Thursday, June 21, 2007

पंडित माखनलाल चतुर्वेदी

http://web.archive.org/web/20140419212746/http://hindini.com/fursatiya/archives/292

पंडित माखनलाल चतुर्वेदी

[हरिशंकर परसाई जी ने अपने समकालीनों के बारे में कुछ लेख लिखे हैं। 'जाने-पहचाने लोग' पुस्तक में ये लेख संकलित हैं। इन्हीं में से एक संस्मरण परसाईजी ने पंडित माखनलाल चतुर्वेदी के बारे में लिखा है। यह मुझे बहुत प्रिय है। मैं इसे यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। शायद आपको अच्छा लगे]

पंडित माखनलाल चतुर्वेदी
पंडित माखनलाल चतुर्वेदी मध्यप्रदेश में उसी क्षेत्र के थे जिस क्षेत्र का मैं हूं। वे इटारसी के पास बाबई कस्बे के थे और मै इटारसी के पास जमानी गांव का हूं। वे बचपन में अपने अध्यापक पिता के साथ हरदा, टिमरनी के आसपास रहे और मैं भी अपने पिता के धंधे के कारण इसी क्षेत्र में रहा। वे खंडवा में रहे। मैंने भी खंडवा में ६ महीने अध्यापकी की। उनका स्थाई कार्य-क्षेत्र खंडवा हो गया और मैं किशोरावस्था में वहां रहा। उनका बड़ा कार्य -’कर्मवीर’ साप्ताहिक निकालना- जबलपुर से शुरू हुआ। मैं भी जबलपुर में बस गया। मेरा लेखन और पत्रकारिता जबलपुर में शुरू हुई और अब तक जारी है। वे नर्मदापुत्र थे। मैं भी नर्मदापुत्र हूं। इस तरह मैं उनके वंश का ही हूं।
पर हम अलग-अलग पीढ़ी के थे। वे जब सक्रिय थे, यात्रा करते थे, भाषाण देते थे, आंदोलनों में शरीक होते थे, तब मैं बच्चा था। बड़ा हुआ तो उनके साहित्य को पढ़ा और उनके बारे में बहुत कुछ सुना तथा जाना। मेरी उनसे मुलाकात सिर्फ़ दो बार हुई खंडवा में। तब वे बीमार रहते थे। मैंने उनका सिर्फ़ एक भाषण गोंदिया साहित्य सम्मेलन में सुना। इतने कम परिचय के बावजूद माखनलाल जी के प्रति मेरे मन में असाधारण आत्मीयता, प्रशंसा व श्रद्धाभाव रहे। अपनी आदत के मुताबिक मैंने ‘वसुधा’ में उनके कुछ शब्दों व मुहावरों के ‘रिफ़्लेक्स’ की तरह आ जाने पर टिप्पणी लिखने की गुस्ताखी की। लिखा था कि अगर माखनलाल चतुर्वेदी का गद्य है तो दो पैराग्राफ़ में पीढ़ियां, ईमान, बलिपंथी, मनुहार, तरूणाई, लुनाई आ जाना चाहिए, वरना वह चतुर्वेदी जी का लिखा हुआ नहीं है। मुझे उनके भांजे श्रीकांत जोशी ने बाद में लिखा कि दादा ने बुरा नहीं माना। मुझसे कहा कि यह परसाई ठीक कहता है। तुम इक कार्डबोर्ड पर इन्हें लिखकर यहां टांग दो, ताकि मैं इस पुन: पुन: की आव्रत्ति से बच सकूं। यह मैं अपनी महत्ता बताने को नहीं लिख रहा हूं, बल्कि कवि की सचेतता बतला रहा हूं।
वे महान कवि थे। निराले थे। अदभुत गद्य-लेखक थे। शैलीकार थे। राजनैतिक, समाजिक टिप्पणीकार थे। इतने गुणों से युक्त उनका एक ‘लीजेंडरी’ व्यक्तितत्व था। मझोले कद गौर वर्ण, चिंतनशील आंखों और लंबी नुकीली नाकवाले इस व्यक्तित्व में एक गजब कोमलता तथा दबंगपन था। यह आदमी जब मुंह खोलता या कलम चलाता तो लगता कि या तो ज्वालामुखी फ़ूट पड़ा है या नर्मदा की शीतल धार बह रही है।
माखनलाल चतुर्वेदी बहुआयामी व्यक्तित्व थे। वे स्वाधीनता-संग्राम के योद्धा थे। पहले वे सशस्त्र क्रांतिकारियों के दल में थे और पिस्तौल लेकर छिपकर घूमते थे। फ़िर वे गांधीवादी हुए और कांग्रेसी हो गए। वे पुराने मध्यप्रेदश के सबसे पहले सत्याग्रही जत्थे में थे और जेल गए। बाद में हर आंदोलन में वे जेल गए। वे अदभुत प्रभावकारी वक्ता थे। जैसा कहते हैं, उनकी वाणी में सरस्वती थी। महान शायर रघुपति सहाय ‘फ़िराक’, जो हिंदी विरोधी माने जाते थे, ने उनका भाषण इलाहाबाद में सुनकर कहा था कि चतुर्वेदी जी का भाषण सुनने के बाद मैने जाना कि हिंदी में इतनी क्षमता है। बाद में फ़िराक ने यहां तक कहा कि मैंने भाषा और मुहावरे उनसे सिखे।
डा अमरनाथ झा, पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी ने मुक्त कंठ से उनके भाषणों की तारीक की। वे पत्रकार थे। पहले उन्होंने ‘अभ्युदय’ और ‘प्रताप’ में काम किया, ‘प्रभा’ साहित्यिक मासिक पत्रिका निकाली। पर उनकी निर्भीक, ओजमयी पत्रकारिता आई ‘कर्मवीर’ साप्ताहिक में। ‘कर्मवीर’ साप्ताहिक उन्होंने जबलपुर से निकाला। बाद में साथ खंडवा ले गए। जबलपुर में आयरिश डिप्टी कमिश्नर के बंगले पर ‘कर्मवीर’ का घोषणा-पत्र भरने गए तो साहब ने पूछा- जब यहां से एक अंगरेजी साप्ताहिक निकल ही रहा है तब हिंदी की क्या जरूरत? माखनलाल जी ने जवाब दिया-अंगरेजी साप्ताहिक दब्बू हैं। मैं ऎसा पत्र निकालना चाहता हूं जिससे अंगरेजी शासन हिल उठे।
वे महान कवि थे। निराले थे। अदभुत गद्य-लेखक थे। शैलीकार थे। राजनैतिक, समाजिक टिप्पणीकार थे। इतने गुणों से युक्त उनका एक ‘लीजेंडरी’ व्यक्तितत्व था। मझोले कद गौर वर्ण, चिंतनशील आंखों और लंबी नुकीली नाकवाले इस व्यक्तित्व में एक गजब कोमलता तथा दबंगपन था। यह आदमी जब मुंह खोलता या कलम चलाता तो लगता कि या तो ज्वालामुखी फ़ूट पड़ा है या नर्मदा की शीतल धार बह रही है।
माखनलाल जी जैसा बोलते थे, वैसा ही लिखते थे। उनका भाषण भी काव्यमय होता था। ऎसे व्यक्ति को कलम के धनी या वाणी के धनी कहने से काम नहीं चलता। शायद कोई शब्द या शब्द-समूह उन्हें व्याख्यायित नहीं कर सकता। सन १९६५ में खंडवा में मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र ने उनका सार्वजनिक सम्मान किया था। वे बहुत बीमार और अशक्त थे। तब सम्मान के जवाब मे जो उन्होंने कहा, वह उनकी दृष्टि की विराटता, संवेदना की व्यापकता और मानवीय मूल्यवत्ता का शायद आखिरी वक्तव्य है। उन्होंने कहा- ‘जहां कहीं मनुष्य का अपने अभिमत के प्रति समर्पण हैं, जहां कहीं जीवन की श्रम से आराधना है, जहां कहीं उत्सर्ग और बलिदान के मोमदीप अंधकार को अपनी बलि दे रहे है, जहां कहीं नगण्यता गण्यमान्यता को चुनौती दे रही है, जहां कहीं हिमालय की रक्षा में सिरों को हथेलियों पर लेकर मरण-त्यौहार मनानेवाली जवानियां है और जहां कहीं पसीना ही नगीना बना हुआ है, वहीं पर, केवल वहीं पर, आपका माखनलाल दीखते हुए या न दीखते हुए भी उपस्थित रहना चाहता है।
‘जहां कहीं मनुष्य का अपने अभिमत के प्रति समर्पण हैं, जहां कहीं जीवन की श्रम से आराधना है, जहां कहीं उत्सर्ग और बलिदान के मोमदीप अंधकार को अपनी बलि दे रहे है, जहां कहीं नगण्यता गण्यमान्यता को चुनौती दे रही है, जहां कहीं हिमालय की रक्षा में सिरों को हथेलियों पर लेकर मरण-त्यौहार मनानेवाली जवानियां है और जहां कहीं पसीना ही नगीना बना हुआ है, वहीं पर, केवल वहीं पर, आपका माखनलाल दीखते हुए या न दीखते हुए भी उपस्थित रहना चाहता है।
माखनलाल जी गांधीवादी थे, यह सही है। पर वे इस सीमा में बंधे नहीं थे। वे विद्रोही थे। उनमें वैष्णव मधुर साधना, समर्पण आदि है। उन पर सूफ़ी प्रभाव भी है। पर एक बड़ी महत्वपूर्ण बात है। इस गांधीवाद और वैष्णववाद के साथ ही वे सामाजिक क्रांतिकारी भी थे। उन्होंने रूस की समाजवादी क्रांति के समर्थन में ‘ कर्मवीर’ में लिखा है। वे लेनिन को ‘महात्मा’ लिखते थे और ‘कर्मवीर’ में लेनिन की पत्नी क्रुप्सकाया के संस्मरणों के आधार पर उन्होंने लेनिन के बारे में काफ़ी लिखा है। एक टिप्पणी में वे लेनिन के जीवन की एक घटना का उल्लेख करते है। क्रांति के बाद ही रूस में अकाल पड़ा। लोग भूखे मरने लगे। प्रतिक्रांतिकारियों ने लोगों को भड़काया कि लेनिन ने तुम्हें धोखा दिया। वह तो अपने महल में मजे उड़ा रहा था। भीड़ लेनिन के निवास पर पहुंची। लेनिन-विरोधी नारे लगाए, खिड़कियां तोड़ी। लेनिन फ़ाइलों पर काम करते रहे। तभी लेनिन की लड़की डब्बा लेकर आई और कहा- पिताजी, आपने तीन दिन से कुछ नहीं खाया। ये रोटी खा लीजिए। भीड़ स्तब्ध रह गई। लेनिन ने डिब्बा खोला और उसमें से रोटी के दो अधजले टुकड़े निकाले। भीड़ में कई लोग रो पड़े और लेनिन की जय बोली जाने लगी।
गोर्की के वे परम प्रशंसक थे। मेरा मतलब यह है कि गांधीवाद से वे आगे जाते थे। किसानों के जीवन पर, साम्राज्यवादी शोषण के तरीकों पर और वांछित समाज-रचना पर जो उन्होंने लिखा है, उससे मालूम होता है कि वे वैज्ञानिक दृष्टिसंपन्न चाहे न हो, पर विश्वासों से समाजवादी थे। सवाल है- उनके वैष्णववाद से इस विद्रोह और समाजवाद का तालमेल कैसे बैठता है? वैष्णववाद तो समर्पणवाद है। इसे वे खुद समझाते है। अपनी एक टिप्पणी में वे लिखते हैं- मै कहूंगा कि यह वैष्णववाद भी विद्रोह है। विद्रोह के साथ बात यह है कि आज जो विद्रोह है वह कल की समाज-रचना करता है और परसों, रूढ़ि हो जाता है। जो विष्णु क्षीर सागर में
लक्ष्मी से अपने पैर दबवाता पड़ा रहे, वह यदि वंचितों के और दीनों के लिए काम करने लगता है तो वही रूप लोगों के सामने रखना चाहिए।
आगे लिखा है- मै तो वैष्णववाद को वहे मानता हूं जो आज का तरूण चाहता है। माखनलाल चतुर्वेदी जी का कहना है कि वैष्णववाद एक विद्रोह था। बौद्ध और
जैन धर्म भी तत्कालीन समाज-रचना के खिलाफ़ विद्रोह थे। समाज में रूढ़ि बन जाती है। गद्दियां स्थापित हो जाती है। आधुनिक लोकतंत्र में राजनेताओं की जब गद्दियां बन जांएगी तब इनके खिलाफ़ भी विद्रोह होगा।
विद्रोह के साथ बात यह है कि आज जो विद्रोह है वह कल की समाज-रचना करता है और परसों, रूढ़ि हो जाता है।
माखनलाल जी के वैष्णववाद का इस तरह विद्रोह से तालमेल बैठता है। इस संप्रक्ति से ही उनकी दृष्टि बनी थी और ‘कर्मवीर’ में उनके लेखों टिप्पणियों तथा कविताओं मे यही वैष्णववाद, गांधीवाद और विद्रोह साथ है। ‘कर्मवीर’ के उनके लिखों के बारे में महान शायर रघुपति सहाय फ़िराक ने कहा है- इनके लेखों को पढ़ने से ऎसा मालूम होता था कि आदिशक्ति शब्दों के रूप में उतर रही है। यह शैली हिंदी में ही नहीं, भारत की दूसरी भाषाओं में भी विरलों को नसीब हुई। मुझ जैसे हजारों लोगों ने भाषा लिखने की कला माखनलाल जी से सीखी।
माखनलाल जी ने अस्वस्थता, बार-बार जेल यात्रा, राजनीतिक कर्म के बावजूद बहुत लिखा है। उनका संपूर्ण लेखन साढ़े चार-चार सौ पृष्ठों के दस खंडो में प्रकाशित हुआ है। इनमें उनका काव्य, गद्य, नाटक, लेख, संपादकीय, टिप्पणियां, पत्र आदि है। जिस छोटी-सी कविता के कारण माखनलाल जी स्वाधीनता के पहले और बाद मे भी जाने जाते थे, वह है- ‘एक पुष्प की अभिलाषा’। यह देशभक्ति के उदबोधन की कविता है। पंक्तियां हैं-
चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं
चाह नही प्रेमी-माला बिच बिंध प्यारी को ललचाऊं
चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि, डाला जाऊं
चाह नहीं देवों के सिर पर चढ़ू, भाग्य पर इठलाऊं
मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर देना तुम फ़ेंक
मात्रभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जायें वीर अनेक।
यह कविता १९२२ में लिखी गई थी। माखनलाल जी ने देशभक्तिपूर्ण और उदबोधन काव्य बहुत लिखा है। उनकी एक ओजस्वी कविता है- ‘जवानी’ जिसमें ये पंक्तिया आती है-

एक हिमगिरि एक सिर का मोल कर दे,
दो हथेली हैं कि पृथ्वी गोल कर दे।

‘विद्रोह’,'बलिपंथी से’, ‘अमर सेनानी’ जैसी सैकड़ो कविताएं उन्होंने लिखीं जिनमें देशभक्ति, उत्सर्ग, विद्रोह, वीरता के भाव हैं। इनकी शब्दावली अत्यंत ओजपूर्ण है और बिंब विराट है। उनकी ‘कैदी और कोकिला’ कविता भी बहुत प्रसिद्ध है। आजादी के बाद पद और स्वार्थ-साधन की दौड़ लगी। नैतिक मूल्यों का पतन हो गया। राजनीति लाभ-लोभ की हो गई। माखनलाल जी को इस स्थिति से बड़ी पीड़ा हुई। उनके सपने की स्वाधीनता यह नहीं थी। उन्होंने इस पतनशीलता पर भी गहरी चोट कई कविताओं में की। एक कविता है-
समझ गए तुम गलत कि बस अब
सारा काम तमाम हो गया
चार महीन की जेलों में आजादी दी नाम हो गया।

आगे है-
दस वर्षो के शिशु शासन पर हम बूढ़े चढ़ बैठे ऎसे
मीठी कुर्सी, मीठे रूपए, मीठे सपने कैसे-कैसे
मेरा लड़का तेरा नाती, उसकी भावज उनकी बेटी
तू सच्चा है पक्ष रहित है अंधे तू परोस दे रोटी
काल शीश पर हुंकार दे मैं रंगरेलियां खेल रहा हूं
खा-पीकर जनता की गाड़ी आगे खूब ढकेल रहा हूं
उन्हें स्मरण रहे कि मैंने लाभों की फ़ेहरिस्त बना दी
आजादी की पुस्तक लिख दी उसमें अपनी मूर्ति सजा दी।

उनकी रूमानी कविताएं भी बहुत है। प्रेम, समर्पण, प्रकृति-सौंदर्य की अनगिनत कविताएं है। ये बहुत भावमय है. अंतस्तल से निकली है! एक कविता है-

यौवन मद झर सखि, जाग री!
आया है संदेश, जीवन का पाया है श्यामल धान्य का
उड़ चल सजनि पंख तेरे हों राग और अनुराग री
लगा वासनाओं का मेला री तूने सौभाग्य ढकेला
फ़िसलन पर कह तो अलबेली कैसे जागें भाग री!

माखनलाल जी ललित गद्य के मास्टर थे। ऎसा कहा जाता है कि ‘साहित्य देवता’ के ललित गद्य किसी भारतीय भाषा में दुर्लभ है। उसकी तुलना खलील जिब्रान
के गद्य से की जाती है। एक ही उदाहरण देता हूं–
लोकमान्य तिलक के गुणों का वर्णन करना उसी तरह है जैसे उफ़नती गंगा के किनारे बैठ बूंदो के हिसाब का रजिस्टर खोलना।
आज तो उदास, पराजित और भविष्य की वेदनाओं की गठरी सिर पर लादे मेरे बाग में उन कलियों के आने की उम्मीद में ठहरता हूं जिनके कोमल अंतस्तल को छेदकर उस समय जब तुम नगराधिराज का मुकुट पहने, दोनो स्कंधो से आनेवाले संदेशों पर मस्तक डुला रहे होगे, गंगी और जमुनी का हार पहने बंग के पास तरल चुनौती पहुंचा रहे होगे, नर्मदा और ताप्ती की करधनी पहने विंध्य को विश्व नापने का पैमाना बना रहे होगे, कृष्णा और कावेरी की कोरवाला नीलांबर पहने विजयनगर का संदेश पुष्प प्रदेश से गुजारकर सहयाद्रि और इरावली को सेनानी बना मेवाड़ में ज्वाला जगाते हुए देहली से पेशावर और भूटान चीरकर अपनी चिरकल्याणमयी वाणी से तिब्बत को न्यौता पहुंचा रहे होगे-
माखनलाल जी ने संस्मरण और व्यक्ति-रेखाचित्र भी बहुत लिखे है। तिलक पर उनके लेख का पहला ही वाक्य है-लोकमान्य तिलक के गुणों का वर्णन करना उसी तरह है जैसे उफ़नती गंगा के किनारे बैठ बूंदो के हिसाब का रजिस्टर खोलना।
‘कर्मवीर’ में उनकी टिप्पणियां और लेख बहुत अच्छे है। वह चुनौतीपूर्ण लेखन है जिसमें बड़े साहस की जरूरत होती है। राजनीतिक समस्याएं, साम्राज्यवादी शोषण, अपने समय की घटनाओं, विश्व की घटनाओं, सत्याग्रह, असहयोग, बूचड़खाना खोलना- विभिन्न विषयों पर बहुत सुचिंतित और अत्यंत प्रौढ़ भाषा में लिखी ये टिप्पणियां और लेख कोरी पत्रकारिता न होकर साहित्य की कोटि में आते है।
माखनलाल अदभुत प्रतिमा के धनी थे। उन्हें दुबारा सिलसिले से पढ़कर लगता है कि उनका सही मूल्याकंन होना है। वे उससे बहुत बड़े थे, जितना माने जाते हैं।
-हरिशंकर परसाई

14 responses to “पंडित माखनलाल चतुर्वेदी”

  1. भारत भूषण तिवारी
    धन्यवाद!
  2. अभिनव
    सबसे पहले तो इस लेख के लिए धन्यवाद, बढ़िया रहा।
    माखनलालजी का संपूर्ण साहित्य कहाँ से प्राप्त किया जा सकता है, हिंदी की पुस्तकें खरीदना सदा से एक महाआयोजन की तरह ही रहा है। दस दुकानों पर घूमो तो बमुश्किल एक में मिलती हैं। क्या नेट पर उनकी गद्य रचनाएँ और लेख कहीं उपलब्ध हैं।
    वैसे कविता कोश में उनकी कविताओं का अच्छा संकलन है। कुछ दिनों पहले ही इनका यह बालगीत पढ़ा था, बड़ा आहंद आया था, यहाँ प्रेषित कर रहा हूँ।
    ले लो दो आने के चार
    लड्डू राज गिरे के यार
    यह हैं धरती जैसे गोल
    ढुलक पड़ेंगे गोल मटोल
    इनके मीठे स्वादों में ही
    बन आता है इनका मोल
    दामों का मत करो विचार
    ले लो दो आने के चार।
    लोगे खूब मज़ा लायेंगे
    ना लोगे तो ललचायेंगे
    मुन्नी, लल्लू, अरुण, अशोक
    हँसी खुशी से सब खायेंगे
    इनमें बाबू जी का प्यार
    ले लो दो आने के चार।
    कुछ देरी से आया हूँ मैं
    माल बना कर लाया हूँ मैं
    मौसी की नज़रें इन पर हैं
    फूफा पूछ रहे क्या दर है
    जल्द खरीदो लुटा बजार
    ले लो दो आने के चार।
  3. समीर लाल
    बहुत बहुत आभार इसे यहाँ पेश करने के लिये. आनन्द आ गया. :)
  4. arun  arora
    बहुत खुबसूरत प्रसतुती,बस आप तो ऐसे ही पढवाते रहा करो
  5. ज्ञान दत्त पाण्डेय
    यह लेख उपलब्ध कराने के लिये धन्यवाद. मैं जब भी खण्डवा से गुजरता था, केवल माखनलाल चतुर्वेदी जी की याद आती थी. यह लेख पढ़ कर उनके व्यक्तित्व के अन्य कई आयामों से परिचय हुआ.
    हम तो अपने में 1-2 डायमेंशन पा कर इतराने लगते हैं. जब ऐसे व्यक्तित्व के बारे में पढ़ते हैं तो अपनी छुद्रता और आगे करने को जोश – दोनो विचार समांतर आते हैं. आपकी पोस्ट से वही अनुभूति हो रही है.
  6. Sanjeet Tripathi
    शुक्रिया इसे यहां पढ़वाने का!
  7. yunus
    परसाई जी अपने प्रिय रचनाकार रहे हैं । मुझे उनकी ये बात अद्भुत लगती है कि उस दौर में भी वो एक स्‍वतंत्र रचनाकार के रूप में अपने पूरे तेवरों के साथ । मैं जबलपुर का रहने वाला हूं और उनसे दो तीन बार भेंट हुई है । आकाश वाणी जबलपुर के लिए उन्‍हें रिकॉर्ड भी किया था । परसाई जी हमेशा प्रेरणा देते रहे हैं । उनकी एक नन्‍हीं पुस्‍तक है काग भगोड़ा । मैंने छह आठ बार खरीदी, हर बार मित्र लूट ले गये । अगर कहीं मिले तो उसकी रचना प्रस्‍तुत किजिएगा । परसाई जो को नमन । उनके कुछ तेवर इन पंक्तियों में देखिए— भारत की शिक्षा पद्धति वो कुतिया है जिसे हर कोई लात मारता चलता है ।
    गणतंत्र अभी भी कस्‍बे के बाहर टीले पर बैठा है और ठिठुर रहा है ।
  8. संजय बेंगाणी
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति. धन्यवाद.
  9. sharad
    jay shri yamune
  10. Surender Paul
    सचमुच अद्भुत लेख है। परसाई जी की भाषा शैली का तो कोई जवाब नहीं, साथ ही माखनलाल जी के संबंध में भी बहुत कुछ जानने को मिला। धन्यवाद।
    माखनलाल चतुर्वेदी की संपूर्ण ग्रंथावली 10 भागों में वाणी प्रकाशन ने भी प्रकाशित की है। इसमें दो उनकी कविताएं व कर्मवीर में लिखे गए अग्रलेख भी शामिल हैं। इसका संपादन श्रीकांत जोशी ने अज्ञेय, धर्मवीर भारती, शिवमंगल सिंह सुमन और जगदीश गुप्त के परामर्श से किया है।
    पता हैः
    वाणी प्रकाशन
    21-ए, दरियागंज
  11. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] पंडित माखनलाल चतुर्वेदी [...]
  12. Naman chouhan
    इट्स वास वैरी helpful
  13. माखनलाल चतुर्वेदी | FavReadsIndia

No comments:

Post a Comment