Wednesday, December 05, 2007

कि पुरुष बली नहिं होत है…

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कि पुरुष बली नहिं होत है…


क्रासिंग बंद
घड़ी बेरहम घनघनाई। हम कुनमुना के फ़िर् सो गये। सोये कहां? रजाई की रेत में शुतुरमुर्ग की तरह दुबक गये। घड़ी फिर घनघनाई। बेशरम । मशीन है। देखती नहीं अगला किस स्थिति में है। बस समय बता दिया। उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई।
उठो चाय पिलाऒ, फ़िर हम भी उठें- कहकर पत्नीश्री फ़िर रजाई में दुबक जाती हैं।
हम रसोई की तरफ़ प्रस्थान करते हैं। दो कमरों की दूरी नापते हुये सोच डालते हैं। ये भी दिन देखने थे ससुरे। जिस समय सोते थे कभी उसके आसपास उठना पड़ रहा है। अक्सर सोते-सोते रात के दो बज जाते थे। अब चार बजे उठना। समय जो न कराये। कहा भी है-

पुरुष बली नहिं होत है, समय होत बलवान।
भीलन लूटी गोपिका वहि अर्जुन वहि बान॥

यह पढ़कर संसार मंच के स्त्रीपात्र आरोप लगा सकते है। मनुवादी व्यवस्था को कोस सकते हैं- बलवान होने की पात्रता केवल पुरुष पात्रों को दे दी गयी। समय और पुरुष। वैसे कहने के लिये पुलिस वाले भी कह सकते हैं कि जब धनुर्धारी अर्जुन जैसे वीर नारियों की रक्षा नहीं कर पाये तो हमारा पुलिस बल कौन खेत की मूली है। :)
चाय बनाते-बनाते सोच रहे थे। दुनिया के जितने भी उत्पाती, अराजक चरित्र वाले नराधम हुये हैं अगर उनके बेहतर आधे( बेटर हाफ़) नौकरी शुदा होते तो वे इतने उत्पात शुदा न होते। उत्पाद-जुदा होते। नौकरी जो न कराये।
चाय पीते हुये पत्नी तैयार हो रही है। पत्नी नहीं भाई नायिका। नायिका इसलिये कहा ताकि खाकसार अपने को नायक कह सके। बेधड़क। बेशरम। बेतकल्लुफ़ होकर।
चाय में चीनी कम है। लेकिन नायिका उलाहना नहीं देती। पूरा मन लगाकर तैयार हो रही है।
चीनी कम की नायिका से होड़ लेते हुये सूचनार्थ बताती है-चाय में चीनी आज भी कम लेकिन अच्छी है। मैं चीनी कम का नायक बनने का प्रयास करता हूं। कोशिश नाकामयाब हो जाती है। समय कम है। तैयार होना है। गाड़ी निकालो। जल्दी करो। कल ट्रेन छूटते-छूटते बची।
गाड़ी निकालते हैं। टेप किसी विवाद में समीरलाल सा चुप है। झटका लगा तो किसी नये-उत्साही ब्लागर की तरह हड़बड़ा के बड़ाबड़ाने लगा- मुझे तू लिफ़्ट करा दे। धक्का लगे तो बड़े -बड़े बोल जाते हैं। बोलने लगते हैं। बोलते-बोलते बोल जाते हैं।
रास्ते में कुछ लोग टहल रहे हैं। या तो घर से दूर जा रहे हैं या पास आ रहे हैं। सुबह अभी कायदे से हुयी नहीं है इसलिये ठट्ठा-क्लब वालों की दुकान अभी खुली नहीं है। तेजी से टहलते लोग ऐसे दिख रहे हैं जैसे कि अब वे वापस न लौटेंगे कभी। वापस लौटते लोग चेहरे पर इस्तहार सा लगाये हैं -अब वे फिर कभी न जायेंगे घर से दूर। अजब बात है- जो काम अभी करके चुके उसे करने का सन्तोष कहीं नहीं दिखता। बेचैन असन्तोष दिग-दिगान्तर में पसरा है। जो अभी किया वह फिर न करेंगे। यह रोज डेली होता है।
रास्ते में आस्था चैनल चालू हो गया। नयी जगह पर कायदे से रहना। बास से भिड़ना नहीं। कायदे से तैयार होकर जाना। ज्यादा हो चुप रहना। बोलना नहीं। हर जगह पाण्डेयजी की सेना डटी है। हम भी राम हो गये । चुपचाप सुन रहे हैं। सुनहि राम यद्यपि सब जानहिं
बताते चलें कि एक दिसम्बर को हमारा तबादला कानपुर की ही दूसरी फ़ैक्ट्री में हो गया। लघु शस्त्र निर्माणी में। यहां रिवाल्वर, कार्बाइन, राइफ़ल वगैरह बनती हैं। समझि लेव।
तबादला तो वैसे हमारा कोलकता हुआ था। एक को जाने के आदेश भी हुये थे। लेकिन कुछ सुखद शुभकामनाओं का जोर ऐसा चला कि हम अपने कानपुर में ही रुक गये। बदले में पत्नी , जिनका अस्थाई अटैचमेंट कानपुर चल रहा था , को एक को ही वापस फतेहगढ़ (१३५ किमी) जाना पड़ा। उसी दिन। वे हमारे लिये बाबर हो गयीं। हम उनके लिये हुमायूं।
रास्तें में हम गुनगुनाने की कोशिश करते हैं- उनकी आंखों में सब कुछ है लेकिन , प्यार का एक सागर नहीं है। पत्नी की आंखें दिखती नहीं हैं लेकिन उनकी झल्लाहट साफ़ नजर आती है। सुबह-सबेरे गाना और माहौल खराब करते हो। फिर वे गाकर बताती हैं- ऐसे गाया जाता है। उनकी आंखों में सब कुछ है लेकिन ,प्यार का एक सागर नहीं है। हमको दोनों में कोई अन्तर नहीं समझ आता। एक जैसे ही तो लगते हैं लिखने में। लेकिन क्या करें सुनते हैं चुपचाप। इसीलिये तो शुरू हुये थे। :)
रास्तें में एक लफ़ड़ा और हुआ। देर हो गयी। हड़बड़ाते हुये गये। क्रासिंग बंद। गाड़ी छो़ड़ दी। उचकते हुये इधर-उधर से पार हुये। उस पार पहुंचते ही नायिका की चप्पल की बद्धी टूट गयी। बोले तो सैंडिल की स्ट्रिप की ‘स्ट्रिपटीस’ हो गयी। येन पानी के गड्डे के ऊपर सैंडिल के पट्टे ने सैंडिल से समर्थन वापस ले लिया। हर एक के अपने-अपने वामपंथ होते हैं भाई। कब कौन समर्थन वापस ले ले। इधर गाड़ी सीटी बजा रही थी।उधर हमारी कहा-सुनी की सीटी बज गयी। तुम्हारे कारण देर हुई। ऐसा नहीं वैसा । वैसा नहीं ऐसा। लेकिन गाड़ी की सीटी ज्यादा असर करती है। हम रिक्शा करके स्टेशन भागे। पत्नी के हाथ में सैंडिल। हमारे हाथ में झोला।मुंह भी झोले जैसा लटका। कोई भी भलामानस देखता तो सोचता कि इन पादुकाऒं का उपयोग या तो हो चुका है या होने वाला है। मुझे पहली बार दुनिया में भले मानुसों की कम होती संख्या सुकूनदेह लगी। :)
खिड़की पर भीड़ है। हम इनको टिकट के लिये लगा देते हैं। तुरन्त मिल जाता है। इस् बीच हम अपने को एक बार फिर कोस लेते हैं कि एम.एस.टी. काहे नहीं बनवाई अभी तक। जब रोज जाना है। इस बीच यह भी सोच लेते हैं कि मेट्रो के अलावा बाकी शहरों में महिलाऒं के साथ में होने के कित्ते फ़ायदे हैं। आदमी टिकट ले सकता है उनके माध्यम से। अब हमारी औकात केवल इसी सुख तक है वर्ना तो लोग मुख्यंमंत्री की कुर्सी तक हासिल कर लेते हैं इसी बहाने।
इतने में बड़े भाई का फोन आता है। गाड़ी स्टेशन पहुंचने वाली है। बहू के जेठ उनके लिये जगह घेर कर रखे हैं। वे भी आजकल कन्नौज तबादलित हो गये हैं। अनवरगंज स्टेशन से बहू के लिये जगह घेर कर लाते हैं। कन्नौज तक साथ जाते हैं। बहू लौटते में उनके लिये फ़तेहगढ़ से जगह जुगाड़कर लाती है। सबेरे छह बजे का उधार शाम आठ बजे चुका दिया जाता है।हिसाब-किताब एक ही दिन में बराबर।
स्टेशन पर गाड़ी दो मिनट रुकती है। इत्ती देर बहुत है मौज लेने के लिये। भैया बोलते हैं - यार, तुम अब हलवाई की दुकान खोल लेव। चाय-पानी बनाने लगे। खाना और शुरू कर देव। कहां नौकरी के चक्कर में पड़े हौ? दुकान खोल लेव। :)
हम हंस के रह जाते हैं। क्या कर सकते हैं। पत्नी गाड़ी में बैठते-बैठते हमारी चप्पल पहनकर चली जाती हैं। हम नंगे पांव दूर क्रासिंग पर खड़ी गाड़ी तक पहुंचते हैं।
रास्ते में सोचता हूं क्या दीनबंधु दीनानाथ भगवान विष्णु की अर्धागिनी भी कहीं नौकरी करती होंगी। अपनी चप्पल टूट जाने पर विष्णुजी की पहन गयीं होंगी। उधर गज ने पुकारा होगा सो भक्त को बचाने के लिये नंगे पांव भगे चले आये। मशहूर हो गये। भक्त और भगवान दोनों।
लगता तो हमें यह भी है कि भगवान बुद्ध की पत्नी भी कहीं नौकरी करती होंगी। वे बेचारे उनको सहयोग करते-करते कचुआ गये होंगे। एक दिन मुंह अंधेरे निकल लिये होंगे। बड़े कष्ट से बचने के लिये। श्रीमती बुद्धा कहती हैं अपनी सखि से-

सखि वे मुझसे कहकर जाते।
आगे लोगों ने अपने मन से न जाने क्या-क्या लिखा है लेकिन मुझे यही लगता है कि उन्होंने यही कहा होगा- अगर वे मुझसे कहकर जाते तो शायद मैं उनके लिये नौकरी छोड़ देती।कम में गुजारा कर लेती। लेकिन खैर।
रास्ते में एक व्यक्ति सवारी के इंतजार में खड़ा है। इधर-उधर न जाने किधर-किधर ताक रहा है। मैं सोच रहा हूं कि उसे बैठा लूं अपनी गाड़ी में। रास्ते में ब्लाग लिखना सिखा दूंगा। लेकिन् याद आता है कि आगे थाना है। वो कहीं रपट न लिखा दे। ये जबरियन अपना लिखा हुआ पढ़वा रहा है। हमार का होई फिर। कानून के डर ने हमारा ब्लाग-उत्साह दबा दिया।
घर आकर अपनी कथा बयान करते हैं। पूरी हो भी नहीं पाती कि मुई घड़ी आठ बजा देती है। दफ़्तर की यादें हावी हो जाती हैं। दफ़्तर बड़े प्यार से बुला रहा है। हम निरीह उसके निष्ठुर प्यार के आकर्षण में बंधे आपसे कित्ते भरे मन से विदा ले रहे हैं ये आप नहीं समझ सकते।
अरे, आप क्या समझेंगे जब हम ही अभी तक नहीं समझ पाये।
मेरी पसंद

चिड़ियो का मचने लगा शोर
लगता है अब हो गई भोर
उठ खिड़की का परदा खींचें
उगता सूरज आंखों में मींचें।
पड़े अधूरे दर्जनों काम
सैर, योग और व्यायाम।
रोके रज़ाई की गरमाई
गुदगुदे गद्दे की नरमाई
लगे बदन में कुनकुना दर्द
बाहर हवा भी है कुछ सर्द।
अभी तो हुई थी रोशनी मंद
अभी तो की थी आँखें बंद।
थोड़ी देर ज़रा और सो लें
सपनों की नगरी में डोलें
सालों से न किया आराम
चलते रहे उमर भर काम।
चलो सुबह की सैर आज छोड़े
बरसों पुराना नियम तोड़ें।
यही सोच जो हम अलसाए
घड़ी ने छ: से आठ बजाए
भूल अंगड़ाई उछल कर जागे
खोए समय को खोजने भागे।
दिनचर्या में मची हड़बड़ी
न चाह कर भी हुई गड़बड़ी।
दो घन्टे की निंदिया प्यारी
पड़ गई सारे दिन पर भारी।।

रत्ना की रसोई से

17 responses to “कि पुरुष बली नहिं होत है…”

  1. ज्ञानदत पाण्डेय
    बहुत चहुचक संस्मरणात्मक पोस्ट है – आपकी खुद की एस्टीमेशन में लम्बे समय तक पढ़े जाने वाली पोस्ट।
    अभी हमारा भी घर में मुंह फुलाऊ फेज कल ही ‘भूल चूक लेनी देनी’ के साथ खतम हुआ है। अब हम भी बनाते हैं इस तरह का कुछ लिखने का।
    बाकी कानपुर का कानपुरै में बने रहने पर बधाई।
  2. balkishan
    कहानी घर घर की- ढकी छुपी रहे वही बढ़िया. क्यों आप लोग बीबी को ब्लॉग पर लाने पर तुले है. कम से कम यंहा तो………….
  3. masijeevi
    हा हा हा
    खूब जमा।
    खासकर
    ‘ दुनिया के जितने भी उत्पाती, अराजक चरित्र वाले नराधम हुये हैं अगर उनके बेहतर आधे( बेटर हाफ़) नौकरी शुदा होते तो वे इतने उत्पात शुदा न होते। उत्पाद-जुदा होते। नौकरी जो न कराये
    येन पानी के गड्डे के ऊपर सैंडिल के पट्टे ने सैंडिल से समर्थन वापस ले लिया। हर एक के अपने-अपने वामपंथ होते हैं भाई
    मेट्रो के अलावा बाकी शहरों में महिलाऒं के साथ में होने के कित्ते फ़ायदे हैं। आदमी टिकट ले सकता है उनके माध्यम से। अब हमारी औकात केवल इसी सुख तक है वर्ना तो लोग मुख्यंमंत्री की कुर्सी तक हासिल कर लेते हैं इसी बहाने।’
    और भी हैं…कहॉं तक गिनाएं। शयद ज्‍यादा अच्‍छा इसलिए भी लगा कि भई अपनी पीड़ा है। एक बात कहें कि बेटर हाफ सुबह की नौकरी में हों तो भी हालत तो खराब ही रहती है वर्स हाफ की पर असल तेल तो निकलता है अगर सजनी शाम की नोकरी में हों…और भी बहुत से दु:ख हैं, क्‍या कहें- मिलेंगे तो गिनांएगे
  4. नितिन
    बहुत खूब!!
  5. Sanjeet Tripathi
    फुरसतिया स्टाइल दा जवाब नईं!!!
    बधाई की कानपुरै मा ही टिके रह गए फिर!!
    @ज्ञान दद्दा, ऐसा कुछ लिखने का बनाएं न बनाएं लेकिन “नायिका” को चाय बनाकर जरुर पिलाएं ;)
  6. प्रियंकर
    का बात है !
    इत्ती करुण रस प्रधान घटना को इत्तो धांसू और मौजिया बखान आपइ के बस की बात हती .
    मॉरल्स ऑफ़ द स्टोरी :
    १. सुबै-सबेरे उठौ तौ बिना कहे रसोई मैं घुस लेव .
    २. आस्था चैनल घरै टीवी पै देखबो ज़रूरी नइयैं . रस्तऊ मैं वाके प्रसारण की सचल व्यवस्था होत है .
    ३. गाड़ी के टैम सै एक घंटा पहले स्टेशन पौंहचौ तौ एक तौ निरी खुड़पैंच सै बचयौ और आस्था चैनल औरउ आराम सै देखबे कौं मिलयै .
    ४. जभउं घर सै नायिका के संगै निकरौ तौ एक जोड़ी एक्स्ट्रा सैंडिल लै कै निकरौ . बुरो बखत कह कै नाईं आत है . या कार्यकुशलता नायिका कै हमेशा याद रहयै .
    ५. बस-गाड़ी को टिकट आराम सै लैबे के लैन एक अदद नायिका को संगौ हुयबो ज़रूरी है .
    ६. ट्रांसफ़र अगर करवाऔ तौ वई दिशा में/वई लाइन पै जा तरफ़ बड़े भइया-जेठ जी नौकरी करत हौंय . गाड़ी में जगा घिरी रहयै .
    ७. रस्ता मैं पुलिस थाना होय तौ काऊ कै या न बताऔ कि ब्लॉगरी मैं लिप्त हौ . और निर्लिप्त भाव सै चुप्पा लौटियाऔ .
    जियौ गुरू और ऐसेइ मौज़ लेत रहौ .
  7. आलोक पुराणिक
    घणी फेमिलीबाजी की पोस्ट है जी
  8. Isht Deo Sankrityaayan
    सबसे पहले तो कानपुर में बने रहने पर आपको बधाई. आगे ये बताइए कि आपका क्या बनाने का इरादा है- भगवान विष्णु या महात्मा बुद्ध. जहाँ तक मेरा ख़याल है आप तो इन दोनों ही कोटियों के प्राणी नहीं हैं. बेहतर होगा कि आप काली या तुलसी दास बनाने की कोशिश करें और चाहें तो इसमें अपने बेहतरार्ध की पूरी मदद भी ले सकते हैं. सीन तो आपने वैसा क्रिएट करी दिया है.
  9. नीरज रोहिल्ला
    भाई वाह, भाई वाह, भाई वाह…
    आज लैब में अधिक काम और मेरी कामचोरी की वजह से थोडा तनाव था । अब सब कुशल है, आपकी चहुचक (Gyandutt et al.) पोस्ट पढकर मजा आ गया ।
    ये पढकर पता चला कि आप चाय बना लेते हैं लेकिन जब हम आपसे मिलने आये तो आपने स्वयं चाय बनाकर नहीं पिलायी । बाकी ब्लागर ध्यान दें कि अनूपजी से मुलाकात होने पर उनसे चाय बनाने का सविनय निवेदन किया जाये ।
    वैसे मस्त फ़ुरसतिया ट्रेडमार्का पोस्ट थी । अब ज्ञानजी के अनुभवों का इन्तजार रहेगा ।
  10. रचना
    आपकी गैर फुरसती सुबह का दृष्य मजेदार रहा.
  11. डा०अमर कुमार
    पहले मैं संशोधन कर दूँ,
    गुरु ज्ञानदत्त जी का चहुचक वास्तव में चँउचक है, राजा बनारस की बोली में ।
    शायद गुरु जी संकोच कर गये हों, इसको ग्राह्य साहित्यिक बनाने के फेर में ।
    लेकिन रजउ चँउचक में जे मज़ा बा उई चहुचक मा नाहीं ना देखात !
    सो, अबला के बल का चित्रण बहुत चँउचक बन पड़ा है !
  12. हिंदी ब्लॉगर
    कानपुर में ही बने रहने पर बधाई! उम्मीद है नई फ़ैक्ट्री में भी आप पहले की तरह ही लोकप्रिय साबित होंगे. शुभकामनाएँ!
  13. सृजन शिल्पी
    वाकई, इतनी गहमागहमी और भागमभाग से भरी सुबह को आपने खास फुरसतिया स्टाइल वाले अंदाज में यादगार बना दिया है।
    तबादले की ऐसी अदला-बदली महज संयोग है या फिर कुछ और? शुक्र है कि कानपुर में बने रहेंगे।
  14. अभय तिवारी
    तमाम कामों के बीच आप की इस मौजिया पोस्ट का आनन्द लेना रह गया.. पर नसीब में बदा था.. पुरानी पोस्टों में से खोज कर निकाल कर पढ़ा गया और भरपूर आनन्द लिया गया..
    सत्य है.. दूसरे के दर्द में पहले का आनन्द है..
    सधन्यवाद!
  15. अजित वडनेरकर
    आनंदित कर गई यह पोस्ट ….
  16. bhuv
    kisi mantri se kaha kar yaa kisi adhikari ko rishwat dekar apani wife ka transfer karwa lete
    yaar. itni musibat toh nahi uthni parti. naye jamaane ke rules hai yeh.
  17. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] कि पुरुष बली नहिं होत है… [...]

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