Saturday, January 13, 2007

सबको सम्मति दे भगवान

http://web.archive.org/web/20110926072524/http://hindini.com/fursatiya/archives/225

सबको सम्मति दे भगवान

मैंने अपने पिछले लेख में गांधीजी के बारे में अपने कुछ बेतरतीब से विचार बताये! इस पर कुछ साथियों की टिप्पणियों में सवाल थे कुछ में असहमतियां। मैं इस बारे मे और कुछ कहने-लिखने से बचना चाहता था लेकिन लगता है सवाल का जो जवाब अनुराग श्रीवास्तव भाई ने मांगा है उसके चलते मेरा मन कर रहा है अपने से पूछने और लिखने का। अनुराग श्रीवास्तव के सवाल का जवाब देने से पहले मैं सृजन शिल्पी, सागर चन्द नाहर और और श्रीश की कुछ बातों का जवाब देना चाहता हूं।
पहली बात तो यह कि मैंने यह लेख गांधीजी के बारे में अपनी सोच बताने के लिये लिखा था। बाबा रामदेव के बयान का उल्लेख करती सृजन शिल्पीजी पोस्ट का पहला पैराग्राफ और सागर भाई के बाबा रामदेव को शाबासी देने के संदर्भ से अधिक मैंने इन पोस्टों के संबंध में कुछ नहीं लिखा। न ही मैंने बाबा रामदेव या ऒशो के बयान पढ़े थे जिनके लिंक सृजन शिल्पी की पोस्ट में थे। मेरे जो भी विचार थे वे बाबा रामदेव के बयान को लेकर थे। सृजन शिल्पी
जी और सागर भाई की प्रतिक्रियायें पढ़ने के बाद मैंने सारे लेख, लिंक देखे और अब अपनी बात रखना चाहता हूं।
पहली बात तो भाई सृजन शिल्पीजी जैसा मैंने बताया कि मैंने जो कुछ भी लिखा वो सब बाबा रामदेव के बयान को लेकर था उससे आपका कुछ सिवाय पोस्ट संदर्भ के और कुछ संबंध नहीं था। मैंने जो ‘बचकानी हरकत’, ‘टुंटपूंजिया और मौसमी आलोचना’ शब्द इस्तेमाल किये वे बाबा रामदेव के बयान को लेकर उनके लिये किये थे। और मेरा अब भी यही मानना है कि बाबा रामदेवजी के इस तरह के बयान बेहद बचकाने हैं। अगर इस सफ़ाई के बाद भी आपको लगता है कि यह सब मैंने आपके लिये लिखा था तो मैं इसके लिये अफ़सोस प्रकट करता हूं।
बाबा रामदेव के बयान के तीन मुख्य हिस्से थे:-

१. भारत की आजादी में केवल गांधीजी का योगदान नहीं था।
२. ‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’ गीत गांधी जी के चापलूसों द्वारा लिखा गया था।
३. जहां तक अहिंसा का सवाल है हमारे देश प्राचीन काल से ही दुनिया का इकलौता अहिंसा वादी देश है।(इसे सृजन शिल्पीजी ने अपनी पोस्ट में लिखा- वह अहिंसा के सिद्धांत को जन-जन तक पहुँचाने का श्रेय भी गाँधी को नहीं देना चाहते।)
मेरा यह कहना था कि यह सब जानते-मानते हैं कि देश की आजादी में देश और तमाम महापुरुषों और आम जनता का योगदान रहा। यह कहकर बाबा रामदेव जी ने कौन सी ऐसी नई बात कह दी। अहिंसा का सिद्धांत भी तो हर धर्म में और हर देश में कमोवेश मौजूद है। इस बारे में बाबा की बात गलत है कि भारत दुनिया का एक मात्र अहिंसा वादी देश है। सिद्धांत होना अलग बात है उसका पालन होना अलग बात है। अहिंसा के सिद्धांत के बावजूद दुनिया के एकमात्र अहिंसा वादी देश (बकौल बाबा रामदेव) भारत में महाभारत जैसे युद्ध हुये और अश्वमेघ यज्ञ होते रहे, देव-दानव युद्ध होते रहे। अहिंसा अगर रही भी तो वैयक्तिक स्तर पर! सामाजिक स्तर पर सामूहिक रूप से आंदोलन में जिस पैमाने पर गांधीजी अहिंसा का सफल प्रयोग किया वह पहले कभी नहीं हुआ।
अब बात साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल गीत के रचयिता के गांधीजी का चापलूस होंने की। इसके बारे में जब मैंने सागरजी की भी टिप्पणी पढ़ी तो हमें लगा कि बाबा रामदेव के लिये प्रमुख गांधीवादी राजीव बोरा की सलाह ही उचित लगती है कि बाबा रामदेव पहले इतिहास का अध्ययन कर लें।
हिंदी सिनेमा से जरा सा भी संपर्क रखने वाला व्यक्ति जानता है कि उन्होंने कैसे गीत लिखे हैं। इन गीतों की लिस्ट यहां है।

*ऐ मेरे वतन के लोगों ,
*हम लाये हैं तूफानों से किश्ती निकालकर, इस देश को रखना मेरे बच्चों से संभालकर,
*इंसाफ़ की डगर पर बच्चों दिखाऒ चलकर,
*इंसान का इंसान से हो भाईचारा ,
*दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है
*चल चल रे नौजवान
जैसे गीतों के रचयिता ,प्रदीप, के लिये यह कहना कि वह किसी का चापलूस होगा बेहद बचकानापन है।
प्रदीप के गीतों के कारण अंग्रेज सरकार ने उनके खिलाफ़ वारंट भी निकाला लेकिन वे भूमिगत हो गये। उनके गीत आज भी उतने ही ताजगी भरे लगते हैं। ऐसे व्यक्ति के लिये यदि कोई भी कहता है कि उसने किसी की चापलूसी के करने के लियेगीत लिखे तो उसकी बुद्दि की बलिहारी है। सागर भाई आप कैसे प्रशंसक हो प्रदीपजी के कि बाबा रामदेव की पीठ ठोकने के चक्कर में इस बारे में कुछ भी एतराज दर्ज नहीं कराया!
गांधी में और कितनी भी कमियां रहीं हों वे कम से कम इतने कमजोर कतई नहीं रहे होंगे कि भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु को इसलिये फांसी पर चढ़वाने के लिये कामना करें। जिस समय भगतसिंह को फांसी हुई उस समय उनकी उमर २३ साल की थी
और गांधीजी करीब ६२ साल के थे। वे अपने सिद्धांतों के कारण या जिस कारण भी उन लोगों को बचा न पायें हों या उनको फांसी न देने के लिये अड़ना ठीक न समझा हो लेकिन कम से कम मैं यह कल्पना भी कर सकता कि वे भगतसिंह आदि की
भविष्य में लोकप्रियता बढ़ने के डर से उनको फांसी पर चढ़ने से बचाने के लिये कुछ भी नहीं किया।
इसके अलावा ऒशो के कथन-ओशो कहते थे कि यदि आजादी के बाद गाँधी के आदर्शों को अमल में लाकर उन्हें एकबार आजमा लिया गया होता तो भारत को अब तक गाँधीवाद के झंझट से मुक्ति मिल गई होती, क्योंकि लोगों का जल्द ही उससे मोहभंग हो गया होता। लेकिन गाँधीवाद पर अमल करने की हिम्मत किसी सरकार में नहीं हुई। को बताकर फिर उनके इस विचार पर अपनी कुछ भी टिप्पणी न करके गांधीजी के वचन और कर्म की समानता बताने से मुझे यह पता नहीं चला कि स्रजन शिल्पीजी ऒशो की बात से सहमत हैं या असहमत!
इस तरह की बातें कि अगर ऐसा होता तो वैसा हो गया होता, इस तरह से करते तो ऐसा हो गया होता ये न होता वो न होता आदि का को आदि-अंत नहीं होता। बड़े से बड़े समाजशास्त्री भी सामाजिक, राजनैतिक घटनाऒं का पोस्टमार्टम/व्याख्या कर सकते हैं, वर्तमान के आधार पर भविष्य का पूर्वानुमान लगा सकते हैं लेकिन सटीक भविष्यवाणी नहीं कर सकते। ऐसा संभव ही नहीं है। इसी तरह अतीत में घट चुकी घटनाऒं पर कुछ अपने तर्क और ‘डाटा’ रखकर यह कहना कि अगर ऐसा होता तो आज वैसा होता कहने का कोई मतलब नहीं होता। क्योंकि जिस समय आप इस तरह के तर्क पेश कर रहे होते हैं तो वे केवल आपकी सीमित बुद्धि के कयासी (अनुमानित) निष्कर्ष होते हैं। बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति(यों) भी तमाम अपनी काबिलियत के चरम पर होने के बावजूद किसी भी घटना के बारे में ऐसी कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकते जिसके होने की प्रतिशतता १००% हो। गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका जाने तक का जीवन भी एक आम सत्यवादी व्यक्ति का जीवन था और ऐसी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती थी कि यह व्यक्ति एक दिन देश क्या विश्व का विलक्षण व्यक्तित्व बनेगा।
ऐसे में अपनी अगर ऐसा होता तो ये होता के सारे तर्क मुझे स्व. भगवतीचरण वर्मा की कविता की याद दिलाते हैं:-

अगर कहीं मैं तोता होता
तोता होता तो क्या होता
तो क्या होता
तोता होता!
वैसे भी अतीत में घटी हुयी कोई घटी हुयी घटना कोई ब्लाग पोस्ट नहीं होती जिसमें बाद में मन चाहे रंग भरकर यह देखा जा सके कि अगर यह ऐसे होता तो शायद तस्वीर कुछ ऐसी होती!
जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस आदि के आपसी संबंध कैसे थे यह हम जो जानते हैं वह इतिहास की किताबों से। जवाहरलालजी चूंकि देश के प्रधानमंत्री रहे १६ वर्ष इसलिये उनके लिये तमाम निर्णय आज आलोचना के लिये खुले हैं। अब जब सरदार पटेल असमय विदा हो गये और सुभाषचंद्रजी आजादी के बाद देश के लिये कुछ करने के लिये हमारे बीच न रहे तो वे आगे क्या करते यह केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। लेकिन इन संभावित कार्यों के मुकाबले नेहरू जी ने देश के लिये जो अनेक कार्य किये उनकी अनदेखी करना कहां तक जायज है!
अपने तमाम क्रांतिकारी महापुरुषों के प्रति असीम श्रद्धा रखते हुये भी मैं यह कहना चाहता हूं कि किसी भी हिंसक संघर्ष
के परिणाम बहुत सीमित होते हैं। खासकर अगर आप छिपकर क्रांतिकारी गतिविधियां चला रहे हों तो यह बात और सच होती है। हिंसक संघर्ष में आप केवल अपने दुश्मन को निपटा सकते हैं और अपने देश,समाज से बदला लेने का सुख और गौरव हासिल कर सकते हैं लेकिन अहिंसक संघर्ष करते हुये आप अपने समाज के तमाम लोगों को जोड़ते हुये समाज की तमाम बुराइयों को भी खतम करने के प्रयास साथ-साथ कर सकते हैं। हिंसा की अवधि सीमित होती है और यह तभी तक प्रभावी होती है जब कि आपका कोई दुश्मन हो जिसकी जान लेने के सिवा आपके पास और कोई विकल्प नहीं है जबकि अहिंसक संघर्ष आप अनवरत जारी रख सकते हैं। उन लोगों के विरोध में भी जो आपके अपने हैं और जिनके किसी कार्य से आप सहमत नहीं हैं। अभी हाल ही में सूचना के अधिकार के लिये अन्ना हजारे ने आमरण अनशन किया और सरकार उनके सामने झुकी। यह अहिंसक संघर्ष की विजय थी। इस मामले को अगर हिंसक संघर्ष से निपटाना होता तो कैसे निपटता मामला?
बहरहाल , ये कुछ बातें थीं जो मुझे लगीं कि मुझे कहनी चाहिये थीं अपनी बात के संदर्भ में!
अब बात अनुराग श्रीवास्तव के सवाल के बारे में कि गांधीजी ने मेरी सोच को कितना प्रभावित किया! तो मैं भी देश का एक आम नागरिक हूं। गांधीजी के जीवन के अनेक पहलुऒं से मैं बहुत प्रभावित हुआ हूं। सबसे बड़ी बात कि उनका जीवन साधारण व्यक्ति से असाधारण महापुरुष बनने की यात्रा है। यह बताता है कि हममें से हरेक में अनंत संभवनायें छिपी हैं। जब जागो तब सबेरा!
गांधी जी का जो अपने निर्णयों को परखने का मंत्र है:-

जब भी कोई निर्णय लेने में दुविधा हो तो जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शकल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा।
के अलावा उनकी सेवा भावना हमें बहुत प्रभावित करती है।यह विडम्बना है कि अपने देश में जो लोगों को सेवा के लिये अधिकार मिले उन अधिकारों का उपयोग ज्यादातर लोगों ने अपनी सेवाऒं के लिये। यही कारण है हम लोग तमाम क्षमताऒं के होते हुये भी सालों से विकासशील बने हुये हैं।
मुझे लगता है कि गांधीजी विचार पुनर्विचार से ज्यादा हमारे लिये एक चुनौती की चीज हैं! यह चुनौती इस बात की है कि हम सब लोग अपने देश, समाज की उन्नति सीधे-सरल तरीके जानते हैं लेकिन उनसे आंखे चुराकर नित नये अंदाज में गांधीजी का पोस्टमार्टम कर रहे हैं कि शायद कोई शार्टकट निकल आये जिससे कि हम आराम से गांधीगिरी भी कर सकें और देश भी जैसा है वैसा चलता रहे! हमारी चिंतायें कुछ-कुछ अकबर इलाहाबादी के इस शेर के मानिंद हैं:-

कौम के डर से खाते हैं डिनर हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ!

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

15 responses to “सबको सम्मति दे भगवान”

  1. तरूण
    समस्या कभी भी गांधीजी या उनके सिंद्धातों से शायद ही किसी को होगी, अगर गांधीजी का नाम खराब किया है तो उनके अपने अनुयाईयों ने। भारत की आजादी में सभी का समान योगदान है, एक अकेला आदमी कभी भी किसी देश को आजादी नही दिला सकता। लेकिन उनको इतना महत्व दिया गया कांग्रेसी सरकार द्वारा कि बाकी लोगों का योगदान फीका पड गया या बाकी लोग इतिहास के पन्नों में धुंधले दिखने लगे। बाकी रही गीत लिखने की बात तो किसी की तारीफ में कुछ लिखना हर किसी का पर्सनल मसला है, प्रदीप ने जितने अच्छे और सरल शब्दों के गीत लिखे है शायद ही किसी ने लिखे होंगे।
  2. राकेश खंडेलवाल
    कुछ लोगों की मान्यता होती है
    बेनाम होने से बदनाम बहुत अच्छे हैं
    कम से कम चिट्ठे में ज़िक्र तो होता है.
    वैसे प्रदीप और भरत व्यास जैसे लेखकों के बारे मेम कुछ कहा जाये, यह उसी के लिये संभव हो सकता है, जिसकी सोच उनसे आगे बढ़ सकी हो. इस श्रेणी में और कोई नाम याद आता है तो पं नरेन्द्र शर्मा का. इन सभी की रचनात्मक्ता पर कोई भी लेबल लगाने वाला अज्ञान के अंधकार में भटकने वाला ही हो सकता है
  3. अनुराग श्रीवास्तव
    अनूप जी,
    फिर से एक उत्तम लेख.
    पिछ्ले लेख करी गयी टिप्पणी में मैंने यह नहीं कहा था कि “गांधीजी ने मेरी सोच को कितना प्रभावित किया!”
    वरन मैं ने कहा था कि “मुझे बस एक बात बताइये, बापू के संबन्ध में करी गयीं तमाम सकारात्मक या नकारात्मक अभिव्यक्तियों के बावजूद, क्या आपके विचारों में बापू के प्रति कोई बदलाव आया या आपके ह्रदय में उनके लिये जो स्थान था, क्या वह बदला?”
    तात्पर्य यह था, कि तमाम छींटा कारी के बावजूद बापू का स्थान आपके (मेरे, हमारे) हृदय में वही है.
    यही बात मैं ने अंतिम पंक्ति में दोहराई भी थी.
    शायद मैं अपनी बात ठीक से कह नहीं पाया.
  4. pankaj
    हम लाये हैं तूफानों से किश्ती निकालकर, इस देश को रखना मेरे “बच्चों से” संभालकर
    चाचु आपने तो गीत की ऐसी तैसी कर दी. हा हा हा हा हा …. अन्यथा मत लिजीएगा.
  5. संजय बेंगाणी
    टिप्पणी में ज्यादा लिखा नहीं जा सकता, मैं तरूण की बात से सहमत हूँ. उससे आगे लिखना चाहता हूँ की जब भगतसिंह को फाँसी लगी उसके बाद इस बात को लेकर गाँधीजी ने उपवास वगेरे किया था क्या? सामान्यतः वे हिंसक घटनाओं के बाद ऐसे कमद उठाते रहे थे. आपको मलुम हो तो जरूर लिखे. जानना चाहता हूँ.
    दुसरी बात गाँधीगीरी से अंग्रेजों को भगा दिया था, उसी गाँधीगीरी से हमे हमारी ज़मीन जो चीन ने जीत ली है उसे बचा सकते थे? या वापस पा सकते है?
  6. अफलातून
    तरुण जी,
    आजादी के बाद जो लोग सत्तासीन हुए उनके और गांधी की विकास की अवधारणा अलग-अलग थी |गांधी के सचिव प्यारेलाल की पुस्तक ‘पूर्णाहुति’ मेँ गांधी-नेहरू के दृष्टिभेद का तफसील से हवाला दिया है| आप इसे यहां देख सकते हैं – http://samatavadi.wordpress.com/2006/10/01/gandhi-nehru-debate/
    आजादी के बाद नेहरू ने गांधी को उतना महत्व दिया जितना जनता पार्टी के हुक्मरानों ने १९७७ के बाद जयप्रकाश नारायण को दिया था |
  7. पंकज बेंगाणी
    किसी के सिद्धांत को सम्पूर्ण रूप से अपनाना असम्भव है। सिर्फ गान्धीगिरी के भरोसे पाकिस्तान और चीन से खुद को बचा लेने की सोच “बचकानी” होगी।
  8. प्रेमलता
    गांधी ‘व्यक्ति’ की आड़ में हम अपने या सामने वाले को सही या ग़लत बता देते हैं, परंतु ‘गांधी एक दृष्टिकोण’ है व्यापक रूप में जिससे हरेक को किसी ना किसी समय सहमत होना पड़ता है। किसी एकबात या उदाहरण की अपेक्षा हमें समग्र रूप में उस दृष्टिकोण को लेना चाहिए।
  9. समीर लाल
    एक और उत्तम लेख के लिये बधाई. काफी गहराई में चले गये आप अपने पूर्व लेख पर आई टिप्पणियों में.. :)
    मुझे कभी कभी लगता है टिप्पणी के रुप में कुछ चर्चा लोगबाग सिर्फ़ चर्चा करने के लिये करते हैं. आप कुछ भी विचार रखें, सहमती और असहमती वाले दोनों पक्ष तो हमेशा मौजूद रहेंगे ही. सब मात्र व्यक्तिगत नज़रिये की बात है.
    प्रदीप ने जितने अच्छे और सरल शब्दों के गीत लिखे है शायद ही किसी ने लिखे होंगे। यह एकदम सत्य वचन है.
    सार्थक लेखन के लिये पुनः बधाई.
  10. जीतू
    आज इतने सालों बाद, गाँधी पर चिल्लमचिल्ली क्यों? गाँधीवाद एक दृष्टिकोण है, इसके मानने वाले और ना मानने वाले कई होंगे। इसलिए मानो तो ठीक, ना मानो तो कम से कम अनुचित शब्दों का प्रयोग तो मत करो।
    रही बात गलतियों की, गाँधी भी एक इन्सान थे, वे खुद कहते थे, अनुभव ही सबकुछ सिखाता है। हो सकता है कुछ गलतिया उनसे भी हो गयी है, लेकिन किसी मृत-आत्मा के बारे मे कोई अनुचित बात करना ठीक नही, वो भी तब, जब उससे कुछ हासिल नही होना। रही बात कांग्रेस की, तो भैया, उसके बारे मे चर्चा करो ना, गाँधीजी को बीच मे काहे घसीट रहे हो।
  11. अनूप भार्गव
    एक और अच्छे लेख के लिये बधाई । मुझे प्रेमलता जी की बात भी बहुत अच्छी लगी,
    “गांधी एक दृष्टिकोण है” ।
    बहुत कम शब्दों में बहुत गहरी बात …..
  12. समीर लाल
    यह पुनः प्रकाशित क्यूँ की गई, वजह बताई जाये..वरना विवाद होगा..हा हा!!! :)
  13. Srijan Shilpi » Blog Archive » गांधी की डगर और मैं
    [...] बाद में, पत्रकारिता और जनांदोलनों में मेरी सक्रियता के दौरान कई गांधीवादी विद्वानों और कार्यकर्ताओं के साथ संपर्क हुआ और समय-समय पर संगोष्ठियों-साक्षात्कारों में गांधीवादी मूल्यों और सिद्धांतों के संबंध में उनके साथ संवाद करने के अवसर भी मिलते रहे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास और आजादी के लड़ाई में भगत सिंह एवं नेताजी सुभाष जैसे क्रांतिकारियों की भूमिका के बारे में विशेष अध्ययन करने के बाद महात्मा गांधी के संबंध में मेरे विचारों में कुछ परिवर्तन जरूर हुआ और इस चिट्ठे पर मैंने यदा-कदा अपनी टिप्पणियों के माध्यम से उन्हें व्यक्त भी किया। दुर्भाग्य से मेरी ऐसी कुछ टिप्पणियों के बहाने चिट्ठा जगत में विवाद के कुछ अप्रिय प्रसंग भी छिड़े। लेकिन, मेरे जीवनचर्या और मेरी सोच पर बापू के जीवन और विचारों का असर अब भी मेरे अन्य प्रेरणास्रोतों की तुलना में कहीं अधिक है। लेकिन जीवन में आगे बढ़ने से पहले मैं अपने जीवन-संघर्ष की राह में गांधीवादी सिद्धांतों पर अमल की उपादेयता को एक बार फिर कसौटी पर कसना चाहता हूँ। [...]
  14. हरि प्रकाश गर्ग
    निस्संदेह प्रदीप जी एक बहुत अच्छे गीतकार व गायक थे और संभवतः चापलूस भी न रहे हों और अपनी नीयत से पूर्णतः इमानदार भी रहे हों लेकिन अन्य करोड़ों भारतवासियों के ही समान भ्रम का शिकार रहे हों।
    विश्व में कोई भी देश अहिंसा से स्वतंत्र हो जाए यह वास्तव में यह संभव ही नहीं है। अहिंसा से स्वतन्त्रता केवल किताबी सिद्धान्त है। किसी को गुलाम बनाने की मानसिकता रखने वाले लोगों का नैतिक स्तर इतना ऊंचा नहीं होता कि वे अहिंसा जैसे विचारों या व्यवहारों से प्रभावित हो कर किसी को आज़ाद कर दें। बल्कि ग़ुलामों की अहिंसा तो उनके कार्य को और सरल व निष्कंटक बना देती है और उन्हे और लंबे समय तक उन्हे जमाए रखने में मदद करती है। गांधी जी की अहिंसा ने यही किया भी।
    अहिंसा का अर्थ किसी निरीह, निरपराध व निर्बल पर अपनी शक्ति या साधनों का दुरुपयोग करके उसका अकारण अनिष्ट न करना है न कि आतताय़ी को छूट दे कर उसका उत्साह बढ़ाना। यदि गांधी जी वाली अहिंसा को मानें तो आपके सारे अवतार नृसिंह, वाराह, राम, कृष्ण, हनुमान आदि सबसे बड़े हिंसक थे, जिनमें से राम नाम का सहारा ले कर गांधी जी को महात्मा बनाया गया। इस हिसाब से तो गांधी जी ठीक थे और उनके आराध्य ऱाम ग़लत।
  15. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
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