Saturday, June 23, 2007

हम तुम्हारे पिताजी के दोस्त हैं

http://web.archive.org/web/20140419220004/http://hindini.com/fursatiya/archives/293

बहुत दिनों से हमारी साइकिल यात्रा के किस्से अटके हुये हैं। सिलसिलेवार लिखने के चक्कर में सब सिलसिला टूट जाता है। बहरहाल जबतक वह सिलसिला शुरु हो तब तक एक मुख्तसर सा किस्सा। इससे हमारी पोस्ट की लम्बाई से आक्रांत लोग भी चैन की सांस लेंगे और कहेंगे शार्ट एंड स्वीट।
हम अपने जिज्ञासु यायावरी की मंजिल हासिल करके घर वापस लौट रहे थे। हमारा लक्ष्य था कि हम १५ अगस्त की सुबह कन्याकुमारी पर झंडा फहराता हुआ देखें।

हम तमाम बाधाओं को धता बताते हुये १४ अगस्त को ही कन्याकुमारी की चाय पीते हुये विवेकानंद स्मारक को अपनी आंखों से देख रहे थे।
लौटते में हम केरल होते हुये आये। उस समय शायद संपूर्ण साक्षर न हुआ हो लेकिन बच्चों की भीड़ की भीड़ स्कूल जाती दिखती। घर साफ़ सुथरे। एक दूसरे से सटे सड़क के किनारे के गांव।
घर से इतनी दूर आने के बावजूद, भाषा की स्वाभाविक छोटी-मोटी समस्या के बावजूद हमें कहीं से यह नहीं लग रहा था कि हम कहीं पराये देश में हैं।
उस दिन ऒणम का त्योहार था। हर घर के सामने अल्पना सजी हुयी थी। साफ़ घर। खुशियों का त्योहार अपनी पूरी धूम-धाम से मनाया जा रहा था।
दोपहर हो चुकी थी। हम एक कस्बे में पहुंचे। खाने-पीने का हिसाब-किताब बनाने की सोच रहे थे। एक होटल में जब घुसे तो वहां बैठे एक सज्जन से बातचीत होने लगी। आराम से हिंदी में बतियाते उन सज्जन ने हमारी साइकिल पर लगे बोर्ड को देखते ही कहा हमारा स्वागत किया। साइकिल पर हमारे नाम और जिज्ञासु यायावर, साइकिल यात्रा शुरु करने की तारीख आदि लिखे थे।
वे बोले- आओ भाई हम तुम्हारा ही इंतजार कर रहे थे। तुम्हारे पिताजी हमारे दोस्त हैं।
हमारे लिये यह आश्चर्य था। मेरे पिताजी कभी केरल आये नहीं। अवस्थी के पिताजी अर्सा पहले गुजर चुके थे। फिर यह कैसे हमारे पिताजी को जानता है। मैंने पूछा भी कि आपके पिताजी हमारे कैसे दोस्त हैं? आप कहां के रहने वाले हैं? बताइये।
लेकिन उन्होंने कहा- अरे सब बतायेंगे तुमको। हड़बड़ाऒ नहीं। पहले आराम से खाना खाओ। भूखे लग रहे हो। बताओ क्या खाने का मन है?
हमने वहां उपलब्ध जो भी भोजन था वह किया। इस बीच वे सज्जन हमारे रास्ते के अनुभव सुनते रहे। बड़ी तल्लीनता के साथ। हम भी सुनाने में खो गये। उन्होंने हमारे अभियान की बहुत तारीफ़ की। देश को देखने का इससे अच्छा तरीका नहीं कि सड़क से यात्रा की जाये। आदि-इत्यादि।
खाने के बाद उन्होंने हमसे अपने घर में रुक जाने के लिये और अगले दिन आगे जाने के लिये कहा। हमें इस तरह के पहले भी बहुत से पस्ताव अनजान लोगों से मिलते रहे थे। लेकिन हम दिन में अपनी यात्रा स्थगित करके कहीं रुकते नहीं थे। यात्रा ही मंजिल है का गाना गाते हुये आगे बढ़ते रहते। रात को अगर कोई प्रस्ताव मिलता तो हम उसको निराश नहीं करते। इसलिये हमने कहा- हमें तो आगे जाना है इसलिये रुकेंगे नहीं।
उन्होंने हमें आगे जाने की अनुमति दे दी। अपने पास से कुछ पैसे भी दिये।
चलने से पहले हमने पूछा- अच्छा, अब तो बता दीजिये कि हमारे पिताजी आपके दोस्त कैसे हैं?
उन्होंने कहा- "तुम्हारे पिताजी कमोबेश हमारी ही उमर के होंगे। तुम्हारी उमर के हमारे लड़के हैं। हम तुम्हारे पिताजी से कभी मिले नहीं। न ही हम उनको जानते हैं। लेकिन अगर तुमको देखकर मुझे लगता है कि तुम लोग हमारे बच्चों के समान हो और तुम्हारे पिताजी हमारे दोस्त हैं तो तुमको इससे क्या परेशानी है बेटा! दोस्ती के लिये क्या मिलना जरूरी होता है?"
हमारे पास कोई जवाब! न तब था न अब।
इस घटना को २४ साल के करीब होने को आये। आज हमारे पिताजी नहीं है, अवस्थी के पिताजी पहले जा चुके थे। उन सज्जन का कुछ पता है। न उनका नाम पूछा था। न पता ने पेशा। न कौम। न राज्य। न जिला। लेकिन उनकी कही बात मेरे दिमाग में अभी भी धंसी है और अक्सर याद आती है। मैं जब भी किसी अजनबी को देखता और उससे दूरी का जरा सा भी अहसास होता है तो दिमाग के न जाने किस कोने से फड़फड़ाती हुयी आवाज सुनायी देती है- हम तुम्हारे पिताजी के दोस्त हैं।
क्या आपको भी इस तरह की कोई आवाज कभी सुनायी देती है?

28 responses to “हम तुम्हारे पिताजी के दोस्त हैं”

  1. समीर लाल
    भाई, हमें तो यह आवाज इस अंजान देश में आये हर बालक को देखकर अपए ही दिल में सुनाई देती है. :) बहुत सुंदर संस्मरण है.
  2. arun  arora
    भाइ साहब ये दिल की बात है दिल के तार कब कहा बज जाये कौन जाने
  3. neelima
    बहुत ही अच्छा संस्मरण लिखा है मानवीय संबंधों की महक से भरा …
  4. Sanjeet Tripathi
    शुक्रिया इस शानदार संस्मरण में सहभागी बनाने के लिए!!
    दर-असल ऐसे ही मौके हमें बताते है किं मानवता ही सबसे बड़ी है!
  5. सृजन शिल्पी
    अत्यंत रोचक और मर्मस्पर्शी प्रसंग सुनाया आपने। फिल्म ‘आनन्द’में राजेश खन्ना का चरित्र भी कुछ ऐसा ही है जो राह से गुजरने वाले हर अजनबी को अपना बना लेता है। इसी तरह फिल्म ‘बाबर्ची’ में भी राजेश खन्ना के चरित्र का अंदाज कुछ ऐसा ही है। हमारी दुनिया में कुछ ऐसे जीवंत लोग मौजूद हैं, जिनके लिए सारी दुनिया अपने परिवार की तरह ही है, सभी लोग उनके लिए परिजन ही हैं। ऐसे ही लोगों की वजह से दुनिया में अमन-चमन बरकरार है। ऐसे लोगों की बरक्क़त होती रहे।
  6. ज्ञान दत्त पाण्डेय
    1. शुक्रिया. आक्रांत न करती पोस्ट साइज के लिये.
    2. ये आपके पिताजी के दोस्त से मैं मिल चुका हूं. जळगांव में. मेरा लड़का वहां भर्ती था, अस्पताल में, तब. ये सज्जन कई जगह मिल जाते हैं.
  7. हिंदी ब्लॉगर
    हर किसी को कभी न कभी पिताजी के दोस्त जैसे भलेमानुस ज़रूर मिले होंगे. ऐसे ही लोगों की वजह से तो मानवता तमाम सांसारिक गड़बड़ियों के बावजूद आगे बढ़ रही है.
  8. Pratik Pandey
    बढ़िया क़िस्सा है… हिन्दुस्तानी तहज़ीब की असली रूह नज़र आती है इसमें
  9. abhay tiwari
    प्यारा लिखा आपने.. हमेशा की तरह..
  10. अफ़लातून
    साइकिल यात्राओं की याद आ गई । ‘पिताजी के मित्रों’ की भी,हर सूबे में,हर पड़ाव पर मिल जाते हैं ,वे ।
  11. लावण्या
    अनूप जी,
    नमस्कार !
    आपके पुराने साइकिल यात्रा के बारे मेँ फिर पढने को मन हो आया -
    कितना अच्छा कहा उस सज्जन ने ! भारतीय आत्मीयता जग विख्यात है.
    उसीका ये सत्य द्रष्टाँत है !
    स्नेह सहित
    – लावण्या
  12. divyabh
    मेरे लिए यह संस्मरण जितना नया है उतना ही प्रेरणादायक…क्या इंसान था वह जिसे आप 24 साल पहले मिले…कहाँ देखने को मिलता है यह,जीवन की उटपटांग दशा में सब कृत्रिम हो गया है। अगर मैं इस लेखनी नहीं पढ़ता तो शायद बहुत अधूरा महसूस करता…। भाई वाह…बहुत-2 अनोखा।
  13. Sanjeet Tripathi
    मुआफ़ी चाहूंगा अंग्रेजी में अपना नाम प्रदर्शित करने के लिए!
    दर-असल इसके पीछे अपना फोटू दिखाने का सुख हासिल करने की इच्छा है! पहले जब मैं अपना नाम हिंदी में लिखा करता था तो नारद पर फोटू ही नही आती थी , सलाह मिलने पर अंग्रेजी मा लिखना शुरु कर दिया अपना नाम!
  14. sujata
    यात्रा ही मंजिल है
    *
    bahut sahee baat !
  15. आशीष
    हम भी अपने पिताजी के दोस्त से कनाडा मे मील कर आये !
  16. anitakumar
    आप के पिता जी के दोस्त को तो मैं ने अपने अंदर ही देखा है, अक्सर मिल जाते हैं , पर अब जरा इनसे राज ठाकरे को मिलवाने की जरूरत है, बोलते हैं उसको सायकिल अभियान पर निकलो…:)
  17. abha
    इन संज्जन ने आप की यात्रा सुफल कर दी ….देर से ही सही अच्छी पोस्ट पढ़ी ,शुक्रिया
  18. arun gautam
    मान न मान मैं तेरा मेहमान
    अरुण गौतम
    akgautam@indiatimes.com
  19. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] हम तुम्हारे पिताजी के दोस्त हैं [...]
  20. ePandit
    रोचक संस्मरण, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को इन सज्जन ने चरितार्थ कर दिया।
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