Thursday, October 30, 2014

इतिहास को ठीक से पढें, समझे


 आज परसाई जी के ’देशबन्धु समाचार’ पत्र में लोकप्रिय स्तम्भ ’पूछो परसाई से’ साम्प्रदायिकता पर पूछे गये एक सवाल का जबाब। सन 1986 में दिया गया यह जबाब आज 28 साल बाद भी उतना ही प्रासंगिक है।


प्रश्न : भारत में साम्प्रदायिक उन्माद कब खतम होगा? हमारे देश के सभी सम्प्रदाय के नेताओं के अथक प्रयास के बाद भी यह समस्या क्यों नहीं समाप्त हो रही है? हम युवाओं को आपका निर्देश?

(रायपुर से धर्मेश कुमार नामदेव ’पूछो परसाई से’ स्तम्भ में 13 अप्रैल 1986 को!)

उत्तर: बाकी बातें छोडिये। युवक क्या कर सकते हैं, यह समझिये! युवक पहले स्वयं शिक्षित हों और फ़िर लोगों को शिक्षित करें। शिक्षा से मतलब उस शिक्षा से नहीं जो लोगों को दी जा रही है। सही शिक्षा। इतिहास की
मध्ययुग के इतिहास की गलत समझ साम्प्रदायिक  द्वेष का मूल कारण है।

सही समझ होनी चाहिये। मध्ययुग के इतिहास की गलत समझ साम्प्रदायिक  द्वेष का मूल कारण है। यह इतिहास मुझे भी गलत पढ़ाया गया था और आप युवकों को भी गलत पढ़ाया जाता है। मुसलमान भारत में लूटपाट करने या राज्य जीतने के लिये आते थे। इस्लाम का नाम वे उत्तेजित करने के लिये लेते थे। महमूद गजनवी सोमनाथ का खजाना लूटने आया था, इस्लाम के लिये नहीं। उसकी सेना में हिन्दू बहुत थे। रास्ता
जितने हमलावर आये उन सबकी सेना में बहुत से सिपाही भारत में भरती होते थे। सिपाही अच्छी नौकरी करना चाहते थे, चाहे वह हिन्दू राजा की हो या मुसलमान की।
बताने वाले भी हिन्दू थे। जितने हमलावर आये उन सबकी सेना में बहुत से सिपाही भारत में भरती होते थे। सिपाही अच्छी नौकरी करना चाहते थे, चाहे वह हिन्दू राजा की हो या मुसलमान की। शिवाजी के सेनाध्यक्ष मुसलमान थे और प्रतापसिंह के हिन्दू। अकबर के सेनापति मानसिंह थे और औरंगजेब के सेनापति जयसिंह। बाबर की पानीपत की लड़ाई इब्राहिम लोदी से हुई जो मुसलमान था। राज्य और पैसे के मामले में न मुस्लिम-मुस्लिम भाई-भाई थे न हिन्दू-हिन्दू भाई-भाई। औरंगजेब की ज्यादा लड़ाई मुसलमानों से हुई थी।

पहले जो आये वे लुटेरे थे। मुगल यहां रहने आये थे। बाबर लौटकर वतन नहीं गया। मुगल लोगों की सभ्यता और संस्कृति उन्नत थी। इन्हें शकों और हूणों जैसी बर्बर जातियों की तरह भारतीय समाज पचा नहीं सकता था। ये ताजमहल बनाने वाले लोग थे। इनके साथ संस्कृतियों का समन्वय ही हो सकता था और वह हुआ।

हिन्दू से मुसलमान तलवार की धार से नहीं बने। कारीगर मुसलमान बने और नीची जातियों के लोग स्वेच्छा से बने। वे हिन्दू समाज में अछूत थे, अपमानित होते थे और अत्याचार के शिकार थे। उन्हें इस्लाम में बराबरी का दर्जा मिला। बहुदेववाद से छूटकर एकेश्वरवाद मिला।

मध्ययुग के काव्य में कहीं हिन्दू-मुस्लिम द्बेष नहीं है, समन्वय है।
मन्दिर लूटने का महकमा मुसलमान राजाओं के यहां नहीं था। हिन्दू राजाओं के शासन में बाकायदा मन्दिर लूटने का महकमा था। सबसे ज्यादा मन्दिर राजा हर्ष ने लूटे। मुसलमान राजा भी मन्दिर धन के लिये ही लूटते थे पर औरंगजेब काशी के विश्वनाथ मंदिर तथा उज्जैन के महाकाल मन्दिर को धन देता था।

इतिहास को ठीक से पढें, समझे। जाति प्रथा खत्म करें। मन्दिर और मस्जिद के लिये न लड़ें।
मध्ययुग के काव्य में कहीं हिन्दू-मुस्लिम द्बेष नहीं है, समन्वय है। मुसलमान कवियों ने कृष्ण पर काव्य लिखा है। कबीरदास ने हिन्दू -मुसलमान दोनों को पाखंड के लिये लताड़ा है पर यह नहीं कहा कि तुम भाई-भाई हो और आपस में मत लडो। इसकी जरूरत भी नहीं थी।

विस्तार से नहीं लिखा जा सकता। मेरा मतलब इतिहास को ठीक से पढें, समझे। जाति प्रथा खत्म करें। मन्दिर और मस्जिद के लिये न लड़ें। साम्प्रदायिक राजनीति के चक्कर में न आयें। द्वेष को खत्म करें। युवक जनता को शिक्षित करें।

-हरिशंकर परसाई

Wednesday, October 29, 2014

दुनिया का सबसे बड़ा गाँव गहमर

 अनूप शुक्ल की फ़ोटो.
कल पुलिया पर राम आशीष उपाध्याय से मिलना हुआ।2006 में फैक्ट्री से दरबान की पोस्ट से रिटायर हुए।फैक्ट्री में भरती होने के पहले 17 साल फ़ौज की नौकरी भी कर चुके थे।

उमर के लिहाज से कमजोर दिख रहे उपाध्याय जी पुलिया पर धूप सेंकने आये थे। चलने-फिरने में तकलीफ है थोडा। यहाँ कंचनपुर में रहते हैं। फैक्ट्री के कई बड़े-बड़े लोगों के नाम गिनाये कि उनको व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं।

गाजीपुर के गहमर गाँव के रहने वाले हैं राम आशीष उपाध्याय। बता रहे थे कि दुनिया का सबसे बड़ा गाँव है गहमर। 30-32 हजार फ़ौज के पेंशनर हैं गाँव में। बच्चे वहां जाने को राजी नहीं हुए तो यहीं रह गये।
 अनूप शुक्ल की फ़ोटो.
उपाध्याय जी से बतियाते हुए ही सामने की पुलिया से कचहरी वाले तिवारीजी भी अपने साथी के साथ आ गए। तिवारी जी ने उपाध्याय जी को सुरती तम्बाकू देने की पेशकश की जिसे उपाध्यायजी ने मना कर दिया यह कहते हुए कि-"अभैऐन तो खाए हैं।"

हम उनको धूप में छोड़कर दफ्तर चले आये।

(फोटो में गले में अंगौछा लटकाए उपाध्यायजी। टोपी लगाये तिवारी जी)

Tuesday, October 28, 2014

उठ जाग मुसाफिर भोर भई

सबेरे का समय है। जल्दी उठ गये तो सोचा देखा जाए कि सूरज भाई किधर हैं। दिखे नहीं अभी तक। पूरब दिशा बस हल्की सी लाल सी है। यह जताने के लिए कि इधर से ही निकलेगी सवारी भगवान भाष्कर की।

पेड़ पौधे सब शांत,सावधान मुद्रा में खड़े हैं। पत्तियाँ तक हिल-डुल नहीं रही हैं। शायद हवा का इन्तजार है इनको भी।

पेड़ों पर  इक्का-दुक्का पक्षी बैठे चहचहा रहे हैं। अलग-अलग आवाज में। अलग-अलग पेड़ों पर बैठे,अलग-अलग-अलग सुर में बोलते  पक्षी किसी चैनेल की प्राइम टाइम बहस में शामिल अलग-अलग पार्टियों के प्रवक्ताओं सरीखे लग रहे हैं। सबको सिर्फ बोलने से मतलब है। सुनने का काम जनता का है।

एक टुइयाँ सा पक्षी अचानक एक पेड़ से उडा और दूसरे पेड़ की तरफ चल दिया। बीच रस्ते में उसने पूरी कुलाटी मारी। हमें लगा कि बच्चा गया काम से। आत्महत्या करने के मूड में है क्या! हेलमेट भी नहीं लगाये है कोई पेड़ बीच चालान कर दे तो। लेकिन देखते-देखते वह दूसरे पेड़ पर पहुंचकर टें टें टें करने लगा। फिर  ट्विट ट्विट भी किया उसने कुछ देर। सबको संतुष्ट करने की कोशिश। ये पक्षी भी तुष्टिकरण की राजनीति सीख गए।

सूरज भाई पेड़ के पीछे से सरमाये से नमूदार हो रहे हैं। शरमाते से। सामने आने में हिचक से रहे हों जैसे। उनको लग रहा है कि वे शायद आज लेट हो गए।कुछ ऐसे ही कि रोज सबसे पहले दफ्तर आने वाला किसी को अपने से पहले दफ्तर में आया देखता है तो सोचता है कि वह देरी से आया आज।

सूरज भाई साथ में चाय पीते हुए किरणों,रोशनियों, उजालों, ऊष्मा को चारों दिशाओं में फ़ैल जाने का निर्देश देते रहे। ऊषा को वापस जाने को बोल दिया यह कहते हुए -"जाओ अब तुम्हारी ड्उटी पूरी। आराम करो जाकर।पहुंचते ही फोन कर देना।"

सड़क पर वाहन गुजरते दिखने लगे हैं। बच्चे स्कूल जा रहे हैं। लोग आफिस । कुछ लोग मार्निंग वाक करते हुए इतनी तेज भाग रहे हैं मानो अब वापस लौटकर न आयेंगे। 

बगल मंदिर का घंटा बजता जा रहा है।टन्न, टन्न,टन्न। आज तो मंगलवार है। बजरंगबली के दरबार की रौनक और बढ़ी दिखेगी।

सामने पेड़ की फुनगी पर चमकती किरण मुस्कराते हुए गुड मार्निंग सरीखा करते हुए उलाहना सा दे रही कि हम मोबाइल में डूबे हुए हैं इत्ती देर से और उसको देख ही नहीं रहे है।

हम मुस्कराते हुए उसको और उसकी संगी सहेलियों,दोस्तों और सबको गुडमार्निंग करने लगे। सूरज भाई का सारा कुनबा खिलखिलाते हुए शुभप्रभात करने लगा। सूरज भाई चाय पीते हुए मंद स्मित से सब देखते जा रहे हैं। फिर वे वंशीधर शुक्ल की कविता गुनगुनाने लगे:

उठ जाग मुसाफिर भोर भई,
अब रैन कहाँ जो सोवत है।

अब तो पक्का सुबह हो गयी। है न ! :)सबेरे का समय है। जल्दी उठ गये तो सोचा देखा जाए कि सूरज भाई किधर हैं। दिखे नहीं अभी तक। पूरब दिशा बस हल्की सी लाल सी है। यह जताने के लिए कि इधर से ही निकलेगी सवारी भगवान भाष्कर की।

पेड़ पौधे सब शांत,सावधान मुद्रा में खड़े हैं। पत्तियाँ तक हिल-डुल नहीं रही हैं। शायद हवा का इन्तजार है इनको भी।

पेड़ों पर इक्का-दुक्का पक्षी बैठे चहचहा रहे हैं। अलग-अलग आवाज में। अलग-अलग पेड़ों पर बैठे,अलग-अलग-अलग सुर में बोलते पक्षी किसी चैनेल की प्राइम टाइम बहस में शामिल अलग-अलग पार्टियों के प्रवक्ताओं सरीखे लग रहे हैं। सबको सिर्फ बोलने से मतलब है। सुनने का काम जनता का है।

एक टुइयाँ सा पक्षी अचानक एक पेड़ से उडा और दूसरे पेड़ की तरफ चल दिया। बीच रस्ते में उसने पूरी कुलाटी मारी। हमें लगा कि बच्चा गया काम से। आत्महत्या करने के मूड में है क्या! हेलमेट भी नहीं लगाये है कोई पेड़ बीच चालान कर दे तो। लेकिन देखते-देखते वह दूसरे पेड़ पर पहुंचकर टें टें टें करने लगा। फिर ट्विट ट्विट भी किया उसने कुछ देर। सबको संतुष्ट करने की कोशिश। ये पक्षी भी तुष्टिकरण की राजनीति सीख गए।

सूरज भाई पेड़ के पीछे से सरमाये से नमूदार हो रहे हैं। शरमाते से। सामने आने में हिचक से रहे हों जैसे। उनको लग रहा है कि वे शायद आज लेट हो गए।कुछ ऐसे ही कि रोज सबसे पहले दफ्तर आने वाला किसी को अपने से पहले दफ्तर में आया देखता है तो सोचता है कि वह देरी से आया आज।

सूरज भाई साथ में चाय पीते हुए किरणों,रोशनियों, उजालों, ऊष्मा को चारों दिशाओं में फ़ैल जाने का निर्देश देते रहे। ऊषा को वापस जाने को बोल दिया यह कहते हुए -"जाओ अब तुम्हारी ड्उटी पूरी। आराम करो जाकर।पहुंचते ही फोन कर देना।"

सड़क पर वाहन गुजरते दिखने लगे हैं। बच्चे स्कूल जा रहे हैं। लोग आफिस । कुछ लोग मार्निंग वाक करते हुए इतनी तेज भाग रहे हैं मानो अब वापस लौटकर न आयेंगे।

बगल मंदिर का घंटा बजता जा रहा है।टन्न, टन्न,टन्न। आज तो मंगलवार है। बजरंगबली के दरबार की रौनक और बढ़ी दिखेगी।

सामने पेड़ की फुनगी पर चमकती किरण मुस्कराते हुए गुड मार्निंग सरीखा करते हुए उलाहना सा दे रही कि हम मोबाइल में डूबे हुए हैं इत्ती देर से और उसको देख ही नहीं रहे है।

हम मुस्कराते हुए उसको और उसकी संगी सहेलियों,दोस्तों और सबको गुडमार्निंग करने लगे। सूरज भाई का सारा कुनबा खिलखिलाते हुए शुभप्रभात करने लगा। सूरज भाई चाय पीते हुए मंद स्मित से सब देखते जा रहे हैं। फिर वे वंशीधर शुक्ल की कविता गुनगुनाने लगे:
उठ जाग मुसाफिर भोर भई,
अब रैन कहाँ जो सोवत है।

अब तो पक्का सुबह हो गयी। है न !

Monday, October 27, 2014

हर भले आदमी की एक रेल होती है

ट्रेन कटनी स्टेशन पर खड़ी है। चाय पीने को उतरे तो सामने ही सूरज भाई दिखे। गुडमार्निंग हुई। चाय सात रूपये की है। पैसे टटोलते देख चाय-बच्चा बोला-"फुटकर हों तो 6 ही चलेंगे।" लेकिन मिल गये पूरे पैसे। हमने और सूरज भाई ने एक ही कप में चाय पी। मजेदार चाय।

"ट्रेन डेढ़ घंटा लेट है। मानिकपुर में समय के पहले थी। आगे जैतवारा में इसको साइड में रखकर तीन एक्सप्रेस और एक मालगाड़ी निकाल दीं। जबलपुर जल्दी पहुंचने के लिए इसमें ड्युटी लगवाई थी। कुछ व्यक्तिगत काम था। लेकिन ट्रेन ने सब गड़बड़ा दिया।"- प्लेटफ़ार्म पर खड़े ट्रेन के डिब्बे पर पान मसाले की पीक लगातार थूकते हुए टीटी ने बताया।

हमारी सीट के पास का चार्जिंग प्वाइंट उखडा हुआ है। टीटी को बताया तो बोले-"पुरानी बोगी है। ठीक करा देंगे जबलपुर में।"

ट्रेन चल दी है। खिड़की के बाहर सूरज भाई पूरे जलवे के साथ चमक रहे हैं। धरती धूप को अपने चहरे पर रगड़-रगड़ के चेहरा चमका रही है। मुट्ठी में भर-भर कर बार-बार धूप के छींटे मार रही है अपने मुंह पर। धरती के चेहरे से छिटकी हुई धूप आसपास के पेड़ पौधों,फूल,पत्तियों,लता,वितानों पर चमक रही है। धरती पर धूप ऐसे चमक रही मानों समूची कायनात मुस्करा रही हैं।

एक खेत के दो छोरों पर दो कुत्ते एक दूसरे की तरफ पीठ किये बैठे हैं। लग रहा है दोनों में बोलचाल बंद है। या फिर हो सकता है इनके यहाँ भी चुनाव हुआ हो। सीटों का तालमेल न हो पाने के चलते एक-दूजे से रूठने का रियाज कर रहे हों।

एक चिड़िया अकेली आसमान पर उठती,गिरती, लहराती हुई उड़ने की कोशिश करती उड़ भी रही है।आसपास कोई पेड़ नहीं है न कोई चिड़ियों की डिस्पेंसरी कि चोट लगने पर फ़ौरन इलाज हो सके लेकिन चिड़िया उड़ रही है। पंख से ज्यादा शायद अपने हौसले से। रमानाथ अवस्थी जी की कविता है न:

"कुछ कर गुजरने के लिए 
मौसम नहीं मन चाहिए।"

ट्रेन अब स्पीड पकड़ ली है। मन लगाकर दौड़ रही है। उसकी सीटी की आवाज सुनते हुए आलोक धन्वा की कविता याद आ रही है:

हर भले आदमी की एक रेल होती है
जो  माँ के घर की ओर जाती है

सीटी बजाती हुई।
धुँआ उड़ाती हुई।

कविता आलोक धन्वा की आवाज में यहाँ सुनिए।
http:/kabaadkhaana.blogspot.in/2013/01/blog-post_7.html?m=1ट्रेन कटनी स्टेशन पर खड़ी है। चाय पीने को उतरे तो सामने ही सूरज भाई दिखे। गुडमार्निंग हुई। चाय सात रूपये की है। पैसे टटोलते देख चाय-बच्चा बोला-"फुटकर हों तो 6 ही चलेंगे।" लेकिन मिल गये पूरे पैसे। हमने और सूरज भाई ने एक ही कप में चाय पी। मजेदार चाय।
"ट्रेन डेढ़ घंटा लेट है। मानिकपुर में समय के पहले थी। आगे जैतवारा में इसको साइड में रखकर तीन एक्सप्रेस और एक मालगाड़ी निकाल दीं। जबलपुर जल्दी पहुंचने के लिए इसमें ड्युटी लगवाई थी। कुछ व्यक्तिगत काम था। लेकिन ट्रेन ने सब गड़बड़ा दिया।"- प्लेटफ़ार्म पर खड़े ट्रेन के डिब्बे पर पान मसाले की पीक लगातार थूकते हुए टीटी ने बताया।

हमारी सीट के पास का चार्जिंग प्वाइंट उखडा हुआ है। टीटी को बताया तो बोले-"पुरानी बोगी है। ठीक करा देंगे जबलपुर में।"

ट्रेन चल दी है। खिड़की के बाहर सूरज भाई पूरे जलवे के साथ चमक रहे हैं। धरती धूप को अपने चहरे पर रगड़-रगड़ के चेहरा चमका रही है। मुट्ठी में भर-भर कर बार-बार धूप के छींटे मार रही है अपने मुंह पर। धरती के चेहरे से छिटकी हुई धूप आसपास के पेड़,पौधों,फूल,पत्तियों, लता, वितानों  पर चमक रही है। धरती पर धूप ऐसे चमक रही मानों समूची कायनात मुस्करा रही हैं।

एक खेत के दो छोरों पर दो कुत्ते एक दूसरे की तरफ पीठ किये बैठे हैं। लग रहा है दोनों में बोलचाल बंद है। या फिर हो सकता है इनके यहाँ भी चुनाव हुआ हो। सीटों का तालमेल न हो पाने के चलते एक-दूजे से रूठने का रियाज कर रहे हों।

एक चिड़िया अकेली आसमान पर उठती,गिरती, लहराती हुई उड़ने की कोशिश करती उड़ भी रही है।आसपास कोई पेड़ नहीं है न कोई चिड़ियों की डिस्पेंसरी कि चोट लगने पर फ़ौरन इलाज हो सके लेकिन चिड़िया उड़ रही है। पंख से ज्यादा शायद अपने हौसले से। रमानाथ अवस्थी जी की कविता है न:

"कुछ कर गुजरने के लिए
मौसम नहीं मन चाहिए।"

ट्रेन अब स्पीड पकड़ ली है। मन लगाकर दौड़ रही है। उसकी सीटी की आवाज सुनते हुए आलोक धन्वा की कविता याद आ रही है:

हर भले आदमी की एक रेल होती है
जो माँ के घर की ओर जाती है
सीटी बजाती हुई।
धुँआ उड़ाती हुई।
कविता आलोक धन्वा की आवाज में यहाँ सुनिए।
http:/kabaadkhaana.blogspot.in/2013/01/blog-post_7.html?m=1