Friday, March 28, 2014

युवा किरण "झुलसबबुला" हो गयी



आज अभी कमरे के बाहर निकलकर बरामदे में आये तो देखा सबेरा हो सा गया है. लान पर पसरी घास के रजिस्टर पर धूप ने अपने दस्तखत करके अपनी हाजिरी लगा दी है.

हाजिरी लगाने के बाद किरणें इधर- उधर टहलने निकल गई. कुछ किरणें पेड़ों पर चढ़कर इधर-उधर का नजारा देखने लगीं जैसे स्टेडियम के बाहर की छतों पर चढ़ कर लोग मैच देखते हैं.

पेड़ पर एक पत्ते ने किरणों को देखकर छेड़खानी सी करते हुए धीरे से कहा-क्या जम रही हो जी! अगल-बगल के पत्ते भी बेशर्मी से खी खी करने लगे. इस पर एक युवा किरण "झुलसबबुला" हो गयी. उसने अपनी सहेली हवा के साथ मिलकर उस पत्ते को इत्ती जोर से झकझोरा कि वो पेड़ से टूटकर नीचे गिरा और इधर-उधर करवटें लेते हुए तड़पने लगा.हर कोई उस पत्ते को अपने से दूर धकेलकर उससे अपना कोई संबन्ध न होने का दिखावा करते दिखा.

किरण ने फिर पेड़ से पत्तों की शिकायत की.पेड़ ने भी मौका अच्छा जानकार दो-चार ठरकी मनचले पत्तों को अपने से अलग कर दिया जैसे राजनीतिक पार्टियाँ पकड़े जाने पर अपने गुर्गों को पार्टी से निष्काषित करके अपने पाक-साफ होंने का एलान करती हैं.

कुछ किरणें पानी के टैंक में घुसकर जलक्रीड़ा करने लगीं. उनको खेलते देखकर आसपास के फूल-पौधे मुस्कराते हुए तालियाँ सरीखी बजाने लगे.

इत्ते में सूरज भाई भी दिख गए.जैसे एयरपोर्ट पर अगवानी के लिए अमला न मौजूद होने पर दौरे पर निकला बड़ा अफसर भन्नाता हुआ दीखता है वैसे ही वे मुआयना करते दिख रहे थे. सड़क पर लोग सूरज के तेवर से बेखबर आवाजाही में लगे हुए दिख रहे थे.

हमने थोड़ा सहमने का नाटक करते हुए सूरज भाई को बुलाया- "आइये भाई! चाय ठंडी हो रही है."

सूरज भाई ने भी मुस्कराते हुए कहा-" आते हैं आप शुरू करो"

हम चाय की चुस्की लेते हुए सूरज भाई को आते देख रहें है. सुबह हो ही गयी. आप मजे करो. मी अभी आता हूँ.

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