Saturday, September 12, 2009

हिन्दी तेरा रूप अनूप- श्रीलाल शुक्ल

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28 responses to “हिन्दी तेरा रूप अनूप- श्रीलाल शुक्ल”

  1. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
    श्रीलाल शुक्ल जी के विचार हिन्दी के प्रति सजग और समर्पित सभी व्यक्तियों को अपनाने चाहिए। उन्होंने बहुत अच्छा विवेचन किया है।
    पढ़वाने का आभार।
  2. दिनेशराय द्विवेदी
    अतीत की घटना-दुर्घटनाएँ वर्तमान में कुछ देती ही हैं। हम तो इस आलेख को पढ़ कर निहाल हो गए। शुक्ल जी वो सब कह गए जो हि्न्दी के लिए हम कहना चाहते हैं।
  3. anitakumar
    सच है ऐसे शब्द किस काम के जो आप के विचार और आप के मन की बात पाठक तक न पहुंचा सकें। ऐसे शब्द आप को आत्म संतुष्टि दे सकते हैं गर्वित भी कर सकते हैं लेकिन आप की बात दूसरे तक नहीं पहुंचा सकते।
  4. घोस्ट बस्टर
    दैया रे! श्रीलाल शुक्ल?
    आपकी टीम में तो बड़े-बड़े खिलाड़ी हैं, रियल मैड्रिड और मैन्चेस्टर यूनाइटेड की तरह. अब आपसे कौन जीतेगा?:-)
    लेख तो जबर्दस्त है. अब दूसरी ओर से भी इसकी टक्कर की कोई चीज आये तो बात बने. कौन कहता है कि ब्लॉग्स पर स्वस्थ बहस नहीं होतीं?
  5. डाक्टर अमर कुमार ’ असली ’

    इन सब के साथ एक बात और भी खास ध्यान होने योग्य है । सँस्कृत का सारा साहित्य हिन्दू समाज को पुनर्जीवित न कर सका, इसलिये सामयिक भाषा में नवीन साहित्य की सृष्टि की गयी । उस सामयिक भाव के साहित्य ने जो प्रभाव दिखाया वही हम आज तक अनुभव करते हैं । एक अच्छे समझदार व्यक्ति के लिये क्लिष्ट सँस्कृत के मन्त्र तथा पुरानी अरबी की आयतें इतनी प्रभावकारी नहीं हो सकती जितनी कि उसकी साधारण भाषा की साधारण बातें ।

    ” श्री भीमसेन विद्यालँकार – हिन्दी सन्देश 28 फरवरी 1933 पृष्ठ 27 से ”
    हाथ कँगन को आरसी क्या … जनमानस पर जितना प्रभाव रामचरित मानस, कबीर की साखी, रहीम के दोहे, रसखान की रचनायें, घाघ की सूक्तियों का पड़ा, वह आज भी प्रत्यक्ष है । ” कामिनि कंत सों, जामिनि चंद सों, दामिनि पावस-मेघ घटा सों, कीरति दान सों, सूरति ज्ञान सों, प्रीति बड़ी सनमान महा सों ..” जैसी रचनायें पाठ्यपुस्तकों में ही भली लगती हैं । प्रसँगवश यह भी जिक्र कर दूँ कि महाकवि भूषण इस भाषा सौन्दर्य को सँभाल न पाये, और इसी रचना को आगे उन्होंने तत्कालीन भदेश ” ऐल-फैल खैल भैल खलक पै गैल-गैल, गजन कि ठेल पेल सैल उसलत हैं.. ” जैसी पँक्तियों से सँभाला ।
    टिप्पणी गरिष्ठ होती जा रही है, इस पर यदि एक पोस्ट लिख ही डालूँ, तो पढ़ेगा कौन ?
    कुल मिलाकर यह कि कोई अँग्रेज़ी बघार कर हड़काता है, कोई सँस्कृत का हवाला देकर उकसाता है, पर पब्लिकिया तो मुम्बईया टपोरी पर मरी जाती है । हैदराबादी हिन्दी अब तक क्यों ज़िन्दा है ? उसमें शब्दों को समाहित करने की एक साल्वेन्ट जैसी क्षमता है… पर हम हिन्दीयाइट्स वहीं फँसे पड़े हैं । खेद है कि इसी व्यामोह के चलते हिन्दी राष्ट्रभाषा बन कर भी सर्वमान्य सम्पर्क भाषा आज तक न बन पायी ।
  6. रिपीट डाक्टर अमर कुमार ’ असली ’

    लीजिये साहब, लिखने की रौ में भड़ से एक शब्द हिन्दीयाइट बन ही गया, यदि आदरणीय ज्ञानदत्त जी ने इसे अब तक न बनाया तो क्या.. बन तो गया ही है ।
  7. hemant kumar
    श्रीलाल शुक्ल के विचार प्रासंगिक हैं
  8. Dr.Arvind Mishra
    बहुत सुसंगत और तर्कपूर्ण -कहीं भी झोल नहीं झलकता ! भाषा का ज्ञान और उसकी जन समझ दोनों पृथक पहलू है ! हम रिक्शेवालों से बात करें तो उनकी बोली भाषा में और विद्वानों के बीच रहें तो उतने सरलीकरण की आवश्यकता नहीं है ! हाँ दुरूहता और पांडित्य प्रदर्शन से परहेज भी जरूरी है ! शुक्ल जी ने बेमेलता और हास्यास्पद प्रयोगों की मनाही की है मगर संस्कृत के शब्दों के सहज प्रयोग पर कोई फतवा नहीं जारी किया है जैसा हिन्दी चिट्ठाजगत में किया जा रहा है !
    मान तो यही लिया गया है की संस्कृत एक मृत भाषा है मगर अब हिन्दी ब्लागजगत मर्सिया भी पढ़ कर उसे पूरे रीति रिवाज से बाकायदा दफनाने को तुल गया है ! यह चिंताजनक है ! हम इसका विरोध जारी रखेगें !
  9. ताऊ रामपुरिया
    दुरूह शब्दों के प्रयोग से हमें उसे उसी तरह बचना चाहिये जैसे जहाजों के सतर्क नाविक समुद्र में चट्टानों से बचते चलते हैं।
    आपको इस आलेख के लिये कोटिश: धन्यवाद.
  10. गौतम राजरिशी
    आपके धैर्य को सलाम देव….पिछले आधे घंटे से हूँ इस पोस्ट पे। सोचता हूँ, आपको लिखने में कितना वक्त लगा होगा?
    संग्रहणीय आलेख!
  11. संजय बेंगाणी
    ऐसा लिखो कि समझ आए.
    मौका हाथ में है, मन की कह रहा हूँ….कुछ चिट्ठाकार धर्मनिरपेक्ष दिखने के फेर में अनावश्यक अरबी घुसड़ते है. कोई विद्वान दिखने के फेर में अंग्रेजी. कोई प्रगतिशील दिखने के फेर में अजीब सी अजदकी भाषा…..ये भाषा समझ में नहीं आती भाई…..आप भी कभी कभी स्थानिय बोली का कुछ ज्यादा ही प्रयोग कर जाते है….. बाकी जय हिन्दी…..
  12. Kartikeya
    भाषा मृत नहीं होती, मात्र शनैः शनैः हमारे दैनंदिन प्रयोगों से दूर होती जाती है| रही बात संस्कृत जैसी भाषा को मृत मान लेने की, तो मैं इसका विरोध करता हूँ|
    आज जबकि अधिकांश शोधों से सिद्ध हो चुका है की जर्मन, स्पेनिश, और अन्य योरोपियन भाषाओँ के साथ संस्कृत का भी एक साझा सेमेटिक मूल है, और आज अन्य भाषाएँ निरंतर प्रयोग में बनी हैं, ऐसे में संस्कृत को ही मृत मान लेना अपनी कमियों को बौद्धिकता के परदे में छुपाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं, ऐसा मेरा मानना है|
    रही बात भाषा में क्लिष्टता के समावेश की, तो भाषा वही अच्छी जो बहुसंख्य जन को बिना डिक्शनरी के समझ में आ जाये|
  13. ज्ञानदत्त पाण्डेय
    सम्प्रेषण तो करेक्टिव कोर्स लेता है। आप को जो कच्ची-पक्की भाषा आती है, उसमें लिखते-कहते हैं। अगला समझ कर उत्तर देता है, या भकुआ बना रहता है। उसे तोल कर आप अपनी भाषा (या सम्प्रेष्ण समग्र) में परिवर्तन करते हैं। यह सतत प्रक्रिया है। कम से कम मैं तो यही कर रहा हूं।
    कुछ लोग अपनी भाषा और अपने सामने वाले के प्रति पूरी तरह आश्वस्त होंगे और वे एक निश्चित प्रकार से चल सकते हैं। आप उनमें से एक होंगे।
    हम उतने भाग्यशाली नहीं हैं। लिहाजा श्रीयुत श्रीलाल शुक्ल जी की सीख पूर्णत: पालन करना पासैबिलै नहीं है। (और उनकी महानता के प्रति अवज्ञाभाव न माना जाये इसे!)
  14. डाक्टर अमर कुमार 'नकली'
    अपुन को तो आज तक ये लफडा समझ नहीं आयेला है कि हर दो पांच दिन के बाद सब लोग एक नया लोचा किधर से लेकर आता है..
    अपुन तो जैसा है वैसा इच टिक है,.. खाली पिली मगजमारी में काहे को टेम खोटी करने का.. एक ना एक दिन सबकी बोलती बंद होनी है रे.. फिर कौनसी बोली और कौनसी भाषा..
  15. विवेक सिंह
    डाक्टर अमर कुमार ‘नकली’ जी की टिपण्णी को सो लम्बर !
  16. Abhishek
    फिल्म ‘खुदा के लिए’ में पाकिस्तान से आये एक व्यक्ति की ताबीज पर अरबी में लिखी लाइनों का मतलब पूछने पर वह बताता है कि मैं इसे पढ़ तो सकता हूँ पर इसका मतलब नहीं बता सकता.मुझे तो वही याद आया.
  17. चंद्र मौलेश्वर
    ई श्रीलाल शुक्ल तो अनूप शुक्ल से बढि़या लिखेला है:)
  18. Shiv Kumar Mishra
    इस महत्वपूर्ण विषय पर श्री हिमांशु पाण्डेय जी की टिप्पणी सर्वथा प्रासंगिक है.
    “हम विस्मृत कर रहे हैं उपनिषदीय वचन – “नायमात्मा बलहीनेन लभ्य” । आत्मा कैसे पायी जा सकेगी यदि बल ही खो गया । बलहीन आत्मा की उपलब्धि नहीं किया करते । हिन्दी की उपेक्षा में क्या भारत की आत्मा ही नहीं खो गयी ? सृजनशीलता की कर्मण्यता ही नहीं खो गयी ?
    हिन्दी को उपेक्षित कर हमने अपने आत्मविश्वास को उपेक्षित कर दिया है । हमारी अन्तर्निहित प्रज्ञा, हमारी प्रतिभा, हमारा सम्मान वंचित हो रहा है। हमें हिन्दी के इस आत्मविश्वास को संरक्षित करना होगा ।”
  19. रंजना
    प्रत्येक हिन्दी लेखक अपने लिये वह अनुशासन स्वीकार करके चले कि उसका कथ्य ऐसे पाठक के लिये है जो अंग्रेजी नहीं जानता। वह यह ध्यान रखे कि वह अपनी भाषा द्वारा अपने पाठक को अंग्रेजी की जटिल शब्द श्रंखला का उपहार नहीं दे रहा, बल्कि उसे उस भाषा के माध्यम से अपनी संवेदना और चिंतन का भागी बना रहा है।
    वस्तुतः यही निचोड़ है…..यदि हमें हिंदी को बचाते हुए उसे समृद्धि देनी है तो बहुत गहरे यह बात बैठानी होगी…
  20. समीर लाल 'उड़न तश्तरी वाले'
    विचार प्रासंगिक हैं-बेहतरीन..समझ में आया.
    हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ.
    कृप्या अपने किसी मित्र या परिवार के सदस्य का एक नया हिन्दी चिट्ठा शुरु करवा कर इस दिवस विशेष पर हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार का संकल्प लिजिये.
  21. अल्पना वर्मा
    माननीय अनूप जी को जन्मदिन की ढेर सारी शुभकामनायें.
    [हम सब की तरफ से [लगता है.. ]apni पोस्ट में पाबला जी ने ‘गमले सहित’ फूल aap ko भेंट किये हुए हैं!]
    हम आप के ब्लॉग पर जन्मदिन की मिठाई केक शेक की उम्मीद से आये थे..यहाँ तो हिंदी दिवस चल रहा है.
    बहुत बहुत बधाई.
  22. विवेक सिंह
    जन्मदिन की बधाई स्वीकारें,
    हो सके तो कुछ लिख मारें.
  23. प्रतीक पाण्डे
    शुक्ल जी की बातें तो सौ फ़ीसदी सही लगती हैं। काश कि लोग इसपर ग़ौर करें और अमल में लाएँ। नहीं तो लोगों की बाउंसर टाइप हिन्दी सर के ऊपर से निकल जाती है। :)
  24. Rashmi Swaroop
    हम तो अभी सीख रहे हैं… आप सिखाते रहिये…
    धन्यवाद।
    :)
  25. अर्शिया
    भाषा एक बहता हुआ पानी है, कब किधर जाए, कौन जाने?
    Think Scientific Act Scientific
  26. Abhishek Shukla
    शुक्ल जी की राग दरबारी के कुछ पृष्ठ पढ़े बिना नींद नहीं आती है. श्रीलाल शुक्ल द्वारा लिखी गयी दूसरी टिप्पणी की प्रतीक्षा है.
  27. dinesh bansal
    ap to ap hai ap to mere vicharo ke bhi bap hai
  28. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] हिन्दी तेरा रूप अनूप- श्रीलाल शुक्ल [...]

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