Tuesday, December 03, 2013

देश आखिर चाहता क्या है?

http://web.archive.org/web/20140420081916/http://hindini.com/fursatiya/archives/5202

देश आखिर चाहता क्या है?

देशअगले साल चुनाव होने वाले हैं। राजनीतिक पार्टियां जोर-शोर से तैयारियों में जुट गयीं हैं। शोर मचाते हुये अपनी पार्टी को अच्छा और विरोधी को कूड़ा बता रही हैं।
इस शोर शराबे में सबका कूड़ा सामने आ रहा है।
कोई माइक पर गला फ़ाड़कर चिल्लाता है – देश भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन चाहता है।
दूसरा हांक लगाता है- देश साम्प्रदायिक ताकतों से छुटकारा चाहता है।
किसी को लगता है भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता से मुक्ति समझ नहीं पायेंगे लोग तो वो चिल्लाता है- देश मंहगाई से मुक्ति चाहता है।
कोई सफ़ाई-पसन्द नेता चिल्लाने लगता है- देश स्वच्छ प्रशासन चाहता है।
इस हल्ले-गुल्ले में किसी को ध्यान आता है -हत्तेरे की विकास तो छूट ही गया। वह फ़ौरन माइक पर जाकर गला फ़ाड़ता है- देश चहुमुखी विकास चाहता है।
मतलब जिसे देखो वही देश का आधिकारिक प्रवक्ता बना हुआ है। जो वह कह रहा है वही देश चाहता है। देश मानो गूंगा-बहरा हो चुका है। इशारें से कुछ कहता है और ये भाई लोग बता रहे हैं अनुवाद देखिये देश ने ये इशारा किया इसका मतलब यह है।
देश की इच्छाओं को अपने-अपने हिसाब से अनुवाद करके तमाम अपने-अपने मन के काम भी किये जा रहे हैं।
कुछ लोगों ने कहा -देश सचिन को भारत रत्न देना चाहता है। दे दिया भाई।
किसी ने कहा- देश मंगल पर जाना चाहता है। चल जा भेज दिया जहाज।
कुछ बोला – देश खजाने के लिये खुदाई चाहता है। खोद डाला इलाका।
लोग बोले -देश तेजपाल को अन्दर देखना चाहता है। ठेल दिया भैये।
बीच में देश ने लोकपाल भी चाहा- उसके लिये भी खूब हल्ला हुआ।
सचिन का आखिरी मैच में सैकड़ा तो देश क्या पूरी दुनिया चाहती थी लेकिन वेस्ट इंडीज के बॉलरों और फ़ील्डरों ने ऐन टाइम पर धोखा दे दिया सो चाहत पूरी न हो सकी।
देश की इन अनगिनत इच्छाओं की बात हम तक मीडिया खासकर टेलिविजन के जरिये पहुंचती है। लोग देश की इतनी इच्छायें बतातें हैं उससे कभी-कभी तो लगने लगता है कि देश इत्ता मनचला कैसे हो सकता है। कभी ये चाहता है, कभी वो। एक दूसरे की धुरविरोधी चीजें एक साथ चाहता है।ये देश है कि कोई राजनेता। बड़ी ऊलजलूल चाहते हैं। धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता, कर्मठता और निठल्लापन, लोकतंत्र और तानाशाही सब एक साथ चाहता है।
लगता है देश बेचारा किसी बहुत बड़ी दुकान पर काम करते नाबालिग बच्चे सरीखा है। ग्राहक लोग आते हैं और उससे कहते हैं – बेटा जरा खुशहाली ले आओ, इसमें थोड़ा विकास मिलाओ, जरा भ्रष्टाचार कम करो, ये जरा साम्प्रदायिकता निकालो, एक चम्मच धर्मनिरपेक्षता मिलाओ। देश बेचारा सब ग्राहकों की मांग पूरी करने में जुटा रहता है। बोल भी नहीं पाता। दौड़ाते रहते हैं लोग देश को बेचारे अपनी इच्छा के हिसाब से।
लगता तो यह भी है कि शायद देश पर्दे के अन्दर बैठी किसी राजघराने की बहुरिया सरीखा है। खानदानी शाही परिवार है। बहूरानी खुद बाहर आ नहीं सकती। अपनी इच्छायें अपनी मुंहलगी दासियों को बताती है। वे बाहर ड्योड़ी पर तैनात जनखे गुलामों को। वे बाहर आकर राजा को बताते हैं- देश ये चाहता है।
राज काज में डूबे राजा साहब को कहां यह फ़ुरसत कि वे पूछें रानी ऐसा क्यों चाहती है? जो चाहत आती है। पूरा करने में जुट जाते हैं।
मन करता है कभी देश मिले तो अकेले में ले जाकर उससे पूछूं कि – देश भाई, सच में बता आखिर तू चाहता क्या है।
लेकिन देश है कि कहीं दिखता नहीं। जिससे पूछो देश किधर है तो वो अपना मोहल्ला, जिला, राज्य दिखाकर कहता है – यही हमारा देश है।
हम सोचते हैं क्या देश यह भी चाहता है कि वह टुकड़ों-टुकड़ों में दिखे?
हम देश को खोज रहे हैं। मिलेगा तो पक्का उसको पकड़ के पूछेंगे- देश भाई, आखिर तू चाहता क्या है?

3 responses to “देश आखिर चाहता क्या है?”

  1. anup shukla
    कमेंट हो रहे हैं.
  2. संदीप शर्मा
    बेहतरीन कटाक्ष.. वाकई देश कहीं दिखता नहीं अब,,
  3. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    […] देश आखिर चाहता क्या है? […]

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