Wednesday, October 05, 2005

गालियों का सामाजिक महत्व

http://web.archive.org/web/20110101210523/http://hindini.com/fursatiya/archives/55
माजिक महत्व

पिछली पोस्ट में मैंने लिखा:-
लेकिन बुरी मानी जाने वाली वस्तु का भी क्या सामाजिक महत्व हो सकता है? मुझे तो लगता है होता है ।
इस पर विनयजी ने स्पष्टीकरण मांग लिया:-
सोचने लायक मुद्दा है. आपके स्पष्टीकरण का इन्तज़ार रहेगा. महत्व तो बेशक होता है, क्योंकि अच्छा या बुरा, असर तो होता ही है. पर हर बुरी “माने जानी वाली” वस्तु का सकारात्मक सामाजिक महत्व हो, ऐसा मुझे नहीं लगता.
वैसे तो हम यह कह सकते हैं कि अच्छाई-बुराई सापेक्ष होती है। बुराई न हो तो अच्छाई को कौन गांठे? बुराई वह नींव की ईंट है जिस पर अच्छाई का कंगूरा टिका होता है। लेकिन यहां हम हर बुराई की बात नहीं करेंगे। अच्छे बच्चों की तरह केवल गाली पर ध्यान केंद्रित करेंगे जिसके बारे में यह बात शुरु की गयी थी।
अब हम खोज रहे हैं गाली के समर्थन में तर्क। जैसे खिचडी़ सरकार का मुखिया बहुमत की जुगत लगाता है वैसे ही हम खोज रहे हैं तमाम पोथियों से वे तर्क जो साबित कर दें कि हां हम सही कह रहे थे।
सबसे पहले हमें तर्क मिला अनुनाद सिंह के ब्लाग पर। वहां लिखा है :-
अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥

(कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं ।)
ऐसा कोई अक्षर नहीं जिससे किसी मंत्र की शुरुआत न होती हो। अब देखने वाली बात है कि गाली शब्द दो अक्षरों ‘गा’ और ‘ली’ के संयोग से बना है। जो कि खुद ‘ग’ तथा ‘ल’ से बनते हैं। अब जब ‘ग’ व ‘ल’ से कोई मंत्र बनेगा तो ‘गा’ और ‘ली’ से भी जरूर बनेगा। अब आज के धर्मपारायण, धर्मनिरपेक्ष देश में किस माई के लाल की हिम्मत है जो कह सके कि मंत्र का सामाजिक महत्व नहीं होता? लिहाजा निर्विरोध तय पाया गया कि ‘गा’तथा’ली’ से बनने वाले मंत्रों का सामाजिक महत्व होता है। जब अलग-अलग शब्दों से बनने वाले मंत्रों का है तो मिल जाने पर भी कैसे नहीं होगा? होगा न! हां तो यह तय पाया गया कि गालियों का सामाजिक महत्व होता है।
जैसे कुछ अरब देशों में तमाम लोगों का काम केवल एक पत्नी से नहीं चल पाता या जैसे अमेरिकाजी में केवल एक जीवन साथी से मजा नहीं आता वैसे ही ये दिल मांगे मोर की तर्ज पर हम और सबूत खोजने पर जुट ही गये। इतना पसीना बहा दिया जितना अगर तेज टहलते हुये बहाता तो साथ में कई किलो वजन भी बह जाता साथ में। अरविंदकुमार द्वारा संपादित हिंदी थिसारस समांतर कोश में गालियां खोजीं। जो मिला उससे हम खुश हो गये । मुस्कराने तक लगे । अचानक सामने दर्पण आ गया । हमने मुस्कराना स्थगित कर दिया। दर्पण का खूबसूरती इंडेक्स सेंसेक्स से होड़ लेने लगा।
हिंदी थिसारस में बताया गया है कि गाली देना का मतलब हुआ कोसना। अब अगर विचार करें तो पायेंगे कि दुनिया में कौन ऐसा मनुष्य होगा जो कभी न कभी कोसने की आदत का शिकार न हुआ हो? अब चूंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है लिहाजा उसके द्वारा किये जाने वाले कर्मों के सामाजिक महत्व की बात से कौन इन्कार कर सकता है? लिहाजा गाली देना एक सामाजिक महत्व का कार्य है।
इसी दिशा में अपने मन को आर्कमिडीज की तरह दौडा़ते हुये हमने अपनी स्मृति-गूगल पर खोज की कि सबसे पहले कोसने का कार्य किसने किया? पहली गाली किसने दी? पता चला कि हमारे आदि कवि वाल्मीकि ने पहली बार किसी को कोसा था। दुनिया जानती है कि काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी के जोडे़ में से नर पक्षी को बहेलिये ने मार गिराया था। इस पर मादा क्रौंच पक्षी का विलाप सुन कर वाल्मीकि जी ने बहेलिये को कोसा:-

मां निषाद प्रतिष्ठाम् त्वम् गम: शाश्वती शमा,
यत् क्रौंच मिथुनादेकम् वधी: काममोहितम् ।

(अरे बहेलिये तुमने काममोहित मैथुनरत कौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी प्रतिष्ठा न मिले)
इससे सिद्ध हो गया कि पहली बार जिसने कोसा था वह हमारे आदिकवि थे। एक के साथ एक फ़्री के अंदाज में यह भी तय हुआ कि जो पहली कविता के रूप में विख्यात है वह वस्तुत: कोसना ही था। अब चूंकि कोसना मतलब गाली देना तय हो चुका है लिहाजा यह मानने के अलावा कोई चारा नहीं बचता कि पहली कविता और कुछ नहीं वाल्मीकिजी द्वारा हत्यारे बहेलिये को दी गयी गाली थी ।
वियोगी होगा पहला कवि,आह से उपजा होगा गान को नये अर्थ-वस्त्र धारण करवाकर मेरा मनमयूर उसी तरह नाचने लगा जिस तरह अपने ब्लाग का टेम्पलेट एक बार फ़िर बदलकर किसी ब्लागर का नाचने लगता है तथा वो तारीफ़ की बूंद के लिये तरसने लगता है। अचानक हमारे मनमयूर को अपने भद्दे पैर दिखे और उसने नाचना बंद कर दिया तथा राष्ट्र्गान मुद्रा में खडा़ हो गया । हमने मुगलिया अंदाज में गरजकर पूछा- कौन है वो कम्बख्त जिसने मेरे आराम में दखल देने की गुस्ताखी की? सामने आ?
मन के कोने में दुबके खडे़ सेवक ने फ़र्शी सलाम बजाकर कहा -हुजूरे आला आपका इंकलाब बुलंद रहे । इस नाचीज की गुजारिश है कि आपने जो यह गाली के मुतल्लिक उम्दा बात सबित की है जिसे आजतक कोई सोच तक न पाया उसे आप कानूनी जामा पहनाने के किये किसी गाली विशेषज्ञ से मशवरा कर लें।
हमारे मन-शहंशाह ने कहा-तो गोया हालात इस कदर बेकाबू हो गये हैं कि अब माबदौलत को अपनी सोच को सही साबित करने के लिये मशवरा करना पडे़गा ?
सेवक ने थरथराने का मुजाहिरा करते हुये अपनी आवाज कंपकपाई- गुस्ताखी माफ़, हूजूरे आला ! खुदा आपके इकबाल को बुलंद रखे। गुलाम की इल्तिजा इसलिये है ताकि आपके इस ऊंचे ख्याल को दुनिया भी समझे। आम अवाम की जबान में आपकी बात रखी जायेगी तो दुनिया समझ जायेगी । इसीलिये अर्ज किया है कि इस ख्याल के बारे में किसी काबिल शख्स से गुफ़्तगू कर लें।
शहंशाह बोले- हम खुश हुये तुम्हारी समझ से। आगे से जो भी बाहियात ख्याल आयेगा माबदौलत उस पर तुमसे मशविरा लेंगे। बताओ किस शख्स से गुफ़्तगू की जाये?
सेवक उवाचा- गाली-गलौज के मामले में मुझे बबाली गुरु से काबिल जानकार कोई नहीं दिखा। यह बताकर सेवक उसी तरह लुप्त हो गया जिस तरह तीस सेकेंड बीत जाने पर कौन बनेगा करोड़पति के फ़ोनोफ़्रेन्ड विकल्प का सहायक जवाब देने वाला गायब हो जाता है। मन के बादशाह भी समझदार प्रतियोगी की तरह हाट-सीट त्यागकर ठंडे हो गये।
हमारे मन से बादशाहत तो हवा हो गयी लेकिन जेहन में बवाली गुरु का नाम उसी तरह अटका रहा जैसे रजवाडे़ खत्म होने के बावजूद उनके वंशजों में राजसी अकड़ बनी रहती है। या फ़िर वर्षों विदेश में रहने के बाद भी भाइयों के मन में मक्खी,मच्छर नाले अटके रहते हैं।
लिहाजा हम बवाली गुरु की खोज में निकल पडे़। बवाली गुरु के बारे में कुछ कहना उनकी शान में गुस्ताखी करना होगा। उनका वर्णन किया ही नहीं जा सकता । वे वर्णनातीत हैं । संक्षेप में जैसे हर बीमार उद्योग का इलाज विनिवेश माना जाता है,देश मे हुयी हर गड़बडी़ में बाहरी हाथ होता है उसी तरह बवाली गुरु हर सामाजिक समस्या की जड़ में गाली-गलौज में असुंतलन बताते हैं । वे शांति-सुकून के कितने ही घने अंधकार को सूर्य की तरह अपनी गाली की किरणॊं से तितर-बितर कर देते हैं।
बवाली गुरु के बारे में ज्यादा कुछ और बताने का लालच त्यागकर मैं बिना किसी भूमिका के बवाली गुरु से हुयी बातचीत आपके सामने पेश करता हूं।
बवाली गुरु,गाली शब्द का क्या मतलब है ?
अर्थ तो आपके ऊपर है आप क्या लगाना चाहते हैं। मेरे हिसाब से तो गाली दो लोगों के बीच का वार्तालाप है। ज्यादा ‘संस्किरत’ तो हम नहीं जानते लेकिन लोग कहते हैं कि ‘गल्प’ माने बातचीत होती है। उसी में ‘प’ को पंजाबी लोगों ने धकिया के ‘ल’ कर दिया । ‘गल्प’ से ‘गल्ल’हो गया। ‘गल्ल’ माने बातचीत होती है । यही बिगडते-बिगडते गाली बन गया होगा । तो मेरी समझ में तो गाली बोलचाल का एक अंदाज है। बस्स। गाली देने वाले का मन तमाम विकार से मुक्त रहता है।
अगर यह बोलचाल का अंदाज है तो लोग इसे इतनी बुरी चीज क्यों बताते हैं?
अब भइया, बताने का हम क्या बतायें? अइसा समझ लो कि जिसको अंग्रेजी नहीं आती वही कोसने लगता है अंग्रेजी को। ऐसे ही जो गाली नहीं दे पाता वही कहने लगता है कि बहुत बुरी चीज है। गाली देना बहुत मेहनत का काम है। शरीफ़ों के बस की बात नहीं।
क्या यह स्थापना सच है कि पहली कविता जो है वही पहली गाली भी था?
हां तब क्या ? अरे वाल्मीकि जी में अगर दम होता तो वहीं टेटुआ दबा देते बहेलिये का। मगर उसके हाथ में था तीर-कमान इनके हाथ में था कमंडल । ये कमजोर थे। कमजोर का हथियार होता है कोसना सो लगे कोसने वाल्मीकिजी। वही पहली गाली थी। और चूंकि श्लोक भी था अत: वही पहली कविता भी बन गया।
लोग कहते हैं कि वाल्मीकि जी ने दिया वह शाप था। गाली नहीं।
कैसा शाप ? अरे जब उसी समय बहेलिये को दंड न दे पाये तो क्या शाप ? शाप न हो गया कोई भारत की अदालत हो गयी।आज के अपराध के लिये किसी को दिया हुआ शाप सालों बाद फले तो शाप का क्या महत्व? शाप होता है जैसे गौतम ने अपनी बीबी को दिया । अपनी पत्नी अहिल्या को इंद्र से लटपटाते पकड़ लिया और झट से पानी छिड़ककर बना दिया पत्थर अहल्या को। वे अपनी बीबी से तो जबर थे तो इशू कर दिया शाप । लेकिन इंद्र का कुछ नहीं बिगाड़ पाये। तो उनको शाप नहीं दे पाये । कोस के रह गये होंगे। अब ये क्या कि आप बहेलिये को दीन हीन बन के कोस रहे हैं और बाद मे बतायें कि हमने शाप दे दिया । बाद में बताया भी लोगों ने (आह से उपजा होगा गान/उमड़कर आखों से चुपचाप)। ये रोना धोना कमजोरों के लक्षण हैं जो कि कुछ नहीं कर सकता सिवाय कोसने के।
गाली का सबसे बडा़ सामाजिक महत्व क्या है?
मेरे विचार में तो गाली अहिंसा को बढा़वा देती है। यह दो प्राणियों की कहासुनी तथा मारपीट के बीच फैला मैदान है। कहासुनी की गलियों से निकले प्राणी इसी मैदान में जूझते हुये इतने मगन हो जाते हैं कि मारपीट की सुधि ही बिसरा देते हैं। अगर किसी जोडे़ के इरादे बहुत मजबूत हुये और वह कहासुनी से शुरु करके मारपीट की मंजिले मकसूद तक अगर पहुंच भी जाता है तो भी उसकी मारपीट में वो तेजी नहीं रहती जो बिना गाली-गलौज के मारपीट करते जोडे़ में होती है। इसके अलावा गाली आम आदमी के प्रतिनिधित्व का प्रतीक है। आप देखिये ‘मानसून वेडिंग’ पिक्चर। उसमें वो जो दुबेजी हैं न ,जहां वो जहां मां-बहन की गालियां देते हैं पब्लिक बिना दिमाग लगाये समझ जाती है कि ‘ही बिलांग्स टु कामन मैन’ ।
ऐसा किस आधार पर कहते हैं आप? गाली-गलौज करते हुये मारपीट की तेजी कैसे कम हो जाती है?
देखो भाई यहां कोई रजनीति तो हो नहीं रही जो हम कहें कि यह कुछ-कुछ एक व्यक्ति एक पद वाला मामला है । लेकिन जैसा कि मैंने बताया कि मारपीट और गालीगलौज मेहनत का काम है। दोनो काम एक साथ करने से दोनों की गति गिरेगी। जिस क्षण तुमने गाली देने के लिये सीनें में हवा भरी उसी क्षण यदि मारपीट का काम अंजाम करोगे तो कुछ हवा और निकल जायेगी ।फिर मारपीट में तेजी कहां रहेगी? इसका विपरीत भी सत्य है। अब चूंकि तुम ब्लागिंग के चोचले में पडे़ हो आजकल तो ऐसा समझ लो जब रविरतलामीव्यंजल लिखते हैं तो पोस्ट छो॔टी हो जाती है। जब नहीं लिखते तो लेख बडा़ हो जाता है। तो सब जगह कुछ न कुछ संरक्षण का नियम चलता रहता है। कहीं शब्द संरक्षण कहीं ऊर्जा संरक्षण।
देखा गया है कि कुछ लोग गाली-गलौज होते ही मारपीट करने लगते हैं। यहां गाली-गलौज हिंसा रोकने का काम क्यों नहीं कर पाती?
जैसे आपने देखा होता है कि कुछ पियक्कड़ बोतल का ढक्कन सूंघ कर ही लुढ़कने लगते हैं। वैसे ही कुछ लोग मारपीट का पूरा पेट्रोल भरे होते हैं दिमाग की टंकी में। बस एक स्पार्क चाहिये होता है स्टार्ट करने के लिये । गाली-गलौज यही स्पार्क उपलब्ध कराता है। वैसे अध्ययन से यह बात सामने आयी है कि जो जितनी जल्दी शुरु होते हैं उतनी ही जल्दी खलास भी हो जाते हैं।
गाली-गलौज में आमतौर पर योनि अंगों का ही जिक्र क्यों किया जाता है?
मुझे लगता है कि पहली बार जब गाली का प्रयोग हुआ उस समय मैथुन प्रक्रिया चल रही थी । लिहाजा यौनांगों के विवरण की बहुतायत है गालियों में। दूसरे इसलिये भी कि मनुष्य अपने यौन अंगों को ढकता है। यौनक्रिया छिपकर करता है। गाली गलौज में इन्ही बातों का उल्लेखकर भांडा फोड़ने जैसी उपलब्धि का सुख मिलता है ।
गाली में मां-बहन आदि स्त्री पात्रों का उल्लेख क्यों बहुतायत में होता है?
मेरे विचार में पुरुष प्रधान समाज में मां-बहन आदि स्त्री पात्रों का उल्लेख करके गालियां दी जाती हैं। क्योंकि मां-बहन आदि आदरणीय माने जाते हैं लिहाजा जिसको आप गाली देना चाहते हैं उसकी मां-बहन आदि स्त्री पात्रों का उल्लेख करके आप उसको आशानी से मानसिक कष्ट पहुंचा सकते हैं। स्त्री प्रधान समाज में गालियों का स्वरूप निश्चित तौर पर भिन्न होगा।
स्त्री पात्रों को संबोधित करते समय गालियों की बात से यह सवाल उठता है कि पत्नी या प्रेमिका को संबोधित गालियां बहुत कम मात्रा में पायी जाती हैं?
तुम भी यार पूरे बुड़बक हो। दुनिया में लोग ककहरा बाद में सीखते हैं गाली पहले। तो लोग बाग क्या किसी को गरियाने के लिये उसके जवान होने और प्रेमिका तथा पत्नी हासिल करने का इंतजार करें। कुछ मिशनरी गाली देने वालों को छोड़ कर बाकी लोग प्रेमी या पति बनते ही गालियां देना छोड़कर गालियां खाना शुरु कर देते हैं। लिहाजा होश ही नहीं रहता इस दिशा में सोचने का। वैसे भी आमतौर पर पाया गया है कि मानव की नई गालियों की सृजनशीलता उसके जवान होने तक चरम पर रहती। बचपने में प्रेमी-पति से संबंधित मौलिक जानकारी के अभाव में इस दिशा में कुछ खास प्रगति नहीं हो पाती ।
एकतरफ़ा गाली-गलौज के बाद मनुष्य शान्त क्यों हो जाता है?
एक तो थक जाता है अकेले गाली देते-देते मनुष्य। दूसरे अकेले गरियाते-गरियाते आदमी ऊब जाता है। तीसरे जाने किन लोगों ने यह भ्रम फ़ॆला रखा है कि गाली बुरी चीज है इसीलिये आदमी अकेले पाप का भागी होने में संकोच करता है। जैसे भ्रष्टाचार है । इसे अगर कोई अकेला आदमी करे तो थककर ,ऊबकर ,डरकर बंद कर दे लेकिन सब कर रहे हैं इसलिये दनादन हो रहा है धकापेल।
कुछ लोगों के चेहरे पर गाली के बाद दिव्य शान्ति रहती है ऐसा क्यों है?
ऐसे लोग पहुंचे हुये सिद्ध होते हैं। गाली-गलौज को भजन-पूजन की तरह करते हैं। जैसे अलख निरंजन टाइप औघड संत।ये गालियां देते हैं तो लगता है देवता पुष्पवर्षा कर रहे हैं। शेफाली के फूल झर रहे हैं। इनके चेहरे पर गाली देने के बाद की शान्ति की उपमा केवल किसी कब्ज के मरीज के दिव्य निपटान के बाद की शान्ति से दी जा सकती है। जैसे किसी सीवर लाइन से कचरा निकल जाता है तो अंदर सफाई हो जाती है वैसे ही गालियां मन के विकार को दूर करके दिव्य शांति का प्रसार करती हैं। गाली वह साबुन है जो मन को साफ़ करके निर्मल कर देती है। फेफडे़ मजबूत होते हैं।
लेकिन गाली को बुरा माना जाता है इससे आप कैसे इन्कार कर सकते हैं?
भैया अब हम क्या बतायें ? तुम तो दुनिया सहित अमेरिका बने हो और हमें बनाये हो इराक। जबरियन गाली को बुरा बता रहे हो। वर्ना देख लो हिंदी थिसारस फ़िर से । गाली गीत (बधाईगीत,विवाहगीत,विदागीत,सोहरगीत,बन्नी-बन्ना गीत के साथ) मंगल कार्यों की सूची में शामिल हैं। केवल मृत्युगीत को अमंगल कार्य में शामिल किया गया है । जब गाली का गीत मंगल कार्य है तो गाली कैसे बुरी हो गयी?
वहां गाली गीत हो गई इसलिये ऐसा होता होगा शायद !
तुम भी यार अजीब अहमक हो। ये तो कुछ वैसा ही हुआ कि कोई वाहियात बात गाकर कह दें तो वह मांगलिक हो जायेगी। या कोई दो कौडी़ का मुक्तक लय ताल में आकर महान हो जाये ।
क्या महिलायें भी गाली देती हैं? अगर हां तो कैसी? कोई अनुभव?
हम कोई जानकारी नहीं है इसबारे में। लेकिन सुना है कि वे आपस में सौन्दर्य चेतना को विस्तार देने वाली बाते करती हैं।सुनने में यह भी आया है ज्यादातर प्रेम संबंधों की शुरुआत मादा पात्र द्वारा ‘ईडियट”बदतमीज”बेशरम’जैसी प्रेमपूर्ण बातें करने से हुयी। हमें तो कुछ अनुभव है नहीं पर सुना है कि कोई लड़की अपनी सहेली पूछ्ती है कि जब लड़के लोग बाते करते हैं तो क्या बाते करते होते होंगे? सहेली ने बताया -करते क्या होंगे जैसे हमलोग करते हैं वैसे ही करते होंगे। सहेली ने शरम से लाल होते हुये कहा -बडे़ बेशरम होते हैं लड़के।
लेकिन फिर भी यह कैसे मान लिया जाये कि गालियों की सामाजिक महत्ता है?
एक कड़वा सच है कि हमारी आधी आबादी अनपढ़ है। जो पढी़ लिखी भी है उसको यौन संबंधों के बारे में जानकारी उतनी ही है जैसे अमेरिका को ओसामा बिन लादेन की। गालियां समाज को यौन संबंधों की (अधकचरी ही सही) प्राथमिक जानकारी देने वाले मुफ्त साफ्ट्वेयर है। गालियां आदिकाल से चली आ रही हैं । कहीं धिक्कार के रूप में ,कहीं कोसने के रूप में कहीं आशीर्वाद के रूप में। हमारे चाचा जब बहुत लाड़-प्यार के मूड में होते हैं, एके ४७ की स्पीड से धाराप्रवाह गालियां बकते हैं। जिस दिन चुप रहते हैं लगता है- घर नहीं मरघट है। यह तो अभिव्यक्ति का तरीका है। आपको पसंद हो अपनाऒ न पसंद हो न अपनाऒ। लेकिन यह तय है कि दुनिया में तमाम बर्बादी और तबाही के जो भी आदेश दिये गये होंगे उनमें गाली का एक भी शब्द शामिल नहीं रहा होगा। निश्चित तौर पर सहज रूप में दी जाने वाली गालियों के दामन में मानवता के खून के बहुत कम दाग होंगे बनिस्बद तमाम सभ्य माने जाने वाले शब्दों के मुकाबले।
महाभारत के कारणों में से एक वाक्य है जिसमें दौप्रदी दुर्योधन का उपहास करती हुई कहती है -अंधे का पुत्र अंधा ही होता है। इन सात शब्दों में कोई भी शब्द ऐसा नहीं है जिसे गाली की पात्रता हासिल हो। फिर भी इनको जोड़कर बना वाक्य महाभारत का कारण बना।
इतना कहकर बवाली गुरु मौन हो गये। मैं लौट आया। मैं अभी भी सोच रहा हूं कि क्या सच में गालियों का कोई सामाजिक महत्व नहीं होता ?
मुझे जो कहना था वह काफ़ी कुछ कह चुका। अब आप बतायें कि क्या लगता है आपको?

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

12 responses to “गालियों का सामाजिक महत्व”

  1. Sunil
    वाह अनूप जी, आनंद आ गया यह लेख पढ़ कर, ज्ञान बढ़ोतरी भी हुई. आशा है यह लेख पढ़ कर बच्चों को, माता पिता के सामने, अपना बचाव करने लिए कई दलीलें मिल जायेंगीं. सुनील
  2. जीतू
    गालियाँ तो “ओपेन सोर्स” साफ़्ट्वेयर की तरह होती है जो “जीपीएल लाइसेन्स” के तहत दी जाती है,यानि के एक ने गाली दी, दूसरे ने कुछ और जोड़ा और आगे बढा दिया। माना कि कुछ गालियाँ “क्रियेटिव कामन्स लाइसेन्स” के तहत सुरक्षित होती है, लेकिन फ़िर भी यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ, मत पूछो कहाँ कहाँ छितरी पड़ी होती है, ठीक वैसे ही जैसे गूगल मे जब वर्डप्रेस प्लग-इन के लिये सर्च करो तो हर दूसरी साइट पर आपको प्लग इन मिल जाता है। अब बकिया बखान तो हमारे गाली विशेषज्ञ “मिर्जा साहब” ही करेंगे।
  3. eswami
    आपने भी गौर किया होगा की पीढी दर पीढी गली मोहल्लों मे खेले जाने वाले खेलों के अलिखित नीयम नही बदलते वही रहते हैं – यही गालियों के साथ भी होता है – बदलती नहीं हैं.
    इस की वजह है “कच्ची रोटी” – जी हां , मुहल्ले के बडे बच्चों के साथ खेलता वह नन्हा बालक जिसे बडे बच्चे खेलाते हैं ताकी वो कोई हम उम्र साथी ना मिलने पर ना रोये “चल तेरी कच्ची रोटी – अगर आउट होगा भी तो भी खेलते रहना कुछ देर” – ये बालक सब सीखता है खेल के नीयम और गालियाँ फिर आगे बढा देता है किसी और “कच्ची रोटी” को समय आने पर! :)
  4. विनय
    अब इस लेख के बाद भले गालियों का सकारात्मक सामाजिक महत्व न मानें पर कम से कम उनके ‘ब्लागिक’ महत्व से तो इंकार नहीं कर सकते. :)
  5. फ़ुरसतिया » मुझसे बोलो तो प्यार से बोलो
    [...] �गा। धांसू ‘परफेसर’ पढ़ायेंगे। बवाली गुरु को भी बुला लिया करेंगे। बढ़िया [...]
  6. श्रीश शर्मा 'ई-पंडित'
    हे गुरुदेव धन्य हुए यह लेख पढ़कर और परम ज्ञान हासिल करके। हरियाणवी और पंजाबी में तो वैसे भी दो गालियों (D.C और B.C) को काफी हद तक सामाजिक स्वीकार्यता हासिल है। वहाँ पर इनकी शब्दावली नहीं टाइमिंग महत्वपूर्ण होती है। जब शांतिकाल में बोली जाएं तो बातचीत का हिस्सा मात्र हैं जब अशांतिकाल में बोली जाएं तो गाली हैं।
  7. anamdasblogger
    क्या बात है, सचमुच अज्ञानवश इतनी मेहनत की, आपका वाले पीस पढ़ लिया होता तो बच जाता मेहनत से.सचमुच विशद विश्लेषण किया है आपने, काफ़ी अच्छा लगा. लिंक भेजने के लिए धन्यवाद
    अनामदास
  8. डा० अमर कुमार
    फुरसतिया गुरू
    मान गये आपको. बड़ा सटीक ‘इन्नोवेटिव टापिक ” लाते हैं .
    विनय जी ने गालियों के सामाजिक महत्व पर शंका जतायी है, अनुमति हो तो निवारण मैं कर दूं
    विनय सर जी , आप कहीं भी चले जाईये जहां कोई आपकी भाषा का अ-आ भी न जानता हो और किसी से मुखातिब हो कर एक गाली उछाल दीजिये ,बस देखिये मज़ा. आज़मा लें, ‘ मेलोडी खाओ, खुद जान जाओ ‘
    तो यह गाली रुपी नाउन आपके अभिव्यक्ति के चरम को छूता है, प्यार की धौल-धप्पे वाली गाली और क्रोध में दी हुई गाली मन को कितना सुकून देते हैं यह फिर कभी …….
    और फिर , गाली को तो कभी कभी रा्ष्ट्रीय हथियार की मान्यता देने का मन करता है. उत्कोच के बाद यदि कोई कारगर अस्त्र है तो गाली. आप प्रयोग करो आपकी अटकी हुई फ़ाईल न खिसके तो कहना. अन्यथा हमारे नेतागण खुल्लमखुल्ला गालियों की राजनीति करते न दिखते .
    अख़बार उठाइये, और देखिये . हम सफ़ेद कालर वाले इज़्ज़तदार व्यक्ति इसको न स्वीकारें यह दीग़र मुद्दा है
    वरना यह सब तो चल ही रहा है
  9. anitakumar
    स्त्री प्रधान समाज में गालियों का स्वरूप निश्चित तौर पर भिन्न होगा।
    सही शोध का विषय
    “कोई लड़की अपनी सहेली पूछ्ती है कि जब लड़के लोग बाते करते हैं तो क्या बाते करते होते होंगे? सहेली ने बताया -करते क्या होंगे जैसे हमलोग करते हैं वैसे ही करते होंगे। सहेली ने शरम से लाल होते हुये कहा -बडे़ बेशरम होते हैं लड़के।”
    हा हा हा
    “जो पढी़ लिखी भी है उसको यौन संबंधों के बारे में जानकारी उतनी ही है जैसे अमेरिका को ओसामा बिन लादेन की।”
    बढ़िया कटाक्ष्।
    “निश्चित तौर पर सहज रूप में दी जाने वाली गालियों के दामन में मानवता के खून के बहुत कम दाग होंगे बनिस्बद तमाम सभ्य माने जाने वाले शब्दों के मुकाबले।”
    बहुत अच्छे, सटीक चिन्तन,
    गुरु मान गये गालियों का भी सामाजिक महत्त्व होता है, सिर्फ़ निर्मल मन का व्यक्ति ही गाली दे सकता है बाकी सभ्य जन तो मानवता का खून करने में व्यस्त
    इस बेहतरीन पोस्ट के लिए धन्यवाद
  10. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
    आज चिठ्ठा चर्चा से यहाँ आया। पूरा लेख पढ़कर गालियों के प्रति मेरी दुर्भावना कम हो गयी। :)
    मजेदार क्लासिक रचना है यह।
  11. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] 1.गालियों का सामाजिक महत्व 2.रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है 3.कमजोरी 4.मुझसे बोलो तो प्यार से बोलो 5.जहां का रावण कभी नहीं मरता 6.हमारी उम्र तो शायद सफर में गुजरेगी 7.चलो चलें भारत दर्शन करने [...]
  12. सतीश पंचम
    हर पैरा एक अलग ही किस्म का दृष्टिकोण फेंक उठा रहा है….एकदम डम्पलाट टाईप पोस्टवा है :)
    जैसे आपने देखा होता है कि कुछ पियक्कड़ बोतल का ढक्कन सूंघ कर ही लुढ़कने लगते हैं। वैसे ही कुछ लोग मारपीट का पूरा पेट्रोल भरे होते हैं दिमाग की टंकी में। बस एक स्पार्क चाहिये होता है स्टार्ट करने के लिये । गाली-गलौज यही स्पार्क उपलब्ध कराता है। वैसे अध्ययन से यह बात सामने आयी है कि जो जितनी जल्दी शुरु होते हैं उतनी ही जल्दी खलास भी हो जाते हैं।
    एकदम मजेदार।

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