Saturday, September 13, 2014

मुंह खोला तो सिस्टम हिल जायेगा




आज सुबह जरा जल्दी जग गये। सोचा आज सूरज भाई से मुलाकात करेंगे। बाहर निकले तो दिखे नहीं सूरज भाई।  अपना रोशनी का ट्रक कहीं किनारे खडा करके बरखाजी के जलवे देख रहे होंगे। बिस्तर वाली चाय पीकर निकल लिये पुलिया की तरफ़ वह करने जिसे दुनिया ’मार्निंग वाक’ के नाम से जानती है। अखबार हाथ में थाम लिया। हाथ में अखबार बुद्धिजीवी होने का आइडेन्टिटी कार्ड है।

पुलिया तक पहुंचते-पहुंचते रिम-झिम बरसात होने लगी। शुरुआत ऐसे हुई जैसे बादल पहले पानी की बूंदो को भेजने से पहले टेस्ट कर लेना चाहता होगा कि ये नीचे तक पहुंचेंगी की नहीं। देखते-देखते बारिश तेज होती गयी। पुलिया पर पेड़ के नीचे खड़े भाईजान जो आश्रय के लिये खड़े थे वे अपने बरसाती साथ न लेकर आने के निर्णय को कोसने लगे कुछ वैसे ही  जैसे दुर्घटना घटने पर हेलमेट न लगाने पर अफ़सोस जताया जाता है।

बरसाती वाले  निर्णय को कोस लेने के बाद भाईजान अपने पुलिया के पास खड़े होने के निर्णय को कोसने लगे। बारिश तेज हो गयी तो बोले -"इससे अच्छा तो यूको बैंक के शेड के नीचे खड़े हो जाते।" इससे साबित होता है कि एक ही निर्णय समय के साथ अलग-अलग तरह से देखा जाता है।

पुलिया के पास के नये बने स्पीड़ ब्रेकर को कोई मोटर साइकिल  रौंद कर चला गये है।  लगा किसी मासूम के साथ दुराचार हुआ है। स्पीड ब्रेकर के बारे में बात होने लगी तो भाईजी ने कहा कि लोग बहुत स्पीड से आते थे। इससे लोगों की चाल कुछ मद्दी होगी।

पानी तेज हो गया तो खरामा-खरामा टहलते हुये कमरे पर लौट आये। कमरे के बाहर पानी धारो-धार बरस रहा है। सब बूंदे एक सीध में गिर रही हैं। बादल बूंदों को जमीन पर ऐसे भेज रहा है जैसे फ़ुटे से सीधी रेखा   खींच रहा हो।  सीधी रेखा बोले तो सरल रेखा । सरल रेखा की परिभाषा भी याद आ गई -" सरल रेखा शून्य चौडाई वाला अनन्त लम्बाई वाला एक आदर्श वक्र होता है"।  सरल रेखा का सूत्र भी y= mx+ c । ओह हम भी कहां घुस गये ’गणित गली’ में सुबह-सुबह। 

 अखबार में खबर है कि ;लोकायुक्त ने एक इंजीनियर को 50 हजार रुपये लेते हुये रंगे हाथ पकड़ा। कल के अखबार में व्यापमं घोटाले के आरोपी और अरबिंदो मेडिकल कालेज के संचालक डा. विनोद भंडारी ने पूछ्ताछ में बयान जारी किया- "मुंह खोला तो सिस्टम हिल जायेगा।" य़ह बयान पढकर आरोपी के प्रति मन श्रद्धा से भर गया लबालब। बेचारा अंदर हो गया सिस्टम के चलते लेकिन सिस्टम की रक्षा के लिये मुंह नहीं खोल रहा है। कित्ता प्यार है सिस्टम से।

ओह हम भी कहां-कहां टहलने लगे सुबह-सुबह। पुलिया से सिस्टम तक पहुंच गये। लौटते हैं वापस। चलते हैं अब दफ़्तर के लिये निकलना है।

1 comment:

  1. हम भी सोच रहे थे कि बहुत दिन से कुछ आ नहीं रहा, आज गूगल करके खोजे तो देखे कि पता ही बदला हुआ है। धत्त तेरे का! अब लगे हाथ पोस्ट निपटाते चल रहे हैं। इत्ते दिन से पढ़े नहीं, होमवर्क जमा हो गया है :) :)

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