Thursday, February 20, 2014

फूलों पर ओस की बूँद


सुबह सूरज भाई दिखे नहीं तो हमने आवाज लगाई किधर हो भाई जान ! फोन पर भी दिल्ल्ली की सरकार के बाद का सन्नाटा खिंचा था. फिर पिछवाड़े जाकर देखा तो एक पेड़ के मत्थे पर किसी सुहागन की टिकुली जैसे चिपके थे. देखा तो मुस्कराने लगे. उनके साथ पेड़-पौधे-फूल - पत्तियां भी खिलखिल करने लगे. हमने कहा -क्या भाई सुबह-सुबह आइस-पाईस खेलने लगे! वे डबल मुस्कराने लगे. चाय की चुस्की लेते हुए बोले -मियां चाय बुरी नही बनाते हो. लगे रहो क्या पता कुछ बन जाओ!

हमारे देखते देखते वे साइकिल से स्कूल जाती बच्ची के गाल पर चमकने लगे . बच्ची की आखों की चमक से लगा सूरज भाई उसकी आखों में जम गए है. उसके माथे पर उभरी नन्ही बूदो को चमकाते हुए बोले- अभी फूलों पर ओस की बूँद बनी डांय- डांय रही थी अब यहाँ भी! बूँद मुस्कराते हुए अपनी सहेली बूँद की गलबहियां होकर खिलखिलाने लगी. सूरज भाई हमारे साथ अदरख की चाय की चुस्की लेते हुए मुकेश कुमार तिवारी जी की कविता की लाईने दोहराने लगे ----बच्चियां अपने आप में मुकम्मल जहान होती हैं.

लड़कियाँ,
तितली सी होती है
जहाँ रहती है रंग भरती हैं
चाहे चौराहे हो या गलियाँ
फ़ुदकती रहती हैं आंगन में
धमाचौकड़ी करती चिडियों सी

लड़कियाँ,
टुईयाँ सी होती है
दिन भर बस बोलती रहती हैं
पतंग सी होती हैं
जब तक डोर से बंधी होती हैं
डोलती रहती हैं इधर उधर
फ़िर उतर आती हैं हौले से

लड़कियाँ,
खुश्बू की तरह होती हैं
जहाँ रहती हैं महकती रहती है
उधार की तरह होती हैं
जब तक रह्ती हैं घर भरा लगता है
वरना खाली ज़ेब सा

लड़्कियाँ,
सुबह के ख्वाब सी होती हैं
जी चाहता हैं आँखों में बसी रहे
हरदम और लुभाती रहे
मुस्कुराहट सी होती हैं
सजी रह्ती हैं होठों पर

लड़कियाँ
आँसूओं की तरह होती हैं
बसी रहती हैं पलकों में
जरा सा कुछ हुआ नही की छलक पड़ती हैं
सड़कों पर दौड़ती जिन्दगी होती हैं
वो शायद घर से बाहर नही निकले तो
बेरंगी हो जाये हैं दुनियाँ
या रंग ही गुम हो जाये
लड़कियाँ,
अपने आप में
एक मुक्कमिल जहाँ होती हैं
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मुकेश कुमार तिवारी

http://tiwarimukesh.blogspot.in/2008/11/blog-post_25.html

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