Tuesday, January 16, 2007

आग का दरिया, बसंती की अम्मा और कुछ हायकू

http://web.archive.org/web/20110101192644/http://hindini.com/fursatiya/archives/226

आग का दरिया, बसंती की अम्मा और कुछ हायकू

कुछ ऐसा होता है कि जैसे ही हम नेट से जुड़ते हैं ‘गूगल बतकही’ पर गप्प के शौकीन कुछ दोस्त मिल ही जाते हैं। जैसे ही जुड़े नहीं कि तड़ से किसी तरफ़ से ‘हेलो’ आपके ऊपर पड़ जाता है। ३इंचx६ इंच के मेसेज बाक्स में मौजूद दोस्त देख कर गंगा किनारे लाइन से तख्त पर बैठे पंडों की याद आती है। हर पंडा आपका पूजा-पाठ, क्रिया कर्म कराने के लिये लपकता है। हर पंडे के पास आपके खानदान का कच्चा चिट्ठा रहता है।
पहले हम समझते थे कि गप्पाष्टक के दौरान जो संदेशों के आदान-प्रदान में देर होती है उसका कारण यह है कि नेट सर्विस प्रदाता कंपनी की सेवायें घटिया दर्जे की होती हैं। लेकिन जब हमनें अपने पास उपलब्ध हर नेट सेवा में ऐसाइच देखा तो हमने इसे विधि का विधान माना। आम भारतीय की तरह पूर्व जन्मों का फल मानकर हमने जाहि विधि राखै राम, ताहि विधि रहिये का कम्बल ओढ़ लिया। लेकिन हमें जब सेवा प्रदाता कंपनी के प्रतिनिधि ने असलियत बतायी तो हम चौंक गये।
उसने हमें बताया कि आपके दोस्त थोड़ा वीआईपी टाइप हैं तो उनके पास संदेश बड़े अदब से ले जाने पड़ते हैं। जैसे हमने ‘हेलो’ कहा तो ये थोड़ी न कि यहां का ‘हेलो’ ले जाकर तरकश के तीर की तरह सामने के दोस्त के मानीटर पर पटक दिया। न, न ऐसे तो कल्लू हलवाई की दुकान का छोरा मेज पर पानी का गिलास पटकता है। यहां तो बड़े अदब से आपका ‘हेलो’ सजा-सुजू के बा-अदब, बामुलाहिजा, होशियार वाले अंदाज में दूसरी तरफ़ ले जाया जाता है। इसमें देर भले लगे लेकिन इज्जत से सेवा का सुकून हमें मिलता है।
बहरहाल जैसे घरों में लोग अपने नाम लिखते हैं वैसे ही लोग अपने नाम के आगे कुछ न कुछ संदेश लिख लेते हैं। जैसे रेलवे स्टेशन, एअरपोर्ट पर रिसीव करने वाले ड्राइवर तखती लगाकर आने वाले के स्वागत में खड़े रहते हैं। इसमें भी अजीब घपला है जो अपने यहां उपलब्ध की तखती लगाता है वह जवाब नहीं देता और जो व्यस्त रहता है वह सबसे ज्यादा गपियाता है। कहीं कनाडा में बर्फ गिरती है तो मानसी उसे अपने बक्से में सजा देती हैं। गिरिराज जोशी बहुत दिन तक सागर भाई को हंसाना है की तखती लगाकर रुलाते रहे।
आजकल जीतेंद्र अपने नाम के आगे पतंगबाजी कर रहे हैं। इसके पहले मेसेज बाक्स में उनके नाम के आगे लिखा था- हिंदी के ४००ब्लाग पूरे। हमें लगा कि जगह की कमी हो गयी होगी वर्ना अगला लिखता- हिंदी के ४०० ब्लाग पूरे, केवल २० बाकी।
समीरलालजी की दुकान पर कल का साइन बोर्ड था- आग का दरिया है और डूब के जाना है। हमें लगा कि कनाडा में बर्फ खूब हचक के गिरी है और बर्फ़ का पहाड़ टाइप बन गया है और समीरलाल जी हिमिगिरि के उत्तुंग शिखर टाइप जगह पर फंस गये हैं। अब नीचे उतरने का कौनो साधन नहीं समझ में आ रहा है तो देशी तरीका कोई बताइश है ज्ञान के खजाना में कि अगर कहीं चारों तरफ़ से बर्फ़ से घिर जाऒ तो आग जलाओ! आग जलाने से बर्फ़ पिघल जायेगी। अब समीरलाल जी को यही समझ में आ रहा है कि वे अपने जिगर की आग से बीड़ी की जगह ‘आग का दरिया’ सुलगायें। बर्फ़ पिघलाकर उसे आग की नदी में बहायें। उसी में डूब के अपने सारी बर्फ़ पिघलाकर, नहा धोकर राजा बेटा बबुआ बनकर फिर से की बोर्ड पर बैठकर खुटुर-खुटुर करें।
हम इस बात से संतुष्ट हो जाते लेकिन हमें एक बात पर शक हुआ कि अगर समीरलालजी ऐसी जगह पर फंसे हैं जहां टाइपिंग मुश्किल है तो ये संदेश कैसे टाइप किये- आग का दरिया है और डूब के जाना है! फिर हमने पूरा शेर देखा तब बात कुछ-कुछ समझ में आई! पूरा शेर है- ये इश्क नहीं आशां बस इतना समझ लीजै, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है! हमें जब यह मतलब समझ में आया तो हम सोच में पड़ गये। दो जवान-जहान बच्चों के पिताश्री इस बाली उमर में ‘इश्क के दरिया’ में डूबने के जुगाड़ में लगें हैं। हमें ऐसा लगता तो नहीं फिर भी भाई राकेश खंडेलवाल निगाह रखें वर्ना उनके मत्थे यह उलाहना आगेगा -क्या भाई साहब आपने इनको ‘काव्य मंच’ पर क्या चढ़ाया ये तो ‘इश्क मंच’ पर भी टहलने लगे। चुगली करने वाले लोग भी अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभायें। काम पर लग जायें ऐसे मौके रोज-रोज नहीं मिलते!
कयास यह भी है कि गिरिराज जोशी ने उमर के तकाजे से पूछा हो-गुरुदेव, आपकी दया से मैं कविता रचना तो सीख गया अब जरा यह ज्ञान भी दीजिये कि इश्क कैसे फर्माया जाये। गुरुदेव एक आदर्श गुरुकी तरह बोले होगे-वत्स तुमको यह ज्ञान देने के पहले मैं स्वयं इस विधा में पारंगत होकर तब तुम्हारी जिज्ञासा शान्त करूंगा। उसी सिलसिलें गुरुदेव ने पहले पाठ के शार्ट नोट्स बनायें होंगे- आग का दरिया है और डूब के जाना है!
बहरहाल, आशा है कि समीरलाल जी जल्द ही इसका खुलासा करेंगे और जो बतायेंगे वह सच से इतनी ही दूर होगा जितना कि भारतीय नौकरशाही से ईमानदारी!
ऐसे ही परसों के दिन शाम को जब हमने नेट कनेक्ट किया तो जैसे ही जुड़े हमारे पास तीन-चार जगह से सवाल उछले- ये सागर को क्या हुआ, सागर को क्या हुआ!
हमें लगा -लगता है फिर कोई सुनामी तूफान आया क्या!
हम जब तक कुछ अंदाजा लगाते-लगाते तब तक फिर कुछ सवाल उछले- ये सागर को क्या हुआ, सागर को क्या हुआ?
खैर हमें ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। सागर भाई भी नेट पर अपने नाम के आगे अपने गुस्से का इजहार करता बोर्ड लगाये थे- बेहूदा मजाक!
हमें अपने दोस्तों की यह बात अच्छी लगती है जो मन:स्थिति है उसे साइन बोर्ड की तरह लटका देते हैं। हम दुखी हैं -हमें खुश करो, हम गुस्सा हैं- हमें मनाओ, हम खुश हैं- हमें मत झेलाऒ!
खैर, सागरजी से बात हुयी। सागर जी का गुस्सा उतर गया और वे आनंद मगन हो गये लेकिन हमारे बीस रुपये ठुक गये उनको फोनियाने में और घर में घंटे भर इसकी सफाई देनी पड़ी कि ये जो फोन किया गया वह भाई सागर चंद्र नाहर हैं और सागर चंद्र नाहर कोई संभ्रांत महिला नहीं हमारे छोटे भाई समान मित्र हैं जिनका गुस्सा जितनी तेजी से चढ़ता है उससे ज्यादा तेजी से उतरता है, बशर्ते कोई सीढ़ी लेकर तैयार रहे!
यह बात सागर जी ने भी बताई कि उनको जब गुस्सा आता है तो, चाहे जितनी कम देर के लिये आये, उतने में ही तहस-नहस कर जाता है। हमें लगा कि भारत सरकार बेकार में अरबों-खरबों रुपये अपनी सेना के रखरखाव में खर्च करती है। जब दुश्मन सामने हो तो सागर भाई को आगे करके इनसे कोई बेहूदा मजाक कर दे- बस, दुश्मन का काम-तमाम!
सागर भाई के कल के गुस्से को देखकर मुझे शोले सिनेमा में पानी की टंकी पर चढ़े वीरू की याद आ गयी। सागर भाई वीरू की तरह धमकी दे रहे हैं और हम बसंती की अम्मा की तरह उनको उतारने में जुटे हैं। अब यह अलग बात है कि सागर भाई के निर्मल मन के कारण वे बसंती के लिये जिद नहीं करते और बसंती की अम्मा का ही कहना मान लेते हैं। लेकिन भैया ये बार-बार टंकी पर चढ़ना अच्छी बात नहीं! कहीं धोखे में एक और बसंती मिल गयी तो कंगाली में आटा गीला होगा!
वैसे हम डाक्टर नहीं हैं लेकिन जैसा हमें पता चला है विश्वत सूत्रों और एकदम आधुनिक रिसर्चों से यह साबित हुआ है कि गुस्सा करने से खून जलता है। जला हुआ खून जली हुयी रोटी से भी खराब दिखता है। आदमी लगता है कि आग के दरिया में डूबा है समीरलालजी की तरह। ऐसे में मेरी तो यही सलाह है कि गुस्से की अवस्था में कुछ मेल-वेल, पोस्ट-वोस्ट लिखना स्थगित कर देना चाहिये जैसे प्रत्यक्षाजी ने बहुत दिनों से कर रखा है। बाद में जब खून शान्त हो जाये तब जी भर के लिखिये-विखिये कौन रोकता है। मुफ्त की होस्टिंग / पोस्टिंग- माले मुफ़्त दिले बेरहम!
ऐसे ही एक दिन नेट पर प्रत्यक्षाजी भेंटा गयीं। हमने कहा – ये क्या हाल बना रखा है अपने ब्लाग का ,कुछ लिखतीं क्यों नहीं!
वो बोलीं- क्या लिखें कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है।
हमने कहा- तो क्या इसका मतलब यह समझा जाये कि अभी तक आपने जो लिखा वह समझबूझ कर लिखा?
उन्होंने कहा- हां, हमारे पाठक तो यही सोचकर तारीफ़ करते हैं तो उनकी बात तो माननी ही पड़ेगी।
हमने फिर कहा- अगर और कुछ न हो तो पुरानी कवितायें ही डाल कर दीजिये। आप के पास तो अनूप भार्गव जी की तरह यह संकट तो है नहीं कि पत्नी दें तभी आप पोस्ट कर सकें। खुदा के फजल से आपके पतिदेव कुछ कविता-सविता भी नहीं लिखते जो उनके भरोसे हों। आप तो डायरी निर्भर हैं। उठाइये और पोस्ट कर दीजिये।
प्रत्यक्षाजी बताया- यही तो समस्या है। डायरी मिल नहीं रही है। पता नहीं लगता है कि कोई गलती से ले गया है। लेकिन दे जायेगा- क्या करेगा उसे रखकर। पहले भी ऐसे ही कई बार हुआ। हर बार वापस आ गयी।
हमने पूछा- कब से गायब है? कुछ अंदाजा?
उन्होंने बताया- तारीख तो याद नहीं लेकिन यह याद है उस दिन मैंने ‘कविता-युग्म’ पर कुछ कवियों को इनाम के बारे में पढ़ा था उसी दिन से मैं खोज रही हूं तब से दिखी नहीं।
हमने कहा- हो न हो कोई ले गया होगा इनाम के लालच में। आपकी कवितायें पोस्ट करके इनाम-विनाम पाने का लालच होगा लेकिन जब कुछ नहीं मिलेगा तो खुद ही लौटा जायेगा। तब तक आप कुछ हायकू ही लिख डालिये न!
प्रत्यक्षाजी ने एक आम सिद्ध कवि की तरह मूड, मौका और समय की अनुपलब्धता दर्शाई। लेकिन उनका संदेश आने तक हम एक हायकू टाइप कर चुके थे:-

मीटिंग हुयी
आफिस में आ गये
सोचा क्या लिखें!
प्रत्यक्षाजी तुरंत अपनी स्थिति और साफ की:-

मीटिंग करें,
रोज़ रोज़ कितना,
हाय नौकरी!
हमने उनकी रचना प्रक्रिया और रचना संकट के बारे में लिखने की कोशिश की:-


लिखने बैठे
दोस्त मिले नेट पे
सब चौपट!
लेकिन प्रत्यक्षा जी की मन-पतंग मीटिंग के एंटीना में फंसी फंड़फड़ा रही थी-

जीवन मेरा,
मीटिंग के बिना ही,
बेकार हुआ ?
हमने मीटिंग के लाभ भी बताते हुये उनके दुख को हल्का करने का प्रयास किया-


मीटिंग चली
चलती ही रह गयी
हम सो गये!
लेकिन प्रत्यक्षा जी ,शायद कार्य स्थल पर(घर जाते समय) सोने को उचित न मानते हुये, मीटिंग को छोड़कर जीवन से जुड़ गयीं:-

अब तो बस
कितने गम कहें
हाय जीवन
और फिर तो देखते-देखते प्रत्यक्षा जी ने हायकू का पल्ला त्याग दिया और अपनी कविता का पूरा थान का थान फैला दिया:-

मीटिंग्स मीटिंग्स
फाईल पेपर
चाय की प्याली
जोड गुणा भाग
एक दिन और
ऐसे ही बीत गया
अब सताये
घर की चिंता
क्या पकेगा
रात का खाना
सर्दी बहुत है
क्या क्या सोचे
एक दिन और
ऐसे ही बीत गया!
हमने पूछा- आपने हायकू छोड़कर कविता का थान ही फैला दिया! ऐसा क्यों?
ऐसा है कि हम थोक में कविता लिखने वाले लोगों के लिखने का यही अंदाज होता है। अब ये लंबी कविता लिख ली है। ये समझ लीजिये कपड़े का था है। इसी से तीन-चार पूरे-पूरे हायकू के पीस निकल आयेंगे बाकी जो कटपीस शब्द बचेंगे उनको मिलाकर कोई दूसरी कविता सिल लेंगे।
हमने सुझाव दिया-आप इन हायकुओं को पोस्ट कर दीजिये! कुछ न पोस्ट करने से तो अच्छा ये हायकू ही पोस्ट करना अच्छा!
लेकिन प्रत्यक्षाजी ने कहा- भाई, हम अपने पाठकों को बोर नहीं करना चाहते। आपको करना हो तो आप पोस्ट कर दीजिये अपनी ब्लाग पर!
अब आपै बताओ कि क्या ये सब पढकर आप बोर हुये! सच्ची बताइयेगा!

मेरी पसंद

नदी की कहानी कभी फिर सुनाना,
मैं प्यासा हूं दो घूंट पानी पिलाना!
मुझे वो मिलेगा ये मुझको यकीं है,
बड़ा जानलेवा है ये दरमियाना(अलगाव)।
मोहब्बत का अंजाम हर दम यही था,
भंवर देखना, कूदना ,डूब जाना!
अभी मुझसे, फिर आपसे, फिर किसी से,
मियां, ये मोहब्बत है कोई कारखाना!
परिंदे की किस्मत में उड़ना लिखा है,
बना ले भले वो कहीं आशियाना!
अगर धूप के साथ आंखे लड़ीं हों,
तो फिर ओस के घर न डेरा जमाना!
सफर सांस के ये कहां पर रुकेगा,
करोड़ों ने पूछा किसी ने न जाना!
ये तन्हाइयां, याद भी, चांदनी भी,
गज़ब का वजन है, संभल के उठाना!
डा. कन्हैयालाल नंदन

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

12 responses to “आग का दरिया, बसंती की अम्मा और कुछ हायकू”

  1. समीर लाल
    वाह वाह, बहुत खुब.
    अब तो आदेशानुसार आग का दरिया पोस्ट लिखना ही पडेगा, ज्यादा इंतजार न करवाऊँगा, जल्द आता हूँ, बस सागर टंकी से उतर गये तो हमारी क्या बिसात,,,,,, :)
  2. मानसी
    phir hansaayaa aapne, hamesha kee tarah :-)
    –Manoshi
  3. जीतू
    हमेशा की तरह चौकस पोस्ट। हाइकू मजेदार लगे।
    किसी दिन हाइकू का जवाबी मुशायरा आयोजित करो। जिसको जो बोलना हो हाइकू मे ही बोले। कविता भी, हाल चाल भी। और हाँ दर्शको/श्रोताओं की कमी नही होने देंगे, हम है ना।
  4. सागर चन्द नाहर
    रोज रोज टंकी से उपर चढ़ने उतरने से अब हम भी तंग आ गये हैं, सोचते है क्यूं ना किसी टंकी पर ही अपना स्थायी निवास बना लें, आप सबकी सहायता की जरूरत होगी कोई अच्छी सी टंकी तलाश करनेके लिये। :)
    मजेदार लेख बहुत हँसी आयी और हायकू भी बहुत अच्छे लगे।
  5. नितिन बागला
    “…ऐसे में मेरी तो यही सलाह है कि गुस्से की अवस्था में कुछ मेल-वेल, पोस्ट-वोस्ट लिखना स्थगित कर देना चाहिये..”
    एक सुझाव हम भी दे देते हैं…जब किसी पर खूब गुस्सा आये तो उसे एक धाँसू मेल/पोस्ट लिख डालिये और अपनी जो भी भडास निकालनी है, उस में निकाल डालिये…बस इसे send/post करने की जगह “Save as Draft” कर लीजिये.
    ४-६ घंटे बाद/या जितनी भी देर में आपका गुस्सा उतरता है, इसे दोबारा पढिये और देखिये आप क्या सलूक करते हैं इसके साथ :)
  6. प्रत्यक्षा
    वाह क्या धाँसू शीर्षक है । लगता है किसी बडे ‘मॉडर्न ‘ उपन्यास का हिला (दहला कर ) कर रख देने वाला नाम है । जहाँ तक हायकू का सवाल है , भगवान को हाज़िर नाज़िर जानकर हम अपना पचास प्रतिशत गुनाह कबूल करते हैं । बाकी रहे सहे जो (इन्हें पढ कर धाराशायी हुये ) वो फुरसतिया जी के मत्थे ।
  7. गिरिराज जोशी "कविराज"
    इसी से तीन-चार पूरे-पूरे हायकू के पीस निकल आयेंगे बाकी जो कटपीस शब्द बचेंगे उनको मिलाकर कोई दूसरी कविता सिल लेंगे।
    कटपीस हाज़िर है -
    मीटिंग्स भाग
    पेपर गया!
    प्याली अब
    सर्दी खाना
    (नोट: बाकी शब्दों को हाइकु में पिरो लिया गया है)
  8. राकेश खंडेलवाल
    कहा जीतू ने
    हायकू सम्मेलन
    आयोजित हो
    पहले से ही
    लिख रखे आपने
    प्रत्यक्षा कहे
    समीर चौंके
    यहां क्या हो रहा है
    उनके बिना
    सागर भाई
    फ़ंस गये हैं देखें
    अब के फिर
    करूँ तारीफ़
    लेख की हायकू में
    अक्षम रहा
  9. संजय बेंगाणी
    मस्त मौज ली है. हाइकु मजेदार रहे. एक बार फिर समीरलालजी को फँसा देख आनन्द की अनुभूति हो रही है.
    गुगल-वार्तालाप में तख्तियों को टंगा देख उन ट्रकों की याद आती है, जिन पर ना ना प्रकार के संदेश लिखे रहते है. जो भी हो, है अध्ययन योग्य विषय. और व्यंग्य के लिए मसाला भी :)
  10. तरूण
    बहुत खूब, सागर जी को हंसाने की खबर २००६ की थी लेकिन चर्चायें अभी २००७ तक हो रही हैं क्या बात है,
    परिंदे की किस्मत में उड़ना लिखा है,
    बना ले भले वो कहीं आशियाना
    क्या बात कही है
  11. अन्तर्मन
    बहुत मज़ा आय ये लेख पढ़ने में! नंदन जी की गअल गज़ब की है!!
  12. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] दो डग-मग में 4.सबको सम्मति दे भगवान 5..आग का दरिया, बसंती की अम्मा और कुछ हायक�… 6.१८५७ के पन्ने: मदाम एन्जेलो की डायरी [...]

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