Tuesday, January 09, 2007

चल पड़े जिधर दो डग-मग में

http://web.archive.org/web/20110926044856/http://hindini.com/fursatiya/archives/224

कल मैं रागदरबारी का भाग ११ पोस्ट कर रहा था तो पोस्ट करने के पहले टाइपिंग की अशुद्धियां ठीक कर रहा था। इसी दौरान मुझे यह डायलाग दिखा:

कुसहर ने दहाड़कर कहा,”महाराज, यह ज्ञान अपने पास रखो। यहां खून की नदी बह गयी और तुम हम पर गांधीगीरी ठांस रहे हो। यदि बद्री पहलवान तुम्हारी छाती पर चढ़ बैठे तो देखूंगा, इहलोक बांचकर कैसे अपने मन को समझाते हो!”
रागदरबारी सन १९६५ के आसपास लिखी गयी। इसका मतलब यह गांधीगिरी शब्द कम से कम ४२ साल पुराना है, अगर इसके पहले भी इसका किसी ने प्रयोग नहीं किया हो तो उसके बारे में मुझे नहीं पता!

इसी वर्ष आयी पिक्चर लगे रहो मुन्ना भाई! में गांधीजी को नये अंदाज में पेश किया गया और पूरे देश में गांधीगिरी की धूम मची रही। इसी के साथ एक बार फिर गांधीजी को लेकर फिर से विचार-बहस होने लगीं। वैसे गांधीजी पर लगभग हर साल कुछ न कुछ हलचल होती रहती है। कभी गांधीजी पर बनी फिल्मों के कारण( गांधी, मेकिंग आफ महात्मा, मैंने गांधी को नहीं मारा आदि) और कभी गांधीजी पर लिखी किताबों के कारण। पिछ्ले साल सुधीर कक्कड़ की एक किताब आई थी जिसमें इस बार का विस्तार से जिक्र हुआ था कि गांधीजी के मन में मीरा बेन के प्रति कोमल भाव थे। कुछ दिन चर्चा में रहने के बाद यह किताब भी फुस्स पटाखा साबित हो गयी। जिस शख्श ने अपने बुढा़पे में अपने ब्रह्मचर्य के(अटपटे/सिरफिरे ही सही) प्रयोग डंके की चोट पर किये उसके लिये ये सब बातें क्या मतलब रखती हैं! दो-तीन साल पहले ही गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका के प्रवास के दिनों को आधार बनाकर प्रख्यात कथाकार/ उपन्यासकार गिरिराज किशोरजीने खोजपरक उपन्यास ‘पहला गिरमिटिया’लिखा।

पिछ्ले साल फिर गांधीजी के बारे में योगाचार्य बाबा रामदेव जी ने बयान जारी किया- “भारत की स्वतंत्रता के लिए अकेले गाँधी को श्रेय नहीं दिया जा सकता। वह अहिंसा के सिद्धांत को जन-जन तक पहुँचाने का श्रेय भी गाँधी को नहीं देना चाहते। वह कहते हैं कि साबरमती के संत, तूने कर दिया कमाल वाला गीत किसी चापलूस का लिखा हुआ है जिनसे गाँधीजी हमेशा घिरे रहते थे।”

भैया, हमें बाबा रामदेव से कुछ लेना-देना नहीं है। मैं तो यही समझता हूं कि जिसकी जितनी अकल होती है वो उतनी बात करता है। वो कहते हैं कि भारत की स्वतंत्रता के लिये अकेले गांधीजी को श्रेय नहीं दिया जा सकता- मत देव! क्या गांधीजी ने भारत की स्वतंत्रता के श्रेय के लिये दावा ठोंका है? अहिंसा को जन-जन तक पहुंचाने का श्रेय गांधी को नहीं देना चाहते। मत देव अपने पास रख लेव। साबरमती के संत,तूने कर दिया कमाल किसी चापलूस ने लिखा है इससे और अच्छी बातें कहने का तरीका बाबाजी को आता ही नहीं लगता। गांधीजी ने पता नहीं कौन सी जागीर अपने चापलूस को लिखा दी।

बहरहाल, बाबा की बात तो बाबा जाने हमारे चिट्ठाजगत में भी बाबा रामदेव के बतान के बहाने काफ़ी कुछ लिखत-पढ़त हुयी। सृजन शिल्पीजी ने लेख लिखा-गाँधी की महानता पर उठते प्रश्न। जनवरी में गांधी पर पुनर्विचार करने वाले सृजन शिल्पीजी ने साल खतम होते-होते नवंबर में उनकी महानता पर सवाल उठा दिये। लगे हाथ सागर चंद नाहर ने बाबा रामदेव की पीठ ठोंक दी कि वाह स्वामी रामदेव क्या बहादुरी की बात कही है।
जब हमने ये लेख और इन पर विस्तार से टिप्पणियां पढ़ीं थीं उस समय मेरा मन इस पर कुछ लिखने का हुआ था लेकिन आलस्य से बाजी मार ली। आज सोचा कि कुछ लिखा जाये।

पहली बात तो यह बाबा रामदेव और दूसरे लोगों की खाम-ख्याली है कि गांधीवादी लोग इसलिये चिढ़े होंगे कि स्वतंत्रता के लिये गांधी के अलावा दूसरे लोगों को भी श्रेय दिया गया। यह तो सब जानते-मानते हैं कि गांधीजी के अलावा भी और तमाम महापुरुषों का आजादी में योगदान रहा है। यह बात कहकर बाबाजी ने कौन सी ऐसी यूरेका वाली बात कह दी। हां अहिंसा के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने के श्रेय को गांधीजी को न देने की बात और साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल को किसी चापलूस के द्वारा लिखे जाने की बात कहने का अंदाज जरूर बाबा रामदेव का निहायत बचकाना है।

वैसे कुछ और लिखने के पहले मैं बता दूं कि मैं न तो गांधीवादी हूं न ही गांधीजी की महानता के प्रति श्रद्धाविगलित कोई शख्स। न ही मैं गांधी दर्शन का विद्वान ही हूं। मैं जितना गांधीजी के बारे में जानता हूं वह मैंने एक सामान्य पाठक की हैसियत से पढ़कर जाना है।

पहली बात तो मुझे महापुरुषों के बीच तुलनात्मक अध्ययन की बात समझ में नहीं आती। दो व्यक्तियों/महापुरुषों की तुलना के आधार हमेशा तुलना करने वाले के अपने नजरिये पर निर्भर करते हैं। महापुरुषों की तुलना करने का प्रयास करना तो उनको ‘डिजिटाइज’ करके संख्याऒं की तुलना करने के प्रयास जैसा है। हर महापुरुष अपने देशकाल, परिस्थिति के अनुसार काम करता है। अलग-अलग लोगों, परिस्थितियों में काम करने वाले महापुरुषों की तुलना करना उनको जबरियन अपने पैमाने में ठेलकर उसकी शकल देने का प्रयास करना है।

उदाहरण के लिये गांधीजी का प्रभाव देशव्यापी है, विश्वव्यापी है। आज वे विश्व में वैकल्पिक दर्शन के प्रतीक भी माने जाते हैं। इस नाते वे निर्विवाद विश्वस्तर के महापुरुष हैं और दुनिया में अधिसंख्य लोग मानते हैं कि २०वीं शताब्दी की कुछेक उपल्ब्धियों में से एक गांधीजी हैं। लेकिन अगर भारत के किसी दलित खासकर महाराष्ट्र के किसी दलित से पूछा जाये तो उसकी निगाह में शायद अम्बेडकरजी से बड़ा कोई महापुरुष नहीं होगा क्योंकि उन्होंने उनको गर्व से जीने की राह दिखाने के लिये जमीन तैयार की।

जहां तक गांधीजी की बात है तो मुझे तो व्यक्तित्व का यही गुण चकित कर देने की सीमा तक आकर्षित करता है कि वे इस बात के जीते-जागते उदाहरण हैं कि कैसे एक साधारण सा व्यक्ति जिसमें तमाम मानवीय दुर्बलतायें मौजूद थीं अपना परिष्कार करते हुये असाधारण महानता के शिखर तक पहुंचा सका। उनकी जीवन यात्रा साधारण से असाधारण की जीवन यात्रा है।

जैसा कि उनके बारे में पढ़ने से पता चलता है कि गांधीजी में आम तौर पर किसी भी साधारण व्यक्ति में पायी जाने वाली दुर्बलतायें थीं। बचपन में उन्होंने चोरी भी की। यौन संबंधी ग्लानि के शिकार भी रहे। पढ़ने में कोई बहुत तीसमार खां नहीं थे। हस्तलेख चौपट। भाषण देने में ऐसे कि दक्षिण अफ्रीका से जब लौटे तो बिना कुछ ज्यादा बोले बैठ गये।

गांधीजी ऐसा भी नहीं भगतसिंह की तरह से बचपन से ही आजादी के दीवाने हों कि छुटपन से ही बंदूके बोने की तर्ज पर कुछ गांधीगिरी का आइटम पेश करते रहे हों। वास्तव में मेरी समझ में दक्षिण अफ्रीका में रेल में बेइज्जत किये जाने के पहले उनके मन में भले ही देश के लिये कुछ भावभूमि बन रही हो लेकिन सिवाय सत्य के प्रति उनकी अटूट निष्ठा को छोड़कर उनका जीवन तमाम साधारण देशवासियों सा ही रहा।

बाद में जब दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी ने अहिंसात्मक आंदोलन और अन्य आंदोलन प्रारम्भ किये तो वहां के अनुभवों में उनका रूपान्तरण और उदात्तीकरण होना शुरू हुआ। इस दौरान उनको तमाम सफलतायें मिलीं और धीरे-धीरे वे जननायक बनते चले गये। सत्याग्रह और अहिंसा को उन्होंने अपना मुख्य हथियार बनाया।
भारत वापस आकर देश में पहले से ही चल रहे आजादी के आंदोलन में सीधे गांधीगिरी करने के पहले गांधीजी ने देश की हालत समझने के लिये देश भर के दौरे किये। देश को अच्छी तरह से समझने के बाद उन्होंने तब अपनी पारी शुरु की।

गांधीजी ने अहिंसा और सत्याग्रह के जो अपने औजार बताये वे देश और विश्व के लिये अनूठे थे। पहले भी अहिंसा की बात लोगों ने की लेकिन वह वैयक्तिक अहिंसा की बातें थीं। जन समुदाय के सामने अहिंसा की बात रखना और उनको अहिंसा और सत्याग्रह के लिये राजी करना गांधीजी के पहले इतने बड़े पैमाने पर किसी ने किया हो मुझे तो समझ नहीं आती।

साध्य से अधिक साधन की पवित्रता के हिमायती गांधीजी ने चौरी-चौरा कांड के बाद अपना आंदोलन वापस ले लिया। इसके बाद क्रांतिकारी आंदोलन शुरू हुये। भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद वगैरह की गाथाऒं ने देश के नौजवानों के खून में गर्मी भर दी। इन जियालों की शहादत की भावना से देश भर में इनके प्रति सम्मान की और श्र्द्धा-पूजा की भावना थी। यह मजे की बाद है कि चंद्रशेखर आजाद ,जो कभी पंद्रह वर्ष की उमर में महात्मा गांधी की जय बोलते हुये पुलिस के बेंत खाये, वे बाद में सशस्त्र क्रांत्रि के अगुआ बने।

भगतसिंह, राजगुरु और चंद्रशेखर के प्रति अनन्य श्रद्धा रखते हुये भी मुझे तमाम विचारकों के पहले से निकाले निष्कर्ष सच लगते हैं कि गांधीजी का अहिंसा का रास्ता उस समय के अनुसार आजादी की लड़ाई के लिये सबसे अच्छा रास्ता था। इस संबंध में हरिशंकर परसाईजी का अपने एक पाठक को दिया गया जवाब है-
गांधीजी हिंसा-अहिंसा के मामले कूट्नीति और हानि-लाभ से तय करते थे कि भारतीय जनता हिंसात्मक आंदोलन से स्वराज प्राप्त नहीं करसकती। जनता की एक हिंसात्मक कार्रवाई के बदले अंगेज सरकार सौ गुनी हिंसक कार्रवाई करके आंदोलन कुचल देती। वह विश्व के सामने और ब्रिटिश संसद के सामने इस हिंसात्मक कार्रवाई को उचित भी सिद्ध कर देती। मगर यह गांधीजी समझ और कूटनीति थी कि उन्होंने अहिंसात्मक आंदोलन चलाये। इस कारण अंग्रेज सरकार ज्यादा हिंसा नहीं कर सकती थी। ब्रिटिश संसद में ही इसकी कड़ी आलोचना होती।
पर एक बात देखिये। १९४२ में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में भारतीयों ने काफ़ी हिंसा की। पर उस हिंसा की गांधीजी ने निंदा नहीं की।”
इसके अलावा मेरी समझ में किसी समाज में हिंसात्मक आंदोलन तभी सफ़ल हो सकते हैं जब कि जनता एक साथ आंदोलन की मनस्थिति में हो। मेरी समझ में भारत जैसे देश में जो सामाजिक बहुस्तरीयता है, जाति भेद ऊंचनीच का भेद भाव है ,और उस समय भी था , उसके चलते किसी हिंसक आंदोलन के सफलता की गुंजाइश कम थी। वैसे भी क्रांतिकारियों से प्रभावित होना एक बात है और खुद गोली खाने, फांसी के तख्ते पर चढ़ जाने का जज्बा पैदा करना दूसरी बात है। गांधीजी अपने सतत आंदोलनों से लोगों के मन से अंग्रेज सरकार का भय निकाल दिया। सैकड़ों-हजारों लोगों ने अपनी सरकारी नौकरियां छोड़ दीं। लाखों लोग जेल गये।

गांधीजी के पहले भी देश का भला सोचने वाले थे, उनके समय में भी थे और आगे भी हुये लेकिन उस बीस-पचीस साल के कालखंड में गांधीजी के प्रभाव विस्तार के बराबर शायद कोई दूसरा जननायक नहीं था। ऐसा नहीं कि गांधीजी से उस समय सब लोग हर बात पर सहमत ही रहते हों तमाम मतभेद भी थे लेकिन गांधीजी ने आम आदमी के मन में जो स्थान बना लिया था वह अतुलनीय था।

गांधीजी की चिंता और सोच के दायरे में केवल देश की आजादी ही नहीं थी। देश के समग्र विकास पर उनकी नजर थी। राजभाषा हिंदी बने, महिलायें आगे आयें, छुआछूत दूर हो, दहेज खतम हो, लोग स्वालम्बी बनें, स्वदेशी का प्रचार हो, देश आत्मनिर्भर हो, सबको रोजगार मिले। यहां तक कि साहित्य के झगड़े भी वे निपटाते थे। एक बार उन्होंने पाण्डेय बेचन शर्मा’उग्र’ की किताब ‘चाकलेट‘ पर अश्लीलता का आरोप लगने और हल्ला होने पर किताब पूरी पढ़ी और कहा कि यह किताब अश्लील नहीं है। बचपन में पढ़े एक लेख की मुझे याद है कि गांधीजी ने छात्रों का आवाहन किया था कि विद्यार्थी लोग छुट्टियों में आसपास के गांवों में जायें और गांवों के विकास में योगदान करें। एक लेख में उन्होंने गांवों में शौच के लिये जाने के तरीके का विस्तार से वर्णन करते हुये लिखा कि लोगो को शौच जाते समय साथ में गड्ड़े खोदने का जुगाड़ रखना चाहिये ताकि मल को जमीन में ,वातावरण को गंदगी से बचाने और खाद बनाने के लिये , दबाया जा सके। आजकल हम जब अपने हर कमरे से सटे शौचालय के दौर से गुजर रहे हैं तो यह बात हास्यास्पद लगती है लेकिन यह बात सच है कि उनकी सोच के दायरे में यह सब बाते थीं।

नियमित तमाम नये-नये विषयों पर गांधी अपने विचार रखते थे इससे यह भी लगता है कि हो न हो गांधीजी भी कोई बिंदास ब्लागर रहे हों जो रोज ब्लाग लिखकर अपने विचार छापते रहे।

गांधीजी ह्रदयपरिवर्तन की प्रक्रिया पर विश्वास करते थे। यह व्यक्तियों पर शायद लागू हो सके लेकिन समाज,भले ही वह व्यक्तियों से ही मिलकर क्यों न बना हो,  ह्र्दयपरिवर्तन से अलग तमाम दूरगामी तार्किक प्रक्रियायें लागू करने की आवश्यकता पड़ती है।

गांधीजी ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में, १९४६ में जब उनकी उम्र ७५ साल से भी अधिक थी, ब्रह्मचर्य का प्रयोग किया। परसाईजी अपने एक जवाब में इस बारे में लिखते हैं:

इसके बारे में सबसे पहले उनके साथ नोआखोली में यात्रा कर रहे प्रो.बोस ने किताब लिखी-गांधीज़ एक्सपेरीमेंट्स विथ ब्रह्मचर्य। न्होंने पहले सुशीला नायर से कहा कि हम दोनों एक बिस्तर में सोयेंगे। सुशीला नायर तो बहाना बनाकर किसी और जगह काम करने चलीं गयीं। तब गांधीजी ने मनु गांधे को राजी किया। दोनों एक ही बिस्तर पर सोते थे। सुबह गांधीजी सोचते थे कि मुझे रात में कैसा लगा और मनु से भी पूछते थे। प्रो. बोस इससे असहमत थे। उन्होंने विरोध किया तो गांधीजी ने उनकी छुट्टी कर दी। प्रयोग चलता रहा। गांधीजी ने नेहरू,पटेल , कृपलानी आदि नेताऒं को पत्र लिखे कि मैं यह प्रयोग कर रहा हूं। सबसे मजे का जवाब कृपलानी जी ने दिया- आप तो महात्मा हैं। पर जरा सोचिये कि आपकी देखादेखी छुटभैये, ब्रह्मचर्य का प्रयोग करने लगें तो क्या होगा? गांधीजी ने हरिजन में इस बारे में लेख भी लिखा। प्रो. बोस ने अपनी किताब में यह सब विवरण दिया है सवाल किया कि मनोवैज्ञानिक इसका समाधान खोजें। गांधीजी कहते थे -मैं ईशामसीह की तरह गाड्स यूनफ( ईश्वरीय नपुंस) बनना चाहता हूं। प्यारेलाल, विजय तेंडुलकर, वेदमेहता वगैरह ने भी गांधीजी की जीवनी में ब्रह्मचर्य के इस प्रयोग का विवरण दिया है। कुछ मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जीवन भर काम का दमन करने की यह प्रतिक्रिया थी। उन्हें रात में कंपकंपी आना और मालिश के बाद शान्त होना भी ,काम सन्तोष था। वे जीवन की अंतिम रात तक यह प्रयोग करते रहे।
इन अटपटे प्रयोंगों के बावजूद गांधीजी की महानता असंदिग्ध है। वे मानवतावादी थे। उनमें विलक्षण संगठन क्षमता थी। विलक्षण बुद्दि थी। जनता पर उनका ऐसा प्रभाव था कि उनके आवाहन पर देश की जनता अपना सब कुछ लुटाने को तत्पर हो जाती थी। तभी सोहनलाल द्विवेदी जी ने उनके लिये लिखा है-

चल पड़े जिधर दो डग-मग में
चल पड़े कोटि पग उसी ऒर
पड़ गयी जिधर भी दृष्टि एक
गड़ गये कोटि दृग उसी ऒर।
साबरमती के संत तूने कर दिया कमाललिखने वाले कवि ने उनसे प्रभावित होकर लिखा। अतिशयोक्ति हो सकती है यह बात लेकिन इस बात के लिये बाबा रामदेव यह कहें कि यह गांधीजी के किसी चापलूस का लिखा हुआ है यह बेहद बचकानी बात है। हो सकता है वह उनका भक्त हो लेकिन भक्ति और चापलूसी में अंतर होता है।

गिरिराज किशोरजी ने सालों के शोध और अध्ययन के बाद खुद गांधीजी से जुड़ी जगहों पर जाकर लोगों से मिलकर उनके दक्षिण अफ्रीकी जीवन के बारे में लिखा कि कैसे गांधी के व्यक्तित्व का निर्माण हुआ। इस ९०० पेज की किताब का लेखन उन्होंने तब किया जब वे अपने जीवन में जो उपल्ब्धि श्रेय पाना चाहते थे पा चुके थे। क्या वे भी गांधी के चापलूस हैं। क्या श्याम बेनेगल खाली पैसा कमाने या चापलूसी के लिये गांधीजी पर सिनेमा बना रहे थे।

एक बात और जो दोस्तों ने कही कि अगर गांधीजी अड़ गये होते तो भगतसिंह आदि को फांसी नहीं होती। यह कहते समय यह सोचना चाहिये कि जो व्यक्ति अहिंसा का हिमायती है और दुनिया भर में अपने अहिंसक आंदोलन के लिये जाना जाता है वह कैसे हिंसा के रास्ते पर चलते हुये लोगों के लिये अड़ता! अब हम तो उनके सामने थे नहीं लेकिन जैसा लोग कहते हैं कि गांधीजी भगतसिंह आदि के रास्ते को अनुचित मानते हुये भी यह नहीं चाहते थे कि भगतसिंह आदि को फांसी हो। एक व्यक्ति, जिसकी इमेज केवल अहिंसा और सत्याग्रह से बनी हो और जो साध्य से अधिक साधन की पवित्रता की बात करता हो,अपने विचार के विपरीत आचरण करने वाले की जान बचाने के लिये एक सीमा से अधिक कैसे अड़ सकता है।

लोग कयास लगाते हैं कि आज गांधीजी होते तो क्या करते? आज अगर वे होते निश्चित तौर पर भारत सरकार से तमाम मोर्चों पर जूझ रहे होते। शायद वे विदर्भ में किसानों को मौत से बचाने के लिये अनशनरत होते, कोला कम्पनियों को बंद करा रहे होते, शायद नर्मदा बांध के औचित्य के लिये सवाल कर रहे होते, शायद गुजरात के दंगे में लाठी गोली खा रहे होते, शायद नमक की मुक्ति की तर्ज पर पानी की मुक्ति के लिये मार्च कर रहे होते , शायद भारतीय क्रिकेट टीम पर करोड़ों-अरबों रुपये खर्च करने को गलत बता रहे होते, शायद किसी दफ़्तर के सामने भ्रष्टाचार विरोधी अभियान चला रहे होते , शायद पालीथीन के कारखाने बंद करा रहे होते या फिर शायद वो कुछ ऐसा कर रहे होते जिसकी हमें हवा ही नहीं है। लेकिन वे कुछ भी कर रहे होते उनके काम के उद्देश्य में समाज के अंतिम आदमी के भले की बात जरूर होती।

हमें तो यह भी लगता हि और वे कुछ भी करते उनका अपना एक ब्लाग जरूर होता आज के दिन!
यह कुछ बातें बेतरतीब सी मैंने लिखीं। आप सहमत हो या न हों कोई जरूरी नहीं। मेरी नजर में गांधीजी अनेक सहज मानवीय कमजोरियों से युक्त ऐसे महापुरुष थे जिनकी आज के समय में कोई मिसाल नहीं। वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने अपने जीवनकाल में थे। वे उद्दात्तीकरण की साधारण से असाधारण तक की यात्रा की प्रतीक थे। किसी के महान मानने या न मानने से उनके महत्व में कौड़ी भर का फर्क नहीं पड़ता। वे इन सब टुटपुंजिया और मौसमी आलोचना से ऊपर चुनौती की चीज हैं कि हिम्मत है तो आओ हम जैसी सिरफिरी हरकतें करके दिखाऒ।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

26 responses to “चल पड़े जिधर दो डग-मग में”

  1. नितिन
    अनूपजी,
    इस से बेहतर लेख गांधीजी के विषय में मैनें कभी नहीं पढ़ा।
    बधाई!!
  2. अनूप भार्गव
    एक बेहद सुन्दर लेख के लिये बधाई स्वीकार करें ।
  3. नीरज रोहिल्ला
    अनूपजी,
    आपके विचारोत्तेजक लेख सदैव ही मन को प्रभावित करते हैं |
    आशा है भविष्य में भी आप ऐसे ही लेख लिखकर युवावर्ग का मार्गदर्शन करते रहेंगें |
    साधुवाद स्वीकार करें|
  4. अनुराग श्रीवास्तव
    अनूपजी,
    कृष्ण की तरह बापू के भी कई रूप हैं – अहिंसावादी, कुशलनेता (सच्चे अर्थों में), विचारक, क्रांतिकारी, आदर्शवादी, कर्मठ, असाधारण व्यक्तित्व के साधारण इंसान…
    कुछ और रूप में भी देखा जाता है बापू हो – मुस्लिम परस्त, विभाजन के कारण, हिन्दुत्व विरोधी, जिद्दी, अड़ियल…
    अपनी व्यक्तिगत विचारधारा के अनुरूप, बापू की जो छवि हमें भायी उसे हमने अपने मन में स्थापित कर लिया. कुछ ने आरती उतारी तो कुछ ने जूतों का हार पहनाया.
    आपकी पीड़ा मैं महसूस कर सकता हूँ, पर शायद यह पीड़ा भी उसी प्रजातंत्र का एक हिस्सा है जो बापू हमें देना चाहते थे.
    मुझे बस एक बात बताइये, बापू के संबन्ध में करी गयीं तमाम सकारात्मक या नकारात्मक अभिव्यक्तियों के बावजूद, क्या आपके विचारों में बापू के प्रति कोई बदलाव आया या आपके ह्रदय में उनके लिये जो स्थान था, क्या वह बदला?
    जो स्थान ‘महात्मा’ ने अपने तप-तपस्या से प्राप्त किया है, उस स्थान से उन्हें डिगा देना, हिला देना या हटा देना हमारे जैसे साधारण व्यक्तियों की सीमा से परे है.
    रही बात छींटा कसी की, तो वह तो होती रहेगी और होती भी रहनी चाहिये – क्योंकि उससे बापू में हमारे विश्वास और आस्था को और भी बल मिलता है.
  5. आशीष
    हमेशा की तरह एक बेहतरीन लेख !
    गांधीजी एक ऐसे नेता थे जिनके पिछे ४० करोड लोग आंख मुंद कर चलते थे, विश्व मे ऐसा कोई दूसरा नेता हो तो स्वामी रामदेव बतायें ?
  6. संजय बेंगाणी
    प्रशंसा करूंगा तो लेख व टिप्पणी अपना महत्व खो देंगे. यह लेख महज टिप्पणी पाने के लिए नहीं लिखा गया है.
    गाँधी मुझे इस लिए आकर्षित करते रहे है, क्योंकि गाँधी का जिवन साधारण से असाधारण बनने की कथा है.
    पर मेरा व्यक्तिगतरूप से मानना है की हममें अपने नायको को समग्रता से स्वीकारने की क्षमता होनी चाहिए. जो बाते आपने लिखी है, वे ही मैं लिखना चाहता था. पर लिखने का तरीका आप जैसा कहाँ से लाता?
    हर मर्ज की एक ही दवा नहीं हो सकती इसलिए हर जगह गाँधीगीरी काम नहीं आ सकती. मानवता के लिए जो मार्ग समयोचित हो अपनाना चाहिए.
  7. PRAMENDRA PRATAP SINGH
    अनूप जी आपका यह लेख अपने आप मे बहुत अच्‍छा लेख है।
    @ अशीष, किसी महा पुरूष की तुलना करना ठीक नही है। किसी की तुलना करने से, महापूरूषो की कमियॉं अवस्‍य उजागर होगी, भले वे गांधी जी ही क्‍यों न हो और उनके पीछे 40 करोड़ लोग क्‍यों न चलते हो।
  8. सृजन शिल्पी
    “जनवरी में गांधी पर पुनर्विचार करने वाले सृजन शिल्पीजी ने साल खतम होते-होते नवंबर में उनकी महानता पर सवाल उठा दिये।”
    अनूप भाई, आपका लेख शानदार है और आपने बहुत प्रभावशाली ढंग से अपने विचार व्यक्त किए हैं। लेकिन यह कहना कि मैंने गाँधीजी की महानता पर प्रश्न उठा दिए, सही नहीं है। मैंने अपने उक्त लेख में बाबा रामदेव के बयानों के प्रति असहमति ही जताई थी। मेरी हैसियत नहीं है कि गाँधीजी की महानता पर प्रश्न उठा सकूँ। किन्तु हाँ, भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस और जवाहरलाल नेहरू के साथ गाँधीजी के रिश्तों के बारे में कुछ तथ्यात्मक बातें मैंने जरूर रखी थीं। वह महापुरुषों के बीच तुलना करने का कोई प्रयास नहीं था। परंतु जिन ऐतिहासिक तथ्यों से भारत के वर्तमान और भविष्य का प्रश्न जुड़ा हो, उनपर प्रसंगवश चर्चा जरूरी हो जाती है। सुभाष चन्द्र बोस के जन्म दिन के अवसर पर मैं इस संबंध में एक आलेख लिखने जा रहा हूँ, जिसमें इन बातों पर विशेष प्रकाश डालने का प्रयास करूँगा।
    जैसा कि मैंने अपने उक्त लेख में भी कहा था, “गाँधीजी ने तत्कालीन परिस्थितियों में, अपनी समझ से जो कुछ किया, चाहे उसे आज सही समझा जाए या गलत, उसपर बहस करने से आज की समस्याओं का समाधान निकलने वाला नहीं है। उनके आलोचकों की महानता तो तब साबित हो पाएगी जब वे आज की समस्याओं को उसी ईमानदारी से सुलझाने की कोशिश करें जिस ईमानदारी से गाँधीजी ने अपने समय की समस्याओं को सुलझाने की कोशिश की थी।”
    आप एक सिद्ध लेखक हैं और परिपक्व विचार-दृष्टि रखते हैं। लेकिन असहमति के बिंदुओं को बेबाक ढंग से रखे जाने को यदि आप ‘बचकानी हरकत’, ‘टुंटपूंजिया और मौसमी आलोचना’ कहें, यह कुछ शोभनीय प्रतीत नहीं होता। फिर भी, आप वरिष्ठ हैं, ऐसा कह सकते हैं।
  9. प्रभाकर पाण्डेय
    यथार्थ एवं सुन्दर लेख ।
  10. rachana
    उस मानव मे कुछ एसा है, मरकर भी जीता रहता है,
    जिसकी जैसी भी हो मर्जी, वो उनको वैसा कहता है,
    वह कोई अदना मनुज नही! गाँधी है!सब कुछ सहता है!
    छोटे कन्कर की चोटों से,क्या कोई किला कभी ढहता है?
    उनके प्रति हमारे विचार नही, एक आस्था है.मानव होने के चलते उनमे भी दोष रहे होंगे,लेकिन् ये हमारे समाज के लिये बेहतर ही होगा कि हम गाँधी को एक व्यक्ति के रूप मे नही बल्कि एक जीवन पद्धति के रूप मे देखें.
  11. अफ़लातून
    अनूप का लेख हृदय-परिवर्तन की शक्ति से सम्पन्न है ।
    एक बार एक नौजवान ने विनोबा से कहा कि गांधी सत्याग्रही के लिए पहली शर्त रखते हैं,’ईश्वर में विश्वास’ और यह मेरे गले नहीं उतरती।विनोबा ने उस तरुण से पूछा,’प्रतिपक्षी की जो अच्छाई है,उस पर भरोसा रख कर चल सकते हो?’युवक ने जवाब दिया कि यह कुछ गले उतरा।विनोबा ने कहा कि तब तुम उस शर्त को पूरा करते हो!इस प्रकार की आस्तिकता अनूप ने प्रकट की है ।
    “आज वे विश्व में वैकल्पिक दर्शन के प्रतीक भी माने जाते हैं।”- इस वैकल्पिक दर्शन में वैकल्पिक व्यवस्था के बीज हैं। करीब ९८ वर्ष पहले लिखी उनकी किताब ‘हिन्द स्वराज”पशुबल के खिलाफ़ आत्मबल को खड़ा करने की ताकत देती है’।
  12. पंकज बेंगाणी
    आपने हमेशा की तरह उम्दा लेख लिखा है। सुबह जब इतना लम्बा लेख देखा तो पढने की नियत नही हुई. पर अब पढने लगा तो पुरा कब खत्म हो गया पता ही नही चला।
    गान्धीजी पर बहस तो चलती ही रहेगी, वैसे भी सार्थक बहस उन्ही पर होती है जो लायक हो.. गान्धीजी तो इन सब मानकों से कहीं उपर थे। आज सब अपने अपने तरीके से घटनाओं का विष्लेषण करने को स्वतंत्र हैं, क्योंकि किसी को भी जवाब देने के लिए गान्धीजी उपलब्ध नही है।
    उनके व्यक्तित्व के आगे किसी और का कोई अस्तित्व टिक ही नही सकता, इसलिए रामदेव जैसे बाबाओं को उनपर टिप्पणी करने से पहले सो बार सोचना और सही शब्दों का प्रयोग करना जरूरी हो जाता है। पर जैसा कि आपने लिखा ही है, बुद्धि होगी उतनी ही बात करेगा कोई!
    मेरे जैसे लोग चाहे जितनी गालीयाँ महात्मा को दे दे, लेकिन यह सच है कि उनके रास्ते पर चलना मेरे जैसे “टटपुंजीयों” के बस की बात नही है।
  13. premlata
    अति प्रभावशाली निबंध !!! बधाई स्वीकारें।
    गांधीजी हमेशा प्रासंगिक रहेंगे।
    उनके विचार हमेशा प्राण-तत्त्व ही प्रतीत होंगे।
    वे ही कलियुग में अवतार थे।
  14. गिरिराज जोशी
    एक बेहद सुन्दर एवं सधा हुआ लेख, बधाई स्वीकार करें ।
    गांधीजी के बारें में यह बहस कब तक चलेगी, यह कहना तो मुश्किल हैं मगर बापू के बारे में आपके विचार जानकर अच्छा लगा.
    बापू अपना ब्लॉग लिखते तो सचमुच बहुत आनन्द आता टिप्पणी करने में। :)
  15. सागर चन्द नाहर
    भाई साहब
    हर बार की भाँति शानदार तरीके से आपने अपने विचारों को रखा। साधूवाद
    आलोचानाओं से जब तक गांधीजी जिन्दा रहे तब तक उन्हें भी कभी इतना बुरा नहीं लगा और ना ही कभी उन्होने अपनी आलोचनाओं को मौसमी और टटपूंजिया आलोचना कहा। स्वामी रामदेव की पीठ हमने इस बात पर नहीं ठोकी थी कि उन्होने कवि प्रदीप को चापलूस कहा, मैं खुद कवि प्रदीप का प्रशंषक हूँ। मैने पीठ इस बात पर ठोकी थी कि उन्होने एक ऐसा सच कहा जिसे कहने मे लोग डरते हैं कि आजादी की लड़ाई में सिर्फ़ गांधीजी के योगदान की बात करना दूसरे शहीदों के प्रति अन्याय होगा। हम हर बात को सिर्फ़ गांधी, गांधीवाद और गांधीगिरी से क्यूं तौलते हैं? और भी कई लोग है जिन्होने बिना अटपटे और सिरफ़िरे प्रयोग किये भी आजादी में अपना योगदान दिया और कई तो अनाम भी रहे?
    अगर गाधीजी सिर्फ़ अहिंसा के हिमायती होने के कारण भगत सिंह को नहीं बचा रहे थे उनका यह सिद्धान्त व्यर्थ गया। क्यों कि अहिंसा यह नहीं कहती कि आप अपने सिद्धान्तों की वजह से किसी की जान मत बचाओ जब कि उसकी जान बचाने में आप समर्थ हों।
    एक बात एक बार फिर से पूछना चाहूंगा कि क्या देश भक्ति का मतलब सिर्फ़ गांधी के विचारों से सहमत होना है? जो उनके विचारों का विरोध करे वह देश भक्त नहीं या उसके मन में देश के प्रति प्रेम नहीं?
  16. समीर लाल
    मेरे शब्दों में वो क्षमता नहीं, जो इस लेख की सारगर्भिता की प्रशंसा कर सकें. इतना कुछ समय-बेसमय पढ़ा गाँधी जी पर. मगर सहज और सरल शब्दों की इस बहती नदी के प्रवाह में मन प्रसन्न हो गया. ऐसे ही शुद्ध लेखन का इंतजार हमेशा रहेगा. बहुत साधुवाद और असीम लेखन क्षमता के लिये बधाई. शुभकामनायें.
  17. डा प्रभात टन्डन
    गाँधी जी के बारे मे एक स्वस्थ दृष्टिकोणात्मक लेख लिखने के लिये बधाई!
  18. श्रीश शर्मा 'ई-पंडित'
    भाई सभी यहाँ पर गांधी जी के पक्ष में खड़े हैं, फिर हम काहे विलेन बनने लगे।
    गांधी जी की महानता पर किसी को संदेह नहीं, उनकी देशभक्ति, उनकी निष्ठा और उनके इरादों पर भी कोई शक नही। लेकिन उनकी नीतियां कितनी सही थीं, कितनी कामयाब थीं, उनके फैसले कितने सही थे इस पर विचार अवश्य किया जा सकता है।
    लेकिन एक बात मैं डंके की चोट पर कह सकता हूँ कि गांधी भी इंसान ही थे, उन्होंने भी गल्तियाँ कीं, वे जिद्दी थे अपने अलावा किसी की नहीं सुनते थे, अपना निर्णय सब पर थोपते थे, उनका ख्याल था कि केवल एकमात्र वे ही सही थे। उनके प्रयोग लाखों भारतीयों की लाशों पर किए गए। अंत मैं एक बात और यदि गांधी को गोडसे ने नहीं मारा होता वे आज इतने ‘महान’ व्यक्ति नहीं होते।
    अगर सीता मैया को त्यागने के लिए भगवान राम पर अंगुली उठाई जा सकती है तो एक बात पक्की है कि रामभक्त गांधी बाबा पर भी बहस होनी ही चाहिए।
  19. अनुराग
    A great post, no doubt. I agree with most of what is said by Anup Jee. The post answers most of the questions I have in mind. I am also one of the persons impressed with Gandhijee, however, I do not agree with many actions and activities of Gandhijee during the administrative process of independence in India, especially persisting with Nehru as Prime Minister. I would suggest the readers to watch the movie “Sardar.”
    More than congrats I want to express thanks to Anup Jee for such a great post.
  20. मितुल
    अनूप भाई,
    आपके लेख ने तो बिलकुल मेरे विचारो को सामने रखा।
    गांधीजी आज भी लोगो के बीच चर्चा का विषय है। सरल सोच रखे तो यह इसलिए है क्योकि उन्होने बाकी लोगो से अलग सोचा, अपने विचारो पर भरोसा रखा और उनपर अमल किया। जब लोगो को लगता था कि कुछ गलत है, कोई ताकत उनपर जुल्म कर रही है। या तो वे उसे मान लेते थे बिना किसी विरोध के। “ऐसा ही होता है”, या “यही भाग्य है” जैसे वाक्यो का साहारा लेकर। या वे इसका विरोध करते थे हिंसक तरीके से। गांधी जी ने एक और पक्ष सामने रखा कि न हम मानेगे कि यह सही है और न ही हम तुम्हे पीटेगें। अहिंसक विरोध का। और उनकी कूटनिती, नेतृत्व क्षमता और अन्य व्यक्तित्व विशेषताओ के कारण उन्होने काफी सफलता हासिल की। इसके लिए जो पीड़ा उन्हे सहनी पडी, उसकी क्षमता कुछ गिने-चुने लोगो के पास ही होती है।
    हमे आपके विचार जो आपने लेख पर लिखे है काफी पसंद आए। यह प्रविष्ठी काफी अच्छी है। बधाई।
  21. फुरसतिया » सबको सम्मति दे भगवान
    [...] मैंने अपने पिछले लेख में गांधीजी के बारे में अपने कुछ बेतरतीब से विचार बताये! इस पर कुछ साथियों की टिप्पणियों में सवाल थे कुछ में असहमतियां। मैं इस बारे मे और कुछ कहने-लिखने से बचना चाहता था लेकिन लगता है सवाल का जो जवाब अनुराग श्रीवास्तव भाई ने मांगा है उसके चलते मेरा मन कर रहा है अपने से पूछने और लिखने का। अनुराग श्रीवास्तव के सवाल का जवाब देने से पहले मैं सृजन शिल्पी, सागर चन्द नाहर और और श्रीश चंद की कुछ बातों का जवाब देना चाहता हूं। [...]
  22. चिठ्ठा चर्चा में एक बेहूदा मजाक « ॥दस्तक॥
    [...] गाँधी पर बहस बढ़ी जा रही है। पहले अनूप ने सृजन शिल्पी को छेड़ दिया, उसके बाद सागर के बाबा रामदेव द्वारा कवि प्रदीप को चापलूस पुकारने के वक्तव्य का समर्थन करने पर ऐसी खबर ली कि वे बीमार ही पड़ गये। अब अगला जवाबी चिट्ठा किसका होगा इंतज़ार रहेगा। चिट्ठा चर्चा दिनांक 13जनवरी 2007 [...]
  23. Srijan Shilpi » Blog Archive » गांधी की डगर और मैं
    [...] बाद में, पत्रकारिता और जनांदोलनों में मेरी सक्रियता के दौरान कई गांधीवादी विद्वानों और कार्यकर्ताओं के साथ संपर्क हुआ और समय-समय पर संगोष्ठियों-साक्षात्कारों में गांधीवादी मूल्यों और सिद्धांतों के संबंध में उनके साथ संवाद करने के अवसर भी मिलते रहे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास और आजादी के लड़ाई में भगत सिंह एवं नेताजी सुभाष जैसे क्रांतिकारियों की भूमिका के बारे में विशेष अध्ययन करने के बाद महात्मा गांधी के संबंध में मेरे विचारों में कुछ परिवर्तन जरूर हुआ और इस चिट्ठे पर मैंने यदा-कदा अपनी टिप्पणियों के माध्यम से उन्हें व्यक्त भी किया। दुर्भाग्य से मेरी ऐसी कुछ टिप्पणियों के बहाने चिट्ठा जगत में विवाद के कुछ अप्रिय प्रसंग भी छिड़े। लेकिन, मेरे जीवनचर्या और मेरी सोच पर बापू के जीवन और विचारों का असर अब भी मेरे अन्य प्रेरणास्रोतों की तुलना में कहीं अधिक है। लेकिन जीवन में आगे बढ़ने से पहले मैं अपने जीवन-संघर्ष की राह में गांधीवादी सिद्धांतों पर अमल की उपादेयता को एक बार फिर कसौटी पर कसना चाहता हूँ। [...]
  24. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] 2.पुनि-पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं 3.चल पड़े जिधर दो डग-मग में 4.सबको सम्मति दे भगवान 5..आग का दरिया, [...]
  25. ashish shrivastava
    लेख बहुत पसंद आया , मेरे विचारो को शब्द प्रदान करने में सक्षम लेख है ……..
    दो व्यक्तियों में तुलना करके अंततः क्या साबित किया जायेगा पता नहीं …..
    पर मुझे भी ये तुलनात्मक अध्ययन वाली बातें नहीं समझ आती |
    अपनी अच्छाई और बुराई के साथ, हर बंदा अपने आप में unique है | ,, कुछ लोग नकारात्मक देखते है और कुछ सकारात्मक पहलुओं पर ध्यान देते है |
    जब प्रकृति दो दिलों के बीच पुल बनाने को पत्थर देती है, पता नहीं क्यों लेकिन, लोग उन पत्थरों से दीवार बना लेते है
    हर महापुरुष में कुछ तो खासियत थी कि वो साधारण से असाधारण बने….
    ” हर महापुरुष अपने देशकाल, परिस्थिति के अनुसार काम करता है | ”
    “मैं न तो गांधीवादी हूं न ही गांधीजी की महानता के प्रति श्रद्धाविगलित कोई शख्स। न ही मैं गांधी दर्शन का विद्वान ही हूं। “……..मैं भी नहीं हूँ लेकिन ………
    सावधान आजकल लक्ष्मी जी भी गाँधी जी के रूप में आ रही है,
    महात्मा गाँधी की जय (हमारे इलाहाबादी मित्र इसे शुद्ध बकैती मानते है अन्यथा न ले :) )
    –आशीष श्रीवास्तव

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