Tuesday, November 14, 2006

नगर निगम चौकस हुआ, हिजड़े दिये लगाय

http://web.archive.org/web/20110101203225/http://hindini.com/fursatiya/archives/210

नगर निगम चौकस हुआ, हिजड़े दिये लगाय

अभी कुछ दिन पहले संजय बेंगाणी ने हिजड़ों से त्रस्त होकर एक पोस्ट लिखी थी। इसपर कई लोगों ने अपने विचार भी व्यक्त किये थे।
अभी तीन दिन पहले अमर उजाला अखबार में एक खबर छपी थी। खबर के अनुसार, आर्थिक संकट से गुजर रहे पटना नगर निगम ने बकायेदारों से निपटने के लिये अब हिजड़ों की मदद लेनी शुरू कर दी है। निगम ने अपने वसूली अभियान में फिलहाल आधा दर्जन हिजड़ों को शामिल किया है। इस सेवा के बदले नगर निगम हिजड़ों को चार फ़ीसदी कमीशन देता है। निगम ने इस साल ६० करोड़ रुपये की वसूली का लक्ष्य रखा है।
यह भी पता चला है कि हिजड़ों के इस्तेमाल का अच्छा नतीजा सामने आया है और एक दिन में ही हिजड़ों की मदद से बकायेदारों से पांच लाख रुपये से अधिक की वसूली हो चुकी है।
इसका मतलब है कि हिजड़ों की कमीशन से आमदनी लगभग तीन हजार रुपये प्रति हिजड़ा प्रति दिन रही।
इस खबर को मैं व्यापक परिपेक्ष्य में देखने का प्रयास रहा हूं।
पटना नगर निगम की बकायेदारों से सफलता पूर्वक वसूली की खबर फैलते ही सारी दुनिया में ह्ल्ला मच जायेगा। जिनका-जिनका पैसा कहीं भी फंसा है वे हिजड़ों को किराये पर रखने के लिये भागते नजर आयेंगे। पटना नगर निगम के किस्से सुनाकर बलिया नगर निगम का अधिकारी अपने मातहतों पर गुर्रायेगा- क्या हिजड़ों की तरह बैठे हो जाओ कहीं से हिजड़ा पकड़कर लाओ और वसूली करो। खाली हाथ वापस आये तो तुम्हे हिजड़ा बनाकर छोड़ देंगे वसूली के लिये। और हो सके तो उसी हिजड़ा पार्टी को पकड़कर लाओ जिसने पटना वाला प्रोजेक्ट किया था।
अपने अभियान की सफलता सुनिश्चित करने के लिये कहो वे लोग ‘कुंडलिया किंग’ समीरलाल से कोई कुंडलिया भी लिखा कर गाते हुये कहें:-


नगर निगम चौकस भया, हिजड़े दिये लगाय
जिसके पास बकाया पैसा, वो धरे यहां पर आय
धरे यहां पर आये, नहीं तो खूब बजेगी ताली
शान में बट्टा लग जायेगा, कोसेगी घरवाली
कह ‘समीर’ कविराय करो,कुछ तो लाज-शरम
तुरत उधार चुकाओ अपना,कहता नगर निगम।

नगर निगम की सफल वसूली का मामला अखबारों में छपेगा और किसी ‘बुरे कर्ज’ से पिटते हुये किसी बैंक का अधिकारी अपने बाल नोचते हुये जब यह नया तरीका देखेगा तो उछलकर भागता हुआ अपने बास के पास पहुंचेगा। बहदवासी दिखाने के लिये वह अपने पैर से चप्पल फेंककर एम.एफ.हुसैन बन जायेगा और अपने मुंह पर हवाइयां उड़ाने लगेगा। हांफते हुये हिजड़े कमीशन पर लगाकर कर्जा वसूलने की योजना पेश करेगा। बास उसको थोड़ी सी घास डालकर अपने नाम से वसूली अभियान शुरू कर देगा और कालान्तर में थोड़ा शरमाते हुये और बहुत सारा भरमाते वाह-वाही लूटता पाया जायेगा।
एक बार जब बैकों में हिजड़े सफल हो गये तो सारे व्यापारी अपने सारे तकादीगीरों को गले लगाकर विदा कर देंगे और हिजड़े किराये पर पाल लेंगे। हिजड़े उसी तरह तकादगीरों के पेट पर लात मारते नजर आयेंगे जैसे आजकल एक कंप्यूटर चार क्लर्कों को विदा कर देता है। हर बड़ी फर्म अपने यहां हिजड़े रखने लगेगी। किसी भी कंपनी की आर्थिक स्थिति आंकने के लिये देखा जायेगा कि उसने वसूली के लिये कितने हिजड़े रखे हैं। आर्थिक समाचार कुछ इस तर्ज पर होंगे-


अभी-अभी पता चला है कि फलानी फर्म ने अपने हिजड़ों की संख्या में कमी कर दी है। फर्म की इस तरह गिरती आर्थिक स्थिति का पता चलते ही उसके शेयरों की कीमत में अचानक गिरावट आ गयी। दूसरी तरफ़ ढिमाकी फर्म द्वारा अपने यहां पचास हिजड़ों की भर्ती की खबर पता चलते ही अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उसके शेयरों अभूतपूर्व उछाल आया है।

सफलता का गणित अंधों का गणित होता है। आर्थिक क्षेत्र में हिजड़ों के उपयोग के किस्से की खबरें फैलते ही दुनिया के हर क्षेत्र में हिजड़ों के भाव सोने के भाव की तरह या फिर चुनाव जीतकर गठबंधन सरकार के मंत्रिमंडल में शामिल किसी निर्दलीय की पूछ की तरह बढ़ जायेंगे। समाज की हर बीमारी का इलाज हिजड़े बन जायेंगे। कोई अधिकारी परेशान होगा /करेगा तो पीडि़त हिजड़े की शरण में जायेगा और घूस के मुकाबले बहुत कम पैसे में काम कराकर खुशी के गीत गायेगा। किसी का इनकम टैक्स का केस फंसा होगा और उसका उसक वकील/चार्टेड अकाउंटेंट अधिकारी को पटा पाने में असफल होकर रोने का प्रयास करते-करते हिजड़े की शरण में जाने की सलाह देगा और हिजडे की ताली के मदद से उसका वह काम चुटकी बजाते हो जायेगा जिसको कराने में उसके चेहरे की घड़ी में सब कुछ बज गया, घड़ी तक खाली हो गयी।
पैसे-रुपये के लेन-देन में फार्मूला सफल होते ही जीवन के हर क्षेत्र में हिजड़े आजमाये जाने लगेगें। किसी का पति हाथ से निकलकर किसी दूसरे की जुल्फों में खो गया है तो हिजड़े उसे वापस वसूल लायेंगे। कहीं जाम लगा होगा तो हिजड़े ताली बजाकर जाम को हटाकर ओवरब्रिज और ‘वन वे’ जैसी जरूरतों को खलाश कर देंगे। आपके किसी परिजन को कोई अपहरण करके ले गया है तो आप चिंता न करें बगल के हिजड़ा केंद्र को फोन करें वे पलक झपकते ही अपहरण करने वाले से फिरौती समेत आपके परिजन को आपको सौंप देंगे। किसी भी विमान अपहरण की खबर हवा में गूंजते ही लोग कहेंगे-
मंत्री- संत्री की जगह किसी काबिल हिजड़े को भेजो। मंत्री तो फिरौती देकर आयेगा, आतंकवादी छोड़ देगा लेकिन हिजड़े तो अपहरणकर्ता समेत सबको छुड़ा लायेंगे-ताली बजाकर।

देश के किसी भी हिस्से में जहां कोई वारदात हुई,आग लगी, बम फटा, लोग मरे-फौरन हिजड़े लगा दिये जायेंगे। खबरें कुछ इस तरह की हों शायद:-


अभी-अभी पता चला है कि एक बम विस्फोट में पचास लोग मारे गये हैं, सौ घायल हुये हैं। घटना की जिम्मेदारी अभी तक किसी ने नहीं ली है। इससे यह अनुमान लगाया जा रहा है कि इसके पीछे कुछ गैरजिम्मेदार लोगों का झाथ है। फिलहाल सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर दी गयी है और हिजड़ों की संख्या दूनी कर दी गयी है। उधर फसादपुर और लफड़ानगर में हुये दंगों के बाद स्थिति तनावपूर्ण किंतु नियंत्रण में है। दोनों शहरों की संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुये पुलिस के सहयोग के लिये हिजड़ों की संख्या में बढ़ोत्तरी कर दी गयी है। इस बीच पता चला है कि वरुण नगर में एक बाल्टी पानी के लिये दो गुटों में मारपीट के बाद खून-खराबा हो गया। पुलिस केलाठीचार्ज और आंसू गैस के गोले छोडने के बावजूद जब भीड़ तितर-बितर नहीं हुयी तो पास के शहर से कुछ हिजड़े बुलाने पड़े। हिजडों ने आते ही ताली बजा-बजाकर और शानदार भद्दे इशारे करते हुये पूरी भीड़ को दस मिनट में तितर-बितर कर दिया। लोग जो बाल्टियां छोड़कर भाग गये हैं वे स्थानीय थाने में जमा करा दी गयीं हैं।

हिजड़ों के प्रयोग के इस अभूतपूर्व सफल उपयोग से समाज की हर समस्या का निदान हिजड़ों में खोजा जाने लगेगा। चाहे वो आसाम से बंगलादेशियों को भगाने का मामला हो या कश्मीर को आतंकवादियों से मुक्त कराने का संकट। वो चाहे बुंदेलखंड में ददुआ से मुक्ति की बात हो या तमिलनाडु की पानी की समस्या या फिर तेलंगाना में किसानों की आत्महत्या के अंतहीन किस्से। समस्या चाहे बढ़ती आबादी हो या भ्रष्टाचार, सारी समस्याऒं का ही इलाज होगा- हिजड़ॊं का सहयोग लेना। शायद नारे भी गूंजने लगें:-

१. हिजड़ों से हाथ मिलाइये, परेशानियां दूर भगाइये।
२. हिजड़ों के पास आयें, सारे झंझट दूर भगायें।
३. हिजड़े ने ताली बजाई, मुसीबत फूट ली भाई।
४. हिजड़ा.काम में रजिस्टर करायें, सारे लफड़े हमें दे जायें
५. सबको परखा इतनी बार, हमको परखो एक बार- हिजड़ा सेवक संघ।

मांग और आपूर्ति के शाश्वत नियम के चलते कुछ दिनों में हिजड़ों की संख्या में कमी आ जायेगी। हिजड़ों की आकर्षक आर्थिक स्थिति देखते हुये तमाम गुंडे-बदमाश चाकू, तमंचे की नोक या फिर कुछ लेकर-देकर डाक्टरों से अपने हिजड़ा होने का प्रमाण पत्र हासिल करके अपनी गुंडागर्दी की गद्दी चेलों को थमाकर हिजड़ागिरी करने लगेंगे। कोई नामीगिरामी कुख्यात गुंडा,माफिया अपने बुढा़पे में हो सकता है कहे- यार अब अपन से यह सब गुंडागर्दी नहीं हो पाती, हाथ-पैर कांपते हैं किसी तरह से हिजड़ा बनवा दो तो बुढ़ापा चैन से कटे। अभी तक जो कमाया वो सब जमानत और थाने में गंवा दिया अब कम से कम बुढा़पे में तो रोटी के ऊपर रोटी खाने को मिले।
जो डाक्टर जितने ज्यादा लोगों को हिजड़ा बना देगा वह उतना सफल माना जायेगा। मरीजों के अभाव में मक्खी मारता कोई डाक्टर हो सकता है अपने साथी हिजड़ा डाक्टर से जानपहचान का फायदा उठाकर अपने लिये एक प्रमाणपत्र हासिल कर ले और क्लीनिक में ताला लगाकर ताली बजाने लगे और हिजड़ों के कारवां में शामिल हो जाये।
हो सकता है रिमेक की आंधी में दीवार सिनेमा की तर्ज पर कोई सिनेमा बने और दो भाई अपनी-अपनी डींग हांकते हुये कहें मेरे पास यह है, मेरे पास वह है, तेरे पास क्या है। इस पर कमजोर सा दिखने वाला भाई डायलाग मारे -मेरे पास हिजड़ा है। यह सुनते ही अमीर और संपन्न से दिखने वाले भाई की हवा उसी तरह निकल जाये जिस तरह चैंपियन्स ट्राफी में विश्वस्तरीय बल्लेबाजों से युक्त भारतीय टीम के बल्लेबाजी की ‘छुच्छी’ निकल गयी।
जैसे कि हर दवा के साइड इफ़ेक्ट होते हैं और लोहे को लोहा काटता है उसी तरह लोग अपने खिलाफ हिजड़ों की सहायत से होने वाली कार्रवाई का मुकाबला करने के लिये हिजड़ों की सवायें लेने लगेगें। जहां लोग देखेंगे कि वसूली के लिये हिजड़ों को आते देखेंगे वैसे ही मुकाबले के लिये अपने हिजड़ों की फ़ौज को लगा देंगे। एक फटे गले वाले हिजड़े के सामने नखरीले गले वाले हिजड़े को खड़ा कर देंगे। मोटे गले और थुलथुल शरीर वाले हिजड़े के मुकाबले में सुराहीदार गरदन वाला हिजड़ा बीस साबित होगा। या फिर कुछ और तुलनात्मक अध्ययन का मन हो तो यह मान लो कि मनु शर्मा को फांसी की सजा से बचाने के लिये सरकारी वकीलों का मुकाबले एक घंटे में एक लाख की फीस वाले सबसे मंहगे वकील रामजेठमलानी जी को खड़ा कर दिया जाये।
यह कुछ-कुछ ऐसा ही होगा है जैसे दो मुकदमा लड़ने वाली पार्टियां वकीलों की बहस को निर्लिप्त भाव से चाय-पीते हुये सुनती रहती हैं। हिजड़ों की तालियां की जुगलबंदी और गालियों के जवाबी कीर्तन को फंसाव और बचाव पार्टी हौसला आफजाई करते हुये और ये दिल मांगे मोर कहते हुये आंनद सागर में लहालोट होते रहेंगे।
पता नहीं क्या-क्या बात करते हुये हम कहां से कहां पहुंच गये। अखबार की खबर से शुरू की बात अदालत तक
पहुंच गयी-गये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास।
पटना नगर निगम के जिन अधिकारियों ने बकाया वसूली के लिये हिजड़ों के उपयोग की बात सोची और उसमें शुरुआती सफलता हासिल हुयी उसकी हो सकता है तमाम लोग वाह-वाही करें। हो सकता है कुछ मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट इस प्रयोग के अपने पाठ्यक्रम में शामिल करें और ‘हिजड़ागीरी’ एक नयी वसूली विधा के रूप में स्थापित हो जाये। संभव है जिस अधिकारी ने इसकी परिकल्पना की उसे तमाम संस्थानों से ‘लेक्चर’ देने के लिये बुलाया और विदेशों से उसे ‘अतिथि व्याख्याता’ के रूप में आमंत्रित किया जाये। संभव है कि सरकार की तरफ़ से उसे किसी समारोह में पुरस्कार भी दिया जाये।
लेकिन इस सारे वाकये के पीछे जो मुख्य बात है वह यह सवाल है कि किसी शहर का नगर निगम कैसे इतना असहाय हो गया कि वह अपने नागरिकों से बकाये की रकम वसूल करने में असफल हो गया और वसूली के लिये उसे समाज के उस वर्ग की शरण लेनी पड़ी जिसे शारीरिक कमी के चलते न मर्द में समझा जाता है न औरत में। किसी भी शहर का नगर निगम शहर के नागरिकों की सेवा के लिये होता है। इसके लिये उसके अगर कुछ कर्तव्य होते हैं तो उनके निर्वाह के लिये तमाम अधिकार भी होते हैं। पुलिस, अदालत, कानून, पैसा, साधन किसी भी किस्म से किसी भी शहर का नगर निगम किसी एक या कुछ नागरिकों के मुकाबले हमेशा बहुत-बहुत सक्षम, शक्ति संपन्न और समर्थ होता है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुये जब नागपुर नगर पालिका के अधिकारियों ने अपने साधनों का उपयोग करके नागपुर की कायपलट करके उसे देश के सबसे खूबसूरत, व्यवस्थित शहरों की श्रेणी में शामिल करा दिया। इस काम में जनता का भी भरपूर सहयोग उनको मिला। फिर ऐसा कैसे है कि दूसरे शहर के नगर निगम के अधिकारी इतने असहाय हो गये कि बकाया वसूली के लिये हिजड़ों का पल्लू थामना ही आखिरी हथियार समझ लिया!
कुछ लोगों को यह एक अभिनव प्रयोग लग सकता है लेकिन वस्तुत: यह प्रयोग सामाजिक अराजकता की निशानी है। सामाजिक अराजकता, जहां सारी व्यवस्थायें ध्वस्त हो गयी हैं। लोगों के मन में न कानून का डर है न पुलिस का डर है और न ही यह कि सरकारी कर्मचारी दरवाजे पर वसूली के लिये खड़ा है। आदमी के मन से सजा का डर खत्म हो गया केवल उपहास से डरता है अभी वह। सामाजिक उपहास से डरकर अभी वह बकाया चुका देता है और कुछ दिन में वह उपहास की तरह से भे उदासीन हो सकता है और यह भी संभव है कि कुछ दिनों में इतना थेथर हो जाये कि तालियां बजाकर वसूली में सहयोग देने वाले हिजड़ों से ज्यादा तेज और कुशलतापूर्वक तालियां बजाकर उन्हें वापस कर दे।
पता नहीं ऐसी अराजक होती जा रही सामाजिक स्थिति के कारण क्या हैं? लेकिन कभी-कभी मुझे लगता है कि इसका कारण हमारा समाज से विमुख होते जाना है। जब तक अपने पर बात नहीं आती तब तक हम निश्चिंत रहते हैं। समाज का लगभग हर तबका अपने सहज सामाजिक कर्तव्यों को पासिंग द पार्सल की तरह दूसरों के हाथ में थमाता जा रहा है। हम मान लेते हैं कि देश की हर कमी के लिये दोषी नेता हैं, नेता मानता है जनता सुधरना नहीं चाहती, पुलिस सोचती है कि अनुशासित होना लोगों का काम हैं हमें तो चौराहे पर केवल भरा ट्रक पकड़ना है, अध्यापक मानता है बच्चे जैसे संस्कार घरवाले देगें वैसा ही तो बनेगा वहीं माता-पिता सोचते हैं हम फीस काहे के लिये देते हैं इतनी ज्यादा सब कुछ सिखाना उन्हीं का काम है। पूरा समाज इस इंतजार में है कि देश की हालत अब बहुत खराब हो गयी अब समय हो गया किसी को आना चाहिये जो देश का बीड़ा उठाये, समबाडी मस्ट टेक द चार्ज। सारा समाज भये प्रकट कपाला दीन दयाला के रियाज में जुटा है।
हमें तो जो लगता है वह हम कह चुके। अब आपौ बताओ कि आपको क्या लगता है?

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

10 responses to “नगर निगम चौकस हुआ, हिजड़े दिये लगाय”

  1. समीर लाल
    बहुत विचारोत्तेजक लेख इतनी सुंदर शैली में पेश किया गया है, कि लाजवाब है. किसी भी प्रयास की आरंभिक सफलता से उसे सफल मान लेने का और आगे चल कर उसका खमिजियाना भुगतने का भुत अभ्यास है हम सभी को. याद करें कि जब कार लोन, और अन्य बेंकों के कर्जे तथा लिजिंग कम्पनियों द्वारा गुण्डों का इस्तेमाल किया गया था, प्रशासन के संरक्षण मे, जो कि बाद में गले की फांस बना. देखिये, ये कब अटकते हैं, शासन के गले में.मगर सिर्फ़ समय की ही बात है, अटकेंगे जरुर.
    और हां, गजब कुण्डली लिखें हैं, मजा आ गया.
    -बधाई, इतने गंभीर मुद्दे को समय पर उठाने के लिये.
  2. जगदीश भाटिया
    लेख का पहला भाग गुदगुदाता है तो दूसरा भाग सोचने पर मजबूर कर देता है। हमेशा की तरह सुन्दर लेखन।
  3. संजय बेंगाणी
    सुरत शहर हो या नगपुर, उनकी कायापलट में लोगो ने सहयोग किय. क्यों? क्योंकि ईमानदार कोशीष के गई थी. अपने कर्तव्यो का पालन नगरपलिका सही तरिके से करे तो लोग भी सहयोग करेंगे ही. हिजड़ो का उपयोग अस्थाई तथा बेहुदा प्रयोग है.
    हो सकता है जल्दी ही कोई प्रबन्धन संस्थान हिजड़ो से प्रबन्धन के पाढ़ पढ़ने के लिए आमंत्रित करे.
  4. अनुराग श्रीवास्तव
    एक ही ‘सांस’ में पूरा लेख पढ गया. इतना पसंद आया कि समझ में नहीं आ रहा है कि क्या टिप्पणी करी जाय! प्रशंसा के लिये यदि शब्दों का प्रयोग करूंगा तो शायद नाइंसाफी सी लगेगी.
  5. ratna
    लेख बहुत अच्छा लिखा है। शैली राग-दरबारी के शुक्ल जी से मिलती-जुलती लगी। बधाई।
  6. eswami
    तो देश के बौद्धिक हिजडों ने काम की आऊटसोर्सिंग शारीरिक हिजडों को कर दी! इट हैपन्स ओन्ली इन इण्डिया!
  7. मनीष
    बहुत अच्छा लिखा है आपने।
  8. नीरज दीवान
    |||सामाजिक अराजकता, जहां सारी व्यवस्थायें ध्वस्त हो गयी हैं…….आदमी के मन से सजा का डर खत्म हो गया केवल उपहास से डरता है अभी वह। सामाजिक उपहास से डरकर अभी वह बकाया चुका देता है और कुछ दिन में वह उपहास की तरह से भे उदासीन हो सकता है|||
    उच्चकोटि का व्यंग्य है. उक्त पंक्तियां सोचने पर मजबूर कर रही है. धन्यवाद और बहुत बधाई अनूप जी.
  9. bhuvnesh
    शुक्लजी प्रशासन और समाज के हिजड़ेपन पर बहुत ही शानदार लेख लिखा है।
    व्यंग्य की शैली बहुत रोचक है। लगता है वह दिन दूर नहीं जब आपका नाम भी श्रीलाल शुक्ल जैसे दिग्गजों की पाँत में रखा जायेगा।
  10. nitin
    सदा की तरह आपका यह यंग्यचित्र भी बहुत सुंदर है।

Saturday, November 11, 2006

राग दरबारी इंटरनेट पर

http://web.archive.org/web/20110904055514/http://hindini.com/fursatiya/archives/209

राग दरबारी इंटरनेट पर

जैसा कि हमने कहा था कि मैं रागदरबारी को इंटरनेट पर लाना चाहता हूं।
इस बारे में कुछ साथियों का विचार था कि इसका आंशिक भाग हमें नेट पर प्रकाशित करना चाहिये ताकि लोगों को पढ़ने की रुचि जाग्रत हो और वे खरीदकर पढ़ें। मजे की बात है कि अनूप भार्गव जी के इस प्रस्ताव का समर्थन प्रत्यक्षाजी ने भी किया जो कोई भी किताब तभी खरीदती हैं जब वे किताब को एक बार पढ़कर इस बात का इत्मिनान कर लेती हैं कि किताब वाकई खरीदने लायक है।
मेरा विचार यह है कि यह किताब ऐसी है कि जो भी इसे पढ़ेगा वह खुद खरीदकर घर लायेगा और चार दूसरे लोगों को पढ़वायेगा। किताब नेट पर पूरी उपलब्ध होने पर भी खरीदने वाले इसे खरीदकर पढ़ेंगे ही। इसके नेट पर उपलब्ध होने पर इसकी बिक्री में इजाफ़ा ही होगा कमी नहीं आयेगी।
और फ़िर जब अंग्रेजी के तमाम लेखकों का पूरा साहित्य नेट पर उपलब्ध है तो हिंदी का ऐसा उपन्यास क्यों नहीं हो जो कि अपनी तरह का पहला उपन्यास है और बावजूद हिंदी भाषियों की पुस्तक खरीद में कंजूसी के हर साल इसका एक नया संस्करण बिक जाता है। मैं अभी तक मित्रों को भेंट करने के लिये अब तक दस-पंद्रह रागदरबारी की प्रतियां खरीद चुका हूं और मजे की बात जब मैंने पहला भाग टाइप किया तो मेरे पास इसकी कोई प्रति न होने के कारण मुझे अपने मित्र से इसे मांगना पड़ा।
रविरतलामी जी का सुझाव था कि मैं प्रकाशक से बात करके उनसे इसकी सी.डी. लेकर पोस्ट कर दूं। लेकिन मेरा न ही प्रकाशकों से कोई संपर्क है न जान-पहचान। और फिर जब खुद लेखक श्रीलाल शुक्ल जी बातचीत में उन्होंने कुछ भाग ही नेट पर पोस्ट करने की अनुमति दी तो वे अपनी टाइप की हुयी सी.डी. देंगे इस पर मुझे संदेह है।
इस किताब को नेट पर लाने के पीछे मेरे दिमाग में वे तमाम लोग भी थे जो सालों से देश से बाहर हैं और खरीदने की हैसियत और मन होने के बावजूद किताब के पास तक नहीं पहुंच पाये अभी तक। किताब की कीमत कुल जमा पैंसठ रुपये है लेकिन डाक खर्च आदि मिलाकर किताब की कीमत उनके उत्साह पर हमेशा भारी पड़ती है। यह मितुल जैसे हमारे साथियों के लिये हमारी तरफ़ से उपहार है जो पूरे मन से नेट (विकिपीडिया) पर हिंदी को स्थापित करने में लगे रहते हैं और चाहने के बावजूद तमाम अच्छी किताबों से रूबरू होने में फिलहाल दूर हैं।
बहरहाल, मैंने यही ठीक समझा कि इस किताब को टाइप करके नेट पर डाल दिया जाये। श्रीलाल शुक्ल जी ने, जिनके नाम किताब का कापी राइट है, हमें इसके लिये मौखिक सहमति दी है।
हालांकि जरूरत नहीं फिर भी यह कह देने में कोई हर्ज नहीं कि इस रागदरबारी को नेट पर लाने के पीछे किसी भी तरह का आर्थिक लाभ कमाना हमारा उद्देश्य नहीं है। हमारा एकमात्र उद्देश्य अच्छे साहित्य को लोगों तक पहुंचाना है। इसमें हम कितना सफल हुये यह समय बतायेगा।
राग दरबारी में कुल पैंतीस भाग हैं। दो भाग नेट पर आ गये हैं। तीसरा भाग कुंडलिया किंग समीर लाल जी टाइप कर रहे हैं और चौथे भाग के लिये इनके काबिल शिष्य गिरिराज जोशी जुटे हैं। आगे के भागों के लिये भी तमाम साथियों से तय करके टाइपिंग यज्ञ में योगदान लिया जायेगा। साथियों की तरफ़ से सहयोग को लेकर मैं निश्चिंत हूं ,आश्वस्त हूं। भुवनेश शर्मा ने अपनी बीमारी के बावजूद आज दूसरा भाग टाइप करके भेजा। पहला भाग अभी दो दिन पहले ही मैंने टाइप किया था।
आपसे अनुरोध है कि जिन लोगों ने रागदरबारी अभी तक न पढी़ हो वे इसे पढ़ें और अपनी राय जाहिर करते रहें। जीतेंद्र से गुजारिश है कि फिलहाल कुछ दिन के लिये जब तक रागदरबारी की टाइपिंग/पोस्टिंग का दौर चल रहा है, इसे नारद की सूची में शामिल कर लें ताकि पाठकों को इसकी नयी पोस्ट की जानकारी मिलती रहे। चिट्ठाचर्चा करने वाले साथियों से अनुरोध है कि जिस दिन रागदरबारी पर नयी पोस्ट हो तो इसका जिक्र करने का प्रयास करें।
हमारे इस प्रयास में आपके किसी भी सुझाव का स्वागत है।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

12 responses to “राग दरबारी इंटरनेट पर”

  1. मनीष
    वैसे तो श्रीलाल शुक्ल जी की कई किताबों को पढ़ा है पर राग – दरबारी का जवाब नहीं । इसके सारे चरित्र इस कदर जमीन से जुड़े हैं कि पूरी कथा सामने घटित हुई सी लगती है । भारत के बाहर के लोगों के लिये इस पुस्तक को नेट पर लाने का आप सब का प्रयास सराहनीय है ।
  2. Pramendra Pratap SIngh
    हिन्‍दी की पुस्‍तको का इन्‍टरनेट पर आना हिन्‍दी तथा हिन्‍दी प्रेमियों दोनो के लिये संजीवनी का काम करेगा। बहुत सी किताबे ऐसी है जो आज भी गुमनामी के अधेरे मे दम तोड रही है। मै सच कहूं तो श्री श्रीलाल शुक्‍ल तथा उनकी राग दरबारी का नाम पहली बार आपके लेखो मे ही सुना था। यह एक सही प्रयास है कि आपस मे ज्ञान बाटने की परम्‍परा की शुरूवात हुई है और होनी चाहिये। राग-दरबारी ही नही अगर हम आपसी सहयोग से काम करना चालू करे तो ऐसी बहुत सी किताबे जो कॉपी राइट से मुक्‍त हो चुकी है, उन्‍हे इन्‍टरनेट पर लाया जा सकता है, और ज्‍यादा समय नही लगेगा कि हमारे कम्‍प्‍युटर पर एक वाचनालय उपलब्‍ध होगा।
    रागदरबारी को नेट पर लाने मे लगी पूरी टीम को शुभकामनाऐ
  3. सागर चन्द नाहर
    धन्यवाद भाई साहब
    यह पुस्तक पूरी प्रकाशित हो जाती है तब मैं इसे ई-बुक (pdf) के रूप में प्रस्तुत करने के लिये कोशिश करूंगा। इस पुस्तक को टाईप करने के कार्य में मैं भी सहयोग दे पाता काश मेरे पास पुस्तक होती।
  4. जीतू
    अध्याय – ६ मै टाइप कर रहा हूँ, आधे से ज्यादा हो चुका है। आज या कल तक भेज देता हूँ।
    सागर भाई,रागदरबारी इन्टरनैट पर इमेज (TIFF )फारमेट मे मौजूद है, फुरसतिया जी, सागर भाई को लिंक दे दीजिए। फुरसतिया जी एक काम और करिए, किसी एक जगह पर विषय सूची डाल दीजिए, और अध्यायों के शुरु और आखिरी पेज का नम्बर भी दे दीजिए, ताकि साथियों को कम से कम परेशानी हो। साथ ही जो भाई लोग काम कर रहे है, वे अपनी प्रगति की रिपोर्ट फुरसतिया तक पहुँचाते रहे। वो ही प्रोजेक्ट मैनेजर है, इस प्रोजेक्ट के।
  5. SHUAIB
    शुक्रिया अनूप जी, पढने के लिए कुछ अच्छा मिला – लिंक्स देने का धन्यवाद
  6. संजय बेंगाणी
    आपका यह प्रयास सचमुच प्रशंसनीय है. आपको साधूवाद देता हूँ.
    इस पुस्तक का टीफ फोर्मेट देख कर आपसे सम्पर्क करता हूँ.
  7. Nitesh S
    अनूप जी , इंग्लिश मे किताबों को नेट पर उतारने के बहुत सुलभ औजार उपलब्ध हैं.
    कई तो हमारे भारतीय भाइयों ने ही बनाईं होंगे.
    अगर कोई optical character recognition software हिन्दी के लिए मिल जाए तो मज़ा आ जाएगा , और बहुत सी ऐसी किताबें जो copyright से मुख हो चुकी हैं नेट पर आसानी से डाली जा सकती है..
  8. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
    टाइप करने के बजाय यदि इसके पृष्ठों को स्कैन करके क्रमबद्ध रूप से नेट पर डाल दिया जाय तो आसानी से काम हो सकता है। पृष्ठों की साज सज्जा में value addition भी हो जाय, और शायद कॉपी राइट का चक्कर भी सुलझ जाय।
    मैने हाल ही में हिन्दुस्तानी त्रैमासिक का सम्पादकीय इसी प्रकार यहाँ पोस्ट किया था।
  9. राग दरबारी और हिन्दी पुस्तकों पर कंजूसी | दुनिया मेरी नज़र से - world from my eyes!!
    [...] आया कि अनूप जी ने इसकी प्रशंसा में लिखा था, तो झट से उनको फोन मिलाया इसके बारे में [...]
  10. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] हनीमून 2..श्रीलाल शुक्ल जी एक मुलाकात 3..राग दरबारी इंटरनेट पर 4..नगर निगम चौकस हुआ, हिजड़े दिये लगाय [...]
  11. sanjay shishodia
    vastav me raag darbari ka jawab nahi…. aaj ki laal fita shahi per dr. shri lal shukl ki ye kitaab seeedha or paroksh kataksh hai….
  12. arvind
    क्या बात है! मै इस पुस्तक का भारी प्रसंशक हूं. आपके इस प्रयास को साधुवाद.

Tuesday, November 07, 2006

श्रीलाल शुक्ल जी एक मुलाकात

http://web.archive.org/web/20110925215715/http://hindini.com/fursatiya/archives/208

श्रीलाल शुक्ल जी एक मुलाकात

हम पिछ्ले माह जब लखनऊ गये थे तो एक बार फिर श्रीलाल शुक्ल जी से मिले।
हम सबेरे-सबेरे कानपुर से निकले। सपरिवार गाते-बजाते हुये दोपहर होने के नजदीक लखनऊ पहुंचे। ईद की छुट्टी होने के कारण सड़कें किसी बुद्धिजीवी के दिमाग सी खाली थीं। कार सड़क पर सरपट दौड़ रही थी जैसे बुद्धिजीवी के दिमाग में विचार दौड़ते हैं।
बहरहाल हमारा काम शाम होते-होते तमाम हो गया और हमें वापस कानपुर मार्च के लिये आदेश दिया गया।

श्रीलाल शुक्ल
हम पांच मिनट में आने को कहकर घर, सड़क और फिर मोहल्ला पारकर के पांच मिनट में श्रीलाल जी के पास थे। वे अपने पोते के साथ टेलीविजन पर क्रिकेट मैच देख रहे थे। बच्चा होमवर्क भी करता जा रहा था साथ में। हमारे जाने से उस बेचारे के आनंद में व्यवधान हुआ क्योंकि दादा ने टीवी की आवाज कम कर दी।
श्रीलाल जी से तमाम बाते हुयीं। उनका उपन्यास रागदरबारी जब प्रकाशित हुआ तब उनकी उमर लगभग ४३ वर्ष थी। इसे लिखने में उनको करीब पांच वर्ष लगे। उत्तर प्रदेश शासन में अधिकारी होने के नाते उनको यह ख्याल आया कि इसके प्रकाशन की अनुमति भी ले ली जाये। हालांकि इसके पहले भी उनकी किताबें छप चुकी थीं और उनके लिये कोई अनुमति नहीं ली गई थी। लेकिन रागदरबारी में तमाम जगह शासन व्यवस्था पर व्यंग्य था इसलिये एहतियातन यह उचित समझा गया कि शासन से अनुमति ले ली जाये। अनुमति मिलने में काफ़ी समय लग गया, एकाध साल के लगभग। इसबीच श्रीलाल शुक्ल जी ने नौकरी छोड़ने का मन बना लिया था। अज्ञेयजी की जगह दिनमान सापताहिक में संपादक की बात भी तय हो गयी थी। यह सब होने के बात श्रीलालजी ने उत्तर प्रदेश शासन को एक विनम्र-व्यंग्यात्मक पत्र लिखा जिसमें इस बात का जिक्र था कि उनकी किताब पर न उनको अनुमति मिली न ही मना किया गया। बहरहाल, इसे पत्र का ही प्रभाव कहें कि तुरंत रागदरबारी के प्रकाशन की अनुमति मिल गयी। और आज यह राजकमल प्रकाशन से छपने वाली सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों में से है।
हमारे यह पूछने पर कि रागदरबारी के लिये मसाला कहां से, कैसे मिला श्रीलाल जी ने बताया कि जो देखा था वही मसाला बना। अलग-अलग समय के अनुभवों को इकट्ठा करके इसे लिखा गया। इसको प्रकाशन के पहले पांच बार संवारा-सुधारा गया। इसे लिखने के समय श्रीलालजी की नियुक्ति बुंदेलखंड के पिछ्ड़े इलाकों में रही। कुछ हिस्से तो वीराने में जीप खड़ी करके लिखे गये।
हमने रागदरबारी को नेट पर प्रकाशित करने की अनुमति चाही। श्रीलाल जी ने कहा कि एक लेखक की हैसियत से तो उनको कोई एतराज नहीं है लेकिन प्रकाशक से पूछना भी ठीक रहेगा। प्रकाशक से पूछने पर उन्होंने बताया कि उनका कहना कि कुछ अंश छाप सकते हैं। वैसे राग दरबारी का कापीराइट श्रीलाल शुक्ल की के नाम है तो मेरे ख्याल में उनकी सहमति पर्याप्त होनी चाहिये। मजे की बात है कि रागदरबारी के पाकिस्तान और राजस्थान( जहां यह कोर्स की किताब है) लोग इसे धड़ल्ले से इसे छाप रहे हैं और बेच रहे हैं। बहरहाल हमने यह तय किया है कि रागदरबारी को नेट पर लाया जाना चाहिये। इसके लिये ब्लाग बना लिया गया और आगे के लिये स्वयंसेवकों का आवाहन है जिनके पास रागदरबारी किताब है और जो रागदरबारी-टाइपिंग यज्ञ में अपना योगदान दे सकें।
बात किताबों से कमाई की तरफ भी मुड़ी। श्रीलाल जी के मुताबिक केवल लेखन से जीवन बिताना हिंदी के लेखक के मुश्किल है। उन्होंने बताया कि निर्मल वर्मा जैसे लेखक, जिनकी कि तमाम किताबें छपी हैं, की भी रायल्टी अधिक से अधिक दो लाख रुपये से भी कम ही है। यह भी तब जब गत वर्ष उनके निधन के कारण उनकी किताबों की मांग बढ़ी है।
हमने पूछा तो फिर परसाईजी जैसे लोगों की जिंदगी कैसे गुजरती होगी जिन्होंने लेखन के लिये नौकरी छोड़ दी! श्रीलाल जी ने बताया कि उन्होंने अपनी कमाई के अनुसार अपनी जरूरतें कम रखीं। परिवार नहीं था जब नौकरी छोड़ी। शादी की नहीं। बाद में बहन के परिवार की जिम्मेदारी निभानी पड़ी। लेकिन अपनी आमदनी के लिहाज से अपनी जरूरतों को सीमित किया इसलिये कर सके होंगे गुजारा। श्रीलाल जी ने परसाई जी के साहित्य में योगदान पर भी कुछ चर्चा की तथा बताया कि मध्य प्रदेश में हिंदी साहित्य के प्रचार का बहुत कुछ श्रेय परसाई जी को जाता है।
हमने हिंदी लेखक की विपन्नता की स्थिति की बाबत बात करनी चाही तो शुकुलजी का कहना था- हम हिंदी वाले आम तौर पर जाहिल मनोवृत्ति के लोग हैं। हिंदी पढ़ने -लिखने वालों की अबादी तीस-चालीस करोड़ है। अगर एक प्रतिशत लोग भी महीने में एक किताब खरीदें तो साल में पचास लाख किताबें बिकें लेकिन ऐसा नहीं होता। जब किताबें बिकेगीं नहीं तो छ्पेगीं भी नहीं और हिंदी लेखक ऐसे ही विपन्न रहेगा। केवल लेखन से जीविका इसीलिये हिंदी में बहुत मुश्किल बात है।
हमारे यह पूछने पर कि आजकल क्या लिख रहे हैं श्रीलाल जी ने बताया कि स्वास्थ्य के कारणों से पिछले कुछ दिनों से लिखना नहीं हो पा रहा है। वैसे इंडिया टु दे तथा आउटलुक और अन्य पत्रिकाऒं से नियमिते लेखन का प्रस्ताव है लेकिन लिखना हो नहीं पा रहा। मैंने कहा कि आप बोलकर लिखवाया करें जैसे नागरजी लिखवाया करते थे। इस पर श्रीलाल जी ने कहा कि बोलकर लिखवाने की उनकी आदत नहीं है। अपने लिखे को ही दो तीन बार सुधारना पड़ता है तो दूसरे को बोलकर लिखवाना तो और मुश्किल है। नागरजी के बोलकर लिखवाने का ही जिक्र करते हुये उन्होंने अपना मत बताया कि अगर नागरजी अपना उपन्यास बूंद और समुद्र को कुछ संपादित करके लिखते तो तो शायद कुछ पतला होकर यह और श्रेष्ठ उपन्यास बनता।
अपने लिखने के बारे में बात करते हुये उन्होंने कहा -”एक समय ऐसा आता है कि लेखक अपने लिखे पर ही सवाल उठाता है कि हमने जो लिखा वह कितना सार्थक है! उसकी कितनी सामाजिक उपादेयता है! मैं अब ८१ वर्ष की उम्र में शायद उसी दौर से गुजर रहा हूं।”
अपने लेखन से कितने संतुष्ट हैं और अपनी रचनाऒ को दुनिया के महान साहित्यकारों की रचनाऒं से तुलना करने पर कैसा महसूस करते हैं यह सवाल जब मैंने पूछा तो श्रीलालजी ने कहा- “अब मुझमें इतनी अकल तो है ही कि मैं अपने लिखे की तुलना किसी बहुत आम लेखक की आम रचनाओं से करके खुशफहमी पालने से अपने को बचा सकूं लेकिन जब कभी ‘वर्ल्ड क्लासिक्स’ से तुलना करता हूं तो लगता है कि मैंने कुछ नहीं लिखा उनके सामने।”
मैं समीक्षक नहीं हूं लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि श्रीलाल शुक्ल जी का रागदरबारी उपन्यास विश्व के अनेक कालजयी उपन्यासों के स्तर का उपन्यास है।
इस बीच श्रीलालजी की रैक की किताबें पलटते हुये मैं प्रख्यात पत्रकार स्व. अखिलेश मिश्र की किताब पत्रकारिता: मिशन से मीडिया तकउलटने-पलटने लगा था। पिछ्ले ही हफ्ते हिंदी दैनिक हिंदुस्तान में छपी इसकी समीक्षा को पढ़कर इसे पढ़ने की सहज इच्छा थी। मेरी उत्सुकता देखकर श्रीलाल जी ने वह किताब हमें दे दी कि मैं उसे ले जाऊं। हमने उसे प्रसाद की तरह ग्रहण कर लिया। अब जब वह किताब पढ़ रहा था तो लगा कि यह हर पत्रकार के लिये आवश्यक किताब है।
बहरहाल तमाम बाते होती रहीं। साहित्यिक, सामाजिक, व्यक्तिगत। ढेर सारा समय कैसे सरक गया पता ही नहीं चला। पांच मिनट के लिये कहकर मैं घंटे भर से ऊपर यहां गपियाते हुये बिता चुका था। बातों का क्रम भंग कर दिया मुये मोबाइल ने। घरवाले बुलाहट कर रहे थे कानपुर वापस लौटने के लिये।
हम वापस लौट आये। अभी जब मैं लखनऊ में श्रीलाल शुक्ल के साथ सहज रूप से बिताये समय को याद कर रहा हूं तो लगता है कि वे ऐसे व्यक्ति साहित्यकार हैं जिनसे बात करते समय यह अहसास ही नहीं होता कि हम किसी बहुत खास व्यक्ति से, महान लेखक से बात कर रहे हैं। यही शायद उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खासियत है। यही उनकी महानता है।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

22 responses to “श्रीलाल शुक्ल जी एक मुलाकात”

  1. समीर लाल
    वाह, बहुत खुब रही आपकी मुलाकात और आपकी खास शैली में उसका विवरण. पढ़कर अच्छा लगा.
  2. Anoop Bhargava
    शुक्ल जी नें ठीक कहा है कि जब तक हम किताब खरीदनें की आदत नहीं बनायेंगे तब तक लेखक विपन्न ही रहेंगे । अब देश की गरीबी को इस के लिये दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्यों कि इसी देश में ‘मल्टीप्ले़क्स सिनेमा’ में २०० रुपये दे कर फ़िल्म देखनें वाले भी बहुत हैं ।
    जब तक लेखन एक पूर्ण व्यवसाय नहीं बन जाता तब तक ‘राग दरबारी’ जैसी ‘क्लासिक’ महज अपवाद ही हो सकती हैं ।
    राग दरबारी को आप का इंटरनेट पर लानें का प्रयास सराहनीय है लेकिन मेरा निजी विचार है कि पूरा उपन्यास देने के बजाय सिर्फ़ उस के कुछ अंश दें जिस से पाठकों की जिज्ञासा बढे और वह उपन्यास खरीद कर पढें । उपन्यास ‘पौकेटबुक’ में सरलता से उपलब्ध है । वैसे भी पूरा उपन्यास ‘इंटरनेट’ पर पढनें की क्षमता और रुचि न जानें कितनें लोगों में हो । आशा है आप सुझाव को अन्यथा न लेंगें , पूरे उपन्यास को लिखनें में किये गये परिश्रम का कहीं और बेहतर प्रयोग हो सकता है ।
    वैसे अगर आप लिखना चाहें ही तो २० पन्नें मेरे नाम से जोड़ लें :-)
  3. प्रत्यक्षा
    अनूप जी की बात से मैं भी सहमत हूँ । पूरा उपन्यास नेट पर पढना मुश्किल होगा । हाथ में किताब हो तो पढने का सुख अवर्णनीय होता है । बस इतना भर ही नेट पर डालें जिससे पाठकों को पूरा पढने का उकसावा मिले ।
  4. जगदीश भाटिया
    २० पन्ने की आहुति मेरी और से भी इस यज्ञ में:)
  5. संजय बेंगाणी
    राग दरबारी के बारे में सुना था, आज लेखक से परिचीत होने पर इसे पढ़ने कि इच्छा और प्रबल हो गई है.
    आपने इस मुलाकात का विवरण बहुत अच्छी तरह से रखा है.
    यह पढ़ कर एक फायदा मुझे नीजि तौर पर यह हुआ की अब तक मैं वर्तनियों की भूलो से डर कर लिखना टालता रहा था, पर जब इतने बड़े लेखको को ही अपने लिखे को तीन-चार बार सुधारना पड़ता है, तब हमे भी ज्यादा डरने की कहाँ आवश्यक्ता है.
  6. सागर चन्द नाहर
    बहुत सुना था इस उपन्यास के बारे में, उत्सुकता भी थी। आशा है जल्द ही नेट पर पढ़ने को मिलेगा।
    मैं इसे टाईप करने के लिए तैयार हूँ पर अफ़सोस मेरे पास यह उपन्यास नहीं है।
  7. आशीष
    एक स्वंयसेवक हाजीर है , आप पृष्ठ संख्या बता दिजीये , हम टाईप कर के भेज दूंगा।
  8. जीतू
    हम भी लिखने के लिए तैयार है, लेकिन असल परेशानी ये है कि किताब यहाँ पर नही है हमारे पास, उसका कोई इन्तज़ाम हो सके तो बताया जाए। इस विषय पर अलग से इमेल करके बात करते है।
  9. अनुराग श्रीवास्तव
    अनूप (शुक्ल) जी,
    अनूप (भार्गव) जी ने अच्छी सलाह दी है, आंशिक रूप से पढ़ने के बाद जिज्ञासा वश लोग किताब तो खरीदेंगे!
  10. bhuvnesh
    कैसा सँयोग है कि मैँ भी आज ही इस किताब तो खरीदने के बारे मेँ सोच् रहा था और आज ही आपका ये पोस्ट पढा
    टाइपिँग मेँ भी कुछ् सहयोग करूँगा
    आपका विवरण पढके ये लगता है जैसे खुद ही श्रीलाल जी से मुलाकात हो गई|
  11. जगदीश भाटिया
    यहां पर उपन्यास की स्कैन की हुई प्रति मिल जायेगी अगर किसी को चाहिये हो तो। स्क्रीन पर सामने रख कर टाईप करना भी आसान रहेगा।
    http://www.new.dli.ernet.in/
  12. anunad
    रागदरबारी को इन्टरनेट पर लाने का विचार बहुत ही बढिया है। इससे हिन्दी का बड़ा उपकार होगा।
    श्रीलाल जी से पूछे गये प्रश्न और उनके उत्तर बहुत सार्थक लगे तथा बहुत सारी नयी जानकारी मिली।
    मुझे दु:ख है कि मेरे पास यह पुस्तक न होने के कारण मैं इस यज्ञ मे आहुति नहीं दे पाउँगा, अन्यथा दसेक पृष्ट तो छाप सकता था।
  13. अनुराग
    एक बढ़िया साक्षात्कार। आशा है एसे और साक्षात्कार पढ़ने को मिलेंगे भविष्य में।
  14. जोगलिखी » Blog Archive » ओन-लाइन खज़ाना
    [...] यह ऑनलाइन पुस्तकालय है, डिजिटल लाइब्रेरी ऑफ इंडिया. इस खजाने में खोज लिजीये अपनी पसन्द की पुस्तक और निशुल्क पढ़ीये. पहले मुझे इसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी. शुक्लाजी ने श्रीलालजी से हुई मुलाकत के बारे में लिखा तथा रागदरबारी को नेट पर उपलब्ध करवाने का प्रयास करने की इच्छा व्यक्त की, तब जगदीशजी द्वारा की कई टिप्पणी से इस साइट का पता चला. हम भी रागदरबारी की खोज में इस संजाल पर जा पहूँचे, पर रागदरबारी यहाँ नहीं मिला. कोई बात नहीं बहुत सारी बल्की ठेर सारी किताबे यहाँ मौजुद हैं. मजा आ गया अब पढ़ने के लिए खुब मसाला तैयार मिल गया है. हमने इसे छानना शुरू किया. इन दिनो खुशी को पृथ्वीराज पर कोई पुस्तक पढ़ने की इच्छा हो रही थी, तो इसी की खोज शुरू की. इस विषय पर तीन पुस्तके मिली. इनमें एक 1920 में प्रकाशित हुई 154 पन्नो की किताब थी. उसे ही पढ़ने तथा खुशी के लिए डाउनलोड करने का विचार किया. पर मामला इतना आसान भी न था. पढ़ना चाहा तो निर्देश मिला पहले एक एक्टिव-एक्स कंट्रोल डाउनलोड करो. वह भी किया फिर पढ़ने की कोशीष की तो स्केन किये पन्ने पढ़ना कतई मजेदार नहीं था. हमने पूरी किताब जो की टीफ फोर्मेट में है, डाउनलोड कर ली. अब उसे प्रिंट कर पढ़ेंगे. आप भी यहाँ उस किताब को खोज सकते है, जिसकी तलाश आपको थी पर अब तक मिली नहीं. [...]
  15. रवि
    रागदरबारी को इंटरनेट पर लाने का आपका प्रयास सराहनीय है.
    आपने बताया है कि आज भी रागदरबारी बेस्टसेलर की सूची में है तो निश्चित रूप से इसकी सॉफ़्टवेयर प्रतिलिपि प्रकाशक के पास होगी, और डीटीपी फ़ॉर्मेट में कृतिदेव फ़ॉन्ट में होगी. अगर इसकी एक प्रति प्रकाशक से मिल जाती है तो फिर से टाइप करने की समस्या दूर हो सकती है. इसे परिवर्तन जैसे सॉफ़्टवेयरों की मदद से यूनिकोड में आसानी से रूपांतरित किया जा सकता है. कुछ चर्चा कर देखें:
  16. anunad
    मेरा यह भी विनम्र सुझाव है कि रागदरबारी को हिन्दी विकिसोर्स (http://wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%AA%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0:%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80)पर लादा जाय, जो इसी तरह के कामों के लिये बनाया गया है।
  17. SHUAIB
    शुक्ल जी से मुलाकात और उनसे हमारी मुलाकात करवाने के लिए अनूपजी का धन्यवाद।
  18. विजय वडनेरे
    जनरल टाईप की टिप्पणी:
    आपकी उनसे मुलाकात तो ऐसी रही कि लगा हमारी ही उनसे मुलाकात हो गई।
    कुछ सीरियस टिप्पणी:
    वाकई, जब तक समर्थ लोग खरीदेंगे नहीं, तब तक हिन्दी साहित्य में इस तरह की शख्सियत यदा कदा ही दिखेगी।
    अपनी वाली पर: :)
    सहयोग तो मैं भी पुरा करना चाहुँगा। गूगल पर ढुँढ रहा हूँ कहीं से देवनागरी यूनिकोड में तैयार सामग्री मिल जाये तो १००-५० पन्ने मैं भी कॉपी-पेस्ट कर के भेज सकता हूँ.
  19. फ़ुरसतिया » राग दरबारी इंटरनेट पर
    [...] विजय वडनेरे on श्रीलाल शुक्ल जी एक मुलाकातSHUAIB on श्रीलाल शुक्ल जी एक मुलाकातanunad on श्रीलाल शुक्ल जी एक मुलाकातरवि on श्रीलाल शुक्ल जी एक मुलाकातजोगलिखी » Blog Archive » ओन-लाइन खज़ाना on श्रीलाल शुक्ल जी एक मुलाकात [...]
  20. हिंदी ब्लॉगर
    बहुत दिनों बाद दोबारा इंटरनेट के क़रीब आया हूँ. आते ही मोती पा गया इस साक्षात्कार के रूप में. बहुत-बहुत धन्यवाद!
  21. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] की कहानी- हनीमून 2..श्रीलाल शुक्ल जी एक मुलाकात 3..राग दरबारी इंटरनेट पर 4..नगर निगम चौकस [...]
  22. pankaj upadhyay
    रागदरबारी कभी आधा अधूरा रह गया था.. बहुत जल्द ही फ़िर से शुरु करने वाले है.. श्रीलाल जी के साथ आपको देखकर बहुत अच्छा लगा.. :)
    और यह भी डिसाईडेड ही है कि हमे भी उनसे मिलना है :) बस थोडा प्रिपेयर हो जाये अपने साजो सामान के साथ..