Monday, August 31, 2009

परेशान होने का मौसम

http://web.archive.org/web/20140419213618/http://hindini.com/fursatiya/archives/675
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33 responses to “परेशान होने का मौसम”

  1. दिनेशराय द्विवेदी
    कविता बहुत ही सुंदर है। पहले डिलीवरी होम मे होती थी अब अस्पताल के लेबर रूम में होती है। बाकी सब होम डिलीवरी होती हैं।
  2. कुश
    पर आप ये सब लिखकर क्यों दुसरो को परेशान कर रहे है.. अमा छोडिये.. छोडिये ना…
    वैसे फोटो आज भी अच्छी लगायी है.. बिलकुल पोस्ट के सन्दर्भ से मेल खाती हुई
  3. संजय बेंगाणी
    परेशानी क्या है? यही समझ में ना आया….और इत्ता लम्बा भी लिख दिया. गजब परेशानी है जी… :)
  4. puja
    काहे परेशान कर रहे हैं फुरसतिया जी, ऐसी ऐसी पोस्ट लिख कर…क्या बिगाड़े हैं हम लोग आपका…अब देखिएगा ब्लॉग्गिंग को परेशानी वाला बुखार चढ़ जाएगा. हर आदमी अपनी परेशानी का राग गाने लगेगा…हम अभी से कहे देते हैं ईई भाइरस (virus ) आपही का फैलाया हुआ होगा. :प :) :)
  5. अशोक पांडे
    … क्या कीजिये हमें तो है मुश्किल सभी तरह!
    लिपिस्टिक -सीसा ले के फ़ोटू खिंचाने वाली देवी कित्ता परेसानी में हैं साफ़ दिखाई दे रहा है.
    उम्दा!
  6. रविकांत पाण्डेय
    बड़े-बुजुर्ग से सुना है-
    राजा दुखिया परजा दुखिया तपसी के दुख दूना
    कहे कबीरा सब जग दुखिया एको घर ना सूना
  7. ज्ञानदत्त पाण्डेय
    यह मेहरारू परेशान करने के लिये है या परेशान है, किलियर न होने से परेशानी हो रही है।
    बाकी यह परेशानी भी है कि इस जबरदस्त पोस्ट को टिपेरों नें कस कर नहीं टिपियाया तो क्या होगा?
    और यह भी परेशानी है कि समीरलाल की पोस्ट से ज्यादा टिपेर दिया लोगों ने तो समीरलाल क्या करेंगे!
    परेशानी अनन्त, तस कथा अनन्ता! :-)
  8. kanchan
    फिर वही अंदाज़..जो मुझे हरिशंकर परसाई की याद दिलाता है….!
    व्यंग्य का ये अंदाज़ निराला लगता है मुझे।
    और पसंद आपकी है या हमारी ये हम हर बार नही समझ पाते…!
  9. kanchan
    हाँ एक शिकायत है बड़े दिन से आज कह ही दें..ये हमारा कमेंट जो इस दाँत चियारे दइत्य के साथ आता है तो, हमें अच्छा नही लगता, हमारी असली फ़ोटू बिना हमारी इजाजत के काहें लगा दिया है भाई…!
  10. झालकवि 'बैरागी'
    हम यह सोचते हुए परेशान हैं कि परेशानियत वाली इस पोस्ट पर आपको परेशान करने वाला कमेन्ट लिखें कि न लिखें. खैर, आपको परेशान करने के लिए लिख देते हैं कि पोस्ट बहुत धाँसू है. आप अगर थोडा और परेशान होते तो परेशानियत के तमाम और पहलुओं के छूट जाने की परेशानी हमें तो न होती. थोड़ा और परेशान होइए और हमारी परेशानी दूर कीजिये. मतलब परेशानी के और पहलू पर……
    (वाक्य पूरा इसलिए नहीं किया क्योंकि हम चाहते थे कि आप यह सोचते हुए परेशान हों कि आगे क्या लिखता ये?)…:-)
  11. विवेक सिंह
    परेशान होने में भी तो शान है,
    फिर क्यों न परेशान हों ?
    अब देखिए न,
    आप परेशानी से परेशान हैं,
    हम यही सोचकर परेशान हैं कि कन्हैयालाल ‘नंदन’ और कन्हैयालाल बाजपेयी एक ही हैं या अलग-अलग !
  12. Abhishek Ojha
    अजी ये तो सदाबहार मौसम है. और हम पढ़ते-पढ़ते थोडी परेशानी कम कर रहे थे कि आप बंद हो गए ये कह के कि हम परेशान हो जायेंगे. अजी बड़ी परेशानी है :)
  13. ताऊ रामपुरिया
    बहुते उम्दा परेशानी है पर आज लिस्ट छोटी है थोडा और बढाया जाये. :)
    रामराम.
  14. अर्कजेश
    परेशानी पर पोस्ट और परेशानी पोस्ट पर टिप्पणी |
    “आजकल परेशान होने का मौसम है | ” यह तो एक सदाबहार मौसम है | बारहमासी अमरूद के पेड़ की तरह | फलता भी रहता है झाडता भी रहता है |
    जब परेशानी नहीं होती तो इस बात का डर की कोई परेशानी न आ जाय |
    लोग परेशानी मुक्त महसूस करने से डरते हैं क्योंकि इससे परेशानी आ जाने का भय रहता है | परेशान रहकर परेशानी के लिए मानसिक पूर्वाभ्यास करते रहते हैं |
    परेशान हों या न हो लेकिन यह दिखाना जरूरी है की हम परेशान हैं | लोग खर्चे और परेशानी बढाकर दिखाते हैं और आमदनी छिपाकर बताते हैं | सामने वाले के लिए सबसे ज्यादा परेशानी की बात तब होती है जब आप उसकी परेशानी कम करके आंकते हैं | मैंने यदि आपको बताया की मुझे जुकाम है और आपको हार्दिक दुःख नहीं हुआ (प्रर्दशित नहीं किया) तो आप मुझे निहायत गैर जिम्मेदार और असंवेदनशील नजर आयेंगे | कैसे हैं ? का जवाब कभी पूरे मन से नहीं आता |
    इससे हमारे सामाजिक महत्व और बौद्धिकता का पता चलता है | जो परेशान नहीं हैं वो या तो निठल्ले परजीवी हैं या मूर्ख | जिन्हें परेशान होने तक की समझ नहीं है |
    इस तरह कहा जा सकता है कि सभ्यता का मतलब परेशान होने की काबिलियत विकसित होना है |
    प्रोफेसर हैकल के अनुसार “आप यह बता दीजिये की आप किस बात पर परेशान होते हैं, और मैं बता सकता हूँ कि आप क्या हैं |”
    कृपया प्रोफेसर हैकल की खोज न की जाय |
    “जले हुये इन हाथों से
    हमसे अब हवन नहीं होते।”
    असली हाल ये है कि हाथ जलाकर भी हवन करने पर उतारू रहते हैं |
  15. समीर लाल
    इतनी परेशानी में भी जाने कैसे आप इतनी सुन्दर कविता खोज कर ले आते हैं, इसी बात को सोच सोच परेशान हूँ. अब ऐसे में टिप्पणी क्या करुँ, यह परेशानी आन पड़ी है.
  16. neeraj1950
    हम अभी तक बहुत परेशान चल रहे थे…लेकिन जब से आपकी पोस्ट पढ़ी है…परेशानी चली गई…क्या पोस्ट है…परेशानी मिटाऊ पोस्ट…ये करिश्मा आपके ही बस की बात है…
    नीरज
  17. आभा
    बिना परेशानी के गुजर नहीं। आज के समय में अगर कोई परेशान नहीं है तो समझ लो कछु गड़बड़ है। सहमत हूँ आपसे
  18. घोस्ट बस्टर
    ये क्या लिख दिये आप भी? हम परेशान हैं कोई तो टिप्पणी दिखे जिसमे ‘परेशान’ शब्द ना हो. ऐ लो! हम भी लिख गये.
  19. डाक्टर अमर

    जब आप लिखे हैं, त सहीए लीखे होंगे ।
    अभी त चरचा का लिंक चर के आ रहे हैं, पोस्ट बाद में पढ़ेंगे
    तबहिये डाक्टर अमर छाप असली टिप्पणी देंगे ।
  20. shashi singhal
    अरे भइया ये का कहत हैं , हम तो परेशान पोस्ट और पोस्ट की परेशानी पढ़ते – पढ़्ते परेसान हुई गवे , समझ ही नहीं सकत है> कि इहां परेसान कौनू है और बाकी परेसानी कैसे हम दूर करिबे हैं । सच्ची – मुच्ची हम यही सोच कै परेसान हुई जाई रहे हैं ।
    आत्मा परेशान कितनी भी रही हो ,मगर कविता की रचना बहुत सुंदर है ।
  21. shashi singhal
    ए भैया ई हमार पोसत पे खींसे निपोरते राक्षस की पोटू काहे चस्पा कर दीन्ही है ? हमें ये अच्छी नाही लागत है ।
  22. venus kesari
    हम ब्लोगिंग के समय परेशान नहीं होते मगर ये देख कर परेशान हो गए की आपकी पोस्ट बहुत छोटी है, इसको विस्तार देने में आपको क्या परेशानी थी अगर बताने में परेशानी न हो तो बताने का कष्ट करैं
    (स्माइली नहीं लगा रहे लगा देंगे तो टिप्पडी पर “मौज” का लेबल लग जायेगा)
    “”"तमाम लोग यह भी करते हैं कि परेशान होने के लिये खूब सारा काम इकट्ठा कर लेते हैं तब आराम से परेशान होते रहते हैं। इसके उलट ऐसे लोग भी हैं जिनके पास काम नहीं होता तो परेशान हो जाते हैं। ऐसे लोग भी अपने लिये परेशानी जुगाड़ने के लिये फ़टाफ़ट काम खतम कर लेते हैं फ़िर झटपट काम की कमी का रोना रोते हुये परेशान होते हैं आराम से।”"”
    ये दोनों कटेगरी हम पर फिट बैठती है :)
    वीनस केसरी
  23. लावण्या
    अब कहाँ जाएँ हम …ये बता अय ज़मीं ..
    परेशानी पर इत्ता उम्दा आप ही लिखते हैं .
    - लावण्या
  24. Manoshi
    फ़ुरसतिया की एक और फ़ुर्सत की पोस्ट :-) आपकी पसंद हमेशा लाजवाब रही है।
  25. Dr.Arvind Mishra
    बहुत परेशान हो गए न यह लिखते लिखते ! हमतो इसलिए परेशान हैं की कईसे परेशान दिखें ! थोडा तो जिम्मेदार दिखे -लोग बाग़ बहुत हलके में ले ले रहे हैं !
  26. shefali pande
    वाह क्या परेशानी है … एकदम शान के साथ …
  27. रंजना
    आपकी परेशानात्मक पोस्ट और उसपर वाजपेयी जी की कविता…..वाह !! सोने पर सुहागा…
  28. Khushdeep Sehgal
    हर कोई परेशान, फिर भी मेरा भारत महान
  29. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
    बिलकुल सही फ़रमाया आपने…!
    परेशानी की परेशानी यह है कि यह हो तो परेशानी और न हो तो परेशानी… हम तो यह सोच कर परेशान हो गये कि आप बिना परेशानी के यह परेशानी का पुराण लिख गये।
  30. K M Mishra
    परेशान kar ke dhar diya apne . bahut परेशान ho liye, hum bhi aur system bhi so jate hein bistar par let kar परेशान hone, Rat kafi padi hai परेशान hone ke liye.
  31. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] परेशान होने का मौसम [...]
  32. बरसात की सुबह और नाके पर बादल
    [...] ली उसकी बात। सोचा कन्हैयालाल बाजपेयी गलत नहीं कहते थे: संबध सभी ने तोड़ लिये, चिंता ने कभी [...]
  33. अनूप शुक्ल
    आजकल परेशान होने का मौसम है। आदमी को और कुछ आये चाहे न आये परेशान होना आना चाहिये। बिना परेशानी के गुजर नहीं। आज के समय में अगर कोई परेशान नहीं है तो समझ लो कछु गड़बड़ है।
    पहले के जमाने में लोग लोग लुगाइयों से और वाइस वर्सा परेशान होकर जिन्दगी निकाल लेते थे। लेकिन आज इत्ते भर से काम नहीं चल सकता। बहुत परेशान होना पड़ता है। लोग अपने आस पास से , दुनिया जहान से परेशान होते हैं तब कहीं काम चल पाता है।
    परेशान होने के लिये बहुत परेशान नहीं होना पड़ता। आपकी इच्छा शक्ति हो घर बैठे परेशान हो सकते हैं। आजकल तो हर चीज की होम डिलीवरी का चलन है तो परेशानी का काहे नहीं होगा। बैठे-बिठाये हो सकते हैं। तरह-तरह के पैकेज हैं परेशानी के।

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Wednesday, August 26, 2009

क्या देह ही है सब कुछ?

http://web.archive.org/web/20140331070252/http://hindini.com/fursatiya/archives/674
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39 responses to “क्या देह ही है सब कुछ?”

  1. हक्का व्लागर वेबलाग वाले

    निःसँदेह अनुगूँज जैसा विषय के प्रति गम्भीर और ईमानदार प्रयास दुबारा न हुआ ।
    यह लेख पहले भी पढ़ा था, और जहाँ तक याद आता है इस नोंक झोंक का साक्षी भी रहा ।
    तब हिन्दी ब्लागिंग से परिचय हुआ ही था । हिन्दी टूल का समुचित ज्ञान न था, सो कम्प्यूटर से चिपका इन्हीं सबको पढ़ा करता ।

    पर, यह तो अमानत में ख़यानत है, गुरु । एक बार आप ठेल दिहौ, अब यह सब छोड़ो हमारे लिये । इसको उचित अवसर पर प्रस्तुत करने के लिये सँजो रखा था.. पर आप हो कि ?
    कभी किसी भूली बिसरी पोस्ट का लिंक याद आ जाये तो मेल करके सुझा भी दिया करो, वेबलाग पर सहेज लेंगे । श्रेय तो देंगे ही, चाहोगे तो ताऊ से पूछ कर वही वाली फोटउआ भी साट देंगे ।
    मुला मौज़िया अँदाज़ में एक ज़ुदा किसिम की दर्शन खूब छँटी भयी है, इहाँ ।

    अमानत में खयानत के लिये माफ़ करें डा.साहब! इस लेख की कड़ियां इस लेख से कम महत्वपूर्ण नहीं है। इनसे यह पता चलता है कि शुरुआती प्रयास कैसे थे। शुरुआती दौर की नोकझोंक का स्वरूप कैसा था। फ़ोटुआ आप किस से भी सटाओ , हमारी फ़ोटॊ आजतक कब्भी अच्छी नहीं आयी। सब नेचुरल आयी हैं! :)
  2. venus kesari
    jai ho, jai ho
    venus kesari
    शुक्रिया हो, धन्यवाद हो!
  3. venus kesari
    पोस्ट पढना शुरू किये १.१२ बजे
    पूरा पढ़े
    फिर से अच्छे बच्चे की तरह मन लगा कर पढ़े और कमेन्ट किये रात १.३० बजे :)
    अब सोने जाते है और उसके पहिले पढेंगे परसाई जी की पुस्तक “कहत कबीर”
    शुभ रात्रि
    अच्छे बच्चे वीनस, शुभ प्रभात! तीन घूंट चाय पीकर सुबह छह बजकर चालीस मिनट पर मुस्कराते हुये यह प्रतिटिप्पणी ठेल रहे हैं। मौज लेने में शायर भी कौनौ कम नहीं हैं। सब कुछ बहर में है। :)
  4. ताऊ रामपुरिया
    फिलहाल तो जिस देह का हल्ला है चारो तरफ वह कुछ नहीं है सिर्फ पैकिंग है। ज्यादा जरूरी है सामान। जब पैकिंग अपने अंदर सबसे ऊपर रखे सामान (दिमाग)पर हावी होती है तो समझिये कि सामान में कुछ गड़बड़ है।
    वाकई समापन की दो लाईनो मे आपने फ़ुरसतिया पोस्ट का शानदार समापन किया है. हमको तो अभी बाहर जाना है सो रात दो बजे ऊठे थे. जाते जाते सोचा पोस्ट देख ले तो आपकी यह पोस्ट फ़ीड मे आई हुई है. कित्ते बजे ठेली गई?:)अभी रात्रि के २:४५ AM हो रहे हैं.
    ताऊजी , आपकी यात्रा टनाटन शुभ हो। पोस्ट ठेली गयी सुबह बारह बजकर सम मिनट पर। बाहर से आकर दुबारा पढ़ियेगा फ़िर से! :)
  5. Dr.Arvind Mishra
    मन इन दिनों कुछ चंचल सा हो उठा है और बार बार अतीत रमण से वर्तमान को कोई गुप्त गुम्फित सदेश देता लग रहा है -सच तो आप ही जाने ! देह और मन का गुत्थमगुत्था (अमीर खुसरों) उस संस्कृति वाले अपने बेजोड़ लेख में आपने दर्शित कर ही दिया था -तभी से आपको फालो करता रहा हूँ !

    अरे डा.साहब,मन तो मौजमस्ती का बादशाह है। इधर-उधर डोलता रहता है। आप हमको फ़ालॊ कर रहे हैं! हाऊ स्वीट च क्यूट! वैसे आपको सच बतायें कि शुरुआती दौर में अनुगूंज के लेख लिखने में हम बाकायदा होमवर्क करते थे। संस्कृति वाले लेख को लिखने के लिये खूब पढ़ाई भी की थी
    ! :)
  6. समीर लाल ’उड़न तश्तरी’ वाले
    आज पोस्ट फिर से पढ़कर मैं भी कई बार अपनी देह को घूर निहार चुका हूं-दर्पण में। बेदर्दी आईना हर बार बोला निष्ठुरता से-नहीं,कुछ नहीं है(तुम्हारी) देहें।
    ससुरा, कैसन कमेडियन है, जर्रा भी झूठ नहीं कह रहा इस मामले में…
    मस्त पोस्ट!!
    भैये, आपके यहां आइने कुछ ज्यादा ही गड़बड़ दीखते हैं। ससुरे आपके जैसी क्यूट-दर्शना देह को बोलते हैं कुछ नहीं है देह! हाऊ बैड रादर हाऊ सैड! देखो कहीं बहर में तो नहीं देख रहा आईना आपकी देह को। देखो वर्ना उन सहेलियों के दिल पर क्या बीतेगी जो डा.अरविन्द मिश्र से आपकी क्यूटनेस की कसमें खाते पकड़ी गयीं थी। मामले को गम्भीरता से लीजिये भाई! :)
  7. सतीश पंचम
    क्या देह ही सब कुछ है ?
    आपके इस प्रश्न से उन गानों की वाट लग जाएगी जो देह पर रचित हैं –
    I wan to show my body…..हल्ला रे हल्ला रे…..हल्ला…..Omm…..I wan to show my body…… :)

    सतीशजी, ऐसे गानों की कभी वाट नहीं लगती। और क्या फ़ायदा वाट लगाने स। मेगावाट तो हमारा मन है।
    :)
  8. कुश
    आपने ऊपर फोटो अच्छी लगायी है.. बिलकुल आपके लेख के विषय के अनुरूप..
    अनुगूंज जैसे प्रयोग अब क्यों नहीं हो रहे?? किस चीज़ की कमी है??
    कुश: अनुगूंज जैसे आयोजन बस इसीलिये नहीं होते कि सबकी अपनी प्राथमिकतायें हैं। लेकिन हो सकते हैं फ़िर से। होंगे भी।
    वैसे हमें पता है! फ़ोटॊ और लेख की अनुरूपता की बात कहकर बहाने से मौज ले रहे हो। इतने अनजान हम भी नहीं हैं। :)
  9. उन्मुक्त
    अनुगूंज का आयोजन हिन्दी चिट्टाकारी में सहभागिता बढ़ाने का अच्छा तरीका था। इसे फिर से शुरू करना चाहिये।
    उन्मुक्तजी: इस मसले पर कई बार विचार हुआ। अभी फ़िर करते हैं। देबाशीष से और लोगों से चर्चा करके। पहले यह अक्षरग्राम पर होता था। वह अभी बन्द है। उसका हिसाब-किताब तय हो जाये तब फ़िर शुरू किया जाये इसे दोबारा। आपको भी शामिल करते हैं इसमें। :)
  10. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
    हम तो भकुआ कर देखते रहे आपकी लिंक्स को…। पढ़ना भूल गये थे\ वो तो श्रीमती जी पकड़ लीं मुझे स्कर्ट वाली लिंक पर नजर जमाते हुए। ऑफिस का समय होने को आया तो जल्दी-जल्दी पढ़कर कमेण्टिया रहा हूँ।
    आप जनमै से मौज ले रहे लगते हैं। शुरुआत में भी गजब धारदार लिखते थे। वाह! क्या कहने…!
    अरे आफ़िस में बैठके आराम से टिपियाइये न! मना तो नहीं है न! वैसे आप जीतेन्द्र के लिये बताई लिंक ही सबसे पहिले काहे देखे? वर्जित आइटम देखने में ज्यादा मौज आता है। श्रीमतीजी पकड़ लीं इसके बाद क्या हुआ ई कौन बतायेगा। :)
  11. जीतू
    सही है गुरु, लेख पढकर पुराने दिनो की याद हो आयी।
    फोटो भी सही ढूंढ कर लाए हो, बुढापे मे बस यही सब करना बाकी था (मेरा नही, तुम्हरे बुढापे की बात कर रहा हूँ, अभी तो हम माशा-अल्लाह जवान है।)
    मेरे विचार से अनुगूँज का आयोजन फिर से किया जाना चाहिए, चलो फिर से शुरु किया जाए, इसी बहाने कुछ लिखना पढना हो जाया करेगा। फिर जब तगादा करने वाला फुरसतिया हो तो कौन ना लिखबे?
    सही है भैये! सब याद आ गया हौले-हौले। वैसे तुम अपने जवान होने की बात क्यों करने लगे? ई सब तो बुजुर्ग लोगों का चोचला है। वही कहते हैं- अभी तो मैं जवान हूं! :)
    अनुगूंज फ़िर से शुरू करना अच्छा विचार है। देखो! कब, कहां शुरू हो पाता है। :)

  12. वन्दना अवस्थी दुबे
    ” सम्पूर्णता में उसका सौंदर्य उपेक्षित हो गया। यह विखंडन कारी दर्शन आदमी को आइटम बना देता है”
    क्या बात कही है सच्ची! मज़ा आ गया पूरा आलेख पढ के.जाते-जाते तो कमाल ही कर दिया. काश युवा-वर्ग इस समझाइश पर अमल कर सकता! कुछ करते भी होंगे, लेकिन केवल वही जो देह से इतर सोचते हैं. बधाई और धन्यवाद दोनों ही.

    वन्दनाजी: शुक्रिया! आपकी प्रतिक्रिया पढ़कर बहुत अच्छा लगा। सच्ची-मुच्ची।
    :)
  13. विवेक सिंह
    कुश जी की टिप्पणी के उत्तर के सन्दर्भ में : तो फिर आप कितने अनजान हैं जी ?( यह पॉजीटिव क्वेश्चन है)
    विवेक: अब इत्ते भी अनजान नहीं हम कि आपको यह बता दें कि कितने अनजान हैं हम! हम सब बूझते हैं कि आप बीड़ी ब्रेक के बाद मौज लेने के मूड में आ गये हैं! :)
  14. Saagar
    पहले कहते थे देह पानी के बुलबुले की तरह क्षणभंगुर है… लेकिन आज यह सच है… यह देह की महिमा ही है जो मल्लिका कुछ न होते हुए भी विदेशी पत्रिका में छप रही है और फ्रीदा भी… बहरहाल स्कर्ट प्रकरण रोचक है… निगार खान से लेकर अब तक या फिर कैरोल तक … खुदा जाने सच्चाई क्या है… लेकिन विदेसी लड़कियां हतप्रभ नहीं होती होंगी… उन्हें आदत है वो तो … यकीं ना हो तो कल का दिल्ली संस्करण का मेल टुडे देख लें…
    सागर भाई आपकी बात का पक्का यकीं है मुझको! अभी ये लाइने पढ़ीं आपकी तो लगा कि आप सच ही कह रहे है
    जिस्म गोया एक खूंटा है
    और मैं,
    इससे बंधा गाय

  15. alpana
    साफ आईनों में चेहरे भी नजर आते हैं साफ,
    धुंधला चेहरा हो तो धुंधला आईना भी चाहिये.
    बहुत खूब शेर कहा है!
    ———————-
    ‘बोल है कि वेद की ऋचायें
    सांसों में सूरज उग आयें
    आखों में ऋतुपति के छंद तैरने लगे
    मन सारा नील गगन हो गया.’
    -अद्भुत !!!
    ———————-
    -पहले सार्थक बहस हुआ करती थीं जानकार अच्छा लगा…मगर तब से अब के सफर में-ऐसा क्या हुआ Ki blogging mein निरर्थक बहसें..विवाद से ऊपर कुछ दिखता नहीं?
    अल्पनाजी, ये वाला शेर हमारे एक स्टाफ़ थे शाहजहांपुर में वासिफ़ मियां उन्होंने लिखा था और हमारे कहने पर अक्सर सुनाते भी थे!
    बहसें अब होती ही कहां हैं! बहसें अब भी होती हैं लेकिन लोग आमतौर पर एक के नहले पर अपना दहला मारने में ज्यादा रुचि लेते हैं। ब्लागिंग के शुरुआती दौर में ब्लागिंग को रुचिकर बनाने और लोगों की लिखने में आदत डालने के लिये तमाम काम हुये । अनुगूंज भी उनमें से एक था।

  16. अर्कजेश
    लेख जानदार है | यह कहना महज औपचारकता नहीं है |
    यह रि-पीट है | मतलब अभी तक आपके विचार वही हैं, जो उस समय थे |
    सबसे अच्छी लाइन जो लगीं – “मेरी तो कामना है कि युवाओं में खूब आकर्षण बढे शरीर के प्रति। पर यह आकर्षण लुच्चई में न बदले। यह आकर्षण युवाओं में सपने देखने और उन्हें हकीकत में बदलने का जज्बा पैदा करे। साथी के प्रति आकर्षण उनमें इतनी हिम्मत पैदा कर सके कि उनके साथ जुङने ,शादी करने की बात करने पर ,स्थितियां विपरीत होने पर उनमें श्रवण कुमार की आत्मा न हावी हो जाये और दहेज के लिये वो मां-बाप के बताये खूंटे से बंधने के लिये न तैयार हो जायें।”
    लेकिन देह को लेकर इतनी मगजमारी क्यों होती है | जो सबसे ज्यादा वास्तविक है |
    रही बाजार की बात तो जिस चीज की डिमांड होगी | उसे पेश ही किया जाएगा, नए-नए रूपों में |
    हमारे ऋषि-मुनियों की कल्पनाओं के आगे दुनिया पराजित है |
    वजह : क्षतिपूर्ती, जो नहीं कर सके उसकी कल्पनाएँ कर लीं | मन मजा लेने के लिए |
    वरना व्यावहारिक रूप से वह सब नहीं किया जा सकता |
    आपकी पोस्टें टिपण्णी उकसाऊ होती हैं |
    इस बार आपने अलग-अलग प्रति उत्तर भी दिया है |
    सावधान टिप्पकों !

    अर्कजेशजी: शुक्रिया लेकिन! सावधान विश्राम करके ब्लागर भाइयों को डरवायें नहीं। सब लोग सोचेंगे यहां संघ की शाखा खुल गयी। :)

  17. अर्कजेश
    बिलकुल चुनी हुई कविताएँ पढ़ने को मिलती हैं, हर बार |
    शुक्रिया |
    अर्कजेशजी: शुक्रिया का प्रतिशुक्रिया। वैसे अच्छी कवितायें मेरी पसंद के रूप में देने पर यह अक्सर होता है कि साथी लोग ,आपकी पसंद अच्छी है, कह कर निकल लेते हैं। :)
  18. dr anurag
    लगता है एक उम्र के बाद ब्लोगिंग फिर सिकुड़ गयी..बिंदास होने से हिचकती रही है ..कम से कम पिछले दो सालो से तो हमने गिने चुने चार पांच लेख ही देखे है ….
    शानदार लेख .फोटो की जरूर कुश खामखाँ तारीफ़ कर रहे है…
    डा.अनुराग: ब्लागिंग सिकुड़ी तो नहीं! कुछ ज्यादा फ़ैली है सो अच्छे लेख के मुकाबले कम अच्छे लेख ज्यादा दिखते हैं। काफ़ी सारे अच्छे लेख भी लिखे गये हैं! हमको एकदम अभी आपकी छह फ़ुटी रोशनी की मीनार याद आ रही है! ससुरा एक डायलाग अपने में एक मुकम्मल पोस्ट है! :)
  19. दरभंगिया
    देह अस्तित्व है,
    देह साधन है,
    देह साध्य है,
    देह रम्य है,
    देह भव्य है,
    देह आदि है,
    देह ही अंत है.
    हदे-देह से बाहर क्यों निकले कोई?
    एक देह से आना है,
    एक देह पाना है,
    एक देह बनाना है,
    एक देह संग जीना है,
    एक देह बिना मर जाना है.
    PS: एक प्ल्ग-इन आती है Indic Ime. वैसा ही कुछ इन्स्टाल कर दें तो सुविधा होगी.

    दरभंगिया: Indic Ime से देह का सब हिसाब-किताब मिल जायेगा?
    :)
  20. Lovely
    सुन्दर पोस्ट ..सार्थक फोटो :-)
    लवली: शुक्रिया, धन्यवाद! :)
  21. ज्ञानदत्त पाण्डेय
    जब पैकिंग अपने अंदर सबसे ऊपर रखे सामान (दिमाग)पर हावी होती है तो समझिये कि सामान में कुछ गड़बड़ है।
    ———————
    क्या बतायें, जब सामान स्तर का बन तैयार होता है, तब तक पैकिंग लत्ता हो चुकी होती है! :-)
    ज्ञानजी: लगता है इससे ही कुछ तुक-फ़ुक मिलाकर कहावत बनी होगी- तन पर नहीं लत्ता, पान खायें अलबत्ता :)
  22. दरभंगिया
    हा हा हा हा..मौज लेना तो कोई आपसे सीखे.
    लीजिये, यह रहा शुद्धिकरणः :)
    PS: एक प्ल्ग-इन आती है Indic Ime, वैसा ही कुछ इन्स्टाल कर दें तो टिप्पणीकारों को हिन्दी टंकण में सुविधा होगी.
    भाई दरभंगियाजी: बड़ा इस्टाइल वाला शुद्धिकरण है। मजाक का तो ऐसा है कि आप तो शरीफ़ लगते हैं लेकिन हमारे जो साथी लोग हैं उनसे तो मजाक न करो तो बुरा मान जाते हैं। कहते हैं हमको ई मजाक पसंद नहीं! :) बकिया ई प्लग-इन हमारे विश्वकर्माजी ई-स्वामीजी देखेंगे। :)
  23. रविकांत पाण्डेय
    दुनिया के सबसे खतरनाक हथियार(नजरों के तीर) का जिक्र आपने कर ही दिया तो हम भी “रसलीन” का दोहा सुना देते हैं-
    अमिय हलाहल मद भरे श्वेत श्याम रतनार
    जिअत मरत झुकि-झुकि परत जेहि चितवत एक बार
  24. विजय गौड
    हिंदी ब्लागिंग के आरम्भिक दिनों को पढना सुखद अनुभव है।
  25. प्रवीण शाह
    आदरणीय फुरसतिया जी,
    मानें या न मानें है देह ही सब कुछ….
    कारण जुड़े हैं होमो सेपियन्स (आधुनिक मानव) के विकास क्रम की HUNTER-GATHERER स्टेज
    से… तब स्त्रियां वरीयता देती थी सुगठित,लम्बे तगड़े,बलवान पुरुष को… साथी बनाने के लिये..
    ताकि उसे रोज शिकार मिल सके तथा जो इकठ्ठा किया है वो सुरक्षित रहे।
    इसी तरह रोज तो शिकार मिलता नहीं था… फाके होते थे कई कई दिनों तक…ऐसे में स्तन पान
    करते शिशु उन्हीं माताओं के बच पाते थे जिनके शरीर में ‘फैट स्टोर’ ज्यादा होता था, यह फैट
    जमा होता था जांघों, नितंबों तथा सीने पर…स्वाभाविक रूप से पुरुष ऐसी ही स्त्रियों को पसंद करते
    थे।
    आदिम काल की वही स्मृतियां अभी भी जगी हुई हैं हमारे दिमागों में… उन्हीं के आधार पर आज
    के सुन्दरता के पैमाने बने हैं…इसी लिये देह ही है सब कुछ …न शरमाइये, न सकुचाइये और न
    ज्यादा सोच विचार कीजिये… देख डालिये जो कुछ भी दिखाता है बाजार।
    एक बात और जोड़ूगा कि ऐसा नहीं कि केवल पुरुष ही करते हैं देह दर्शन… सलमान हर फिल्म में
    कमीज किसके लिये उतारता है ?
  26. shashi singhal
    फुरसतियाजी आपके द्वारा उठाए गए सवाल में काफी दम ही नही आज के वातावरण की जीती जागती तस्वीर का आईना है । आज के परिप्रेक्षय मे शायद देह ही सब्कुछ है।
    अपने लेख के आखिर में ”फिलहाल तो जिस देह का हल्ला है चारो तरफ वह कुछ नहीं है सिर्फ पैकिंग है। ज्यादा जरूरी है सामान। जब पैकिंग अपने अंदर सबसे ऊपर रखे सामान (दिमाग)पर हावी होती है तो समझिये कि सामान में कुछ गड़बड़ है।” कही गई ये लाइने आपने जितनी सरलता से लिखी हैं वास्तव में इसका अर्थ उतना सहज और सरल नही है ।
    अनूगूंज पर फिर से बहस होनी चाहिए ।
  27. Ranjana
    तो इससे साबित होता है कि कुछ नही है देह सिवा माध्यम के। सामान बेचने का माध्यम। उपभोक्तावाद का हथियार। उसकी अहमियत तभी तक है जब तक वह बिक्री में सक्षम है। जहां वह चुकी -वहां फिकी।
    इसे व्यंग्य आलेख कहने का तो बिलकुल ही मन नहीं कर रहा अनूप भाई…..यह तो नितांत ही गंभीर आलेख है…यथार्थ की तहें परत दर परत खोलती हुई…
    इस लाजवाब लेख को हमसे बांटने के लिए आपका बहुत बहुत आभार..
  28. Ghost Buster
    दो दिन से आ-आकर घूम-फ़िर कर लौट जाते हैं. कुछ सूझ नहीं रहा क्या कहें. लेख और टिप्पणियाँ, दोनों ही शानदार और मजेदार हैं.
  29. गौतम राजरिशी
    खुदाया! पहले तो इतनी लंबी पोस्ट और तिस पे इत्ते सारे लिंक..!!! हम जैसों पे कुछ तो रहम खाओ, देव!
    लेकिन यकीनन ये आपकी लेखनी का ही चमत्कार है कि हर लिंक को खोल कर देखने और पढ़ने पे विवश हो जाता हूँ। अमूमन इतना समय दे नहीं पाता ब्लौग के लिये।
    इस संपूर्ण देह-विमर्श पे किंतु राजेन्द्र यादव जी का विचार क्यों नहीं लिया गया? :)
    “मेरी पसंद” ने फिर से अचंभित किया।
  30. Abhishek
    लिंक और तस्वीर दोनों पाठक को भ्रमित करने में सक्षम हैं :)
  31. hempandey
    देह के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता. देह के समर्थ होने पर ही मन और मस्तिष्क की क्रियायें संपन्न हो सकती हैं. देह सब कुछ नहीं, पर बहुत कुछ है.
  32. VIJAY ARORA
    भैया देह ही तो सब कुछ है
    देह के ऊपर ही तो दिमाग रखा है भगवान् ने
    देह ही नहीं तो क्या ……….
    पहीले पाकिंग ही देखेंगे ना
    तभिये तो मालवा देखेंगे भैया
    मालवा कु तो कोऊ भी नाही देखन देवेगा
    तो पेकइन्गे ही देखि के मालवा का अंदाजा लगावत है हम तो भैया
  33. VIJAY ARORA
    तन भी सुन्दर मन भी सुन्दर
    तू सुन्दरता कि मूरत है
    किसी और को कम होगी
    मुझे तेरी बहुत जरुरत है
  34. देह, सेक्स और अजब संयोग : चिट्ठा चर्चा
    [...] अनुगूँज की रिठेल दे मारी। पहला आयोजन क्या देह ही है सब कुछ? संयोग पर संयोग, २-३ महीने बाद जब हिंदी [...]
  35. Manish
    फोटुआ वाला लिंक पुरानी पोस्ट पर नहीं था इसीलिए… ;) यहाँ आया.
    Manish की हालिया प्रविष्टी..प्रेम : “आओ जी”
  36. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] क्या देह ही है सब कुछ? [...]
  37. अविनाश वाचस्‍पति
    इस देह से क्‍यों वंचित रहे पाठक
    http://www.nukkadh.com/2011/09/blog-post_24.हटमल
    देह खिलाती है गुल
    बत्‍ती करती है गुल
    विवेक की
    मन की
    जला देती है
    बत्‍ती तन की।
    देह सिर्फ देह ही होती है
    होती भी है देह
    और नहीं भी होती है देह।
    देह धरती है दिमाग भी
    देह में बसती है आग भी
    देह कालियानाग भी
    देह एक फुंकार भी
    देह है फुफकार भी।
    देह दावानल है
    देह दांव है
    देह छांव है
    देह ठांव है
    देह गांव है।
    देह का दहकना
    दहलाता है
    देह का बहकना
    बहलाता नहीं
    बिखेरता है
    जो सिमट पाता नहीं।
    देह दरकती भी है
    देह कसकती भी है
    देह रपटती भी है
    देह सरकती भी है
    फिसलती भी है देह।
    देह दया भी है
    देह डाह भी है
    देह राह भी है
    और करती है राहें बंद
    गति भी करती मंद।
    टहलती देह है
    टहलाती भी देह
    दमकती है देह
    दमकाती भी देह
    सहती है देह
    सहलाती भी देह।
    मुस्‍काती है
    बरसाती है मेह
    वो भी है देह
    लुट लुट जाती है
    लूट ली जाती है
    देह ही कहलाती है।
    देह दंश भी है
    देह अंश भी है
    देह कंस भी है
    देह वंश भी है
    देह सब है
    देह कुछ भी नहीं।
    देह के द्वार
    करते हैं वार
    उतारती खुमार
    चढ़ाती बुखार
    देह से पार
    देह भी नहीं
    देह कुछ नहीं
    नि:संदेह।
    अविनाश वाचस्‍पति की हालिया प्रविष्टी..फिल्‍में हैं मारधाड़ का बाजार : बॉलीवुड सिने रिपोर्टर 10 – 16 अप्रैल 2013 अंक प्रकाशित
    1. अविनाश वाचस्‍पति
  38. अविनाश वाचस्‍पति
    उपर की टिप्‍पणी स्‍थान पर दिया गया लिंक संबंधित पेज खोल रहा है।
    http://www.nukkadh.com/2011/09/blog-post_24.html
    अविनाश वाचस्‍पति की हालिया प्रविष्टी..फिल्‍में हैं मारधाड़ का बाजार : बॉलीवुड सिने रिपोर्टर 10 – 16 अप्रैल 2013 अंक प्रकाशित