Saturday, January 31, 2015

नहीं रहे रामफल

रामफ़ल हमारी किताब ’पुलिया की दुनिया’ का विमोचन करते हुये।
आज दोपहर बाद शहर जा रहे थे तो फैक्ट्री से यादव जी का फोन आया। साहब बुरी खबर है। रामफल का हार्टफेल हो गया।वो नहीं रहा।

रामफल हालांकि हमारी फैक्ट्री में काम नहीं करते थे। लेकिन लम्बे समय तक फैक्ट्री इस्टेट में फल विक्रेता के चलते तमाम लोग जानते थे उनको।यादव जी उनके घर के पास रहते हैं। एम टी में हैं। अक्सर रामफल के बारे में बात करते रहते थे। जिस दिन रामफल को सुनने की मशीन दिलाकर लौटे थे उस दिन भी उनके घर के पास मिले थे। उनके बारे में अपडेट देते रहते थे।

रामफल से आखिरी बार 26 जनवरी को मुलाकात हुई थी। VFJ स्टेडियम के बाहर। उस दिन तबियत कुछ ज्यादा खराब थी। फल लेने के बाद हमने कहा । कुछ दिन ठेला मत लगाओ। घर जाओ।आराम करो। इस पर रामफल बोले- 'ये 13000 रूपये के फल लिए हैं।इसके बाद आराम करेंगे। बेच लें नहीं तो खराब हो जाएंगे।कल डॉक्टर के पास गए थे। मिला नहीं। आज जाएंगे।'

रामफ़ल हमारे परिवार के लोगों के साथ दिसंबर 2014 में



मैं फल लेकर चला आया। बीच में मुलाक़ात नहीं हुई।कल इतवार को मुलाक़ात होनी थी। पुलिया पर। लेकिन इसके पहले आज उनके निधन का दुखद समाचार मिला।

रामफल के घर गए शाम को।पता चला 26 को घर चले आये थे। डॉक्टर ने दवा दी थी। इन्हेलर भी। उससे आराम था। उसके बाद आज तक ठेला नहीं लगाया था। आज सुबह ढाडी बनवाने अपने आप गए थे। नाश्ता किया। हलवा खाया।फिर बच्चे के साथ वोट डालने गए।लौटकर आये तो दिल का दौरा पड़ा और रामफल 'शांत' हो गए।

रामफल के घर के बाहर उनके परिवार के लोग जमा थे। उनके छोटे भाई जो खमरिया में फल लगाते हैं, उनका बड़ा (42 साल का ) बेटा, छोटा बेटा और छोटी बेटी जो हाल ही में विधवा हुई थी और अन्य लोग मिले।
बेटी ने बताया -' पापा बहुत सीधे थे। अम्मा तेज हैं।पापा सबकी चिंता में घुलते गए। अपने दामाद (उसके पति) के न रहने पर हमारी चिंता बहुत करते थे।वही चिंता उनको खा गयी।' यह कहते हुए वह आंसू पोंछते हुए चुप हो गयी।

रामफल के दोनों बेटे मजूरी करते हैं। अनियमित आमदनी। घर के सब लोग ऐसे ही मजूरी या फल बेचने का काम करते हैं।

रामफल को सांस और ब्लड प्रेसर की समस्या थी। मैंने परचा देखा तो किन्हीं डॉक्टर सेठी का इलाज चल रहा था जो की बाल रोग विशेषज्ञ हैं।

रामफ़ल अपने नाती नातिन के साथ पुलिया पर
घर के अंदर महिलाएं बारी-बारी से रो रही थीं। एक महिला ने चादर हटाकर रामफल का चेहरा दिखाया।मैंने रामफल को नमन किया और वापस चला आया।कल उनका दाहसंस्कार होगा।इतवार के दिन। जब रामफल से मुलाकात पुलिया पर होती थी। वे अपने ठेले पर होते थे। कल  मुलाक़ात श्मशान घाट पर होगी और रामफल चिता पर होंगे।

रामफल का हमारा साथ कुछ महीनों का ही रहा।लेकिन इतने दिनों में ही उनसे इतना अपनापा हो गया था कि हफ्ते में कम से कम एक बार मुलाक़ात जरूर होती।इतवार को लंच बन्द कर देते हमेशा और रामफल के यहां से लाकर फल ही खाते।रामफल भी इन्तजार करते। देर होती तो मिलने पर कहते -'हमें लगा दिल्ली चले गए।'
हमसे जब मिलते तो अगर कान की मशीन न लगाये होते तो बिना पूछे सफाई देने लगते- 'अभी उतारी है खाना खाने के लिए। घर में भूल गए। लड़का लेने गया है।हम जल्दी चले आये भतीजा ला रहा है।'

हमारे घर वाले आये थे तो रामफल के साथ सबने फ़ोटो खिंचवाई।रामफल ने मेरी श्रीमती जी को अलग से संतरा दिया था। रामफल के तमाम डायलाग याद आ रहे हैं:

-सात साल का था तो सर पर कफ़न बांधकर निकला था।
-नेहरू जैसा प्रधानमन्त्री कोई नहीं हुआ।
-इंदिरा गांधी ने कोई गन्दा काम नहीं किया।
-तिवारी जी बम्बई चले जाओ अमिताभ बच्चन के घोड़ों की मालिश का काम मिल जाएगा।
-सारा खेल पैसे का होता है।
-प्रतापगढ़ से आया हूँ। पचास साल से फल बेंच रहा हूँ।रामफल यादव नाम है मेरा।

रामफल यादव से जो फल लाये थे 26 जनवरी को उनमें से कुछ सामने रखे दिख रहे हैं। रमानाथ अवस्थी जी की कविता पंक्तियाँ याद आ रहीं हैं:

"आज आप हैं हम हैं लेकिन
कल कहाँ होंगे कह नहीं सकते
जिंदगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।"

शायद हमारा और रामफल का साथ इतने दिन का ही बदा था। उनकी याद को नमन!




Thursday, January 29, 2015

दूल्हा वो बैठा है लेकिन पयजामा मेरा है

एक गांव से बारात दूसरे गांव गयी। पता चला कि दूल्हे के नये कपड़े खो गये। बड़े-बुजुर्गों ने उसके हम उम्र एक लड़के से गांव/बारात की इज्जत का हवाला देकर उसके नये कपड़े दूल्हे को दिला दिये।

बारात जब गांव पहुंची तो स्वाभाविक तौर पर लोगों ने पूछा -दूल्हा किधर है?

जिसके नये कपड़े छिन गये थे उस लड़के ने कहा- दूल्हा वह बैठा लेकिन जो पायजामा वो पहने है वह मेरा है।
गांव वाले हंसने लगे कि दूल्हा उधार के कपड़े पहने है।

बुजुर्गों ने ऊटपटांग बयान देने के लिये उसको डांटा। वह चुप हो गया।

कुछ देर बाद जब फ़िर गांव वालों ने पूछा कि दूल्हा कहां है तो वह बोला- दूल्हा वह बैठा है और जो पायजामा वह पहने है वह भी उसी का है।

लोग फ़िर हंसे। समझ गये। वह फ़िर डांटा गया कि पायजामे की कहानी कहने की क्या जरूरत है?

कुछ देर बाद फ़िर पूछा-पुछौव्वल हुई तो वह बोला- दूल्हा तो वह बैठा है लेकिन जो पायजामा वह पहने है उसके बारे में हम कुछ न कहेंगे।

तो भैया दुनिया में कपड़ों के पीछे बहुत कुछ होता है। लेकिन हम जो कहना चाहते हैं उसके बारे में कुछ न कहेंगे।
हम अच्छे कपड़े पहने हैं तो जरूरी थोड़ी की अपने ही पहने हों। किसी अजीज के भी तो हो सकते हैं। महसूस कर रहा/रही है.

Monday, January 26, 2015

अमेरिकी राष्ट्रपति का भारत दौरा

 

  • ओबामा का आगरा दौरा रद्द हो गया। कई कारण बताये गये। कोई तो कह रहा था कि उन्होंने कहीं पढ़ लिया कि ताजमहल बनवाने वालों के हाथ कटवा लिये गये थे। उनको डर लगा कि कहीं इतिहास अपने को दोहराते हुये न जाने क्या कर डाले! क्या पता उनका जहाज ही धरवा लिया जाये।




  • ओबामा के एक खास आदमी में बताया कि ओबामा दरअसल आगरे का पेठा खाने आना चाहते थे। ताजमहल तो एक बहाना था। जब उनको पता चला कि उनको यहां पेठा खाने की बजाय वही 5 स्टार वाला खाना खाने को मिलेगा तो उन्होंने कहा- "दुर, जब पेठा नहीं मिलना खाने को त काहे के लिये जाना आगरा- पागल हैं का?"




  • चलने से पहले अमेरिका से फोन आया था। बोले -"भाई साहब, जबलपुर आने बहुत मन है। पुलिया पर बैठकर फोटो खिंचवाने का और रामफ़ल से बतियाने की इच्छा है।"

  • हमने कहा- " अभी यहां मौसम बहुत खराब है। जहाज उतर नहीं पाते। रामफ़ल भी इतवार को इस बार फ़ैक्ट्री के पास ही ठेला लगायेंगे। पुलिया पर नहीं आयेंगे। अभी रहन देव। फ़िर कभी देखा जायेगा। "
    वो बोले -" ठीक है , भाई साहब, जैसा आप कहें।"

    "भारत में बापू के आदर्श आज भी जिन्दा हैं।" -राजघाट पर अमेरिकी राष्ट्रपति । व्याख्या: हमने दुनिया भर में इतने हथियार बेचे। चलाये। चलवाए। लेकिन भारत में बापू के आदर्शो को निपटा नहीं पाये। लेकिन हम हार नहीं मानेंगे। इनको निपटानें की कोशिश करते रहेंगे।


    ओबामा जी ने फोन करके पूछा- "भाई साहब आप बिना समुचित सुरक्षा इंतजाम के कैसे इतने मस्त रहते हैं? " हमने बताया -"हम अपना लक पहन के चलते हैं।लक्स कोजी पहनते हैं।"
    इस पर वो बोले -" हम फालतू में सुरक्षा के लिए हथियार पर इतना पैसा फूंकते हैं। हम भी लक पहन के चलने लगेंगे।पैसा बचाएंगे।"
    हमने कहा-"ऐसा करोगे तो हथियार कम्पनी के मालिक अपना राष्ट्रपति बदल देंगे।"
    वो बोले- "हाँ भाईसाहब आप बात तो सही कहते हैं।"

    "अबे ये बताओ कि ओबामा मसाला कौन सा खाता है पान पराग की कमला पसंद?" -एक सहज कनपुरिया जिज्ञासा।

    भारत और अमेरिका में परमाणु समझौता सम्पन्न हुआ। दोनों ने संयुक्त रूप से घोषित किया-"परमाणु के भीतर इलेक्ट्रान,प्रोट्रान और न्यूट्रॉन होते हैं।" सारी दुनिया इस घोषणा को मानने को मजबूर हुई।


    परमाणु समझौता सम्पन्न होते ही अमेरिकी रिएक्टर बनाने वालों ने ओबामा को एस.एम.एस. किया - "कबाड़ के अच्छे दाम मिल गए।गुड वर्क डन।"
    भारत और अमेरिका की संयुक्त प्रेस वार्ता इस संवाद के साथ शुरू हुई- "समय बिताने के लिए करना है कुछ काम
    शुरू करो अंताक्षरी लेकर हरि का नाम ।"


    प्रधानमंत्री जी ने अपनी हिंदी को किनारे करते हुए अंग्रेजी में सम्बोधन शुरू किया। भारतीय भावुक होता है तो अंग्रेजी बोलने लगता है।


    अमेरिका से दोस्ती करते समय यह ध्यान भी रखना होगा कि उसका और हमारे कानपूरिया "ठग्गू के लड्डू" का एक ही नारा है....
    "ऐसा कोई सगा नही,
    जिसको हमने ठगा नही"

    भारत और अमेरिका परमाणु समझौता उम्रदराज हो चुकी लड़की (पुरानी होती परमाणु तकनीक) और बुढौती की तरफ़ बढ़ते लड़के( कोई रिश्ते की आस में) के गठबंधन सरीखा है। रिश्ता तय होने दोनों पक्ष खुश हैं।
    "तुम हमें नयी नौकरी दो, हम तुम्हें पुराने रिएक्टर देंगे।" -अमेरिका का नारा।


    एक कानी लड़की का विवाह लड़के वालों को झांसे में डालकर सम्पन्न कराया गया।शादी होते ही लड़की वालों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा और उनमें से एक चिल्लाया- 'जग जीति लिहिस मोरी कानी'
    (हमारी कानी लड़की ने संसार पर विजय प्राप्त कर ली)
    इस पर लड़के वालों में से एक ने कहा-
    'वर ठाड़ होय तब जानी'
    (लड़का खड़ा हो जाय तब समझना--(वर लँगड़ा था) )
    टेलीविजन पर भारत अमेरिकी संबंधों पर भारतीय मीडिया का लहालोट उत्साह देखकर यह कथा याद आ गयी।



    2008 में हुआ परमाणु समझौता सुरक्षा कारणों रुका हुआ था।अब वह अड़चन दूर हो गयी और तय हुआ कि परमाणु दुर्घटना की स्थिति में बीमा की रकम भारत की बीमा कम्पनियां और भारत सरकार देगी और रही बात लोगों की जान की तो उसकी क्या कीमत? वैसे भी देश के (विकास के) लिए कुर्बान होने वालों की जान की कीमत भला कोई लगा सका है आजतक?


  • अमेरिका में न्यूक्लियर पावर प्लांट की स्थिति:
    1. अमेरिका में 100 न्यूक्लियर रिएक्टर हैं जो कि वहां की 19.40 % ऊर्जा की कमी पूरा करते हैं।
    2. वहां 1974 से कोई नया प्लांट नहीं लगा।
    3. न्यूक्लियर पावर प्लांट लगाना और उसका रखरखाव मंहगा है।
    4. बचे हुये ईंधन का सुरक्षित रखरखाव कठिन काम है।
    5. जापान में हुई नाभिकीय दुर्घटना के कारण।
    6. 2013 में चार पुराने रिएक्टर लाइसेंस अवधि के पहले ही स्थायी रूप से बंद कर दिये गये। ऐसा करने के पीछे ऊंची रिपेयर और रखरखाव की कीमत और गैस के दाम कम होने के कारण किया गया।
    7. बढ़ती आतंकवादी गतिविधियों के चलते न्यूक्लियर पावर प्लॉंट सुरक्षा की दृष्टि से बहुत संवेदनशील हैं।

  • जो देश मंहगे होने और सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक होने के चलते खुद अपने यहां नाभिकीय पावर प्लॉंट नहीं लगा रहा उसके साथ न्यूक्लियर पावर समझौता उल्लास का विषय है तो क्या सिर्फ़ इसलिये कि हमारे यहां लोगों की जान सस्ती है?
    स्रोत:http://en.wikipedia.org/wiki/Nuclear_power_in_the_United_States

    Friday, January 23, 2015

    देश सेवा में एफ़.डी.आई.

    आजकल देश सेवा के काम में बहुत बरक्कत है। जिसे देखो वह देश सेवा की लाइन में लगा हुआ है। लम्बी लाइन लगी है। देश सेवा का काम जिसको मिल जाता है वह अपने आप को धन्य समझता है। जिसको नहीं मिलता वह उदास हो जाता है।

    बड़े-बड़े जुगाड़ लगते हैं। बहुत पैसा ठुकता है तब कहीं देश सेवा का  टिकट मिलता है। टिकट मिलने से ही देश सेवा का काम नहीं मिलता। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि देश सेवा का टिकट तो मिल जाता है लेकिन काम नहीं मिलता। सब पैसे डूब जाते हैं। आदमी कुछ दिन उदास रहता है। लेकिन फ़िर अगला  देश सेवा का काम देखता है। बहुत पहले से लाइन में लग जाता है। कोशिश करता है कि इस बार जैसे ही देश सेवा का काम निकले वह उसे हासिल कर ले। देश की भरपूर सेवा करके अपना और परिवार का कल्याण करे। साथ में नाम भी रोशन हो। देश के इतिहास में नाम दर्ज हो सो अलग से।

    लेकिन देश सेवा के काम में कम्पटीशन बहुत तगड़ा है। आदमी पहुंच वाला हो, दबंग हो, लोकप्रिय हो, अच्छा वक्ता हो, मेहनती हो, लोग उसकी बातों पर भरोसा करते हों तभी उसको देश सेवा का काम मिल सकता है। यह सब गुण तो देश में बहुतों के पास होते हैं लेकिन इसके बाद सबसे जरूरी चीज है पैसा। अंधाधुंध पैसा चाहिये देश सेवा का काम हासिल करने के लिये। जितना गुड़ डालोगे उतना मीठा होगा जैसा ही है देश सेवा का काम। ज्यादा पैसा बड़ा काम। शुरुआत में कभी-कभी तो पूरा पैसा डूब जाता है। कमजोर दिल के देश सेवक निराश हो जाते हैं। देश सेवा का काम छोड़ देते हैं। लेकिन सच्चे देश सेवक लगे रहते हैं। वही लोग देश सेवा का काम हासिल करते हैं। एक बार देश सेवा का काम मिल जाने पर सब नुकसान पूरा हो जाता है। पैसा वसूल हो जाता है। नाम रोशन होता है। फ़ुटपाथ पर जिन्दगी बिताने वाला इतिहास की किताबों में कबड्डी खेलने लगता है।

    लेकिन पैसा बहुत लगता है इस देश सेवा के काम में। करोड़ों -अरबों फ़ुंक जाते हैं देखते-देखते। देश सेवा के काम के लिये इतना पैसा फ़ुंकना बड़ी फ़िजूल खर्ची है। इसके लिये सरकार को कुछ उपाय सोचना चाहिये।

    एक उपाय तो यह है कि देश सेवा के काम में एफ़.डी.आई को मंजूरी दे दी जाये। हमें कुछ पता नहीं है एफ़.डी.आई. के बारे में। लेकिन सुनते हैं कि जहां पैसा ज्यादा लगता है वहां सरकार एफ़.डी.आई. ले आती है।  हर सेवा क्षेत्र में एफ़.डी.आई. आ जाती है। जिधर देखो उधर एफ़.डी.आई. का हल्ला है। फ़िर देश सेवा के काम भी एफ़.डी.आई. लाने में क्या हर्जा है भाई।

    वैसे भी तो हर चुनाव में हर पार्टी दूसरी पर आरोप लगाती है कि उससे विदेशी पूंजी का इस्तेमाल किया। प्रवासी लोग भी तो पैसा लगाते हैं। सरकारी ठेकों में दलाल को मंजूरी मिलने ही वाली है। फ़िर आन दो विदेशी पूंजी देश सेवा के काम में भी। लगान दो विदेशियों को खुल्लम खुल्ला पैसा देश सेवा में।

    देश सेवा के काम में एफ़.डी.आई. होने से एक तो फ़ायदा यह होगा कि फ़िर विदेशी पूंजी का हल्ला नहीं मचेगा। दूसरे अपने देश की पूंजी चुनाव में जो फ़ुंकती है वह बचेगी। देश का पैसा बचेगा। विदेशी पूंजी से बैनर, पोस्टर बनेंगे तो देश के लोगों को और रोजगार मिलेगा।

    कुछ लोगों को शायद एतराज हो सकता है कि देश सेवा के काम में विदेशी पूंजी का दखल खतरनाक है। देश के लिये खतरा है। तो भैये हमारा कहना यह है कि अभी कौन विदेशी पूंजी कम गदर काटे है। अभी वह चोरी से आती है तो  गड़बड़ करती है। एफ़.डी.आई. के रास्ते आयेगी तो अपना घर समझकर आयेगी। उसको देश की चिन्ता होगी और वह यहां मन लगाकर काम करेगी।

    कुल मिलाकर हमको तो यही लगता है  देश सेवा के धड़ल्लेदार विकास के लिये  देशसेवा के काम में एफ़.डी.आई. बहुत जरूरी है। आपको क्या लगता है?
    जनसत्ता में दिनांक 28.01.15 को



    Monday, January 19, 2015

    अरे मेरे भाई पाकिस्तान


     


    अरे मेरे भाई पाकिस्तान,
    सुनो जरा खोल कर कान।

    जायेंगे ओबामा जी भारत,
    कुछ दिन बंद करो शरारत।

    पहले जो मन आये कर लो,
    जाने पर खूब हल्ला कर लो।

    बस जब रहें यहां ओबामा जी,
    तब अच्छे बच्चे बन जाओ जी।

    गोला बारी तो मत करवाओ,
    अमेरिका पर तरस तो खाओ।

    पैसा हथियार दिलायेंगे जी,
    मनमर्जी ऐश करायेंगे जी।

    बस इज्जत जरा बचाने दो,
    ओबामा का दौरा निपटाने दो।

    फ़िर तुम जो मर्जी कर लेना,
    खुद मरना, उनको धर देना।

    अभी प्लीज बस थम जाओ,
    अमेरिका की इज्जत बचवाओ।

    अगर गोला बारूद चलाओंगे ,
    अमेरिका की भद्द पिटवाओगे।

    उनको बेफ़ालतू गुस्सा आयेगा,
    अंग्रेजी में तुमको गरियायेगा।

    सिट्टी-पिट्टी फ़िर गुम हो जायेगी,
    हमरी-तुम्हरी कुट्टी हो जायेगी।

    धमकी दे दी है अखबारों में जी,
    बुरा न मानना सब ऐसे ही है जी।

    हमरी इज्जत पे जो न दाग लगेगा,
    पैसा, रुपया, गोला,बारूद मिलेगा।
    (अखबार में छपे अनुदित समाचार का मूल अमेरिकी पाठ)
    -कट्टा कानपुरी

    श्रीराम से कह देना एक बात अकेले में

    श्रीराम से कह देना एक बात अकेले में गाते हुये परकम्मावासी
    कल तिलवारा घाट देखने गए।इतवार था। छुट्टी । मौसम सुहाना।जाड़े में धूप निकली हो तो मौसम सुहाना ही होता है।कहते तो आशिकाना भी हैं।


    नर्मदा नदी के किनारे संक्रांति का मेला लगा था।आसपास के लोग मेला देखने आये थे।हमहूँ थे।शुरुआत अपन ने खोये की जलेबी खाकर की।
    मेले का दृश्य दुकाने, झूले

    तरह तरह के सामान बिक रहे थे मेला में।एक जगह सौर उर्जा से बैटरी चार्ज करने सोलर पैनल बिक रहा था।और तमाम छुटपुट सामान। झूले थे।चीनी खिलौने थे।खाने-पीने के सामान की दुकानें। सड़क किनारे दो तीन सौ मीटर की लम्बाई में मेला गुलजार था।

    झटके देकर बाल सुखाता हीरो
    नदी में लोग नहा थे।कुछ लोग नहाने के बाद फ़ोटो खिंचा रहे थे।तरह-तरह के पोज देते हुए।एक लड़का पानी में भीगे हुये घुंघराले बाल सर को झटके देकर सुखा रहा था। लगा जैसे कोई सरकार झटके से भ्रष्टाचार दूर करने का प्रयास कर रही हो।लेकिन वह उसी से सटा हुआ है।

    कुछ परिवार घर से लाया हुआ खाना नदी के किनारे खा रहे थे। एक छोटे बच्चे की जीन्स उतारी जा रही थी।जीन्स कसी थी।लग रहा था कि उसकी टाँगे ही खिंच जायेंगी। एक जगह भंडारा सरीखा चल रहा था।लोग खा खाकर पत्तल वहीं कोने में फेंकते जा रहे थे।
    बच्चे घाट की सफ़ाई करते हुये

    इस बीच करीब 30-40 नौजवान वहां आये और नदी किनारे झाडू लगाने लगे।फ़ोटो भी खींचते जा रहे थे वे।झाडू बेडौल थीं।लगाने में दिक्कत सी हो रही थी।लेकिन बच्चे बारी बारी से सफाई कर रहे थे। झाड़ू लगाने के बाद पानी से घाट की सफाई की उन्होंने।

    पूछने पर बताया बच्चों ने कि वे 'स्वच्छता अभियान' के पहले से ही सफाई अभियान चला रहे हैं। इतवार इतवार अलग अलग जगह जाकर सफाई करते हैं। अनाथाश्रम भी गए थे। वहां के बच्चों को दीपावली पर पटाखे दिए थे। हमने पता किया तो बताया कि इतवार को बन्द रहता है अनाथालय बाहर से आने वाले लोगों के लिए।

    घाट के पास बच्चों द्वारा सफाई अभियान चलाते देखकर ज्ञानजी द्वारा अपने साथ कुछ लोगों को लेकर शिवकुटी के पास गंगा तट पर की गयी सफाई याद आ गयी।

    घाट पर ही चार लोग भजन गाने में तल्लीन थे। ढोलक, चिमटा और ताली वाद्य। ये लोग ओंकारेश्वर से नर्मदा की परिक्रमा के लिए निकले थे। महिलाएं जबलपुर के ही पास की हैं। एक तो रांझी की( जो हमारे यहाँ से 3 किमी दूर है ) की हैं।
    अपने भजन की रिकार्डिंग देखती हुयी भजनमंडली

    भजन गाते हुए पूरी तरह तल्लीन सी थी मण्डली। बोल थे-'श्रीराम से कह देना एक बात अकेले में'।भजन के बाद 'ढोलिकिया'और 'चिमटा बाबा' बीड़ी फूंकने लगे। महिला हमको भजन का मतलब समझाने लगी। हनुमान जी से सीता जी कह रहीं हैं कि ये बात श्रीराम जी से अकेले में कहना। अकेले में। किसी के सामने नहीं कहना।

    भजन में भरत,दशरथ और लक्षमण का जिक्र जिस तरह आया है उससे लगता है कि यह भजन एक कोलाज है जिसमें श्रीराम के अयोध्या में न रहने पर सबकी पीड़ाओं का जिक्र है।

    वीडियो दिखाया तो महिलाएं खुश होकर कहने लगीं -'खूब बढ़िया बनो है।' हमने कहा -'हां हीरोइन लग रही हो आप लोग।' वे हंसने लगी। बताया -'धुंआधार पर खूब फोटो खैंची लोगन ने।'


    नर्मदा परिक्रमा के लिए क्यों निकली पूछने पर बताया महिलाओं ने-'का करें।बूढ़े हुई गए।घर में नाती पोता सब हैं।   बहू भी कहती है जाओ घुमौ। बुढ़ापे में को पूछत।हम चले आये। जई जैहै साथ में।'

    खाने-पीने के बारे में बताया लोग कुछ न कुछ दे देते हैं।मैया सबको देती है। नर्मदा के प्रति अगाध श्रद्धा ।

    दांत के दर्द से बेहाल परकम्मावासी मंगलसिंह
    एक बाबा मिले जिनका नाम मंगल सिंह है । दाढ़ दर्द से परेशान थे। कोई दवा गर्म कर रहे थे।दूसरी बार परिक्रमा कर रहे थे। पहली बार पत्नी के साथ की थी। फिर पत्नी रहीं नहीं। इस बार अकेले कर रहे हैं। दो साल हो गये घर से निकले हुए।घर वालों से मोबाइल पर बात हो जाती है।


    पहली बार और इस बार में कितना बदल गया समय और माहौल ? यह पूछने पर बोले मंगलसिंह -'बहुत बदल गया।' फिर वे अपने दर्द के बारे में बताने लगे।

    सरफ़राज, अनूप शुक्ल और ज्ञानेन्द्र सिंह। फ़ोटो खैंची शरद नीखरा ने।
    जाने किसने शुरू की होगी 'नर्मदा परिक्रमा' । लेकिन जिस भी परकम्मावासी से मिला मैं उसकी नर्मदा मैया में अगाध श्रद्धा है।अद्भुत है यह भाव।

    करीब दो घंटे घाट पर टहलने के बाद हम वापस चले आये भजन सुनते हुए- श्रीराम से कह देना एक बात अकेले में।
    नीचे देखिये भजन की रिकार्डिंग और उसके बारे में समझाते हुये भजन गाने वाली परकम्मावासी


    Sunday, January 18, 2015

    रिश्ते तितलियों की तरह होते हैं


    जबलपुर से करीब 60 किमी दूर पायली
    आज बहुत दिन बाद धूप स्नान कर रहे हैं।छत पर बैठे। सूरज भाई तमाम शहरों की धूप की सप्लाई रोककर यहां ठेले दे रहे हैं। कुछ ऐसे जैसे बिजली की कमी चाहे जितनी हो लेकिन हनक वाले मंत्रियों के इलाके जगमगाते रहते हैं।रेलमंत्री के राज्य में रेलें बढ़ जाती हैं।सूरज भाई चूंकि हमारे दोस्त हैं तो हमारे इलाके में थोड़ा धूप ज्यादा भेज देते हैं तो कौन गुनाह करते हैं।



    समूची कायनात जे हैं न से कि गुनगुनी हो रखी है।

    ओस की बूंदों ने कुर्सी को गीला कर रखा है।अरगनी पर पड़े तमाम कपड़ों में से ताजे धुले रूमाल को निचोड़ कर कुर्सी पोंछी।रुमाल निचुड़ा और फिर गन्दा हो गया। तमाम कपड़ों में से गन्दा रुमाल को ही होना पड़ा। वैसे भी हमेशा कुर्बानी सबसे कमजोर/छोटे को ही देनी पड़ती है।

    धूप की किरणें आज बहुत तेजी में हैं।हर फूल,पौधे को समझाती हुई कह रही हैं-"मैंने माननीय सूरज भाई से कह दिया है कि मैं रोज उजाले के साथ बाग़-बगीचों के मुआयने पर जाया करुँगी।मुझे चमकने और चमकाने का बहुत अनुभव है।" पौधे इधर-उधर सर हिलाते अनुशासित कार्यकर्ताओं की तरह सावधान मुद्रा में खड़े हो जा रहे हैं।

    बड़े-बड़े अनुभवी पेड़ चुपचाप खड़े किरणों की चपलता देख रहे हैं।जिन पेड़ों पर फूल हैं वे एकाध फूल टपकाकर किरणों की अगवानी कर रहे हैं। जिनके पास फूल नहीं हैं वे अपनी जर्जर पत्तियां भेंटकर औपचारिकता निभा रहे हैं। सद्भावना का फुल दिखावा हो रहा है।

    पेड़ों पर इक्का-दुक्का पक्षी अलग-अलग आवाजें कर रहे हैं। कोई चिंचिंचिंचिं,कोई आंव आंव,कोई काँव काँव ।कुछ केंव केंव तो कुछ और किसी आवाज में अपना राग बजा रहा है।हर पक्षी कह भले ही रहा हो कि वह दूसरे से अलग है। वैसा नहीं जैसे दूसरे हैं लेकिन अंदाज सबका एक ही है बोलने का। सब बोलते समय उचकते हुए से चोंच फैलाकर बोल रहे हैं।कोई फर्क नहीं।

    अचानक देखते देखते सब पक्षी एक साथ चिल्ल्लाने लगे हैं। लगता है कि वे किसी चैनल के प्राइम टाइम बहस में अपनी पार्टी का पक्ष रखने लगे हों। आवाजों में लगता है मारपीट सी होने लगी है।कुच्छ सुनाई नहीं दे रहा है।
    तितलियाँ फूलों पर मंडरा रही हैं। चपल चंचला रँगबिरँगी। तितलियों को देखकर एक नाटक का यह डायलॉग याद आ गया- "रिश्ते रँगबिरँगी तितलियों की तरह होते हैं।कसकर पकड़ने से उनके परों का रंग छूट जाता है।धीरे पकड़ने पर वे उड़ जाती हैं।" यह बात लिखते हुए अपने तमाम खूबसूरत रिश्ते याद कर रहा हूँ।

    धूप में आलू के पराठे खाते हुए सूरज भाई से बतिया रहे हैं।सूरज भाई चाय की फरमाइश कर रहे हैं। आप के लिए भी मंगाए?

    (यह फ़ोटो जबलपुर से 60 किमी दूर पायली का।यहाँ हम लोग मकर संक्रांति के दिन पिकनिक मनाने गए। पानी पर जगह-जगह धूप के चकत्ते से पड़े हुए थे।अद्भुत नजारा।)





    Thursday, January 15, 2015

    रोजी बाजार दिलाता है

    नाम ओंकार। गले में 'जय माता दी' का दुपट्टा।साइकिल की उमर करीब पचीस साल। 5 नंबर की बीड़ी पीते हुए ये भाईजी आज मिले पुलिया पर।साइकिल का चेन कवर और पहिये का कवर लगभग गल चुका था।बात करते हुए बीड़ी पुलिया पर रगड़ते हुए बुझा दी।खड़े होकर बात करने लगे।

    ओंकार मजदूरी करते हैं। अधारताल के पास एक जगह जाकर खड़े होते हैं। कोई काम पर ले जाता है तो दो ढाई सौ रूपये मिल जाते हैं।दो लड़के हैं। एक लड़का ट्रैक्टर चलाता है। दूसरा खमरिया के पास एक गाँव में मजदूरी करता है। एक बेटी भी है जिसकी शादी पिछले साल कर चुके हैं।

    आज मजदूरी नहीं मिली तो उदासी तो स्वाभाविक है। लेकिन ऐसा होता है कभी-कभी। 

    लेकिन यह तय है कि नाम ओंकार होने और गले में जय माता दी का दुपटटा होने के बावजूद रोजी का जुगाड़ नहीं हुआ। रोजी बाजार दिलाता है देवी/देवता नहीं। लेकिन यह भी देख रहे हैं कि हर देवी/देवता के अनुयायी अपने-अपने देवता की मार्केटिंग करने में लगे हुए हैं।

    एक बार मन किया कि पूछें कि चार बच्चों के बारे में क्या विचार रखते हैं ओंकार। लेकिन फिर यह बेहूदगी नहीं की।हाथ में माइक भी तो नहीं था।

    अरी मोरी ठण्डी महरानी

    अरी मोरी ठण्डी महरानी
    काहे इत्ती जोर झल्लानी।


    पारा गिरा दिया नीचे को
    जमकर बर्फ गिराई रानी।

    शहर बनाया स्विट्जरलैंड
    सूरज भाई की मेहरबानी।

    दिल्ली तापती 'चुनाव अंगीठी'
    हचक के देखो है गर्मानी।

    अच्छे दिन कम्बल में दुबके
    ठंडक में याद आई नानी।

    'चेटन' ने क्या 'रागा' फैलाया
    'अकाल मांगटी' उससे पानी।

    सूरज की किरणों का फेसियल
    सुंदरता से भी सुंदर तुम रानी।

    अरी मोरी ठण्डी महरानी
    हो तुम क्यूट,स्वीट,मनभानी।
    -कट्टा कानपुरी

    Wednesday, January 14, 2015

    जाहिल की बात पे हल्ला-गुल्ला

    जाहिल की बात पे हल्ला-गुल्ला,
    तुम भी क्या बौराये हो लल्ला?

    जो कहता बच्चे चाहिये चार उसे
    खुद काहे न करता बिस्मिल्ल्ला?

    जाड़ा कितना जबर पड़ रहा,
    सूरज अब तक काहे न निकला?

    किरणों को नोटिस भिजवाओ,
    उजाले से पता करो जी मामला।

    ई कोहरा चहक रहा है 'नठिया'
    इसके दुइ कंटाप लगाओ लल्ला।

    चाय आ गयी गर्म चकाचक,
    डालो कप में जल्दी से लल्ला।

    आओ भैया सूरज चाय पिलाये
    खत्म हो गयी तो मचाओगे हल्ला।

    -कट्टा कानपुरी

    Tuesday, January 13, 2015

    देवी मानती ही नहीं

    आज सर्वहारा पुलिया पर धूप सेंकते रामप्रसाद मिले।पनागर में रहते हैं।ड्राइवरी का काम करते हैं। कुछ दिन पहले तक बीएसएनएल में ठेके पर गाड़ी चलाते थे। 5000 रूपये महीने मिलते थे। इस बार ठेका किसी दूसरी फर्म को मिला तो काम ठप्प ड्राइवरी का। अब जो गाड़ी मिल जाती है उसको चला लिए हैं। जब काम नहीं मिलता तो इधर-उधर टहलते हैं।

    रामप्रसाद कोल हैं। घर में खेती भी है। बाल-बच्चों के बारे में पूछने पर बताया कि बच्चे नहीं हैं। शादी हुई थी तब जब जबलपुर में बड़ा वाला भूकम्प आया था।

    बच्चों के लिए डाक्टर को दिखाने की बात पर बताया डाक्टरों को दिखाने के अलावा अपने यहां पूजारियों को भी दिखाया। लकड़बाबा को भी। लोगों ने बताया कि देवी की पूजा करनी होगी। वो खुश होंगी तभी कुछ होगा। लेकिन देवी की पूजा में अड़चन है।

    अड़चन यह कि देवी की पूजा में बलि देनी होगी। माँस बनाना खाना होगा।लेकिन रामप्रसाद की पत्नी और खुद रामप्रसाद शाकाहारी हैं। इसलिए देवी मान ही नहीं रहीं हैं। जब तक मांस नहीं चढ़ाया जायेगा तब तक देवी मानेंगी नहीं।  लफड़ा है।

    रामप्रसाद के बारे में यह लिखते हुए सोच रहा हूँ आजकल हर अगला अपने यहां की महिलाओं को चार बच्चे कोई कोई तो पांच बच्चे पैदा भी करने का नारा लगा देता है। लेकिन तरकीब कोई नहीं बताता कि इसमें किस देवी/देवता की पूजा करनी होगी। किस अस्पताल में डिलिवरी होगी। कहाँ रहेंगी इतनी सन्तानें? किन स्कूलों में पढ़ेंगी?क्या खायेंगी?

    ओह हम भी कहाँ से कहां पहुंच गये। टीवी पर बहस आ रही है-"दिल्ली में अगली सरकार किसकी बनेगी?" 

    आप किसकी सरकार बनवा रहे हैं। खैर छोडिये । सुनते हैं बहस। :)

    ठिठुरन बैठी ठाठ से सबको रही कंपाय

    ठिठुरन बैठी ठाठ से सबको रही कंपाय।
    स्वेटर,मफलर मिल ठंड से पंजे रहे लड़ाय।

    पवन सहायता कर रहा ठंडक की भरपूर।
    करो अंगीठी गर्व तुम इसका भी अब चूर।

    कोयला कल तक था बुरा बंद पड़ी थी ‘टाल’।
    अब वो ‘कलुआ’ हो गया सबसे अहम सवाल।

    गर्म चाय ठंडी हुई ज्यों ब्लागर के जोश।
    गर्मी की फिर कर जुगत,बिन खोये तू होश।

    गाल,टमाटर,सेब सब मचा रहे हैं धमाल।
    कौन चमकता है बहुत कौन अधिक है लाल।

    किरणें पहुंची खेत में लिये सुनहरा रंग।
    पीली सरसों देखकर वो भी रह गईं दंग।

    सूरज निकला ठाठ से ऐंठ किरण की मूंछ।
    ठिठुरन सरपट फूट ली दबा के अपनी पूंछ।

    -कट्टा कानपुरी

    Sunday, January 11, 2015

    अपि स्वर्णमयी अतीत न में रोचते

    सबेरे जल्दी नींद खुल गयी। 5 बजे।'नींद खुल गयी' से ऐसा लगता है न कि जैसे नींद को बाँध के रखा गया हो सोने से पहले। सुबह खूंटा तुड़ा लिया हो अगली ने।

    नींद खुलते ही पहले मोबाइल खोला फिर आँख।मोबाइल आजकल ज्यादातर लोगों के सबसे करीबी होते हैं। चिपक के सोते हैं लोग मोबाइल से। आगे नहीं लिखेंगे मोबाइल के बारे में।आप खुदै समझ लीजिये।

    बाहर कौआ कांव-कांव बोल रहा है।चिड़िया भी कोई चिं चिं चिं कर रही है। बोल तो और भी पक्षी रहे हैं लेकिन उनकी आवाज बूझ नहीं पा रहे हैं।हम अपने आसपास के पक्षी और पेड़ों के बारे में बहुत कम जानते हैं। हमारे अहाते में ही कई पेड़ हैं जिनके नाम अपन को नहीं पता। लेकिन कोई शर्मिंदगी नहीं। सब जानने का ठेका हमने ही लिया है क्या? गूगल को काहे के पैसे मिलते है। वो रखे इस सबका हिसाब।

    सुबह जगकर स्मार्टफोन पर सर्फिंग करने लगे।सोचने लगे कि पहले की ऋषि मुनि ब्राह्ममूहूर्त में जग कर क्या करते होंगे।पक्का नेटसर्फिंग करते वे देवताओं से वरदान की डील करते होंगे।न जाने क्या-क्या फ़ाइल आती-जाती होंगी। होंगे।उनकी तपस्या भंग करने के लिए अप्सराएं उनसे चैट करती होंगी।

    क्या पता विश्वामित्र ने त्रिशंकु को 'विनजिप' करके फ़ाइल में स्वर्गलोक भेजा हो। वहां फ़ाइल पूरी डाउनलोड करने के पहले ही स्वर्ग का नेट कनेक्शन कट गया हो।डीसी हो गया हो। इधर विश्वामित्र के यहाँ वह फ़ाइल डिलीट हो गयी हो।स्वर्ग वालों ने त्रिशंकु की फ़ाइल नेट कनेक्शन के न होने के चलते गुरुत्वबल से वापस भेजनी चाही हो।लेकिन देवताओं को पता ही नहीं रहा होगा कि इसके लिए रॉकेट चाहिए होता है।पता होता तो अपने यहां एक ठो 'नासा' या फिर 'इसरो' खोलते और रॉकेट से त्रिशंकु को वापस भेज देते।

    बताइये देवताओं के तकनीकी रूप से पिछड़ेपन के चलते एक राजा बेचारा एक अटकी हुई फ़ाइल बनकर रह गया।

    कहने का मतलब यह कि हमारे यहाँ महाभारत काल में विज्ञान इतना उन्नत था कि आदमी को बिना रॉकेट और यान के सीधे स्वर्ग भेज देते थे। अगर उस समय की तकनीक अमेरिका वालों के पास होती तो आज कल्पना चावला ज़िंदा होती। बहुत उन्नत विज्ञान था महाभारत काल में। भौत भौत। इतना कि जितने की आप कल्पना नहीं कर सकते।

    हम भी देखिये, किधर फंस गए। हम आँख खुलने के बाद के किस्से बता रहे थे। आँख खुलने के बाद हम करवटें बदलते हुए बारी बारी से वामपंथी, कट्टरपन्थी ( दक्षिणपंथी )और सेकुलर होते रहे।मतलब बाएं,दायें और सीधे लेटते रहे।


    पहले हम आम इंसान की तरह पेट के बल भी लेटते थे। लेकिन एक दिन पेट के बल छिपकली मुद्रा में लेटे तो न जाने क्या हुआ कि पल्स रेट 180 पहुंच गया। घण्टे भर ईसीजी,बीपी और कार्डियोलॉजिस्ट होता रहा। बाद में हफ्ते भर ट्रेडमिलटेस्ट, इको और न जाने क्या-क्या होता रहा। लेकिन कुछ निकला नहीं।

    इतना कुछ होने के बाद भी कुछ निकला नहीं। 5000 ठुक गए बस। पहले का जमाना होता तो ऋषि मुनि नाड़ी पर हाथ रखकर बता देते -'मस्त रहो'।फीस के नाम पर केवल कन्दमूल फल में काम चल जाता।बहुत उन्नत समय था। बहुत ज्ञानी थे अपन के पूर्वज। ये आज के पश्चिम के वैज्ञानिक लोगों का ज्ञान उनके ज्ञान के सामने उचक- उचक कर हैण्डपम्प बोले तो चांपाकल से पानी भरता था।

    अक्सर हम अपने अतीत के प्रति मोह ग्रस्त होते हैं। वह समय बहुत अच्छा था।मधुर था। अतीत वैसे भी हमेशा अच्छा लगता है। बुरा बीता तो यह लगता है कि बुरा समय बीत गया, अच्छा बीता तो यह सोचकर कि कितना सुहाना बीता।

    कथाकार अखिलेश ने अपनी एक किताब में यह सवाल उठाते हुए पूछा है कि कितने लोग हैं जो अपने अतीत में पूरा का पूरा लौटना चाहेंगे। पूरा का पूरा मतलब पूरे के पूरे उस समय में जिसको वे ' मिस ' करते हैं। ऐसा करने के लिए अपना आज का सारा तामझाम छोड़कर उस समय में जाना होगा जिस समय को वे सबसे बेहतर मानते हैं।

    आपका तो पता नहीं लेकिन कम से कम मैं अपने ऐसे किसी अतीत को इतना खुशनुमा नहीं पाता जिसके लिए मैं अपना वर्तमान छोड़ना चाहूँ। अभी मुझे वर्तमान में बहुत सारे काम करने हैं। मेरा बच्चा अभी हॉस्टल गया है उसकी खैरियत पूछनी है,पत्नी को फोन करना है, दोस्तों से बात करनी है, थर्मस में रखी चाय पीनी है।सबसे पहले यह स्टेट्स पूरा करना है।

    मेरा कोई अतीत इतना हसीन नहीं जिसको पाने के लिए मैं अपना यह खूबसूरत झंझट वाला वर्तमान त्यागना चाहूँ।और जब मैं किसी स्वर्णिम अतीत में नहीं जाना चाहता तो मेरा देश भी नहीं जा पायेगा। अगर जाना चाहेगा तो हमको छोड़कर जाएगा और लटक जाएगा त्रिशंकु की तरह। पूरी फाइल अतीत में डाउनलोड ही न होगी। वहां का कम्प्यूटर बताएगा-'अनूप शुक्ल वाली फ़ाइल मिसिंग है।आपरेशन पूरा नहीं हो सकता।'

    देवभाषा में कहें तो:
    "अपि स्वर्णमयी अतीत न में रोचते
    वर्तमान: अद्य च स्वर्गादपि गरीयसी।"
    अतीत कितना भी स्वर्णिम हो लेकिन उसमें जाना मुझे पसंद नहीं। वर्तमान और आज मेरे लिए स्वर्ग से भी महान हैं।

    बोल सियावर रामचन्द्र की जय। थर्मस में रखी हुई चाय की जय।

    https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10207106212987177

    Thursday, January 08, 2015

    वे आये, उन्होंने मारा और वे चले गये

    फासिस्ट विरोधी से बहस नहीं करता, उसका मुंह तोड़ देता है। -परसाई

    कल दोपहर के बाद फ़ेसबुक पर सूचना देखी फ़्रांस में वहां की प्रसिद्ध व्यंग्य पत्रिका चार्ली हेब्दो  के संपादक समेत दस लोगों को कुछ आतंकवादियों ने गोली मार दी। वे पत्रिका के दफ़्तर में आये, पत्रिका वालों को मारा और चले गये। नेट पर पत्रिका के कुछ कार्टून  दिखे। फ़्रेंच में हैं तो मतलब तो नहीं समझ आया लेकिन फ़ोटुयें देखकर लगता है कि पत्रिका धार्मिक कठमुल्लेपन की खिल्ली उड़ाती थी। उसी के प्रतिशोध में पत्रिका के लोगों को उड़ा दिया गया।

    अभिव्यक्ति के मामले में फ़्रांस दुनिया का सबसे अव्वल देश माना जाता है। स्वतंत्रता, समानता और बराबरी के हिमायती देश में पत्रकारों के हाल हुये तो बाकी जगह क्या होगा?

    पत्रकारों को मारने वाले मुस्लिम बताये जाते हैं। हाल में मुस्लिम आतंकवादियों  की गतिविधियां ज्यादा हो रही हैं। इसलिये दूसरे धर्म की कट्टरपंथियों की बांछे ,(बकौल श्रीलाल शुक्ल) वे उनके शरीर में जहां कहीं होती हों, खिली हुई हैं। वे बलभर मुस्लिम धर्म की बुराई करने में लगे हुये हैं। लेकिन सच्चाई यह है धर्म के नाम पर किसी भी  धर्म के अंध अनुयायी लोग मौका मिलते ही गदर काटने से बाज नहीं आते। उदार और उद्दात्त मूल्यों की स्थापना की मंशा से शुरु हुये धर्म धंधे से जुड़कर बाद में क्रूर होते गये। उद्दात्त मुखौटे के भीतर उनके इतने घाघ तरीके छिपे होते हैं कि खुदा खैर करे।

    पता चला कि आतंकी फ़्रांस में ही पैदा हुये थे। इससे यह साबित होता है कि आधुनिक देश में पैदा होने का मतलब जाहिलियत से मुक्त हो जाना नहीं होता। जाहिलियत ऐसी चीज है जिसे आप अपने साथ कहीं भी ले जा सकते हैं।

    किसी भी धर्म के अंधे अनुयायी उसके सबसे बड़े दुश्मन होते हैं। धर्म के प्रचार-प्रसार के उसके अच्छे तत्वों की नुमाइश की जाती है। बुरे तत्व दायें-बायें कर दिये जाते हैं ताकि उनको देखकर जनता भड़के नहीं और आंख मूंदकर धर्म मानने लगे। लेकिन आजकल के  लोग अपने धर्मों की इतनी भयंकर मार्केटिंग करने लगे हैं कि कोई भी भला आदमी डरकर उससे हाथ जोड़ ले।

    मुस्लिम धर्म दुनिया में इतना फ़ैला हुआ है तो जरूर इसमें कुछ मूलभूत अच्छाइयां होंगी। इसके बारे में विद्वान लोग बता सकते हैं। लेकिन इतना पक्का है कि बिना कुछ अच्छाईयों के सिर्फ़ ताकत के जोर से कोई धर्म इतना नहीं फ़ैल सकता। लेकिन आज का समय असहिष्णुता का है। सो धर्म के मानने वाले अपनी अच्छाइयां भूलकर खराब माने जाने वाले काम करने में लगे हुये हैं।

    मुस्लिम धर्म के आतंकवादी आजकल इतने सक्रिय हैं। वे दुनिया के उन्नत माने जाने वाले देशों के लोगों के खिलाफ़ जेहाद कहीं छिटपुट, कहीं संगठित करने में लगे हुये हैं। दुनिया के उन्नत माने जाने वाले देश यह समझते हैं कि वे जो भी कर रहे हैं सही कर रहे हैं। उन देशों की हरकतों को उन देशों में प्रचलित धर्म वालों के आक्रमण की तरह देख रहे हैं मुस्लिम आतंकवादी। संगठित आक्रमण का जबाब छिटपुट जेहाद से दे रहे हैं। आतंकवादियों का फ़ायदा तो निश्चित है। जीत गये तो यहां मजे हैं। मारे गये तो जन्नत में मजे।

    पत्रिका के लोग मारे गये। वे अचानक मारे गये। उनमें से कुछ लोग अपना काम कर रहे होंगे। कोई कार्टून बना रहा होगा। कोई व्यंग्य लेख लिख रहा होगा। अपनी दिमागी कल्पना पर खुश हो रहे होंगे। यह सोचकर कि जब यह पूरा होगा तो लोग देखकर खुश होंगे। पढकर मुस्करायेंगे। उनको क्या पता रहा होगा कि दुनिया में कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनको मुस्कराना पसंद नहीं है। ऐसे भी लोग हैं दुनिया में जिनको लगता है कि अगर वे हंसेंगे तो उनका अस्तित्व खतम हो जायेगा। ऐसे लोग हैं दुनिया में जिनको लगता है कि अगर उनकी विसंगतियां उनको दिखा दी गयीं तो वे अंधे हो जायेंगे।

    पत्रिका के लोग मारे गये। वे बहादुर लोग थे। उनको पता था कि वे जो कर रहे हैं इसके चलते उनकी जान जा सकती है। फ़िर भी वे अपना काम करते रहे। मारे भले गये लेकिन दुनिया के हर धर्म के कठमुल्लों को आईना दिखा गये वे। उनकी बहादुरी को सलाम। उनकी साहस को सलाम। उनकी शहादत को सलाम।

    मेरी पसंद

    कोई छींकता तक नहीं
    इस डर से
    कि मगध की शांति
    भंग न हो जाए
    मगध को बनाए रखना है तो
    मगध में शांति
    रहनी ही चाहिए
    मगध है, तो शांति है।

     कोई चीखता तक नहीं
    इस डर से
    कि मगध की व्यवस्था में
    दखल न पड़ जाए
    मगध में व्यवस्था रहनी ही चाहिए
    मगध में न रही
    तो कहां रहेगी ?
    क्या कहेंगे लोग ?
    लोगों का क्या?
    लोग तो यह भी कहते हैं
    मगध अब कहने को मगध है
    रहने को नहीं।

     कोई टोकता तक नहीं
    इस डर से
    कि मगध में
    टोकने का रिवाज़ न बन जाए
    एक बार शुरू होने पर
    कहीं नहीं रुकता हस्तक्षेप -।

    वैसे तो मगधनिवासियों
    कितना भी कतराओ
    तुम बच नहीं सकते हस्तक्षेप से -।

    जब कोई नहीं करता
    तब नगर के बीच से गुज़रता हुआ
    मुर्दा
    यह प्रश्न कर हस्तक्षेप करता है -
    मनुष्य क्यों मरता हो?
    श्रीकांत वर्मा
    (`मगध´ संग्रह से)
     
     



     

    Tuesday, January 06, 2015

    ये तो हमारे यहां बहुत पहले हो चुका है






    आजकल लोग कहते घूम रहे हैं कि भारत दुनिया का सबसे ज्ञानी देश था। जहाज वहाज उड़ते थे यहां। सर्जरी वर्जरी होती थी।

    इस पर दूसरे इस बात की खिल्ली उड़ा रहे हैं। अगर था यह सब तो गुल किधर हो गया।

     क्या पता रहा हो सब कुछ लेकिन रख-रखाव के अभाव में खराब हो गया हो। पुराने जमाने में ऋषि लोग ज्ञानी बहुत होते थे। वे उन सारी चीजों को बना लेते थे जो आज आधुनिक कही जाती हैं। लेकिन उनके संचालन का काम करने के लिये लोग नहीं मिलते थे इसलिये वे चीजें पड़े-पड़े, खडे-खड़े खराब हो जाती होंगी। कबाड हो जाती होंगी।  बाद में दूसरे देश वाले हमारा कबाड़ उठाकर ले गये और धो-पोछकर, मांजकर चमका कर चला रहे होंगे।

    यह कुछ ऐसे ही हुआ होगा जैसे कि सरकारी कारखाने में उन्नत तकनीक की मशीनें रखरखाव और देखभाल के अभाव में कबाड़ हो जाती हैं। कुछ मंहगी मशीनें तो खुलती ही नहीं हैं। जिस बक्से में आती हैं उसी में धरी रहती हैं। कबाड़ हो जाने पर इनकी नीलामी की जाती है। कबाड़ी लोग इनको सस्ते दामों में खरीदते हैं। फ़िर उन मशीनों से ही वही सामान बनाकर सरकार को ही सप्लाई करते हैं जिसको बनाने के लिये सरकारी कारखानों में मशीनें लगाई गयीं थीं।

    अपने देश के लोग दिमाग से बहुत तेज थे। आज भी तेज हैं। दुनिया में कोई भी खोज हो रही होती है वे चुपचाप निठल्ले उसे देखते रहते हैं। जैसे ही खोज की घोषणा होती है वे खट से अपने किसी पुराने ग्रन्थ से कोई श्लोक  पटककर कहते हैं- "ये तो हम पहले कर चुके हैं। इसमें कौन बड़ी बात है।"

    दुनिया में जो भी आधुनिक हो रहा है और आने वाले सैकड़ों सालों में होने वाला है वह हम हज्जारों साल पहले ही कर चुके हैं। क्या जरूरत है अब दुबारा वह सब करने की। फ़ालतू का टाइम वेस्ट। जो मजा गीता बांचने में है वह मजा वैज्ञानिक खोज में कहां ? ये लोग भी देखना जब खोज बीन करके थक जायेंगे तब बोर होकर गीता पढ़ने लगें। उनको भी समझ आयेगा- "काव्य शास्त्र विनोदेन कालो गच्छ्ति धीमताम।" मतलब विद्वान लोगों का समय काव्य शास्त्र से मनोविनोद करने में ही खर्च होना चाहिये। ये खोज-वोज फ़ालतू का समय बर्बाद करना है।

    मैं सूरज से संबंधित पोस्टें लिखता हूं। उनमें सूरज को भाई कहकर संबोधित करता हूं। उनको चाय पिलाता हूं। हंसी-मजाक भी करता हूं। यह सब कल्पना की उड़ान है। क्या पता कल को कोई हमारी पोस्टें पढ़कर सैकड़ों साल बाद किसी विज्ञान कांफ़्रेंस में कहे- "जिस सूरज की सतह पर जाने की बात आज हो रही है उस सूरज को 21 सदी में हमारे पूर्वज अनूप शुक्ल अपने पास बुला लेते थे। वह रोज उनके साथ चाय पीता था। भारत विज्ञान के मामले में दुनिया का सबसे उन्नत देश था , है और रहेगा।"

    कभी कल्पना करता हूं कि कभी रिसर्च के मामले  में हम इतने आगे हो जायेंगे कि जब हवा की जरूरत होगी तो पानी के अणु H2O को तोड़कर आक्सीजन सूंघ लेंगे और जब कभी पानी चाहिये होगा तो हवा से आक्सीजन और किसी दूसरी चीज से हाइडोजन निकालकर दोनों को रगड़कर पानी बनाकर पी लेंगे। लेकिन यह लिखने से हिचकता हूं इसलिये कि आगे कोई भी रिसर्च होगी तो वह हमारी इस उपलब्धि के सामने बौनी हो जायेगी।

    हमारी समस्या यही है कि दुनिया में कहीं कुछ नयी खोज होती है हम भागकर अपनी हज्जारों साल पुरानी श्रेष्ठ संस्कृति से कोइ उद्धरण खोज लाते हैं कि यह तो पहले ही हो चुका है अपने यहां। हमारा स्वर्णिम अतीत हमें कुछ भी करने से रोकता है। जैसा मुस्ताक अहमद युसुफ़ी ने अपने उपन्यास  ’खोया पानी’ की भूमिका में लिखा है:

    "कभी कभी कोई समाज भी अपने ऊपर अतीत को ओढ़ लेता है. गौर से देखा जाये तो एशियाई ड्रामे का असल विलेन अतीत है. जो समाज जितना दबा-कुचला और कायर हो उसे अपना अतीत उतना ही अधिक उज्जवल और दुहराये जाने लायक दिखायी देता है. हर परीक्षा और कठिनाई की घड़ी में वो अपने अतीत की ओर उन्मुख होता है और अतीत वो नहीं जो वस्तुत: था बल्कि वो जो उसने अपनी इच्छा और पसंद के अनुसार तुरंत गढ़ कर बनाया है."
    अगर हो चुका है, पहले कर चुके हैं तो दुबारा क्यों नहीं कर पाते? उससे बेहतर क्यों नहीं हो पाता? इस सवाल का जबाब इस चुटकुले में है शायद:

    "एक मास्टर साहब ने बच्चों ने पूछा- ’अगर दो आदमी दो बैलों के मिलकर एक खेत को तीन दिन में जोत लेते हैं तो बताओ तीन किसान तीन बैलों के साथ उसी खेत को कितने दिन में जोत लेंगे?’

    कई बच्चों ने अलग-अलग जबाब दिये। लेकिन क्लास के सबसे शरारती बच्चे  ने सवाल नहीं लगाया/ मास्टर के पूछने  पर उसका जबाब था- ’मास्टर साहब जब एक बार खेत जुत चुका है तो उसे दुबारा जुतवाने की क्या जरूरत?"

    हमारा देश दुनिया की कक्षा का सबसे शरारती बच्चा है। दुनिया में कुछ भी नया होगा तो हम उसको चुपचाप निठल्ले बने देखते रहेंगे। कोई पूछेगा तो कहेंगे- ये तो हमारे यहां बहुत पहले हो चुका है। दुबारा करने से क्या फ़ायदा?





    Monday, January 05, 2015

    पीके पर प्राइम टाइम बहस

     पिछले दिनों पीके फ़िल्म को लेकर काफ़ी हल्ला-गुल्ला हुआ।  जल्दी ही यह 300 करोड़ की कमाई करने वाली फ़िल्म बनने वाली है। कमाई तो खैर जो है सो है लेकिन हल्ला-गुल्ला वाली पर बहस करने के लिये एक टीवी चैनल ने अपने यहां प्राइम टाइम बहस आयोजित की। सुनिये उस बहस के कुछ अंश:

    एंकर: जैसा कि आपको पता ही है कि हम यहां पीके फ़िल्म के बारे में बात करने के लिये इकट्ठा हुये हैं। पीके को लेकर समाज में तमाम तरह की बातें हो रही हैं। देश के नामचीन लोगों ने  इस पर अपने-अपने विचार व्यक्त किये हैं। हम यहां इसी मुद्दे पर बात करेंगे। हमारे स्टूडियो में अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ मौजूद हैं। हम जानेंगे उनके विचार। शुरुआत करते हैं विशेषज्ञ नं 1 से। हां आप बताइये आपकी नजर में यह फ़िल्म कैसी है?

    विशेषज्ञ 1: फ़िल्म अच्छी है। 300 करोड़ कमाई कर ली है। समाज की बुराइयों पर चोट करती है। जबरदस्त हलचल मचा दी है समाज में। एक फ़िल्म की सफ़लता के लिये इससे अच्छा और क्या चाहिये?

    विशेषज्ञ 2: घंटा अच्छी है फ़िल्म। फ़िल्म नकारात्मक संदेश देती है। विकास विरोधी है। हमारे धर्म की खिल्ली उड़ाती है। ऐसी फ़िल्म को आप अच्छा कैसे कह सकते हैं?

    विशेषज्ञ 1: देखिये आप असंसदीय भाषा प्रयोग कर रहे हैं। ’घंटा’ की जगह कोई और शब्द प्रयोग करिये।

    विशेषज्ञ 2: अरे भाई ’घंटा’ शब्द असंसदीय कैसे हो गया?  ’घंटा’ स्कूलों में बजता है। आप तो फ़िर स्कूलों में  ’घंटा’ बंद करा देंगे। सारे स्कूल बंद हो जायेंगे तो फ़िर बच्चे पढेंगे कहां? इसके अलावा हमारी पार्टी का मत है कि इसका विरोध करते हुये  ’घंटा’  शब्द पर जोर दिया जाये। हम इसके अलावा और कुछ नहीं बोल सकते हैं।

    विशेषज्ञ 3: आप ’खाक’ शब्द का प्रयोग कर सकते हैं  ’घंटा’ की जगह।

    विशेषज्ञ 2: अरे भाई कैसे कर सकते हैं। हमारे इलाके में मुस्लिम वोटर तो हैं नहीं जो ’खाक’ बोलने से कुछ फ़ायदा हो। इसलिये हम जो बोल दिये सो बोल दिये।

    एंकर: देखिये समय कम है। हम बेकार की बहस में न पड़ें तो अच्छा। चलिये एक कमर्शियल ब्रेक लेकर फ़िर तय करेंगे कि यह फ़िल्म विकास विरोधी है या सांप्रदायिक? हल्ला-गुल्ला वाली है या सामाजिक संदेश देने वाली।

    ब्रेक के बाद बहस शुरु हुयी तो फ़िल्म को विकास विरोधी बताने वाले विशेषज्ञ ने बात आगे बढाई:

    विशेषज्ञ 2: फ़िल्म विकास विरोधी है क्योंकि यह फ़िल्म के हीरो को बिना कपड़े के दिखाती है। देश में सब लोग हीरो-हीरोइनों की नकल करने में पगलाये घूमते हैं। जवान लोग कपड़ा पहनना बंद कर देंगे। सब कपड़े की मिलें बंद हो जायेंगी। इसके अलावा देखिये फ़िल्म में हीरो-हीरोइन को साइकिल पर प्यार करते दिखाया गया है। इससे आटो मोबाइल सेक्टर को कितना बड़ा झटका लग सकता है इसकी कल्पना की है आपने। लोग मोटर साइकिल और कार छोड़कर साइकिल पर इश्क फ़रमाना शुरु कर देंगे। हुलिया बिगड़ जायेगा आटो सेक्टर का।

    विशेषज्ञ 4: लेकिन इससे देश की एयरलाइंस कम्पनियों को तो बढावा मिलेगा। लोग हवाई जहाज पर बैठकर विदेश जायेंगे इश्क करने। एयरपोर्ट तक तो आटो सेक्टर के ही सहारे रहेंगे न!

    विशेषज्ञ 2: इस फ़िल्म में जो धर्म की खिल्ली उडाई गयी है उससे तो खैर कोई फ़र्क नहीं पड़ता। धार्मिक कर्मकांड को खिल्ली से कोई खतरा नहीं। वो तो कबीर के जमाने से उड़ रही है। लेकिन ये जो हाथ पकड़कर भाषा डाउनलोड करने वाला सीन है वो खतरनाक है अपने समाज के लिये। इसको देखकर कोई भी लड़का किसी भी लड़की का हाथ पकड़ेगा और कहेगा- भाषा डाउनलोड कर रहे हैं। इस पर मुझे एतराज है।

    विशेषज्ञ 4: अरे भाई जब आप खुले आम लड़कों-लड़कियों को हाथ पकड़ने में रोक लगाओगे तो वे बहाने खोजेगे ही। हाथ होता ही है पकड़ने के लिये है। केदारनाथ सिंह जिनको इस बार ज्ञानपीठ इनाम मिला है वो तक कहे हैं:

    "उसका हाथ
    अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
    दुनिया को
    हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए"

    केदारनाथ सिंह की भाषा भी भोजपुरी है। इस फ़िल्म में भी भोजपुरी डाउनलोड हुयी है। लेकिन क्रेडिट नहीं मिला केदारनाथ जी को। फ़िल्म वाले सब ऐसे ही गड़बड़ करते हैं।

    एंकर: आप लोग अच्छे से बहस कर रहे हैं। लेकिन  समय कम ।  कार्यक्रम खत्म करने से पहले हम आपसे जानना  चाहेंगे कि फ़िल्म में नंगे आदमी के हाथ में रेडियो दिखाने का क्या मतलब है। एक एक वाक्य में अपनी बात कहें:

    विशेषज 1: इससे यही पता चलता है कि आज देश की सरकारें आदमी को नंगा करने पर लगी हुई हैं और बहलाने के लिये उसको तरह-तरह के खिलौने थमा रही हैं।

    विशेषज्ञ 2: मेरा तो मानना है कि एलियन जिस भी ग्रह से आया होगा वहां तक हमारे प्रधानमंत्री के चर्चे पहुंचे होंगे। वहां के लोगों ने फ़िल्म के नायक को धरती पर इसीलिये भेजा होगा कि वह किसी भी तरह एक ठो रेडियो यहां से ले जाये ताकि वे लोग भी प्रधानमंत्री की ’मन की बात’ सुन सकें और अपने ग्रह का विकास कर सके।

    विशेषज्ञ 3: धरती पर बढ़ते प्रदूषण की तरफ़ इशारा है यह। हीरो बताता है कि आधुनिकता की अंधी दौड़ के चक्कर में ग्लोबल वार्मिंग के चलते आने वाले समय में इतनी गर्मी बढेगी कि कपड़े पहनकर रहना मुहाल हो जायेगा।

    विशेषज्ञ 4: मुझे तो ऐसा लगता है कि यह एलियन अपने यहां की खाप पंचायत द्वारा भगाया गया कोई नवयुवक है। वहां भी तमाम आधुनिकता के बावजूद प्रेम पर इसी तरह की पाबंदी होगी जैसी अपने यहां हैं। नवयुवक इस गोले पर आया तो नवयुवती किसी और गोले पर गयी होगी। गयी क्या भगायी गयी होगी। फ़िल्म में विदेश में प्यार का सीन का मतलब भी यही है कि अगर मोहब्बत करनी है तो विदेश जाना पड़ेगा या फ़िर दूसरे गोले पर। बहुत भयावह इशारा है यह। हमें सावधान हो जाना चाहिये और दुनिया को इस लायक बनाना चाहिये ताकि हम अपने कवि की इन पंक्तियों को अपने आसपास ही महसूस कर सकें:

    उसका हाथ
    अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
    दुनिया को
    हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए

    बहस खतम हो गयी। कार्यक्रम के बारे में आप अपनी राय यहीं नीचे के कमेंट बक्से में दे दीजिये।

     

    Sunday, January 04, 2015

    ’ई बुक’ कैसे बनायें

    पुलिया पर दुनिया (e-book)पिछले दिनों हमने अपनी ’ई-बुक’ बनाई- ’पुलिया पर दुनिया’। इस किताब में हमने ’सर्वहारा पुलिया’ पर बैठे लोगों से बातचीत करते हुये जो पोस्ट फ़ेसबुक पर अपलोड की थीं उनको इकट्ठा करके किताब बना डाली। अपलोड कर दी। अब इसको लोग आनलाइन खरीद सकते हैं। अभी तक कुल 44 किताबें बिक चुकी हैं।

    यह किताब पोथी.कॉम , आनलाइनगाथाnotnul, scribd, eBay, या फ़िर  गूगल प्ले से खरीद सकते हैं। ई-बुक की कीमत 50 रुपये है। प्रिन्ट एडीशन की कीमत अलग-अलग साइट पर अलग -अलग है। पोथी.कॉम पर रंगीन प्रिंटेड किताब के दाम 799 रुपये+डाकखर्च अलग हैं। (कौन खरीदेगा इत्ती सस्ती किताब ?  :) )

    इस किताब के बारे में रविरतलामी ने अपने ब्लॉग में लेख लिखा- पुलिया पर फ़ुरसतिया तो उसपर योगेन्द्र पाल की टिप्पणी थी-

    "सर पोथी.कॉम से pdf पब्लिश करवाना चाहता हूँ, यदि आप प्रोसेस जानते हो तो कृपया बताएं

    वैसे एक लेख यदि स्व:ई-पुस्तक प्रकाशन (kindle, kobo, epub, mobi, pdf) के लिए लिख दें जिसमें यह शामिल हो कि किस प्रकार से हम अपनी पुस्तक को बेच सकते हैं तो बहुत अच्छा रहेगा"
    रविरतलामी जी ने हमसे आग्रह किया कि हम बतायें कि कैसे ई-बुक प्रकाशित कर सकते हैं। तो हम उनकी आज्ञा के अनुपालन में यह लेख लिख रहे हैं।

    अभी जब मैंने अपनी ई-बुक कैसे प्रकाशित करें  पर गूगल सर्च किया  तो 0.55 सेकेन्ड में 561000 परिणाम मिले। इनमें सबसे पहला लेख बालेंदु शर्मा दाधीच का है- ऐसे छपेगी आपकी ई-बुक। इस लेख में ई-बुक से संबंधित बहुत उपयोगी जानकारी दी गयी है। इसे बांचकर आप अपनी ई-बुक बना सकते हैं।

    मैंने अपनी किताब ’पुलिया पर दुनिया’ बनाने के लिये पोथी.कॉम की सुविधा का उपयोग किया। इसमें सारी जानकारी बहुत सहज तरीके से दी हुई है।  हर तरह की समस्या के लिये समाधान हैं यहां। आप इसका उपयोग करके अपनी ई-बुक प्रकाशित कर सकते हैं।

    ब्लॉगर और फ़ेसबुक पर जो साथी अपने लेख, कविता, कहानी या रिपोर्ताज लिखते हैं वे अपनी ई-बुक बड़ी सहजता से बना सकते हैं। इसके लिये उनको सिर्फ़ अपने लेख,कविता, कहानी या रिपोर्ताज सब माइक्रोसाफ़्ट आफ़िस में कॉपी कर लें। यह काम हो गया तो समझिये आधा काम हो गया। इसके बाद अपना परिचय, भूमिका और समर्पण आदि तैयार कर लें। इसे भी किताब के साथ जमा लें। फ़िर किताब का मुखपृष्ठ बना लें। अगर बनाने में दिक्कत है तो पोथी.कॉम वाले भुगतान के आधार पर बना देते हैं। इसके बाद किताब को पोथी.कॉम पर चढा दें मतलब अपलोड कर दें।  बस आपकी किताब तैयार और आप किताब के लेखक हो गये।

    मैंने अपनी किताब ’पुलिया पर दुनिया’ ई-बुक बनायी तो उसमें करीब दो हफ़्ते का समय लगा। यह समय फ़ेसबुक से लेख उठाकर माइक्रोसॉफ़्ट में कॉपी करने, भूमिका लिखने, लिखवाने और कवर पेज बनाने में लगा। इसका सब काम मैंने खुद किया या अपने दोस्तों की मदद ली। सामग्री और मुखपृष्ठ तैयार होने के बाद किताब अपलोड होने/ प्रकाशित होने में सिर्फ़ एक दिन का समय लगता है।

    किताब के दाम रखना लेखक के हाथ में होता है। ई-बुक तो आप मुफ़्त में भी बेच सकते हैं या फ़िर कुछ दाम रखकर। मैंने अपनी किताब के दाम 50 रुपये रखे हैं। फ़िर भी अभी तक कुल जमा 44 किताबें ही बिकी हैं। ई-बुक में पोथी.कॉम पर कुल बिक्री का  75% रॉयल्टी के रूप में मिलता है। यहां से अभी तक कुल 40 किताबें बिकी हैं जिनकी कीमत 2000 रुपये है। मतलब  मुझे 1500 रुपये रॉयल्टी के मिलेंगे। दूसरी साइटों पर अलग-अलग दरें हैं रॉयल्टी की।

    एक साइट पर मैंने किताब के दाम 49 रखे तो साइट ने डांट सा दिया यह कहते हुये- "एक किसान भी अपनी किसी चीज का इतना कम दाम नहीं रखता  :) ।"

    प्रिंट कराने की सुविधा में किताब के दाम किताब प्रकाशित करने वाली साइट और आपको मिलकर तय करने होते हैं। यहां किताब के दाम इस हिसाब से तय किये जाते हैं कि अगर कोई एक किताब भी मांगे तो वह भी प्रिंट करके भेजी जा सके। इस हिसाब से मेरी ब्लैक एंड व्हाइट  किताब की  कीमत  199 रुपये और रंगीन किताब की कीमत 799 रुपये रखी गयी है। अभी तक प्रिंट वर्जन में मेरी कोई कोई किताब बिकी नहीं है।

    पोथी.कॉम के अलावा अन्य अनगिनत साइट हैं जहां से आप अपनी ई-बुक प्रकाशित कर सकते हैं।

    यह लेख अपने उन साथियों की सहायता और उकसावे के लिये लिखा गया जो अपने लेखन को किताब के रूप में लाना चाहते हैं। अगर किसी को किसी सहायता की आवश्यकता हो मुझे मेल कर सकता है- anupkidak@gmail.com पर या फ़िर फ़ोन भी कर सकता है -9425802524 पर।

    तो क्या सोचना है आपका अपनी किताब  प्रकाशित करने के बारे में। कर ही डालिये- जो होगा देखा जायेगा।
     

    रामफल से मुलाक़ात


    आज दोपहर को फिर रामफल से मिलना हुआ। मिलने पर बोले-हम समझे कहीं बाहर चले गए आप।


    तबियत ठीक-ठीक। रूपये में चार आना फायदा है। बात करते हुए उनका लड़का, बहुरिया और बच्चे आ गए। रामफल ने लपककर नातिन को गोदी में लिया। प्यार किया।पुच्चियाँ लीं। बीस रूपये जेब से निकालकर उसको दिए। बच्ची ने बैग में धर लिए। इसके बाद रामफल अपने नाती को प्यार करने में मशगूल हो गए।

    बेटे ने बताया कि अब रामफल को सुनाई ठीक देता है। लेकिन अक्सर घर में मशीन निकाल देते हैं। पर पुलिया पर आते समय मशीन साथ लाते हैं। आज भूल गए तो बेटे ने घर से लाकर दी। 

    तबियत के बारे में बताया कि रामफल पहले बीड़ी बहुत पीते थे।फेफड़े में छेद हो गया। डाक्टर ने जिंदगी का खतरा बताया तब छोड़ी। उसी के चलते सांस और बीपी की तकलीफ है। रामफल की पत्नी भी शुगर, बीपी, अस्थमा की दवाई खाती हैं।

    रामफल का बेटा 10 वीं तक पढ़ा है। मोटर मैकनिक का काम जानता है लेकिन दूकान बन्द हो जाने के चलते मजूरी का काम करता है। न्यूनतम मजदूरी आजकल 300 के आसपास है लेकिन न्यूनतम मजदूरी का चक्रव्यूह ऐसा है कि सौ-सवा सौ रूपये इसमें खेत हो जाते हैं। दिन में मजूरी करने के बाद रात में अपने बहनोई ( जो कि हाल में ही खत्म हो गए) की जगह चौकीदारी का काम करता है ताकि बहन का परिवार चलता रहे। बहन के बच्चे पढ़ने में अच्छे हैं । उसको आशा है कि साल दो साल में बहन के बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे।

    इस बीच रामफल का भतीजा उनका ठेला बाजार में लगवाने के लिए आ गया। वह फल का सब काम जनता है लेकिन करने के नाम पर सिर्फ रामफल का ठेला ढोता है। हमने पूछा की कुछ करते क्यों नहीं तो चुपचाप सुनता रहा।

    रामफल से एक किलो का पपीता,आधा दर्जन केले और दो संतरे लेकर हम वापस आ गए। कीमत 50 रूपये। लंच में मेस के खाने की जगह आधा पपीता और दो केले खाये गए। पत्नी की फल खाने की हिदायत का पालन हो गया -रामफल से मुलाक़ात के बहाने।

    Saturday, January 03, 2015

    है सरकार रजाई की अब

    कोहरे से सब पटा पड़ा है
    पड़ रही सर्दी बड़ी विकट,
    पेड़ खड़े स्टेचू जैसे
    पत्ती गई फूल से चिपट।

    चाय चल रही घर दफ्तर में
    मुंह से निकल रही है भाप,
    बर्फ गिरी हिल स्टेशन पर
    घर में दुबक के बैठो आप।

    है सरकार रजाई की अब
    सब उसकी शरण में आये,
    अच्छे दिन का किस्सा छोडो
    कोई अब गर्म पिलाये चाय।

    -कट्टा कानपुरी

    Thursday, January 01, 2015

    अरे नए साल जी आओ आओ


    अरे नए साल जी आओ आओ
    यहीं कहीं तुम भी सट जाओ
    मजे करो खूब झन्नाटे से
    झंझट भेजो सब सन्नाटे में।

    देओ बधाई हाथ मिलाओ
    गले मिलो औ खूब मुस्काओ
    करो संकल्प जी नए साल में
    नया जोश हो नए साल में।

    -कट्टा कानपुरी