Saturday, December 03, 2005

रहिमन निज मन की व्यथा

http://web.archive.org/web/20110925142907/http://hindini.com/fursatiya/archives/83

काफी दिन बाद जब मन से लिखने बैठा/लेटा हूं तो तमाम विषय एक-दूसरे को धकिया के आगे आ रहे हैं। सब कह रहे हैं पहले हम,पहले हम। हमें समझ में नहीं आ रहा है कि किसे पहले निपटाया जाये। पहले हमें भ्रम था कि हमें लिखने की लत लग गई है तथा हम बिना लिखे जी नहीं पायेंगे। यह भ्रम मिथ्या साबित हुआ जब पिछले कुछ दिन अपने लैपटाप के खराब होने के कारण हम इस जाल-जंजाल से दूर रहे। बहरहाल उस बात को लिखने का मन कर रहा है जो शायद सबसे ज्यादा फिजूल की है तथा जिसके लिये मेरे पास कोई तर्क नहीं हैं-सिर्फ मन है । मेरे साथ यह अक्सर होता है कि मन तर्क को पटक देता है।
गतवर्ष की तरह इस बार भी भारतीय ब्लाग मंडल पुरस्कारों के लिये के लिये चहल-पहल शुरु हो गई है। अगले दो माह ब्लागमंडल के लिये गहमागहमी भरे होंगे। कुछ नये ब्लाग भी सामने आयेंगे। कुछ स्तरीय पोस्ट पढ़ने को मिलेंगी। जिनके ब्लाग नामांकित होंगे वे कुछ सनसनी में भी होंगे। निर्णायकों की घोषणा हो चुकी है। सभी निर्णायक गुणी हैं,ज्ञानी हैं,अनुभव विज्ञानी हैं । निश्चित तौर पर भारतीय ब्लाग मंडल अनुभव समृदृ होगा। गत वर्ष तमाम लोगों को आपत्ति थी कि अपनी साइट लेकर काम करना चाहिये। इस बार इंडीब्लाग की अपनी साइट है। गलतियों की सम्भावना कम होगी। फिर भी कुछ विवाद तो होंगे ही। कुछ लोगों को अपने ब्लाग के चुने न जाने का अफसोस होगा। कुछ को वोटिंग के तरीके से एतराज होगा। कुछ लोग कोसेंगे वोट देने वालों को कि उसमें सही-गलत की समझ नहीं है।
मुझे इनमें से किसी भी श्रेणी का कष्ट नहीं है न होगा। मैं चूंकि इस यज्ञ में कोई आहुति नहीं दे पा रहा अत: इससे मेरा जुड़ाव तमाशबीन उत्सुकता वाला है कि देखें क्या हो रहा है आगे। लेकिन कुछ बातें हैं जो बार-बार मन में आती हैं। यह बात पिछले साल तब से मेरे मन में है जब से यह पता चला कि इंडीब्लागीस के कर्ता-धर्ता बकौल रविरतलामी हमारे हिंदी ब्लाग मंडल के पितृ-पुरुष देबाशीष हैं। हालांकि रहीमदास कहते हैं-
रहिमन निज मन की व्यथा मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलइहैं लोग सब बांट न लइहैं कोय ।।

लेकिन दिल है कि मानता नहीं। सो अपनी बात कहने की कोशिश करता हूं।
इंडीब्लागीस अवार्ड में जो सबसे अखरने वाली बात मुझे लगी वह है भारतीय भाषाओं के प्रति आयोजकों का रवैया। जिस अंदाज में हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के लिये ‘नो इंट्री जोन’ टाइप का माहौल बन पड़ा है इस साइट पर वह बार-बार मुझे अखरता है। इस बारे में देबाशीष के अपने तर्क हैं ,कुछ मजबूरियां भी होंगी लेकिन वे सारे के सारे मुझे तर्क कम अपने तयशुदा निर्णय को सही ठहराने के बहाने ज्यादा लगते हैं।
मुझे सबसे अखरने वाली बात यह है भारतीय भाषाओं के लिये लिये प्रवेशनिषेध की तख्ती। हिंदुस्तानियों को अगर अपनी बात कहनी है तो अंग्रेजी में अनुवाद करा के लाओ। वर्ना अपने ब्लाग पर जाओ। इनाम दे रहे हैं ये क्या कम है? हिंदी में लिखेंगे तो तमिल, मलयालम ,कन्नड़ में भी लिखना पड़ेगा। सब खिचड़ी हो जायेगा मामला। इस सारे लफड़े से बचने के लिये यही सबसे अच्छा है कि अंग्रेजी में लिखो ताकि सब समझ सकें। हम ब्लागिस्तानी अंग्रेजी में लिख रहे हैं। तुम भी लिखो अंग्रेजी में। हिंदी में नहीं चलेगा।क्या करें हम दिल से चाहते हैं हिंदी का प्रसार लेकिन यहां हिंदी में तोड़ा अटपटा लगेगा।
मेरा सुझाव था कि हम ब्लागिस्तानी सीरीज के लेख उन सभी लोगों से लिखाये जायें जो लोग किसी भी तरह से इंडीब्लाग अवार्ड पा चुके हैं। चूंकि यह तय सा है कि अंग्रेजी के अलावा कोई भाषा नहीं जमेगी लिहाजा इस पर अमल में नहीं लाया गया। मुझे यह समझ में नहीं आया कि कैसे भारतीय भाषाओं के लेख से खिचड़ी रायता फैलेगा। देसीपंडित के दरवाजेखुले हैं हिंदी ब्लाग पोस्ट के लिये। लेकिन हिंदी के ब्लाग पिता बेटे को घर में नहीं घुसने दे रहे। इसके दूसरे दोस्त भी घुस आयेंगे। घर गंदा करेंगे।
रही अनुवाद करके पोस्ट करने की बात तो भइये आमतौर पर कोई ब्लागर ‘हम ब्लागिस्तानी’ सीरीज में इतना कालजयी लेख नहीं लिखता जिसे दुबारा पढ़ा जाये। सारे का मसाला लगभग एक सा रहता है।हमने ऐसे लिखना शुरु किया। ये अतीत था। ये भविष्य है। अकेले चले थे-कारवां बन रहा है आदि-इत्यादि। उसका अनुवाद करना अनुवादक का सरदर्द बढ़ाना है।अनुवाद कोई कितना भी करे भाषा की रवानी पर फर्क पड़ता है। हर भाषा के कुछ शब्दों का तेवर होता है जिसका कोई अनुवाद नहीं होता।
मैं देख रहा हूं कि रोज अंग्रेजी वाले लोग भी नहीं लिख रहे हैं। तो जब महिमा मंडित लोग महान भाषा में न लिख रहे हों तो जो हमारे वीर बालक हैं हिंदी (आलोक,अतुल) तथा अन्य भाषाओं में उनके लेख छापो। जगह खाली रखने से अच्छा है उसका समुचित उपयोग। नहीं पढ़ेंगे समझेंगे अंग्रेजी या दूसरी भाषाओं के लोग भारतीय भाषाओं को तो न पढ़ें। जिस भाषा का लेख होगा उस भाषा के लोग तो जुड़ेंगे!कुछ लेख शामिल करके अगर स्वरूप भारतीय बनाया जा सकता है तो यह किया जाना चाहिये।
इसी क्रम में मुझे पिछले साल की पंकज के ब्लाग पर लिखी पोस्ट याद आ रही है। इस पोस्ट में किसी ने कुछ सवाल उठाये थे । उस पर देबाशीष तथा आलोक के कुछ सख्त एतराज थे। डर कर बेचारे सवाल उठाने वाले ने अपनी टिप्पणी वापस ले ली थी क्षमा मांगते हुये यह कह कर:
चलिए हम मान गए – आप की बात में तर्क है – मैं ग़लत था और अकारण इन पुरस्कारों की आलोचना करने के लिए क्षमा माँगता हूँ।
देबाशीष का अंग्रेजी में कमेंट था कि शायद अगले साल इंशाअल्लाह हालत सुधरे तथा हम हिंदी तथा अन्य भाषाओं में विभिन्न श्रेणियां बना सकें। लगता है अभी वह खुशनुमा मुकाम नहीं आया।
बहरहाल जिस अंदाज में भारतीय भाषाओं के साथ व्यवहार हो रहा है वह मुझे बहुत खला है। मेरी पीड़ा यह जानकर बढ़ गई है कि इस सारे आयोजन के कर्ता-धर्ता हमारे प्यारे देबाशीष हैं जिनका हिंदी ब्लागिंग की उन्नति में अतुलनीय योगदान है। मैंने कई जगह देखा कि देबू के अपने अकाट्य से लगने वाले तर्क हैं अपनी बात के पक्ष में तो फिर से वही तर्क सुनने की हिम्मत न होने के कारण बात भी न कर सका।
शायद नंदनजी की यह कविता मेरे मन की बात कहती है:-
खारेपन का अहसास
मुझे था पहले से
पर विश्वासों का दोना
सहसा बिछल गया
कल ,
मेरा एक समंदर
गहरा-गहरा सा
मेरी आंखों के आगे उथला निकल गया।

मैं लंबे चिट्ठे लिखने के लिये बदनाम हूं । शायद पढ़ते-पढ़ते थक गये होंगे । सो श्रम को भुलाने के लिये यह कथा सुने जो मुझे एक मित्र ने सुनाई थी:-
पितृ भक्त बालक श्रवणकुमार अपने वृद्द मां-बाप को कांवर में बैठाकर तमाम तीर्थों की यात्रा कराकर आदर्श पुत्र कहलाया। एक बार वह अपने मां-पिता के साथ जंगल से गुजर रहा था। वह थका था। झुंझला पड़ा मां-बाप पर। आप लोगों के चक्कर में मेरी जवानी बरबाद हो गई। आप को तीर्थयात्रा का पुण्य मिला। मुझे क्या मिला? फकत आदर्श पुत्र का खिताब। बदले में मेरी जवानी चली गई कुलीगीरी करते करते। मैं नहीं ले जाता आप लोगों को आगे। यहकर वह कांवर फेंक कर चलने को हुआ लेकिन जड़त्व के कारण वह चलता चला गया। कुछ देर बाद उसे आभास हुआ कि उसने मां-बाप से अनुचित व्यवहार किया । जब उसने उनसे अफसोस जाहिर किया तो वृदृ पिता बोले- बेटा तुमने जो व्यवहार किया उसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। जिस जगह तुमने यह व्यवहार किया उस जगह मायावी दानवों का कब्जा है। जब वहां से कोई गुजरता है तो उसका मन दानवों के बस में हो जाता है तथा वह अटपटी हरकत करने लगता है। जो हुआ सो हुआ । उसे भूल जाओ।दुनिया में तुम्हारी कीर्ति आदर्श पुत्र के रूप फैलेगी।
जब मैं यह लिख रहा हूं तो मेरे मन में देबाशीष के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। न ही कोई गुप्त योजना। देबाशीष के अपने तर्क
हैं। अपनी मजबूरियां हैं । उन पर अमल करने के लिये वो सर्वथा स्वतंत्र हैं। लेकिन जो मेरा सोच है वह मैं सामने रख रहा हूं । मेरा मानना है कि आसमान जैसी संभावनाओं वाले आयोजन के ऊपर किसी एक भाषा का तंबू मत तानो। संभव हो तो दुबारा सोचो। फिर जो ठीक लगे करो।
इस आयोजन की शानदार सफलता के लिये हार्दिक मंगलकामनायें।
मेरी पसंद
गीत !
हम गाते नहीं
तो कौन गाता?
ये पटरियां
ये धुआँ
उस पर अंधरे रास्ते
तुम चले आओ यहाँ
हम हैं तुम्हारे वास्ते।
गीत !
हम आते नहीं तो
कौन आता?
छीनकर सब ले चले
हमको
हमारे शहर से
पर कहाँ सम्भव
कि बह ले
नीर
बचकर लहर से।
गीत!
हम लाते नहीं
तो कौन लाता?
प्यार ही छूटा नहीं
घर-बार भी
त्यौहार भी
और शायद छूट जाये
प्राण का आधार भी
गीत!
हम पाते नहीं
तो कौन पाता?
-विनोद श्रीवास्तव,कानपुर


फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

8 responses to “रहिमन निज मन की व्यथा”

  1. पंकज नरुला
    शुक्ल जी आपने मन का गीत गा दिया। यह बात मन में थी। बाकी भाषाओं का पता नहीं पर क्यूँकि हिन्दी चिट्ठे ही पढ़ता हूँ। पर इस साल बहुत लोग हिन्दी ब्लॉगजगत से जुड़ें हैं और तीन चार श्रेणियाँ तो बनती ही हैं -
    - इस साल का अव्वल नया चिट्ठा
    - भाषाई सुन्दरता
    - कविता
    - पक्का ब्लॉगिया इत्यादि
    मुझे नहीं लगता कि इंडीब्लॉगीज की एक श्रेणी से काम चलेगा। अब या तो इसका आकार बढ़ाना पड़ेगा। नहीं तो अपना नया भी आरम्भ कर सकते हैं हिन्दी व तमिल ब्लॉग तो काफी हैं। पर इच्छा है की छतरी एक ही रहे। खैर
    इस साल तो चलने दीजिए। इंडीब्लॉगीज का आयोजन काफी आगे तक बढ़ चुका है और इस समय कुछ नया करना अच्छा न होगा। पर अगले वर्ष अपनी अर्जी ले कर बात करेंगे।
    एक छोटी सी बात हिन्दी चिट्ठों को आरम्भ करने का श्रेय आलोक जी ९-२-११ को जाता है इसलिए पितृपुरुष तो वही होंगे। देबू जी राजकुमार हो सकते हैं :D
    पंकज
  2. eswami
    (यह जीतू भाई की टिप्पणी है – स्पेम कर्मा ने रोकी सो हमने ठोकी, जीतू भाई मैं इस का समाधान करता हूँ!)
    जीतू भाई कहते हं –
    सही लिखे हो गुरु, हमारे मन की बात छीन लिये हो, हम भी इसी पर कुछ विशेष लिखने वाले थे(जिस पोस्ट के लिये तुम इन्तजार कर रहे थे), वो तो कुछ व्यक्तिगत व्यवस्ताओं के चलते टालना पड़ा।
    खैर, मै देबू के तर्कों से पूरी तरह से सहमत नही हूँ, शायद इसीलिये “हम ब्लागिस्तानी” वाले लेख को लिखकर भी, अनुवाद कराने की जुर्रत नही कर सका। मेरा अपना मानना है कि इन्डीब्लागीज होकर भी हिन्दी भाषा के साथ दूसरी भाषाओं (जैसे तमिल,मलयालम और अन्य) जैसा व्यवहार युक्तिसंगत नही है। ये तो वही बात हुई, ” सबको बांटो और हमको डांटो” बात कुछ हजम नही हुई,देबू दा, इसलिये सबसे पहले मैने ही आब्जेक्शन उठाया था, खैर आपकी अपनी मजबूरी है,आप उसे निभाइये, हमारे भी अपने सिद्दान्त है,हमने भी कुछ वादे हिन्दी से कर रखे है,हमे उनको भी निभाना है।
  3. देबाशीष
    ख़तावार समजैगी दुनिया तुझेअब इतनी ज़ियादा सफाई न दे
    1. मेरे साथ यही लागू होता दिखाई दे रहा है। जितना स्पष्टीकरण देता हूँ लोग और ख़फा होते चले जाते हैं। मेरे विचार मैं चिट्ठाकार पर पहले भी अपने विचार रख चुका हुँ। किसी भी जालस्थल पर खिचड़ी सामग्री मुझे जमती नहीं, अनूप को पता है कि मैं “देसीपंडित” पर भी हिन्दी चिट्ठों की जानकारी अंग्रेज़ी में ही लिखता रहा हूँ, जब पेट्रिक्स ने हमें कहा तब आपने कई हिन्दी में लिखे पोस्ट भी डाले, पर मेरे विचार से यह धालमेल रुचिकर नहीं है। “देसीपंडित” की बात का उदाहरण इसलिये दे रहा हूँ ताकी सनद रहे कि यह चिवार पहले से ही हैं और इंडीब्लॉगीज़ से नहीं उपजे।
      इसके अलावा मैं इंडीब्लॉगीज़ को किसी भी विवाद से दूर रखना चाहता हूँ, सो अंग्रेजी पर एक भाषा को तरजीह देना उचित नहीं लगा। रही बात भारतीय भाषाओँ को उचित रूप से आगे लाने की तो वह प्रयास जितना हो सकता है मैंने किया है, २००५ की ज्यूरी में हर इंगित भारतीय भाषा का कम से कम एक जानकार पैनल में है, इतने साधन और समय मुझे मयस्सर नहीं कि मैं हर भाषा में श्रेणीवार वोटिंग करा सकूं, अतः मुख्य श्रेणियों में अंग्रेज़ी ब्लॉग ही शामिल होते हैं। इंडीब्लॉगीज़ का अपना डोमेन लेने का मन बनाने के पीछे यह उद्देश्य भी था कि यह मंच साल भर प्रयुक्त होता रहे, किसी अन्य मौके पर हम हिन्दी या अन्य भाषाओं के चिट्ठों के पृथक आयोजन कर ही सकते हैं।
      हम बलॉगिस्तानी श्रृँखला में हिन्दी पोस्ट न शामिल करने की वजह बता चुका हूँ। पर मुझे यह समझ नहीं आता की मुद्दा क्या है? यदि विचारों का सम्प्रेषण उद्देश्य है तो क्यों नहीं किसी ने अपने ब्लॉग या अक्षरग्राम पर हिन्दी में प्रविष्टि की, रमण तो राजी भी थे अनुवाद करने को जो बाद में इंडीब्लॉगीज़ पर प्रकाशित होती। क्या हम ने अनुवादित सामग्री निरंतर पर नहीं छापी? क्यों नहीं मूल अंग्रेजी लेखों को ही छापा गया? पर अगर जिद यही कि हिन्दी में इंडीब्लॉगीज़ के जालस्थल पर ही छपे तो मैं क्षमा चाहता हूँ, हर जालस्थल के अपने मापदंड होते हैं, स्थापित कलेवर होता है। मुझे लगता है कि इस जालस्थल पर अंग्रेजी का ही मसौदा रहे, खिचड़ी न पके। “सबको बांटो और हमको डांटो” वाली क्या बात है, क्या किसी और भारतीय भाषा का लेख आपको इंडीब्लॉगीज़ पर नज़र आया?
    2. अनूप शुक्ला
      देबाशीष,
      मैंने अपनी बात कही । तुम्हारे तर्क दुबारा पढ़े । कुछ कमी रह गई होगी मेरी बात में जो कि मैं इतनी लम्बी पोस्ट लिखने के बावजूद यह समझाने में असफल रहा कि मुद्दा क्या है? फिलहाल इस मुद्दे पर और कुछ लिखकर मैं तुम्हे किसी किस्म का कष्ट नहीं देना चाहता । “खतावार समझेगी दुनिया ….” के वजन के कई जवाबी शेर मेरे दिमाग मेँ मचल रहे हैँ लेकिन उनको दबा रहा हूँ क्योँकि फिर जवाबी कीर्तन शुरु हो जायेगा जो कि उचित नहीँ होगा । वैसे भी तुम्हारी कुछ सीमायेँ होँगी उसके हिसाब से काम करने की स्वतँत्रता है तुम्हेँ इसमेँ खतावार जैसी कोई बात ही नहीँ है। यह भी बात है कि जिस आयोजन मेँ मेरा कोई योगदान नहीँ उसके कार्यकलाप मेँ अपनी बेवजह दखल देना मेरे अधिकार क्षेत्र के बाहर की बात है। अफ़सोस यही है कि यह बात इतनी देर से समझ आई। बहरहाल इँडीब्लागीस के शानदार आयोजन के लिये मँगलकामनायेँ।
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