहीं थी बस अनावश्यक फिजूलखर्ची से बचने की बात थी। अपने फुटपाथिया नाई की दुकान का नाम पिताजी बताते थे- गुम्मा हेयर कटिंग सैलून। गुम्मा ईंट को कहते हैं। ईंट पर बैठकर बाल बनवाने के कारण गुम्मा हेयर कटिंग सैलून कहते। कुछ लोग ईटैलियन कटिंग सैलून भी कहते।
समय के साथ कुछ अभिजात्य और कुछ जमीन से उचकने के चलते हम गुम्में से उचककर कुर्सी पर स्थापित होते गये। लेकिन नाम- गुम्मा हेयर कटिंग सैलून दिमाग में चिपका रहा। कुछ दिन से बराबर घूम रहा था दिमाग में।सोच रहा था कि शहर में निकलूंगा किसी दिन सबेरे-सबेरे शायद कोई मिल जाये नाई फुटपाथ पर दुकान चलाता।पता चला लेनिन पार्क के फुटपाथ पर अब कोई नाई नहीं बैठता।
कल जब घर के पास ही स्थित नाई की दुकान पर बाल कटवाने गया तो देखा सामने गुम्मा हेयर कटिंग सैलून नुमा दुकान दिखी। इसी को शायद कहते हैं -गोदी लड़का गांव गुहार। लगा बचपन का कोई मीत मिल गया। आज सबेरे-सबेरे सबसे पहले जाकर उसका फोटो लिया ताकि सनद रहे।
नाई ,नाऊ,नाऊ ठाकुर या नउआ के संबोधन से पुकारे जाने वाले नाई की कुछ वर्ष पहले तक गांवों में अहम भूमिका रहती थी।बाल काटने, बदन की मालिश करने के अलावा संदेश वाहक के रूप में भी नाई की भूमिका थी। नाई को उसकी चतुर बुद्दि के लिये भी जाना जाता था। दूसरों के गांव गई बारात की इज्जत का दारोमदार काफी कुछ नाई की बुद्धि पर रहता था।
गांवों में नाई को परजा (प्रजा ) के रूप में जाना जाता। अन्य परजा लोगों में बारी(पत्तल उठाने वाले),कहार(पानी भरने वाले),मनिहार(श्रंगार संबंधित),कुम्हार(बर्तन वाले) ,भाट(तारीफ करने वाले) आदि रहते। गांव के लोग इनकी सेवाओं के लिये साल में फसल होने पर इनको आनाज देते।गांव की इकाई में इनकी उपस्थिति अपरिहार्य रहती।

काम चौकस होगा
नाई के परंपरागत पेशे के बारे बताते हुये हूलागंज, कानपुर के निवासी बिंदाप्रसाद बताते हैं कि उनका काम खानदानी है।शहर के तमाम पैसे वाले लालाओं के घरों पर उनके परिवार की महिलायें घरेलू नाइन के तौर पर सेवायें दे रही हैं। इसकी कोई तय फीस नहीं।बस,पुराने कपड़े या जलपान का बचा-खुचा सामान ही उन्हें बतौर मेहनताना मिल जाता है। कभी-कभी शादी या बच्चे की पैदाइस पर हैसियत के हिसाब से लोग ईनाम या छोटा-मोटा गहना लोग दे देते हैं।ये प्रथा भी अब गायब हो रही है क्योंकि बच्चे आजकल नर्सिंग होम में पैदा हो रहे हैं। बतौर पुश्तैनी धंधा नाई परिवार की औरतें आज भी पुराने चलन के काम घरों में रसोईघर के काम करती हैं। जैसे कि दाल पीसना,मालिश करना, आटा गूंथना तथा नवजात शिशु की साफ सफाई करना। बिंदा प्रसाद के अनुसार, नाई एक तरह से दिहाड़ी मजदूर का भी काम करते हैं।सरकार ने दैनिक मजदूरी की दर ८५ रुपये (लगभग दो डालर)कर रखी है लेकिन नाई महिला को बदले में एक समय का भोजन खिलाकर चलता कर दिया जाता है।
समय चक्र के साथ ये सारी इकाइयां विलीन समाप्त होती गईं। इनके साथ ही इनसे जुड़े तमाम सूत्र भी खत्म होते गये। पहले नाई बच्चों को तमाम पुश्तों से जुड़े किस्से सुनाते रहते। हमारे पिताजी को शौक था कि वे गांव जाते तो गांव के नाई से मालिश करवाते ,पैर दबवाते,चंपी मालिश करवाते। जितनी देर यह सब होता रहता उतनी देर नाई ,जो नाऊ लाला के नाम से जाने जाते थे,उनको गांव भर के सारे किस्से सुना देता जिसे वे हुंकारी भरते हुये सुनते तथा शहर के किस्से सुना भी देते।अब शहर के नाई को क्या पता आप कौन हैं,आपके पुरखे कौन हैं। वह तो आपसे पूछेगा -साहब बाल कैसे काट दूं?
सहारा समग्र अखबार के अनुसार कानपुर में नाइयों की फुटपाथिया तथा छोटी-बड़ी सैलूनों को मिलाकर कम से कम दस हजार दुकाने खुली हैं। इन्हें चलाने वाले अधिकतर अपने नाम के साथ सविता,शर्मा,सेन,ठाकुर,वर्मा,अहमद तथा अंसारी जैसे जातिसूचक नाम जोड़ते हैं।
फुटपाथिया दुकानदारों के धंधे की कुल जमा पूंजी वही युगों पुराना उस्तरा,मालिश का तेल ,कैंची-कंधा ,फिटकरी,साबुन है। एड्‌स के हल्ले के चलते समय के साथ हर दाढ़ी या कटिंग में अब आधे नये ब्लेड प्रयोग शुरु हो गया है। जमीन से उठकर अब धीरे-धीरे लोग कुर्सी पर आते जा रहे हैं। किसी पेड़ के नीचे ग्राहक के एक ऊंची कुर्सी डालकर दुकान शुरु ।
कानपुर में सविता सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्था के महामंत्री सुरेंद्र सविता एक लंबे समय से अपने समाज को एकजुट करने में लगे हैं। वे दर्द के साथ कहते हैं- हमें तो आरक्षण तक नसीब न हुआ। शायद सरकार हमें ऊँची जाति तथा सम्पन्न श्रेणी का समझती है।तभी हमें आरक्षण सूची से बाहर रखा गया।

लाओ दाढ़ी भी चिकना दें<br />
बहरहाल, नाई समाज के लोगों का कहना है कि सरकार ब्यूटीशियन दुकान तथा मसाज सेंटर खोलने के लिये लाइसेंस अनिवार्य करे। इन्हें खोलने की अनुमति केवल नाई समाज के लोगों को मिले। हर रेलवे स्टेशन पर किताब और खानपान की दुकान की तरह सैलून भी खोले जायें।सरकारी विभागों में जलपान की कैंटीन की तरह ही अपना सैलून खोलने की सुविधा दी जाये।
आगे की बात तो आगे का समय बतायेगा लेकिन जो बात सोचने की है कि परिवर्तन के चक्र में देखते- देखते पेशों के स्वरूप कैसे बदल जाते हैं। गांव से जो शहर भागने का क्रम शुरु हुआ है उससे सारे परंपरागत पेशे प्रभावित हुये हैं। लोग अपने पेशे छोड़ रहे हैं। दूसरे अपना रहे हैं। घरों में मिट्टी के बर्तन कम हुये धातु के आये। तो कुम्हार खतम हो गये। कुंये खतम हुये नल आये हैंड पंप आये-कहार खतम हो गये। सौन्दर्य प्रसाधन की दुकाने खुली- मनिहार बेकार हो गये। बफे सिस्टम आये लोग खुद लगाकर लोगों को धकियाकर खाने लगे-पत्तल उठाने वाले बारी गैरजरूरी हो गये। रेडीमेड पूजाविधियां ,कुंडली बनाने की विधियां तरकीबें पुरोहितों को बेकार कर रही हैं।
शायद आपको लगे कि परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है तथा समय के अनुसार पेशे तो बदलने ही पड़ेंगे। यह सच है लेकिन यह भी
सोचे कि दिमागी तौर पर बहुत जहीन लोग भी जब अपने पेशे मजबूरी में बदलते हैं तो नये पेशे में सहज होने में कितना समय लेते हैं।
समय के साथ तमाम सुविधायें जिनके लिये मनुष्य की सेवायें जरूरी होती थीं वे कृत्तिम साधनों,मशीनों के जरिये सुलभ होने लगी हैं। क्या यह नाऊ,बारी,भाट,पुरोहित,कहार,मनिहार के पेशों की तरह मनुष्य को भी गैरजरूरी बनाने की दिशा में बढ़ाये गये कदम हैं!
स्वयं सर्वसक्षम बनने तथा क्रमश: गैरजरूरी होते जाने के दो पाटों के बीच मनुष्य को अपनी स्थिति तय करनी है। यह सही है या गलत, क्या सोचते हैं आप?
मेरी पसंद
एक घर को कई पीढ़ियों तक धीरे-धीरे
बनाना चाहिये।
जल्दी बनाने पर लुत्फ नहीं रहता
जल्दी बनाने पर जल्दी बिगड़ता है
एक घर को बनाने में कई पीढ़ियों को लगाना चाहिये
मजदूरों की तरह
भरपूर नींद लेकर
और थोड़ा कम खाकर।
उजड़ते हुये संसार में उजड़ जाओ
बसने के लिये।
-दूधनाथ सिंह,इलाहाबाद।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

10 responses to “गुम्मा हेयर कटिंग सैलून”

  1. Manoshi
    आपका लेख काफ़ी अच्छा लगा, मगर आज एक बात सोचती हूं कि ये नाई कितना हाइजीन का खयाल रखते होंगे। पहले एड्स आदि बीमारियों के बार में कहां किसी को पता था पर आज ऐसे नाइयों के पास बाल कटवाते डर ज़रूर लगेगा। पहले अगर कभी किसी को कोई इन्फ़ेक्शन हुआ भी होगा तो शायद समझ न पाया हो, या यूँ कहे जागरुकता कम थी लोगो मे, मगर आज बात दूसरी है|
  2. अनाम
    बड़ा ही तेज़ चैनल है ये फुर्सतिया जी का। एक्दम ‘एक्स्क्लूज़िव’ रिपोर्टिंग। बहुत दिनों से ये बात मेरे दिमाग में थी..कई बार सोचा था बेचारे नाइयों के बारे में और उनकी जो दुर्दशा हो गयी है…बहुत से बेरोज़्गार हुए हैं और बहुतों की अगली पीढ़ियों ने ‘सलून’ खोल लिये हैं। लखनऊ जाता था तो मन करता था कि फिर से देखने जाऊं उस नाई की दूकान को जहां बचपन में बाल कटाता था…पूरे पच्चीस पैसे देकर। एक बार कोशिश भी की पर नहीं मिली वो दूकान। बचपन में मुझको याद है कि घर के सामने एक नाई आता था और गुम्मा डालकर बैठ जाले थे हम लोग बाल कटाने। कितनी सिम्पल प्रोसेस होती थी बाल कटाने की। आजकल तो 50-60 रूपये से लेकर 500 रूपये में बाल कटते हैं भारत में..या शायद और भी ज़्यादा।
  3. kali
    Bhai mujhe to bhopal main hair cutting saloon main magazines (Mayapuri / Filmfare) aadi padte hue bal katwana hi yaad hai. Ekdum chakachak katora cut cutting 8/- main. Saath main kisne kisko gupti mari, kaun andar gaya, kaun bahar aaya, kiski kisse setting chal rahi hai aadi sab news as bonus mil jaati thi.
  4. जीतू
    लीजिये झेलिये मेरी प्रोमो टिप्पणी

    हमे जहाँ तक याद है, हमारे घर मे भूरेलाल नाई आया करते थे, दादाजी की शेव वगैरहा के लिये, वो दिन हम सभी लड़कों के लिये भारी हुआ करता था, चाचाजी का आदेश था, जब भी भूरेलाल आये, सारे लड़कों के बाल भी छोटे छोटे करवा दिये जाय।अब भूरेलाल भी चाचाजी की शह पर हम सभी को हड़काता था और बार बार उस्तरा दिखाकर धमकाता था, हालांकि हम लोगो के बाल कैन्ची और मशीन से ही कटते थे, फिर भी। एक दिन ऊँट पहाड़ के नीचे आ ही गया। पूरा किस्सा पढने के लिये…पढिये रहिये मेरा पन्ना .

  5. अतुल
    अतुल
    लेकिन मेरी टिप्पणी झेलने के लिए आपको इंतजार नही करना पड़ेगा। मेरी प्रविष्टी हाजिर है।
  6. अतुल
    लेकिन मेरी टिप्पणी झेलने के लिए आपको इंतजार नही करना पड़ेगा। मेरी प्रविष्टी हाजिर है।
  7. Satish Pancham
    अनूपजी आपने अच्छा हुआ मेरी पोस्ट पर इस लेख का लिंक दे दिया वरना पता ही नहीं चलता कि इस मुद्दे पर कहीं कोई विस्तृत लेख लिखा है और वह भी मेरे लेख से ठीक तीन साल पहले यानि 21 नवंबर 2005 को जबकि आज 20 नवंबर 2008 है। बहूत खूब अनूप जी। लेख भी अच्छा है और यह फोटो भी जो कि अब ढूंढने पर ही कहीं दिखे।
  8. Gyan Dutt Pandey
    इत्ती बढ़िया! बहत ईर्षियाटिक पोस्ट है!
  9. K M Mishra
    आपने तो नाई समाज पर पूरा एक फीचर ही लिख दिया । वाकई नाईयों की स्थिति दुखद है । अब तो अधिक्तर यह काम मुसलमान भाई देख रहे हैं ।
    ज्ञानवर्धक पोस्ट ।
  10. pankaj upadhyay
    बहुत बहुत अच्छी पोस्ट… दिल ले गये आप अनूप जी.. वाह!