Thursday, September 30, 2010

मेरी ख्वाबगाह में नंदन- ज्ञानरंजन

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मेरी ख्वाबगाह में नंदन- ज्ञानरंजन

गत 25 सितंबर को कन्हैयालाल नंदनजीका लम्बी बीमारी के बाद दिल्ली में निधन हो गया। न जाने कितनी यादें हैं उनसे जुड़ी। कुछ संस्मरण पहले लिखे हैं। उनके लिंक दिये हैं नीचे। आगे कभी और लिखने का प्रयास करूंगा। अभी उनके बारे में ज्ञानरंजन जी का लिखा एक संस्मरण देखिये। ज्ञानरंजन जी और नंदनजी साथ पढ़े थे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में। यह संस्मरण ज्ञानरंजन जी ने शायद दो-तीन साल पहले लिखा था।
नंदनजी मेरे मामाजी थे। कई मित्रों ने मुझे शोक संवेदना संदेश भेजे हैं। उनके प्रति आभारी हूं।

मेरी ख्वाबगाह में नंदन- ज्ञानरंजन


कन्हैयालाल नंदन
कन्हैयालाल नंदन से भौगोलिक रूप से मैं 1957-58 में बिछुड़ गया क्योंकि इसी साल के बाद वह इलाहाबाद छोड़कर मुंबई नौकरी में चला गया। हेरफ़ेर 4-6 महीने का हो सकता है। गदर के सौ साल बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हमने एक साथ डिग्री हासिल की और काले गाउन पहनकर फ़ोटो खिंचवाई थी। लगभग आधी शताब्दी का समय हमारे संबंधों के बीच सिनेमा की रील की तरह रोल्ड है।
वह ऐसा समय था कि चारों तरफ़ खजाना ही खजाना था और कोई लूटपाट नहीं करता था। जो चाहो वही मिलता था। पर क्या चाहें क्या न चाहें इसकी कोई तमीज नहीं थी। किताबों की, सत्संग की, कुसंग की,संवाद-विवाद की, लड़ने-झगड़ने और सैर-सपाटे और रचनात्मक उत्तेजनाओं की कोई कमी नहीं थी। असंख्य रचनाकार थे और कहानियां थीं। इतिहास में जाते लेखक थे,वर्तमान में उगते कवि थे और भविष्य की संभावनाओं वाले रचयिता। मर जाने पर भी किसी की जगह खाली नहीं हो जाती थी जैसा कि आजकल हो जाती है। एक मणिमाला थी जो अविराम चल रही थी।
वह ऐसा समय था कि चारों तरफ़ खजाना ही खजाना था और कोई लूटपाट नहीं करता था। जो चाहो वही मिलता था। पर क्या चाहें क्या न चाहें इसकी कोई तमीज नहीं थी। किताबों की, सत्संग की, कुसंग की,संवाद-विवाद की, लड़ने-झगड़ने और सैर-सपाटे और रचनात्मक उत्तेजनाओं की कोई कमी नहीं थी।
साहित्य संसार से इतर रसायन में सत्यप्रकाश जी थे, गणित में गोरखप्रसाद, हिंदी में धीरेन्द्र वर्मा, अंग्रेजी में एस. सी.देव और फ़िराक। और वह दुनिया भी भरी-पूरी थी। न चाहो तो भी छाया हम पर पड़ रही थी। टेंट में पैसा नहीं होता था पर अपने समय के अपने समय को पार कर जाने वाले दिग्गजों को देख-सुन रहे थे। उनसे मिल रहे थे, सीख रहे थे। नंदन से ऐसे ही किसी समय मिलना हुआ और फ़िर वह तपाक से गहरी मैत्री में बदल गया। पचास सालों में अनंत वस्तुयें छूट गईं हैं। अनगिनत लोग विदा हो गये। करवट लेकर अब संपत्ति शास्त्र के कब्जे में अधमरे कैद पड़े हैं। मेरे सहपाठियों में से निकले मित्रों में केवल दो ही भरपूर बचे रहे। एक दूधनाथ सिंह और दूसरे कन्हैयालाल नंदन।
नंदन की दोस्ती का जाला किस तरह और कब बुना जाता रहा इसकी पड़ताल असंभव है। वह अज्ञात और अंधेरे समय की दास्तान है। हम छत पर बने कमरों में साथ-साथ पढ़ते थे। मेरी मां खाना खिलाती थी। हम वहीं पढ़ते-पढते सो जाते थे। बाकी समय नंदन साइकिल पर दूरियां नापते हुये जीविकोपार्जन के लिये कुछ करते थे। चित्र बनाते, ले-आउट करते, प्रूफ़ देखते थे। आज भी उतनी ही मशक्कत कर रहे हैं। बीमार होते हैं, अस्पताल जाते हैं और लौटकर उतनी ही कारगुजारी हो रही है। गुनगुनाते रहते हैं और काम चलता रहता है।
नन्दन के चेहरे को हंसता हुआ देखकर भी कोई यह नहीं कह सकता था कि वह वाकई रो रहा है या हंस रहा है। सामने तो वह कभी रोया नहीं। जीवन में कब कोई किस तरह से आ जाता है इसे जानने की कोशिश बेकार है। यह एक रचना प्रक्रिया है जिसे खोलना बहुत फ़ूहड़ लगता है।
बेपरवाह और जांगर के धनी। उन्नीस-बीस साल के कठिन और काले दिनों में भी नन्दन ने कभी अपने सहपाठियों को जानने नहीं दिया कि वह चक्की पीस रहा है। दीनता तब भी न थी। नन्दन के चेहरे को हंसता हुआ देखकर भी कोई यह नहीं कह सकता था कि वह वाकई रो रहा है या हंस रहा है। सामने तो वह कभी रोया नहीं। जीवन में कब कोई किस तरह से आ जाता है इसे जानने की कोशिश बेकार है। यह एक रचना प्रक्रिया है जिसे खोलना बहुत फ़ूहड़ लगता है। रिश्ता बनाते समय दुनियादार लोग हजार बार सोच विचारकर यह तय कर लेते हैं कि लंबे समय में यह रिश्ता कहीं नुकसानदेह तो नहीं होगा। सारे भविष्य के संभावित लाभ-हानि वे सांसारिक तराजू पर नाप-तौल लेते हैं। फ़िर कदम बढ़ाते हैं।
मेरे और नंदन के बीच आज भी दुनिया का प्रवेश नहीं है। यहां किसी का हस्तक्षेप संभव नहीं। हमारी बीबियों का भी नहीं और उनका भी जो हमें इसी की वजह से नापसंद करते हैं।

ज्ञानरंजन
नन्दन एक सफ़ल व्यक्ति था और मैं भी कोई ऐसा असफ़ल नहीं हूं। लेकिंन नंदन का बायोडाटा ज्वलंत है। उसके चारो तरफ़ बिजली की लतर जल-बुझ ही नहीं रही , जल ही जल रही है। यह नंदन की सबसे बड़ी समस्या है। इस पर उसका बस नहीं है। इस सबके बावजूद जिस समाज में व्यवहारिकतायें भी तड़ाक-फ़ड़ाक से मुरझा जाती हैं और सौदेबाजी भी दो-चार से अधिक नहीं चल पातीं उसी समाज में हम 50 साल से एकदम अलग-अलग रास्तों पर चलते हुये किस तरह मित्र विहार करते रहे यह एक ठाठदर सच है। हमारा लिखना-पढ़ना, जीवन शैलियां ,काम-धाम, विचार-विमर्श कठोरतापूर्वक एक दूसरे से विपरीत रहा। हमने कभी एक-दूसरे को डिस्टर्ब नहीं किया। हमने कभी नहीं पूछा कि यह क्यों किया और यह क्यों नहीं किया।
नई दुनिया, दिल्ली के 26 सितंबर के अंक से साभार!
संबंधित कड़ियां:
१.कन्हैयालाल नंदन- मेरे बंबई वाले मामा
२.कन्हैयालाल नंदन जी की कवितायें
३.बुझाने के लिये पागल हवायें रोज़ आती हैं- कन्हैयालाल नंदन जी का आत्मकथ्य
४. क्या खूब नखरे हैं परवरदिगार के

न्यूयार्क विश्वहिंदी सम्मेलन-2007 में नंदन जी का कवितापाठ

मेरी पसंद


कन्हैयालाल नंदन
यह सब कुछ मेरी आंखों के सामने हुआ!
आसमान टूटा,
उस पर टंके हुये
ख्वाबों के सलमे-सितारे
बिखरे.
देखते-देखते दूब के दलों का रंग
पीला पड़ गया
फूलों का गुच्छा सूख कर खरखराया.
और ,यह सब कुछ मैं ही था
यह मैं
बहुत देर बाद जान पाया.
कन्हैयालाल नंदन

32 responses to “मेरी ख्वाबगाह में नंदन- ज्ञानरंजन”

  1. महफूज़ अली
    मामाजी को श्रद्धांजलि…. मामाजी से मैं २००६ में हिंदी भवन में एक प्रवासी भारतीय सम्मलेन में मिला था…. बहुत ढेर सारा आशीर्वाद दिया था उन्होंने… और अपनी एक किताब गिफ्ट दी थी मुझे… अपने सिग्नेचर के साथ… वो पल आज भी याद है…
  2. प्रवीण पाण्डेय
    व्यक्तित्व का वह कोना जहाँ किसी को भी आने की अनुमति नहीं होती है, संभवतः सृजनात्मकता का मूलबिन्दु होता है। सृजनात्मकता चाहे साहित्यिक हो या आचरणीय।
  3. विवेक सिंह
    लुटने में कोई उज्र नहीं आज लूट लें
    लेकिन उसूल कुछ तो होंगे लूटमार के”

    वास्तव में लूट लिया इन पंक्तियों ने ।
    विवेक सिंह की हालिया प्रविष्टी..लो इक्कीसवीं सदी आयी
  4. sanjay
    लेख के लिए धन्यवाद ….. यद्यपि आप ने पूरा पखवारा ले लिया ……
    ज्ञानरंजन सरजी का संस्मरण बहुत अच्छा लगा . संबंधो के जिस केमेस्ट्री को उन्नोहने जिया ओ एक नजीर है .
    मामाजी को श्रधांजलि.
    आपको प्रणाम.
  5. satish saxena
    आदरणीय कन्हैया लाल नंदन के बारे में लिखने के लिए आभार ! शायद ही कोई मशहूर हिंदी पत्रिका ऐसी बची होगी जहाँ उनका नाम नहीं देखा ! आप खुशकिस्मत है जो उनके कुल में जन्म लिया , इस हिंदी साहित्य गौरव के लिए हार्दिक श्रद्धांजलि स्वीकार करें !
    satish saxena की हालिया प्रविष्टी..सैकड़ों देशों के बीच-देश की पगड़ी उछालते यह लोग -सतीश सक्सेना
  6. aradhana
    एक सच्चा दोस्त ही इतने प्रेम से किसी का संस्मरण लिख सकता है. बहुत अच्छा लगा ये संस्मरण.
    वो युग साहित्य का स्वर्णयुग कहा जा सकता है, अब सभी प्रकाशस्तंभ बुझ गए एक-एक करके… पर जीवन-मरण तो संसार का नियम है.
    कन्हैयालाल नन्दन जी के बारे में मेरे बाऊ खूब बातें करते थे, अब तो कुछ भी याद नहीं. ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे. ऐसे जांगर वाले लोग हमेशा से मेरे प्रेरणास्रोत रहे हैं.
  7. रंजना.
    मुझे अभी कुछ ही दिन पहले एक पोस्ट पढ़ रही थी तो ज्ञात हुआ कि श्री नंदन जी आपके मामाश्री थे…
    और क्या कहूँ अभी…
    विनम्र श्रद्धांजलि…
    रंजना. की हालिया प्रविष्टी..आन बसो हिय मेरे
  8. वन्दना अवस्थी दुबे
    अद्भुत लेखनी है ज्ञान जी की. वे चाहे आलेख लिखें, कहानी या फिर संस्मरण, सब जीवंत हो उठता है. ये संस्मरण प्रकाशित करके बहुत अच्छा किया आपने. नन्दन जी को विनम्र श्रद्धान्जलि.
    वन्दना अवस्थी दुबे की हालिया प्रविष्टी..नंदन जी के नहीं होने का अर्थ
  9. मनोज कुमार
    पराग पढ-पढकर बड़ा हुआ। नंदन की कई स्मृतियां हैं। आज तो बस इतना ही कहूंगा…
    बहुत अच्छे कवि / साहित्यकार और बहुत अच्छे इंसान को खो देना बहुत दुखदायी है।
    कैसे-कैसे लोग रुख़सत कारवां से हो गये
    कुछ फ़रिश्ते चल रहे थे जैसे इंसानों के साथ।
    नंदन जी को नमन और विनम्र श्रद्धांजलि।
    मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..आँच-37चक्रव्यूह से आगे
  10. shikha varshney
    दिल की गहराइयों तक उतर जाने वाला संस्मरण…बहुत बहुत आभार आपका .नंदन जी को भावभीनी श्रधांजलि .
    shikha varshney की हालिया प्रविष्टी..अभी स्वर्णमयी लंका
  11. समीर लाल
    विनम्र श्रद्धांजलि.
    समीर लाल की हालिया प्रविष्टी..मैं- अंधेरों का आदमी!!!
  12. शरद कोकास
    ज्ञानरंजन जी का यह संस्मरण कन्हैयालाल नन्दन जी के स्मरण मात्र की औपचारिकता के लिये लिखा गया संस्मरण नहीं है । यह् संस्मरण साहित्य की दुनिया के वास्तविक और छद्म रिश्तों को आईना दिखाता है । ज्ञान जी ,नन्दन जी से अपनी मित्रता के वास्तविक अर्थ को परत दर परत खोलते हैं और निर्भय होकर इस बात को स्वीकार करते हैं कि मित्रता के इस अपरिभाषित रिश्ते में उलाहनों के बावज़ूद निकटतम रिश्तों का दखल भी संभव नहीं है । मित्र होने की भावुकता से ऊपर उठकर वे नंदन जी के संघर्ष को यहाँ रेखांकित करते हैं और उनके साथ अपने रिश्तों के साथ साथ साहित्य और समाज के रिश्तों की पड़ताल भी करते हैं ।
    हिन्दी साहित्य के इन दो महान साहित्यकारों और उनकी उपलब्धियों को उनकी मित्रता के परिप्रेक्ष्य में इस तरह देखना हम लोगों के लिए एक उपलब्धि है ।
    अनूप जी आप को इस बात के लिए धन्यवाद कि यह लेख आपने यहाँ उपलब्ध करवाया ।
    नन्दन जी को सादर नमन एवं श्रद्धांजलि ।
    शरद कोकास की हालिया प्रविष्टी..खून पीकर जीने वाली एक चिड़िया रेत पर खून की बूँदे चुग रही है
  13. dr.anurag
    यक़ीनन ऐसा संस्मरण कोई दोस्त ही लिख सकता है …….
    विनम्र श्रद्धांजलि…
    dr.anurag की हालिया प्रविष्टी..शेष दुनिया के लोगो
  14. shefali
    नंदन जी को विनम्र श्रद्धांजलि…
  15. प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI
    नया नया ब्लॉग में आया था तो आपके ब्लॉग पर नंदन जी के बारे में पढ़ कर पहली बार कुछ अलग एहसास हुआ था | फतेहपुर उनकी जन्मभूमि थी …इस नजरिये से भी और उनकी दमदार आवाज से भी उनके प्रति एकतरफ़ा अनुराग महसूस करता था |
    पहली बार उनको फतेहपुर के साहित्यिक कार्यक्रम ( दृष्टि ) में उनको सुना था ….!…अब तक कभी ना मिल सकने संताप अवश्य रहेगा |
    प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI की हालिया प्रविष्टी..बच्चा यह महसूस करे कि उसकी हर बात सुनी जायेगी
  16. jyotisingh
    यह सब कुछ मेरी आंखों के सामने हुआ!
    आसमान टूटा,
    उस पर टंके हुये
    ख्वाबों के सलमे-सितारे
    बिखरे.
    देखते-देखते दूब के दलों का रंग
    पीला पड़ गया
    फूलों का गुच्छा सूख कर खरखराया.
    और ,यह सब कुछ मैं ही था
    यह मैं
    बहुत देर बाद जान पाया.
    कितनी खूबसूरत रचना है . मामा जी को तो बचपन से जानती हूँ उन्हें पढ़ती आ रही हूँ ,मगर उनके बारे में बहुत कुछ आपसे जाना .वंदना के ब्लॉग पर श्रधांजलि अर्पित कर चुकी हूँ जिन पंक्तियों से उन्ही से फिर उन्हें श्रधांजलि देती हूँ ———तुम्हारी सी जीवन की ज्योति हमारे जीवन में उतरे
    ,मौत जिसको कह रहे वो जिंदगी का नाम है
    मौत से डरना डराना कायरो का काम है ,
    जगमगाती ज्योति हरदम ज्यो की त्यों कायम रहे …….
  17. amrendra nath tripathi
    आपकी तन्मय लेखनी को पढ़ गया ! मार्मिक तन्मयता !
    नंदन जी के जाने से बना अवकाश कहाँ भरेगा ! आप कह ही चुके हैं दुनिया अब उतनी भरी-पूरी नहीं रही !
    विनम्र श्रद्धांजलि !
    amrendra nath tripathi की हालिया प्रविष्टी..बजार के माहौल मा चेतना कै भरमब रमई काका कै कविता ध्वाखा
  18. संतोष त्रिवेदी
    नंदनजी को पहले ‘पराग’ में पढ़ा,फिर फतेहपुर में रहते हुए ही ‘सन्डे मेल’ का रसास्वादन किया,तब यह जाने बिना कि वह फतेहपुरिया थे. दिल्ली में आये तो एक बार सीरी फोर्ट में उनका मंचीय-कवि का रूप भी जाना.उनके जाने से एक धरोहर का चले जाना ज़रूर है,पर वे जो दे गए हैं ,वह अमोल धरोहर हमारे साथ बनी रहेगी.
  19. bhuvnesh
    उनके बारे में पढ़कर हमेशा और ज्‍यादा जानने की इच्‍छा होती है उनको…
    उनकी कविताओं का साथ तो रहेगा हमेशा
    विनम्र श्रद्धांजलि
    bhuvnesh की हालिया प्रविष्टी..बेचारा कौन है प्रधानमंत्री या देश
  20. नीरज दीवान
    विनम्र श्रद्धांजलि.
  21. rashmi ravija
    एक अभिन्न मित्र का स्नेहसिक्त संस्मरण…
    नंदन जी को नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि
    rashmi ravija की हालिया प्रविष्टी..प्लीज़ रिंग द बेल – एक अपील
  22. Abhishek
    नमन है नंदन जी को. कुछ दिनों पहले ये पोस्ट पढ़ी थी. फेसबुक पर भी देखा था. श्रद्धांजलि.
    Abhishek की हालिया प्रविष्टी..आखिरी मुलाकात
  23. eswami
    आपके और नन्दनजी के समकालीन मित्रों के हवाले से नंदनजी और करीब लगते हैं. वे तो अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से हमारी स्मृतियों में हमेशा बसे रहेंगे ही.
    eswami की हालिया प्रविष्टी..नास्तिकों को धर्म की अधिक जानकारी होती है लेकिन…
  24. मनीष
    अनूप,
    माननीय नंदन जी का पराग के संपादक के तौर पर बृहत्तर संवाद जिन अगणित बच्चों पाठकों से हुआ उस पीढ़ी की एक गिनती में मैं भी रहा. कोई बगैर देखे जाने कितना आत्मीय हो सकता है, मेरे लिए वे सदैव ऐसी मिसाल रहेंगे. किस्मत से एक बार साक्षात भी हुआ था. गिरिराज किशोर जी ने उन्हें हमारे परिसर में बुलाया था और उन्होंने तकरीबन घंटे भर का समय छात्रों के साथ गुज़ारा था. उनकी मुस्कान के अलावा एक बात बड़े प्रेम से याद रहती है कि उन्होंने कहा था कविता के माने “संवेदना को संवेदना से जोड़ना”. कविता की आत्मा इससे सरल और स्पष्ट अभिव्यक्ति कहाँ पाती है मुझे नहीं मालूम. उनकी “मुझे मालूम है” मेरी स्मृति में पहली पढ़ी कविता की किताब है [१९७९]. व्यक्तिगत रूप से वह मेरे आराध्य कविओं में हैं. “आदिम गंधों के फरेब में” , “युद्ध अनवरत” और “सम्बन्ध” जैसी कवितायेँ आज भी सन्दर्भ में साक्षात हैं और स्मृति में कभी चमक नहीं खोतीं [जैसे “मुझे मालूम है” के पृष्ठावरण पर की उनकी फोटो में चमकती उनकी आँखें]. उनका जितना लिखा मैंने पढ़ा है उसमें जिजीविषा और संघर्ष की सहजता और निजता सरल बहती मिली है जो उनकी सिर्फ उनकी रही है बतौर संबल. गए दिनों आपके सौजन्य से उनके बारे में और भी बहुत कुछ जानने पढ़ने को मिला उनके स्वास्थ और तकलीफों के बारे में भी. उनका गुज़रना स्मृति के लिए बहुत ही कष्ट कारक है जिसकी कोई अभिव्यक्ति पूरी नहीं हो सकती. परिवार का भी दुःख कोई पूरा नहीं समझ सकता. बस इतना कि उनकी कृतियाँ उनकी आत्मा की तरह सदैव हमारे साथ रहेंगी. हमारी अपनी ख्वाबगाह में. ईश्वर उनकी आत्मा को वैसे ही रखे जैसे वो रहे. आप भी उन्हें हमसे दूर न होने देंगे इसी आशा के साथ उन्हीँकी कविताओं में से एक है “याद”
    “गंध की-सी पोटली
    खुलकर बिखरती है
    नसों में गमक जाती है,
    रगों में
    रह-रह
    किसी के पास होने का भरा अहसास जगता है
    कि जैसे स्वच्छ नीलाकाश की
    मुस्कानवन्ती चांदनी के बीच
    बिजली कौंध जाती है
    इस तरह से
    अब किसी की याद आती है”
  25. VIJAY TIWARI ' KISLAY '
    आदरणीय
    कन्हैयालाल नंदनजी को
    हमारी विनत श्रद्धांजलि
    यदि हम उनके लिए , उनके बारे में सार्थक बात करें , अनुकरण करे तो सच्चे अर्थ में श्रद्धांजलि कहलाती है.
    आपने भी श्री ज्ञानरंजन जी आलेखित “मेरी ख्वाबगाह में नंदन” आलेख की प्रस्तुति से एक सच्चे साहित्यकार की भूमिका का निर्वहन किया है. कल ही हम ज्ञान जी के साथ फिल्म समीक्षक श्री जयप्रकाश चौकसे का व्याख्यान सुनाने के पश्चात वार्तालाप कर रहे थे.
    आलेख के लिए आभार.

    आपका
    - विजय तिवारी ‘ किसलय ‘

    VIJAY TIWARI ‘ KISLAY ‘ की हालिया प्रविष्टी..प्रकृति के साथ जुड़कर ईश्वर को खोजने की कोशिश- बसंत सोनी- जैविक-कला-चित्रकार
  26. उमा
    उमा
    अपने आत्मीय गुरुवर ज्ञान दा का नंदन जी को याद के लैंडस्केप में कैद करना सिर्फ संस्मरण नहीं है। कहीं अपनी आपबीती के किसी टुकड़े में यह जाना था कि वेसहपाठी थे, पर गहराई की इस तीव्रता-तीक्ष्णता, सघनता का तो भान ही नहीं होने दिया। सच में यह ज्ञान दा के बेलाग मिजाज, स्वाभिमान और संघर्षशीलता और दर्शक का भोक्ताभाव अद्भुत है। दोस्ती की यह मिसाल निर्वाह में बेलागपन इन्हीं से संभव था। इस निर्वाह में अपने प्रति कितनी निर्ममता और कठोरता बरतनी पड़ती है इस दौर में यह संभव नहीं। मित्रता रखी, पर बगैर भोग के या कहें त्याग पूर्वक भोग। कठोपनिषद में है न – तेन त्यक्तेन भूंजीथा…
    एक सर्जक के लिए जो विधाएं संभव हैं सभी में वे रमे थे। सिर्फ गिनती के नहीं। उस विभूति को आदर… श्रद्धांजलि….
    http://www.aatmahanta.blogspot.com
  27. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] मेरी ख्वाबगाह में नंदन- ज्ञानरंजन [...]
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