Saturday, July 19, 2008

ब्लागिंग एक और चिरकुट चिंतन

http://web.archive.org/web/20140419213728/http://hindini.com/fursatiya/archives/480

17 responses to “ब्लागिंग एक और चिरकुट चिंतन”

  1. अरूण
    jamaaye rahiye jI ham padhege .
  2. eswami
    अरे क्या टैलीपैथी हो रही है?
    अपनी लिखी कई सारी पुरानी पोस्ट्स को कल रात बैठ कर हिंदिनी और ई-स्वामी दोनो ही चिट्ठों से मिटा दिया – कुछ श्रेणियों के नाम-वाम बदले – सच कहूं तो अच्छा लगा ये करना!
    बहुत सारे ब्लागर्स स्वीकार करते हैं की वे अपना पुराना माल हटा देते हैं और कई कहते हैं की यह तो वेब-लाग है जो भी है पडा रहे – मुझे मालूम है आप इस दूसरे स्कूल ऑफ़ थॉट के हैं!
    याद है आप शुरु में मेरे लेखन को यूं भी खोमचे वाला कहते थे – तुरंत बना और दो घंटे में पटरी साफ़ – फ़िर भी उम्मीद है कुछ नास्टेल्जियाने के लिये ही सही बचा रहने लायक हो!
  3. प्रमोद सिंह
    पहला ड्राफ्ट है, उस लिहाज से बुरा नहीं. चिरकुट तो कतई नहीं. अलहदा. हां, अलहदा. देबू से भी. ज्ञान तो है ही. शिव का ध्‍यान है तो ज्ञान कैसे नहीं होगा. बिन नाड़े के पैजामे की तरह सरक-सरक जाने की ऊंचाई है. हाथ में उस्‍तरे वाली सफ़ाई तो है ही. भगवान के लिए प्रत्‍यक्षा को घराने में मत ठेलिये, एक बार घराने में धंस जाने के बाद फिर आदमी (औरत भी) ठुमरी, दादरा और ख़याल से बाहर कहां आ पाता है. जैसे मेरे शब्‍द पहाड़ से नीचे. कहां आ पाते हैं?
  4. alok puranik
    जमाये रहिये।
  5. संजय बेंगाणी
    हम तो लिखते रहेंगे…यही चिरकुटाई है….
  6. जीतू
    लगे रहो मियां, ब्लॉगिंग की तीसरी स्थिति को प्राप्त हो रहे हो। इस स्थिति मे ब्लॉगर आत्म चिंतन करता है, अपने लेखन का, अपने व्यवहार का, अपने आस पड़ोस की लेखक बिरादरी का। हालांकि इस आत्मचिंतन से कोई पाजिटिवि/निगेटिव निष्कर्ष नही निकलता (निकले भी तो ब्लॉगर कभी इसकी परवाह नही करता) और ब्लॉगर्स फिर से बेशर्म होकर ब्लॉगिंग करता रहता है। अलबत्ता कुछ नून तेल लकड़ी की परवाह करने वाले ब्लॉगर (थोड़े समय के लिए) किनारा कर लेते है।
    खैर….ये तो एक सामान्य प्रक्रिया है कोई बीमारी नही। अपने समय से ठीक हो ही जाएगा। फिर भी इलाज कराना चाहते हो तो इसका इलाज है, अपना लिखा कम दूसरों का लिखा ज्यादा पढो… कोशिश करो कि नए चिट्ठाकारों को पढो, सुबह शाम पाँच पाँच पोस्ट, लंच ब्रेक मे कविताओं का जोशांदा लेते रहो।
  7. Shiv Kumar Mishra
    बहुत शानदार चिंतन है. बहुत सही.
    ऊंचाई वही अच्छी, जिसपर बार-बार चढ़ते-उतरते रहें. इसीलिए हम भी अपनी पुरानी पोस्ट बीच-बीच में बांचते रहते हैं. हंसी-ठट्ठे वाली टिप्पणियां तो कई तरह से सहारा देती हैं. तो क्यों न किया जाय? मध्यमान को कोई महत्व नहीं दिया जाता.
  8. क
    मस्त ठेला है जी….:)
  9. Dr .Anurag
    पता नही एक तो ये चिरकुट शब्द आज तक पल्ले नही पड़ा ऊपर से मैंने देखा ढेरो लोग ब्लॉग्गिंग किस तरह से करते है ?कुछ लोग समाचार की कतरने लगा देते है ,कुछ गाने चढा देते है ,…फ़िर साथ में हमें भी गरिया देते है सालो तुम्हारा क्या है दो चार शब्द पकड़ कर इधर उधर ठेल दिए ओर उसे कविता का जामा पहनाकर धेकेल दिया ब्लॉग में ……अब सोचिये ज्ञान जी गाड़ी ख़राब हुई ओर वे मोबाइल से फोटो ले रहे है …आस पास से गुजरने वाले क्या सोचते होगे भला ?ये ब्लोगिंग का ही नशा है भाई ?
  10. डा०अ्मर कुमार
    वैसे तो हमें ज़्यादा बोलने की आदत तो है, नहीं ?
    क्योंकि बिना दिमाग लगाये बोलना ठीक नहीं ।
    और दिमाग से बोलो, तो दिमगिये का कबाड़ा होता है..
    लेकिन अनूप सुकुल..आज ?

    नरभसाये नरभसाये से नज़र आते हैं, वितृष्णा हो रही है न,
    मेरा फरवरी का मेल याद करिये, तब आप ही ने कहा था, दिल पर मत लिया करिये..
    वाकई मत लिया करिये…आप भी !
  11. समीर लाल
    कभी कभी सोच कितनी आलोकिक हो जाती है कि खुद को खुद पर विश्वास नहीं होता-यही विचार होगा जब दफ्तर से लौट कर आप अपना यह ड्राफ्ट पढ़ेंगे. :)
    कई बार देर रात पोस्ट चढ़ाकर सोने चले जाते हैं. रात ख्याल आता है कि यार, क्या बकवास लिख डाला. सुबह उठते ही सोचते हैं कि पोस्ट मिटा देते हैं. कम्प्यूटर खोलते ही दिखता है कि ढेरों कमेन्ट आ गये-अब क्या खाक मिटायें..ऐसी न जाने कितनी पोस्ट सजी हैं अपने ब्लॉग पर जिसने धीरे धीरे इन लेखन वर्षों में, अगर इसी को लेखन कहते हैं तब, ढीट बना दिया. :)
    हे हे वाली पोस्टें (गैर फूहड़ हे हे) जहाँ दिन भर की टेंशन से मुक्त कर देती है, वहीं अति संवेदना वाली पोस्टें अपने आप से जोड़ती हैं अतः दोनों का वजन अच्छा रहता है.
    चिन्तन अच्छा किया गया है. अतः इस तरह के ड्राफ्ट ठेलते रहें. शुभकामनाऐं.
  12. anitakumar
    हम तो जी अभी भी खुद को नया ब्लोगर ही मानते हैं जो आप जैसे दिग्गजों से ब्लोगिंग का शऊर सीख रहे हैं, अभी तो दुनिया जहान में ही देखने को इतना है कि खुद को क्या देखें, कभी ज्ञान गंगा में मुंह धोया तो कभी काकेश और पगेंबाज के अंदाज देखे, कभी आप की मौजूं पोस्टों से ख्ट्टी मीठी गोली के चटकारे लिए तो कभी अजीत जी की क्लास में जा कर बैठे, थक कर अपने घर वापस आ कर डब्बे खंगालने का तो वक्र्त ही नहीं मिला। जब आप जैसे सीनीयर हो जायेगे तब शायद सोचें खुद का लिखा पढ़ने को, तब ही बता पायेगें कैसा लगता है।
    तब तक आप चिंतन करते रहिए जी, बाद में शायद हम कह लेगें येईच तो हमें भी लग रहा था। था।
  13. Gyan Dutt Pandey
    वाह! हम तो चिरकुटालीन हो गये!
    चिरकुटस्य का भाषा? किम प्रभाषेत? किम व्रजेत?
    प्रश्नों के उत्तर हेतु फुरसतिया शरणम गच्छ!
  14. abha
    अच्छा गिटार भी शौक में शामिल है , मै इलना ही जानती हूँ फुरसतिया सहजता से सब सबकुछ कह जाते है और व्यहारिक कौन कोई पुछे तो झट से बता दूँ अनूप शुक्ल ….मेरा मानना है जो बात याद रह जाय़ उसमें दम है ,आप की पोस्ट मुझे याद रहती है ……
  15. G Vishwanath
    सचिन जब भी बैटिंग करने निकलता, क्या शतक पूरा करता है?
    कभी कभी तो शून्य का स्कोर होता है उसका।
    इससे हमें कोई फ़र्क नहीं पढ़ता।
    हम तो उसका प्रदर्शन देखने के लिए हमेंशा तैयार हो जाते हैं।
    महान खिलाडी जो हैं।
    आप बस लिखते रहिए।
    हिन्दी ब्लोग जगत में एक से एक बहतर लिखने वालों से मेरा परिचय हो रहा है आजकल। उनमें आप भी शामिल हैं। खेद है कि आपसे मेरा परिचय देर से हुआ।
    आपका लिखने का अंदाज़ अलग है। देख रहा हूँ कि हरएक का अन्दाज़ अलग है।
    हिन्दी ब्लॉग जगत से परिचय करके, पिछले कुछ महीनों में जितनी हिन्दी सीखी है मैंने, उतनी पिछले २५ वर्षों में नहीं सीखी।
    टिप्पणी चाहे करूँ या न करूँ, पढ़ने के लिए हम हमेंशा हाज़िर हैं।
    जमाए रहिए।
    गोपालकृष्ण विश्वनाथ
  16. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
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