Friday, November 28, 2014

बिना रौशनी के जिंदगी कैसी

सुबह उठे तो पता चला चीनी खत्म थी घर में।दउड़ा दिए गए लेने के लिए।बाहर निकले तो सूरज भाई पेड़ की आड़ में मुस्करा रहे थे। चमकते चेहरे से लग रहा था कि मजा आ रहा था उनको कि हमको जाड़े की सुबह-सुबह 'बिस्तर बदर ' कर दिया गया।

हमको लगा कि सूरज भाई कामकाजी हैं।फैशन ऊसन न करते होंगे। लेकिन आज देखा तो किरणों का रंग -बिरंगा मुकुट धारण किये हैं माथे पर। पीला और लाल रंग का गोल मुकुट।

इससे लगा कि लोग चाहे जितना सर्वहारा की सेवा करें लेकिन राजाओं की तरह मुकुट धारण करने की इच्छा से मुक्त नहीं हो पाते। लोकतन्त्र में आम जनता की सेवा के लिए दिन रात लगे रहने वाले जननायक भी अपनी बिरादरी के किसी मंच पर हाथ में तलवार लिए सर पर ताज धारण किये बरामद होते हैं। 

सूरज भाई से आज ब्लैक होल के बारे में बतियाते रहे। हमने पूछा -"भाईजी ये ब्लैक होल क्या होते हैं आपकी बिरादरी में?

कैसे बनते हैं? तुमसे मुलाक़ात होती है क्या उनकी कभी?"

सूरज भाई मुस्कराये और बोले- "ब्लैक होल हमरी बिरादरी के वे लोग होते हैं जो रौशनी हीन हो जाते हैं। सिर्फ अँधेरा होता है इनके पास।आसपास की जो भी रोशनी दिखती है इनको उसको पिंडारियों की तरह लूट लेते हैं। पूरे के पूरे सूरज तक को लील जाते हैं।डकार तक नहीं लेते।नेता जैसे परियोजनाओं का पैसा हिल्ले लगाते हैं ऐसे ब्लैक होल लोग सूरज पर सूरज निगलते जाते हैं और बेशर्मी से कहते हैं- ये दिल मांगे मोर।"

लेकिन सूरज भाई सिर्फ अँधेरे में कैसा लगता होगा ब्लैक होल को ?

बिना रौशनी के जिंदगी कैसी होती होगी उनके यहाँ? -हमने ऐसे ही पूछ लिया।

सूरज भाई इस पर गंभीर टाइप हो गए और बोले-"इसकी तो सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है।हमने कोई ब्लैक होल देखा तो नहीं सिर्फ बुजुर्गों से सुनते आये हैं।लेकिन यह समझ लो कि जब कोई सिर्फ लेना जानता है देना नहीं तो वह ब्लैकहोल हो जाता है।जहां जिंदगी को पनपने का मौका नहीं वहीं ब्लैक होल है।आम सूरज और ब्लैक होल में सिर्फ जिंदगी का फर्क होता है।"

सूरज भाई को सीरियस टाइप देखकर अनगिनत किरणें उनके आसपास इकट्ठा होकर उनको गुदगुदाने लगीं। एक बच्ची किरण ने तो उनको उलाहना सा दिया - "कहाँ सुबह-सुबह आप भी पाखण्डी बाबाओं की तरह प्रवचन करने लगे? मैं इत्ता अच्छा एक सुगन्धित फूल पर बैठी थी।आपको प्रवचन मोड में देखा तो मूड उखड़ गया।आपने मेरा मूड आफ कर दिया दादा। हाउ बैड। चलो अब मुस्कराओ।" यह कहते हुए उसने सूरज भाई के गुदगुदी कर दी। सूरज भाई मुस्कराने लगे। वह किरण भागकर फिर फूल पर पहुंच गयी और उसके ऊपर बैठकर सूरज भाई को हाथ हिलाते हुए अंगूठा दिखाया किया। सूरज भाई ने भी थम्पस अप वाला अंगूठा दिखाया तो उस बच्ची किरण ने सूरज भाई को उड़न पुच्ची भेजी। सूरज भाई शरमाते हुए हमारी तरफ देखने लगे।

सूरज भाई फिर चाय पीते हुए कहने लगे- "तुमने आज ब्लैक होल की बात की वो तो मैंने देखा नहीं। केवल सुना है।लेकिन यह समझ लो कि ब्लैक होल ऐसा ही होगा जैसी वह दुनिया होगी जहां लड़कियां नहीं होंगी।सिर्फ और सिर्फ लड़के होंगे। दुनिया को ब्लैक होल बनने से बचाना है तो लड़कियों को बचाये रखना होगा।"

"सूरज भाई आज तो आप ऐसे बतिया रहे हैं मनो कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ कोई भाषण देने जा रहे हैं।" हमारी यह बात सुनकर सूरज भाई मुस्कराये और अपनी गोद में धमाचौकड़ी मचाती किरणों को दुलराने लगे।
सुबह हो गयी।

Thursday, November 27, 2014

प्लेटफार्म पर मिलने वाली चाय और देश का चरित्र

"प्लेटफार्म पर मिलने वाली चाय से देश का चरित्र पता चलता है। यह देश कभी सुधर नहीं सकता।"

यह बात भीमसेन स्टेशन पर सुबह की चाय पीकर प्लास्टिक का ग्लास रेलवे की पटरी पर फेंकते हुए एक भाई साहब ने कही। चाय पांच रूपये की थी।ठण्डी भी थी।इसीलिए शायद भाई साहब गरम हो रहे थे।

हम कल चले जबलपुर से तो गाड़ी फुल भरी थी। RAC में साथ में एक स्वस्थ बाबा जी के साथ साझा सीट थी।60 साल की उमर के बाबा जी 36 साल पहले साधु हो गए थे।फतेहपुर के रहने वाले थे।हम बाबा जी से बतियाते हुए सीट के जुगाड़ में टहलते रहे टीटी के आसपास यह सोचकर कि कोई बर्थ खाली होगी तो झपट लेंगें।लेकिन आखिर में अंग्रेजी का 'अलास' कहकर सीट पर बैठ गए।

टीटी दूसरे डिब्बे में चला गया था।हम वहां भी गए। यह सोचकर कि वहां कोई बर्थ खाली होगी तो जुगाड़ लगाएंगे।वहां टीटी जी एक सवारी को पेनाल्टी लगा रहे थे।गणित बार-बार गड़बड़ा रहा था।1260 से होते करते जोड़ 1010 तक पहुंचा।तीन लोगों के परिवार में एक का टिकट कंफर्म नहीं था।यात्री का कहना था कि कायदे से केवल किराये का अंतर लेना लेना चाहिए टीटी को।टीटी का मत था नियम के हिसाब से पेनाल्टी पड़ेगी। कायदे और नियम में अंतत: नियम जीता। इस बीच यात्री ने अपने कई रिश्तेदारों के नाम गिना डाले टीटी को लेकिन टीटी चुपचाप पेनाल्टी बनाता रहा।

इस पेनाल्टी कथा में यात्री, टी टी , दर्शक और जिन लोगों के नाम यात्री ने बताया वे सब मिश्र, त्रिवेदी, शुक्ल घराने के ही लोग थे लेकिन पेनाल्टी होकर रही।इससे लगता है की रेलवे की पेनाल्टी में जातिवाद नहीं चलता। पेनाल्टी लगाने के बाद टीटी ने दो यात्रियों को कूपे के बाहर बर्थ पर बैठने की अनुमति दे दी। यात्रियों ने जबरदस्ती टाइप करते हुए पांच सौ रूपये टीटी के हाथ में ठूंस दिए।टीटी को यह गंदगी बर्दास्त नहीं हुई।उसने रूपये अपनी जेब के कूड़ेदान में फेंकते हुए ' स्वच्छ्ता अभियान ' में अपना विनम्र योगदान दिया।

लौटकर हम वापस आये तो बाबाजी बर्थ पर पाँव फैलाये बैठे थे।हमको देखकर पाँव समेट लिए।पहले तो बाबाजी के प्रति अवहेलना का भाव रहा।लेकिन फिर सोचा कि आशाराम और रामपाल की सजा इनको क्यों दें।यह ख्याल आते ही हमने सीनियर सिटीजन की उमर वाले बाबा जी को सीट पर लेट जाने को कहा।खुद बैठे रहे।भलमनसाहत दिखाने का मौका मिला।

साथ के एक यात्री परिवार हमारी हरकतों पर नजर रखे था। उससे हमारी यह भलमनसाहत बर्दाश्त न हुई।उसने अपनी दो छोटी छोटी बच्चियों को एक बर्थ पर लिटा दिया और अपनी सीट हमको दे दी। हमारी भलमनसाहत से बड़ी भलमनसाहत दिखा दी। हम थोड़ा ना नुकुर करते हुए बर्थ पर लेट गए।सो भी गए।

सुबह उठे तो भले परिवार को धन्यवाद देते हुए उनकी बच्चियों से भी बतियाये।बचपन की याद कविताएँ सबने सुनाईं। बाबाजी ने भी।

भीमसेन स्टेशन पर चाय वाला डायलॉग हुआ।पीछे देखा सूरज भाई एक तेल के वैगन के ऊपर बैठे मुस्करा रहे थे।उनको भी बर्थ नहीं मिली शायद। क्या पता कोई ऐसा परिवार मिला कि नहीं जिसने अपनी बर्थ उनको दे दी हो।

विदा होते समय मैंने बच्ची से कहा -तुम्हारे मम्मी,पापा का नेचर बहुत अच्छा है। यह बात उसने भागकर अपने पापा ,मम्मी को बताई। हम देख नहीं पाये लेकिन लगा कि यह सुनकर वे जरूर मुस्कराएं होंगे क्योंकि सूरज भाई के चहरे पर चमक बढ़ गयी थी।

कानपुर की सुबह महीने भर बाद देख रहे थे। खिली हुई धुप मानो कह रही थी-"झाडे रहो कलट्टरगंज।"

Wednesday, November 26, 2014

सूरज भाई के साथ एक सुबह

सुबह उठे।अलसाये से लेटे रहे। दरवज्जा खोला तो देखा सूरज भाई पीपल के पेड़ के पीछे से झाँक रहे थे। पीपल के पत्ते जालीदार कुर्ते की तरह पहने। दिख भी रहे थे और नहीं भी दिख रहे रहे।लेकिन रौशनी उनके होने की गवाही दे रही थी।

अशोक का पेड़ पहली मंजिल तक दिख रहा है।किरणें अभी केवल ऊपरी पत्तों तक पहुंची हैं।अगली खेप में नीचे और फिर अंदर की पत्तियों तक पहुंचें शायद। विकास की तरह है यहां भी मामला। ऊपर ऊपर दीखता है।जरूरी नहीं अंदर तक भी पहुंचे।

सूरज की किरणें पानी के बर्तन पर पड़ रहीं हैं। प्लास्टिक के हैंडल पर पड़ती किरण की चमक किसी कान के कुण्डल से छिटकी हुई रौशनी की तरह लग रही है।इससे यही लगा की सूरज भाई डुप्लीकेट माल नहीं सप्लाई करते। 

प्लास्टिक का पानी बर्तन सामने कम लेकिन शीशे में ज्यादा चमक रहा है। आभासी चमक ज्यादा दिखती ही है भाई।

बगल के कर्नल साहब के अर्दली उनकी सेवा में लग गए हैं।जयहिंद साब कहते हुए मार्निंग नमस्ते कर रहे हैं।
अखबार बता रहा है कि मर्सिडीज ने 41 लाख रूपये की गाड़ी उतारी है। हम सोच रहे हैं अगले महीने साइकिल खरीद लें।

पता चला है कि संसद में कालेधन को लेकर जोरदार हंगामा हुआ। लोग यही पूछ रहे हैं -काला धन कहाँ है?
काला धन अगर बोल सकता तो शायद कहता- मोको कहाँ ढूंढें रे बन्दे मैं तो तेरे पास में।

संसद की बात चलते ही सूरज भाई चाय पीते हुए हमको धूमिल की कविता सुनाने लगे-
"हमारे देश की संसद
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है।"

हम वाह-वाह करते हुए और कविता सुनाने का आग्रह करते तब तक सूरज भाई लपककर आसमान में चमकते हुए अपनी ड्यूटी बजाने लगे।

सुबह के पास होने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा था।

Tuesday, November 25, 2014

पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले

"पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले
झूठा ही सही।"
यही गाना बज रहा है चाय की दूकान पर अभी।बताओ आज जब दुनिया भर में प्यार की नदियां बह रही हैं, समुद्र गरज रहे हैं ऐसे में किसी को पल झूठा प्यार भी नहीं मिल रहा है-हाऊ पिटी।


सुबह मेस से चले तो सूरज भाई दूर से दिखे।कमांडो की तरह मुस्तैद।मोड़ पर पहुंचते ही रौशनी की बम्पर बारिश कर दी।हम अचकचा गए।इतनी रौशनी हम तो बर्दास्त कर गए।लेकिन कोई दिन रात कृत्तिम रौशनी में रहने वाला हो तो मारे चकाचौंध के उसका तो 'उजाला फेल' हो जाए।

एक स्वस्थ भाई जी हाथ में बीड़ी छिपाए नाक से धुंआ बाहर फेंक रहे थे। दो बच्चे साइकिल पर स्कूल भागे जा रहे थे।एक बच्चा ,जो अपनी गरदन में लदी पानी की बोतल से थोडा ही बड़ा था, सड़क पर खड़ा स्कूल ऑटो का इन्तजार कर रहा था।

बस स्टॉप पर एक आदमी झाडू से साफ़ फर्श को और साफ कर रहे था।पांच लोग उसको ' निठल्ले नयन' निहार रहे थे।कमर सीधी करते हुए उस व्यक्ति ने आत्मविश्वास से इधर-उधर ताका। मुझे लगा माइक खोज रहा है और मिलते ही 'भाइयों बहनो' शुरू कर देगा। आजकल राजनीति इतनी विकसित हो गयी है कि 'भाइयों बहनों' बोलता हुआ आदमी 'माँ बहन' कहते लोगों से बड़ा खतरा लगता है।लेकिन वह शरीफ आदमी बिना कुछ कहे अपने साथियों के साथ बैठ गया।
"फूल तुम्हें भेजा है ख़त में
फूल नहीं मेरा दिल है।"
यह गाना बजा तो लगा कि अपने देश में बहुत पहले कृत्तिम दिल का चलन शुरू हो गया था और बच्चा-बच्चा दिल इधर-उधर करना जानता था।

एक पंचर बनाने वाला दूकान पर झाडू लगा रहा था।झाडू लगाने के बाद उसने दूकान के ऊपर लगी फ़टी प्लास्टिक को सीधा किया। इसके बाद वह पास के नल से पानी लेने चला गया।

इस बीच सूरज भाई साथ आ गए।हमने उनसे पूछा कि आपका संस्कृत के बारे में क्या विचार है।इसे स्कूलों में पढ़ाया जाए या नहीं? इस पर सूरज भाई बोले-"संस्कृत में हमारा हाथ ज़रा तंग है। हमको तो एक ही श्लोक आता है संस्कृत का:
अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम्
उदार चरितानाम् वसुधैव कुटुम्बकम्। "
(यह मेरा है वह पराया है यह गिनती छोटे लोग करते हैं।उदार चरित वालों के लिए सारी धरती ही परिवार के समान है।)

वाह आज तो ऊंची बात खैंच दी सूरज भाई आपने। मेरी यह बात सुनकर सूरज भाई मुस्कराने लगे।धूप गुनगुनी हो गयी।

सुबह हो गयी।

Monday, November 24, 2014

कविता की रजिस्ट्री थोड़ी होती है

आज सुबह साईकिल नहीं मिली तो पैदल ही टहलते रहे इतै-उतै।

सूरज भाई अपने अमले के साथ शान से धरती पर आते दिखे।शुरुआत में थोड़ी सी रौशनी और थोड़े से उजाले के साथ काम शुरू किया।जैसे नया प्रधानमन्त्री शुरुआत में मंत्रिमंडल छोटा रखता है कुछ वैसे ही।

किरणें तो धरती पर पहुंचते ही इधर-उधर खिलंदड़ी करने लगीं। ओस की बूंदों पर झूले की तरह उतरने-चढ़ने लगीं।एकसाथ कई किरणों की सवारी से ओस की बूँद हिल-डुल जाती तो कुछ किरणें धप्प से जमीन पर गिर जातीं।इससे बाकी की किरणें ताली बजाते हुए खिलखिलाने लगतीं।ओस की बूँद भी मुस्कराते हुए किरण-कौतुक देखती रहती।उसका भी चेहरा चमकने लगता। सूरज भाई भी वात्सल्य से अपनी बच्चियों को निहारते रहते।

मेरे साथ चाय पीते हुए सूरज भाई किरणों को पेड़ की पत्तियों , फुनगी , फूलों , कलियों पर धमाचौकड़ी करते हुए देख रहे हैं। आज चाय चौकस बनी है कहते हुए सूरज भाई हमको कविता सुनाने लगे:
"तुम,
कोहरे की चादर में लिपटी,
किसी गुलाब की पंखुड़ी पर
अलसाई सी ठिठकी ओस की बूँद हो
नन्हा सूरज तुम्हें बार-बार छूता,खिलखिलाता है।
अपनी हर धड़कन पर
मुझे सिहरन सी होती है
कि कहीं इससे चौंककर
तुम फूल से नीचे न ढुलक जाओ।"
हमने कहा कि वाह भाई हमारी ही कविता हमको सुना रहे हो।

"अरे कविता की रजिस्ट्री थोड़ी होती है। जो बांच ले उसकी हो जाती है।" यह कहते हुए सूरज भाई डबल मुस्कराने लगे।उजाला हो गया।

सुबह हो गयी।

सूरज भाई के साथ सुबह की चाय

सूरज भाई के साथ सुबह की चाय।



Sunday, November 23, 2014

आपकी आँखो में कुछ महके हुए ख़्वाब हैं

 

"जो वादा किया , वो निभाना पड़ेगा
रोके जमाना चाहे,तुमको आना पड़ेगा।"

यह कह रहे हैं चाय वाले भाई रेडियो के साथ गुनगुनाते हुए।आज तय किया था कि ग्वारीघाट तक साइकिल से जाएंगे लेकिन साथी शेखर पाण्डेय का पहला दिन था साइकिलिंग का सो ग्वारीघाट का प्लान स्थगित कर दिया और खमरिया की तरफ चल दिए।

चलते हुए रेडियो कह रहा था:
"आपकी आँखो में कुछ महके हुए ख़्वाब हैं
आपसे भी खूब सूरत आपके अंदाज हैं"

सूरज भाई धरती पर रौशनी भेजकर उसको खुश करने की कोशिश सा करते हुए दिख रहे थे। जैसे कोई प्रवासी पति घर लौटते हुए अपनी घरैतिन के लिए खूब सारे गहने,कपडे लत्ते के उपहार लाकर उसको खुश करने की कोशिश करता है वैसे ही सूरज भाई रात भर बाहर रहकर सुबह लौटे हैं और पूरी धरती को रौशनी के गहने से सजाते हुए खुश करने की कोशिश कर रहे हैं। धरती भी हवाओं के माध्यम से इठलाती, लजाती हुई खुश होकर सूरज को निहार रही है।प्रफुल्लित हो रही है।

आगे एक अखबार वाले बच्चे ने साइकिल पर चढ़े-चढ़े ही ऊपर अखबार फेंका।अखबार रेलिंग से टकराकर नीचे गिरा।हमने देखा सूरज भाई मुस्कराते हुए हमारी तरफ देख रहे हैं गोया कह रहे हों -"ऐसा ही हमारे साथ भी होता है।हम सब जगह बराबर रौशनी भेजते हैं।लेकिन कभी-कभी थ्रो गलत हो जाता है।दिल्ली की रौशनी कलकत्ता चली जाती है, लखीमपुर की जबलपुर।"

एक बच्ची एक ब्रश करते हुए पिता के कंधे पर उसकी परियोजना की तरह सवार थी। हमने उसको हाथ हिलाकर बाय किया तो उसने भी हाथ हिलाया हल्के से मुस्कारते हुए। उसके दादी-बाबा हमारा यह हाथ हिलौवा संवाद अपनी नातिन को फुल वात्सल्य के साथ निहारते हुए देखते रहे।बच्ची का पिता इस सबसे बेखबर बच्ची को अपने कंधे पर लादे ब्रश करता रहा।

लौटते में देखा एक जगह कुछ महिलायें लकड़ियाँ बिन रहीं थी। साथ के आदमी उनके सर पर लकड़ी लादने में सहायता कर रहे थे बस। अक्सर मैंने देखा है कि जहां आदमी और औरत दोनों काम करते हैं वहां आदमी अपना रोल अपेक्षाकृत निठल्लेपन का ही चुनता है।

पता चला कि ये लोग पास के मंडला जिले के रहने वाले हैं ।यहां मजूरी करने आये हैं। एक ठेकेदार के यहाँ। आज इतवार है तो हफ्ते भर का ईंधन जुटाने निकल पड़े।सुबह से बिन रहे थे लकड़ी।

लौटते में एक तालाब के पास देखा तो तमाम बगुले तालाब की जलकुंभी पर जगह-जगह अपना कब्जा जमाये हुए दिखे।प्रवचन मुद्रा में। उनको देखकर मुझे शहरों में जगह-जगह अतिक्रमण करके बनाये धर्मस्थल याद आये।बगुले धर्मगुरुओं की तरल 'निर्लिप्त घाघ' लग रहे थे।

मेस में पहुंचकर देखा सूरज भाई धरती के साथ गुफ्तगू करते हुए मुस्करा रहे थे। किरणें उजाले के साथ खिलखिलाते हुए बतिया रहीं थीं। सुबह हो गयी थी।


  • Kiran Dixit हम भी यही कहना चाह रहे हैं -
    आपके लेखन में कुछ महकी हुई सी बात है ।
    आपसे भी खूबसूरत आपके अंदाज़ हैं ।।
  • Priyam Tiwari आप अपरोक्ष रूप से बार बार मुझे भी साइकल खरीदकर वज़न कम करने का निर्देश दे रहे हैं।
  • Amit Kumar Hame bhi hamare vidyarthi dino ki yaad aa gayi aapki cycle ki baat pe jab ham apne shahar (paida to nahi hue the wahan lekin wo apna ho gaya hai) ka chakkar ek purani cycle (kyonki nai wali cycle khareedne ke doosre din hi chori ho gayi thi) pe kat te the.
  • Nirupma Pandey admi apne liye nithallepan ka kaam dhundta h... vakai bara minute observetion h