Monday, November 30, 2015

मंगल खलीफा टाइप था

सुबह निकले तो देखा बरामदे में बहुत से पतंगे मरे पड़े थे। रात को ट्यूबलाइट से भिड़ते रहे होंगे। कुछ देर में सफाई हो जायेगी। ये कीड़े किसी कूड़ेदान में शरण पाएंगे। पता नहीं इन कीड़ों का संसार कैसा होता है। क्या पता इनके यहाँ इतिहास लिखा जाता है कि नहीं। शहीदों के सम्मान में लोकगीत गाये जाते हैं कि नहीं। अगर ऐसा कुछ होता तो कोई वीर रस का 'पतंगा कवि' इनकी शान में कविता रच चुका होगा जिसका लब्बो लुआब यह होगा कि दुश्मन ट्यूब लाइट की रौशनी का मुकाबला करते हुए ये पतंगे शहीद हुए।

विराट समय के मुकाबले इंसान की औकात की ये कविता पंक्तिया अनायास याद आ गई:
शताब्दियाँ बनकर रह जाती हैं
इतिहास की तहरीर
और उसी इतिहास से
सभ्यताओं के जनाजे निकल जाते हैं।

खैर, सुबह जब निकले तो सूरज भाई अभी निकलने का मूड बना रहे थे पर निकले नहीं थे।

सामुदायिक भवन में कुछ लोग कूड़ा जलाये आग ताप रहे थे। कुर्सियों का ढेर एक के ऊपर एक जमा हुआ था। सबसे ऊँची कुर्सी देखकर लगा कहीं वह भाईयों और बहनों कहते हुए मन की बात न शुरू कर दे।

सामने से तेजी से टहलते आते सरदार जी ने दोनों हाथ सीधे आसमान की तरफ उठाकर नमस्ते किया। हमारे हाथ में साइकिल का हैंडल था सो हम सर हिलाकर नमस्ते किये।

एक महिला सर झुकाये टहलती चली जा रही थी। सड़क पर कूड़ा बटोरता एक लड़का अचनाक बायीं तरफ से दायीं तरफ चला गया। उसके हाथ में एक लकड़ी थी जिससे कोंच-कोच कर वह पहले कूड़े का मुआइना करता फिर काम लायक कूड़ा उठाकार बोरे में भरता।

चाय की दूकान पर जैसे ही हम पहुंचे तो एक बुजुर्ग सज्जन भी वहां आये। अपने एक और मित्र के साथ। उनका एक पैर लड़खड़ा सा रहा था। उसी को लेकर बात शुरू हुई और चाय पीते हुए अपनी पूरी जीवनी उन्होंने 'अनज़िप' कर दी।

किसी इंसान का दुःख उसका वह हिस्सा होता है जहाँ हाथ रखते ही वह व्यक्ति अनायास खुल जाता है।
पता चला कि वो सज्जन जीआईएफ से रिटायर हुए। इसके पहले चांदा में और उसके पहले वीएफजे में नौकरी की। पिता भी फैक्ट्री में ही थे। छह भाई थे। पत्नी ने कुछ दिन नौकरी की फिर दिल की बीमारी के चलते छोड़ दी। एक लड़का है वह अपना काम करता है।

आज सुबह-सुबह सीजीएचएस से दवाई लेने के लिए आये हैं। सुबह 0430 पर निकले थे घर से। नंबर लगाने के लिए। 12 वां नंबर मिला है। दोपहर तक दवा मिल जायेगी। यहाँ डाक्टर सिर्फ दवा देने का काम करते हैं। देंखने के नाम पर मरीज को हाथ तक नहीं लगाते।


चाय के पैसे देने के नाम पर दोनों लोगों में थोड़ी अपनापे वाली बहस हुई। आखिर में उसकी जीत हुई जिसके पास फुटकर पैसे थे।

चलते हुए उनमें से एक ने किसी मंगल के न रहने की खबर दी। दूसरे ने इसे एक सूचना की तरह ग्रहण किया। एक ने कहा-'मंगल खलीफा टाइप था।' दूसरे ने कहा-' हां। खलीफा तो था। हम तुमसे उसके बारे में पूछने ही वाले थे।' इसके अलावा और कोई बात नहीं हुई मंगल के बारे में दोनों के बीच।

मुझे यह लगा कि कोई कितने ही बड़ा खलीफा क्यों न हों लेकिन उसका दुनिया के रंगमंच से विदा होना दूसरों के लिये एक सूचना मात्र से अधिक नहीं होता।

देवेन आया और नमस्ते करके कोने में सुट्टा मारने चला गया। साथ में उसके दो लोग और थे। हमने पूछा कि आज किसने पैसे दिए गांजे के तो वो बोले-'चल जाता है अंकल। कभी कोई दे देता है कभी कोई। किसी ने चिलम के पैसे दे दिए तो किसी ने चाय के। इसी तरह मिली जुली सरकार चलती रहती है।'

देवेन की कोर्ट की अगली तारीख है 4 दिसम्बर को। विरोधी पार्टी को सम्मन दिया गया है। नहीँ आई तो ऐसे ही फैसला सुना दिया जाएगा। इस बीच एक चक्कर दिल्ली का लगाकर आ जाने की सूचना भी दी देवेन ने।

लौटते हुये मोड़ पर दो कुत्ते टहलते दिखे। उनमें से एक विकलांग था। पिछली एक टांग आधी कटी थी। उछल-उछलकर चल रहा था।

दीपा से काफी दिन बाद मिलना हुआ आज। बताया उसने कि दीपावली को जन्मदिन मनाया उसने। पापा के साथ केक काटा। खाया। स्कूल में टॉफ़ी ले गयी थी। अगले हफ्ते से वह 3 में पहुँच जायेगी।

लौटते में झील देखते हुए आये। सूरज भाई झील के एक घुसे नहा रहे थे। चिड़ियाँ झील के बीच के तार पर बैठीं थीं। दूरी के कारण क्या बोल रहीं थी मुझे सुनाई नहीं दे रहा पर जरूर कुछ आपस में गुफ्तगू कर रहीं होंगी।
कमरे पर आकर चाय पीते हुए यह पोस्ट कर रहे हैं। अब तो सही में सुबह हो गयी है।

Sunday, November 29, 2015

अरे बउआ ई गोड़ सब पिरात हैं


आज सुबह फैक्ट्री जाते हुए ये माता जी मिलीं पुलिया के पास। सर पर मोमिया का झोला धरे हाथ डुलाती हुई चली आ रही थी। हमने चलते हुए फोटो लिया और बतियाने लगे- 'कहां चली जा रही हो सबेरे-सबेरे सर पर झोला धरे।'
 
'अरे कहूँ नहीं भैया-ऐसे ही कूड़ा-कचरा से कुछ बिनि लेइति है तौ दुई पैसा मिलि जात हैं '- माता जी ने आँख मिचमिचाते हुए कहा।
 
खड़े हुये बात करने लगे माता जी से तो उन्होंने बताया- 'तीन लड़के हैं। तीनों कुछ मजूरी का काम करते हैं। लेकिन पैसा दारु और घर में उड़ा देते हैं। बहुएं कहती हैं बूढ़ा माता से कि तुम खुद कमाओ खाओ। इसीलिये कूड़ा बिनती हैं वो। कभी कोई चाय पिला देता है। नाश्ता करा देता है। दुई चार दस रुपया दे देता है।'
 
आदमी काफी पहले खत्म हो गया माताजी का।वो भी नशा पत्ती करता था। गांजा पीता था। ठेकेदारों के यहां काम करने वालों को दारू, गांजा के नशे होना तो आम बात है।

हमने कहा-'लेकिन तुम तो लगता नहीं कि नशा करती हो। क्या करती हो कुछ नशा? दारु, गांजा, तम्बाकू?'
माता जी बड़ी तेजी से हंसी यह सुनकर। ऊपर के पूरे दांत लगभग सलामत थे पर मसूड़े से 45 डिग्री का कोण सा बनाते हुए बाहर झांक रहे थे। नीचे के सामने के दांत गायब थे। बोलीं--'अरे हम न कोई नशा करती।'
हमने पूछा-'कित्ते पैसे मिल जाते हैं रोज कूड़ा बीनने से? कल कित्ते मिले?'


'अरे कुछ तय नहीं। कल कूड़ा बीने ही नहीं। कभी लकड़ी बीन लेते हैं घर के लिए। कभी कूड़ा। कभी कुछ मिल जाता है कभी कुछ।'--जानकारी देते हुए बताया माता जी।

उम्र के बारे में पूछते हुए बताया--'अरे होइ यहै कौनौ 60-65 साल।' नाम बताया- ' मुन्नी बाई।'

हमने कहा-'अरे वाह मुन्नी देवी तो हमारी अम्मा का नाम भी था। अब वो रहीं नहीं।'

'अरे नहीं रहीं? अच्छा हुआ बुढ़ापे में कढिलें (झेलने) ते बढ़िया चली गयीं तुम्हारी अम्मा। बप्पा होइहैं ?' -बुढ़िया माता जी ने पूछा।

'हमने बताया न नहीं रहे वो भी। लेकिन तुम ऐसा दुखी काहे होती हौ। बढ़िया टनाटन तौ है तुम्हार शरीर। दांत बचे हैं। चल फिर लेती हौ। और का चहिये तुमको बुढ़ापे माँ।'- हमने अनौपचारिक होते हुए कहा।

'अरे बउआ ई गोड़ सब पिरात हैं। घुटनन के मारे चलत नहीं बनत। आँखिन ते कम दिखात है। दांत सब हिलत हैं। बस कौनिउ तरन से घसिटि रही है जिंदगी।'- माता जी बोलीं।


लालमाटी इलाके में रहती हैं माताजी। बोली -'सुबह से केवल चाय पी है। कुछ खाया नहीं है।'

हमने जेब में आज आखिरी बचा दस का नोट निकाला और पूछा-' ये कित्ते रूपये का नोट है?' वो बोली-' दस रुपया का है।'

हमने कहा-' तुम तो कह रही थी कि तुम पढ़ी-लिखी नहीं हौ। फिर नोट कैसे पहचान गयीं।'

'अरे नोट देखित है तौ पहचान लेइत है।'-बूढा माता उवाची।

'20 का नोट पहचान लेती हो?' - हमने पूछा।

वो बोली -' हाँ।'

'पचास का?'

'हाँ'

'100 का?'

'हाँ।'

'500 का?'




हमने यह पूछा तो वो हंसने लगी। हमें भी हंसी आ गयी। हमें बिहार की चुनाव सभाओं में पैकेज की घोषणा करते हुए प्रधानमन्त्री जी का अंदाज याद आ गया और हमने शर्मा कर आगे पूछना छोड़ दिया। 10 का नोट माता जी के हवाले कर दिया।

पैसे पाकर माता जी खिल सी गयीं। पूछा-'बेटवा/पतोहू हुईहै तुम्हार?'

हमने कहा-'हां पत्नी हैं। दो बेटे हैं।'

जियत रहैं। ख़ुशी रहें। कहती हुई चलने लगी माता जी तो हमने कहा -'अच्छा, एक फोटो और खिंचा लेव। जरा मुस्कराते हुए।'

माता जी ने पोज दिया। हमने फोटो खींचा। उनके हाथ की झुर्रियां देखकर अपनी अम्मा के हाथ याद आ गए। मन किया उनके गाल नोच लें जैसे अम्मा के करते थे। हाथ आगे किया भी लेकिन फिर कंधे पर धरकर वापस कर लिया।

फिर दोनों लोग अपने-अपने रस्ते चले गए।

हमारा नाम बहुरुपिया है

कल रात को डिनर के बाद हम लोग शहर गए कॉफी पीने। समदड़िया के पास बनी सड़क किनारे की दुकानों में से एक के पास की फुटपाथ पर प्लास्टिक की कुर्सियों पर विराजते हुए काफी पी गयी।

दुकान पर कॉफी सर्व करने वाला बच्चा 14 साल से कम ही रहा होगा। एक ट्रे में धरकर कॉफी लाया सबके लिए। हमने कप रखने के लिए स्टूल मंगवाया। बेचारा वह भी ले आया। रात दस के ऊपर समय था। कम उम्र का बच्चा इतनी रात किसी जगह काम करे यह कानूनन जरूरत अपराध होगा। लेकिन शहर के बीचोबीच धड़ल्ले से यह सामाजिक अपराध हो रहा था। हम भी हा हा ही ही करते हुए इसमें सहयोग कर रहे थे।

इस बीच एक बच्ची हम लोगों के पास आकर भीख मांगती रही। हम लोगों में से किसी ने उसको तवज्जो नहीं दी। कुछ देर बाद झक मारकर वह दूसरे लोगों की तरफ चली गयी। बच्ची की उम्र 10-12 साल से अधिक नहीं रही होगी।

कॉफी पीकर चलने को हुए तो एक बुजुर्गवार आ गए और कुछ मांगने लगे। साथी लोग चल दिए थे लेकिन हम उनसे बतियाने लगे।

बुजुर्गवार सतना के रहने वाले थे। एक बेटा है उनका। किसी बनिए के यहां सतना में ही काम करता है। बाप को खाने को नहीं देता/दे पाता तो बाप भीख मांगता है।

बुजुर्ग ने बताया कि पिछले आठ-दस साल से मांगने के धंधे में उतरे हैं वे। इसके पहले बैलगाड़ी चलाते थे। लोगों का माल ढोते थे। जमींदारों और किसानों के लिए माल ढुलाई करते थे।

उम्र पूछी तो बताया सन 1936 की पैदाइश है। मतलब जिस साल मुंशी प्रेमचन्द नहीं रहे थे शायद। मतलब 1 साल कम अस्सी। पत्नी 20 साल पहले नहीं रहीं।

नया टाइप स्वेटर पहने थे बुजुर्गवार। बोले-'एक बिटिया ने दिया एक हफ्ते पहले।' हमने कहा-'बढ़िया लग रहा है।' तो मुस्कराने लगे। तब तक हम लोगों में से किसी ने कुछ पैसे नहीं दिए थे।

सोते कहां हो के सवाल के जबाब में बोले-'यहीं कहीं फुटपाथ में सो जाते हैं।' खाना खा चुके थे शाम को ही। दाल-रोटी।

आठ-दस दिन में सतना चले जाते हैं बुजुर्गवार। एकाध दिन रहते हैं। फिर वापस चले आते जबलपुर। मांगते-खाते हैं। बताया-'20/25 रुपया मिलि जात हैं। खाय-पिए भरे का हुई जात है।'

हमने नाम पूछा तो बोले-'नाम माँ का धरा है। समझ लेव बहुरूपिया नाम है हमार।' यह कहकर ठठाकर हंस दिए। आधे से ज्यादा दांत विदा हो गए थे। बचे हुए दांत ऐसे लग रहे मानों राज्य सभा में कोई सत्र चल रहा हो और सदन के ज्यादातर सदस्य वहां से गोल हो गए हों।

बुजुर्ग की हंसी में साथ देने के लिए हम भी हंसे। हाथ पकड़कर हिलाया कि ये तो ऊँची बात कह दी। इस समय तक हमारे एक साथी ने दस रूपये का एक नोट उनको दिया। हमने कहा-'वाह बाबा, तुम्हारे तो मजे हो गए।'

इसके बाद हमने उनका फोटो खींचने के लिए मोबाईल कैमरा उनकी तरफ किया। हमारी इस हरकत की भनक लगते ही बुजुर्गवार एकदम बच्चों की तरह उछलकर फुटपाथ पर चढ़े। कुर्सियों के पीछे से होते हुए फिर सड़क पर उतरकर दुकानों की भीड़ में मिल गए। शायद। अपनी फोटो नहीं खिंचवाना चाहते होंगे।

मैं पहली बार आया था यहां कॉफी पीने। हमारे साथी बताने लगे यह हमेशा मिलता है यहां इसी तरह मांगते हुए। आपने यह तरकीब अच्छी बताई इससे बचने के लिए।

हम अभी उस सोच रहे हैं कि कैसे बहुरूपिया समय और समाज में जी रहे हैं हम जहां 79 साल का एक बुजुर्ग और 10/12 साल की बच्ची रात के 11 बजे भीख मांगती है। ऐसे समय में जब लोगों अनगिनत लोगों को एक समय का खाना नसीब नहीं होता। प्राइम टाइम बहसों में इन पर कोई चर्चा नहीं होती। इसके बदले किसी के दिए बयान का कोई हिस्सा पकड़कर हफ्तों चेमगोइयां होती रहती हैं। बीच में उड़ती-उड़ती सी खबर आती है (और फिर हवा भी हो जाती है) कि अम्बानी लोगों ने 11000 करोड़ की गैस ज्यादा निकाल ली। इस पर जांच के बारे में किसी चैनल पर कोई बहस नहीं होती।

Saturday, November 28, 2015

बेकरारी में है करार तो क्या कीजै

बेकरारी में है करार तो क्या कीजै
आ गया जो किसी पे प्यार तो क्या कीजै।


एक चयासा आदमी लपकता हुआ आया 'यादव टी स्टाल' में घुसा। आते ही सामने की बेंच पर पसर सा गया। उसके चेहरे पर 'ब्रिस्क वॉकिंग' घराने का पसीना चमक रहा था। जेब में धरे उसके मोबाईल से गाना बज रहा था जो ऊपर लिखा मैंने।

दुकान का नाम 'यादव टी स्टॉल' वहां बिक रहा था बेनजीर तेल। बगल में 'पंडित प्रोडक्ट्स' का विज्ञापन पुता हुआ था। मतलब अगड़े, पिछड़े और अल्पसंख्यक नाम वाले चमक रहे थे। दलित और दीगर लोगों का प्रतिनिधित्व नदारत था दुकान पर।

यादव टी स्टॉल जीसीएफ फैक्ट्री के पास है। फैक्ट्री से छूटे हुए लोग वहां चाय पीते हुए बतिया रहे थे। एक आदमी ने घुसते ही सवाल उछला- सन्डे चल रहा है क्या?

सन्डे चलने का मल्लब इतवार को फैक्ट्री इतवार को खुलेगी कि नहीं। फैक्ट्री खुलने का मतलब ओवरटाइम पर काम होना। सप्ताह के बीच जब किसी दिन छुट्टी होती है तो उस दिन के बदले किसी दिन ओवरटाइम पर काम होता है। उसी के लिए सवाल किया था उस आदमी ने।

फैक्ट्री से सम्बंधित निर्णय भले ही फैक्ट्री में लिए जाते हों लेकिन उनका समुचित प्रसारण ऐसे ही नुक्कड़ों पर और चाय-पान की गुमटियों से होता है।किसी भी संस्थान के पास स्थित चाय-पान की दुकाने उन संस्थानों के सूचना प्रसारण केंद्र होते हैं।

सुबह जब निकले आज छह बजे तो सड़क पर अँधेरे और उजाले की गठबंधन सरकार चल रही थी। उजाले के नाम पर बिजली के लट्टू जल रहे थे जगह-जगह। लोग टहल रहे थे। कुछ लोग तो इतनी तेजी से टहल रहे थे मानों उनके मन में उनको उजाला फैलने पर पहचान लिए जाने का मासूम डर फुदक रहा हो।

दो महिलाएं साथ-साथ टहल रही थी। दोनों के हाथ में लाठी घराने के लंबे डंडे थे। एक महिला हाथ में डण्डा सड़क के लंबवत लिए चल रही थी। दूसरी का डण्डा सड़क के समांतर लहराता हुआ चल रहा था। एक दूसरे के साथ-साथ टहलती हुई महिलाओं के हाथ के डंडे 90 डिग्री के अंतर में देखकर लगा कि अपना देश वास्तव में विविधताओं का देश है।


आसमान पर लालिमा छाई हुई थी। सूरज भाई की सवारी निकलने ही वाली लग रही थी। आसमान के चेहरे पर लालिमा देखकर लग रहा था जैसे कायनात का मेकअप पूरा हो गया है। हल्की लालिमा उसके चेहरे रुज की तरह पसरी हुई है। बस अब कुछ देर में ही सूरज की टिकुली लगाकर सबको दिखने लगेगी।

सड़क पर चार लोग एक-दूसरे के अगल-बगल टहलते हुए चले जा रहे थे बतियाते हुए। सड़क आधी कर दी थी उन्होंने। उनके बगल से गुजरते हुए मन किया टोंक दें कि थोड़ी सड़क दूसरों के लिए भी छोड़ दो भाई। लेकिन फिर नहीं बोले। क्या पता वो भी हमको गेट आउट बोल दें जैसे कल हरियाणा में मंत्री जी ने बोल दिया एक अधिकारी को।

व्हीकल मोड़ पर चाय की सब दुकानें बन्द थीं। हम एक मिनट के लिए सोचने के लिए रुके कि जीसीएफ की तरफ बढ़ें कि रांझी की तरफ। फिर जीसीएफ की तरफ बढ़ गए।

एक आदमी एक बिजली के खम्भे के चबूतरे पर बैठा अपने मोबाइल में घुसा हुआ था। आदमी की स्थिरता देखकर लगा कि उसको डर है कि अगर कहीं हिला तो मोबाइल का नेटवर्क चला जाएगा।

मोबाईल कम्पनियों के नेटवर्क के यही हाल हैं आजकल। अभी जहां होता है कुछ देर बाद वहीं नहीं होता है। कंचनमृग सा छलिया होता है नेटवर्क। चेतक के घोड़े की तरह:
’आदमी  जगह से हिला  नहीं
तब तक नेटवर्क उड़ जाता था”


मुझे लगता है कि मोबाइल कम्पनियों को अपने विज्ञापन में यह सूचनाएँ जरूर छपवानी चाहिए--'फैशन के दौर में गारन्टी की अपेक्षा न करें के शाश्वत नियम के तहत किसी जगह पर अगर किसी तकनीकी कारणों से नेटवर्क लगातार मिलता रहता है तो उसके लिए कंपनी जिम्मेदार नहीं होगी।'

एक जगह लुकमान कोचिंग का विज्ञापन लगा हुआ था। आठवीं से आगे के बच्चों की कोचिंग के लिए। मैं यह सोच रहा था कि लुकमान के पहले का हकीम किधर गुम हो गया।

चाय पीकर लौटते हुए रॉबर्टसन झील देखते हुए आये। एक बुजुर्ग महिला हाथ में लोटा लिये झाड़ियों की तरफ जा रही थी। उसके पीछे एक बच्ची भी प्लास्टिक के मग में पानी लिये चली जा रही थी। 'जहाँ सोच वहां शौचालय' वाली बात याद करके लगा कि शायद यहाँ न सोच पहुंचा है और न शौचालय। यह अलग बात है कि सोच और शौचालय दोनों की अगवानी स्वच्छ भारत अभियान का सेस चार्ज कटना शुरू हो गया है।

झील का पानी शांत लेटा हुआ था। झील के ऊपर जाने वाला तार भी अकेला लटका हुआ अपने ऊपर बैठने वाले पक्षियों के इन्तजार में दायें-बाएं हिल रहा है।

कोई छोटा जलचर पानी में उछला। जिस जगह उछला उस जगह से पानी की लहरें गोल-गोल घूमती हुई किनारे तक पहुंची। पानी हिलने लगा। ऐसा लगा लहरों में दंगा हो गया। किनारे पहुंचकर लहरें शांत हो गयीं। दूर झील का पानी इस हलचल से शांत अपने मस्त लेटा हुआ था। उससे कुछ पूछा जाता तो शायद कहता कि वह स्थानीय हलचल है। उससे हमें क्या लेना देना।

झील के पानी को देखते हुए कमरे पर लौट आये। अभी चाय पीते हुए बाहर देख रहे हैं तो सूरज भाई का काफिला धरती पर पहुंच चुका है। धरती ने मुस्कराती घास और खिले हुए अनगिनत फूलों के गुच्छो के साथ सूरज भाई का स्वागत किया है। सुबह हो गयी है। आप के इधर क्या नजारा है?

Thursday, November 26, 2015

चुटकुले बाज और मसखरे टाइप लोग हर जगह लोकप्रिय हैं

हां तो हम क्या कह रहे थे ? अरे हत्तेरे की। हमने अभी कहना शुरू ही कहां किया। कोई नहीं अब शुरू करते हैं।
हां तो हुआ यह कि आज मोबाइल चार्ज था सो अलार्म बजा सही समय पर। फोन करके घरैतिन को जगाया। फिर देखा तो कल शाम की मजे-मजे में लिखी पोस्ट पर तमाम (50 से ऊपर) टिप्पणियॉ थीं। 150 करीब लोगों ने पसन्द किया था उसे। जबकि कल दोपहर की मेहनत करके लिखी पोस्ट पर कुल जमा टिप्पणियाँ दो अंकों से कम थीं। लाइक भी 60 के करीब लोगों ने किया था। इससे यह एहसास हुआ कि लोग हंसी-मजाक ज्यादा पसन्द करते हैं। सीरियस बात को सीरियसली नहीं लेते। शायद यही कारण है कि चुटकुले बाज और मसखरे टाइप लोग हर जगह लोकप्रिय हैं।

सुबह निकले तो साढ़े छह बज चुके थे। मोड़ पर एक आदमी टहलता हुआ अपने हाथ को ऊपर नीचे करता जा रहा था। ऐसा लग रहा था कि वह अपने हाथ के पास की हवा ऊपर उठाता है यह सोचकर कि अब वह नीचे नहीं आएगी लेकिन जैसे ही वह हाथ नीचे करता था वैसे ही हवा फिर नीचे आ जाती थी।

यहां मुझे न जाने क्यों पुराने जमाने के भयंकर लड़ाके राजा याद आये। नेपोलियन खासकर। बेचारे की जिंदगी का बड़ा हिस्सा घोड़े पर ही लदे-लदे खर्च हो गया। अभी इधर किसी राज्य हो फतह करके आया तब तक कोई दूसरा जीता हुआ राज्य निकल गया हाथ से। उस पर कब्ज़ा किया तब तक कोई और सरक गया। मल्लब बेचारा लड़ाई के चलते इतना हलकान कि बेचारे को प्रेम पत्र भी युध्द के मैदान से लिखने पड़ते। मुझे तो लगता है कि नेपोलियन को उसके चमचे मैदान पर दौड़ाते रहते होंगे। बेचारा यहाँ-वहाँ तलवारबाजी करता रहा और इसके चमचे माल और मौज काटते रहे। जब उसके कल्ले में बूता नहीं बचा तो ले जाकर धर दिए सेंट हेलेना द्वीप में- भजन करो बाबू तुम यहाँ बैठकर।

लोकतान्त्रिक देशों में आजकल के नेताओं के भी यही हाल हैं। बाजार उनको दौड़ता रहता है। वो बने नेपोलियन बाजार की भरी हवा अपने देश में फूंकते रहते हैं। बाजार हवा सप्लाई करता रहता है। वे बेचारे और तेजी से फूंकते है। ऐसे ही फूंकते-फूंकते बेचारों का गला बैठ जाता है। फेफड़े फूल जाते हैं तो बाजार नया मुखौटा ट्राई करता है। पुराना बेचारा पड़ा-पड़ा कुड़कूड़ाता रहता है रागदरबारी के दूरबीनसिंह की तरह।

एक बच्ची बगल से निकली साइकिल पर। हम लपककर उसके बगल में साईकल ले जाकर पूछे -स्कूल जा रही हो? किस क्लास में पढ़ती हो? कितने बजे का स्कूल है?

अब साइकिल पर बस्ता लादे स्कूल जाती बच्ची से यह पूछना कि स्कूल जा रही हो ऐसा ही है जैसे शोले में बसन्ती से अमिताभ बच्चन बसन्ती से पूछते हैं तुम्हारा नाम क्या है बसन्ती?

बच्ची ने नमस्ते अंकल कहते हुए बताया कि वह कक्षा 7 में पढ़ती है। स्कूल भी सात बजे का ही है। और कुछ बात होती तब तक उसका स्कूल आ गया और वह स्कूल की तरफ मुड़ गयी। हम चूंकि नमस्ते नहीं कर पाये थे तो हमने उसको मुस्कराते हुए टाटा,बॉय-बॉय किया।

आगे मोड़ पर तालाब की तरफ मुड़े। एक महिला अपनी बच्ची के सर पर स्कार्फ बाँध रही थी। एक बुजुर्ग महिला वहीं बैठी एक बच्चे को साथ लिए शायद स्कूल बस का इन्तजार कर रही थी।

तालाब किनारे पहुंचे तो कल मिले राजेश वहीं अकेले बैठे थे। तालाब शांत था। तालाब के ऊपर से गुजरते एक तार पर अनगिनत पक्षी एक दूसरे की तरफ मुंह किये हुए बैठे थे। एक की पूंछ दूसरे की चोंच की तरफ। मानों विरोधी विचारधारा के पक्षी एक ही पर बैठे थे। इसके बावजूद सब शांत थे। मन किया कि यह सोच डालें कि लगता है पक्षी आदमियों से ज्यादा समझदार होते हैं क्या जो एक दूसरे से अलग तरह से बैठे होने के बावजूद फालतू हल्ला नहीं मचाते। लेकिन फिर नहीं सोचा। क्या फायदा सुबह-सुबह फालतू बयान बाजी का। कोई कहेगा--ऐसा ही है तो जाओ बैठो जाकर तार पर चिड़ियों की तरह। :)

सूरज भाई हमको देखकर ऐसा खुश हुए कि अपनी पूरी लाइट मेरे चेहरे पर मारकर मुस्कराने लगे। हमने कहा-'क्या करते हो भाई। सारी रौशनी हम पर लुटा दोगे तो कोई इल्जाम लगाएगा कि सूरज भाई पक्षपात करते हैं रौशनी अलाट करने में।' सूरज भाई मुस्कराते हुए पूरी कायनात को रोशन करते रहे।

राजेश से मैंने फिर पूछा तो उसने बताया कि 3-4 साल में ही पता चल गया था कि उसकी औरत के बच्चेदानी नहीँ है। हमने कहा कोई टेंशन नहीँ है। 20 साल साथ रहे। उसको कोई कुछ कहता भी नहीं था। बच्चा गोद नहीं लिया क्योंकि लोग अलग-अलग तरह समझाते थे। कोई बोला -आजकल अपनी औलाद तो साथ नहीं देती। पराई का क्या भरोसा। इसी तरह की और बातें। अब जो हुआ सो हुआ।

अपनी पत्नी के बारे में आगे बताया राजेश ने-'जब जली थी तो हम खा पीकर निकल गए थे। फिर फोन आया कि बीबी की तबियत खराब तुम्हारी तो हम सोचे कि हम तो ठीक छोड़ के आये थे। तबियत कैसे खराब हो गयी। पहुंचे तो अस्पताल ले गए। 60% जली थी। चार-पांच दिन जिन्दा रही। फिर खत्म हो गयी। याद आती है। बीस साल का साथ रहा। कभी लड़ाई नहीं हुई।'

राजेश को उसकी यादों के साथ छोड़कर हम पंकज टी स्टाल पहुंचे।वहां एक बुजुर्ग चाय पी रहे थे। बातचीत की तो पता चला कि नगर निगम में काम करते हैं। वीएफजे और जीसीएफ के लिए पानी खोलकर आये हैं।

वीएफजे के लिए 15 चूड़ी पानी खोलते हैं जीसीएफ के लिए फुल। फुल मतलब करीब 25 चूड़ी। कुछ दिन पहले नगर निगम के किसी अधिकारी ने जीसीएफ का पानी दस चूड़ी कर दिया था। रोज लोग आते कहते-खान साहब देख लो जरा। रोज-रोज की किचकिच से हमने कहा -आप टेंशन न लो। हम फुल खोल देंगे। फिर हमने साहब को बता दिया और फुल पानी देने लगे।

रीवां के रहने वाले खान साहब देखने में लग रहे 55 के आसपास होंगे। लेकिन बताया 44 साल के हैं। चार बच्चे हैं। बड़ी बच्ची 11 वीं पढ़ती है। 12 दिसम्बर को उसकी शादी है। हमने कहा- 11 वीं में पढ़ने वाली बच्ची की शादी ? इतनी जल्दी क्यों? वो बोले-उसकी उमर 22 साल है। एकाध साल फेल हुई। दामाद इंजीनियर है। कहीं प्राइवेट कुछ करता है। कहता है- पढाई की चिंता न करो। हम।पढ़ा लेंगे।

 अपनी छोटी बेटी की पढाई में तारीफ़ करते हुए बोले-दसवी में है। फर्स्ट आती है।

18 साल की नौकरी के बाद भी खान साहब दिहाड़ी पर काम करते हैं। 320 रूपये रोज पर। अपने बगल में स्मार्ट फोन में डूबे लड़के की तरफ इशारा करते हुए बोले-'जे हमसे बाद में आये। परमानेंट हो गए। 18 हजार पाते हैं।'
खुद के परमानेंट न हो पाने का कारण पैसा और पैरवी का अभाव बताते हैं। बोले-'पिछले महापौर ने 57 लोगों को चार-चार लाख लेकर परमानेंट कर दिया। बाहर के लोगों को। वो तो पैसा लेकर चला गया। लेकिन बाद में हाई कोर्ट ने स्टे लगा दिया भर्ती पर। बेचारों का पैसा डूब गया। पहले वाला महापौर अच्छा था। उसने 35 लोग परमानेंट किये। सब यहीं के थे।

हम चाय पीकर चले आये। हमको बिहार के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर याद आये जिन्होंने जिसके पास भी डिग्री थी उसको मेले में बुलाकर नौकरी दे दी। कम से काम कोई भर्ती घोटाला तो न हुआ। बाकी समस्याएं तो खैर अलग की बात हैं।

आप मजे से रहिये। आपका दिन शुभ हो। मंगलमय हो। जय हो।

Wednesday, November 25, 2015

क्यों मुंह उठाकर चले आते हो

हमारी शक्ल से त्रस्त एक पाठक Mukesh Bhalse ने मेरी ब्लॉग की एक पोस्ट के गूगल+ पर दिखने पर यह टिप्पणी की:

"साला जब भी G+ खोलो 10-15 बार तुम्हारा सड़ा मुंह देखना पड़ता है. क्या नौटँकी है यार क्यों मुंह उठाकर चले आते हो ऐसा लगता है G+ तुम्हारे बाप की बपौती है."

मुकेश भाई की तकलीफ सुनकर बड़ी शर्म आई। मन किया किया काश धरती में छह फिट का गढ्ढा होता कहीं आसपास तो उसमें पांच-दस मिनट के लिए समाकर वापस लौट आ...ते।

मुकेश भाई इंदौर से हैं जहां से कैलाश विजयवर्गीय जी हैं जो कि अपने क्रांतिकारी बयानों के लिए जाने जाते हैं। वैसे इंदौर में ही अर्चना चावजी भी रहती हैं जिनको हम उनके बेहतरीन पॉडकास्ट के लिए भी जानते हैं।

हुआ यह कि पिछले दिनों फेसबुक की तमाम पोस्टें हमने अपने ब्लॉग पर डाली। ब्लॉग पर जब पोस्ट आती है तो वह गूगल+ पर साझा हो जाती है। एक दिन में 20 से 25 पोस्टें ब्लॉग पर डालीं तो मुकेश भाई को हर बार हमारा मुखड़ा दिखा होगा जिससे झल्लाकर उन्होंने वह लिखा जो ऊपर बताया मैंने।

यह बात जरूर गुस्से में लिखी होगी मुकेश भाई ने। गुस्से के बारे में 'खोया पानी' उपन्यास में कहा गया है:

"मिजाज, जुबान और हाथ, किसी पर काबू न था, हमेशा गुस्से में कांपते रहते। इसलिए ईंट, पत्थर, लाठी, गोली, गाली किसी का भी निशाना ठीक नहीं लगता था। :)

वही हाल मुकेश का हुआ होगा। मेरी शक्ल देखते ही गुस्सा आया होगा और यह टिप्पणी लिखी उन्होंने।

हमको समझ में नहीं आया कि जबाब क्या लिखें। लेकिन कुछ देर बाद लिखा:

"हमको पता नहीं कैसे हमारा मुंह तुमको दिख जाता है। कुछ लफ़ड़ा है।

वैसे हम जानबूझकर ऐसा नहीं करते। :) 

 लेकिन इस बहाने तुम्हारी शक्ल दिख गयी। क्यूट लगते हो। थोड़ा मुस्कराया करो। और खूबसूरत लगोगे। शुभकामनाएं। :)

टिप्पणी का जबाब लिखने के बाद कारण समझ में आया। कारण वही जो बताया कि एक दिन में ही कई पोस्ट एक के बाद एक ब्लॉग पर पोस्ट करना। मतलब कई दिनों का बकाया काम एक साथ करना। इसीलिए कहा गया है-"आज का काम कल पर नहीं छोड़ना चाहिए।"

वैसे एक बात यह भी है कि आप में से कई मित्र जो किसी का दिल दुखाने वाली बात कहने में संकोच करते हैं वे कहें भले न लेकिन मन में पक्का सोच रहे होंगे कि बन्दे (मुकेश) ने मेरे मन की बात कह दी। smile इमोटिकॉन

चलिये आप मजे कीजिये। हम अपनी आज की पोस्ट ब्लाग पर सटा देते हैं। देर की तो कल को फिर कोई गरियायेगा। :)

'टीवी और न्यूज देखने की फुर्सत ही कहां


आज सुबह नींद तो भोर में ही खुल गयी थी लेकिन जगे नहीं। इंतजार करते रहे अलार्म बजने का। जब अलार्म बजे, तब सबेरा हो। बहुत देर तक इंतजार करते रहे अलार्म बजने का। पर वो पट्ठा बज के नहीं दिया। एक बार मन किया कि भाड़ में गया अलार्म अब उठ ही जाते हैं लेकिन फिर सोचा कि फिर क्या फायदा अलार्म का।सोचा तो यह भी कि अपने आप उठकर एक - दो कंटाप लगायें अलार्म को कि बजता क्यों नहीं बे? बज तू तो हम भी उठें । पर यह सोचकर की छुट्टी के दिन हिंसाबाद ठीक नहीं हम इक बार फिर करवट बदलकर लेट गए। अलार्म बजने का इन्तजार करते हुए।

अलार्म बजने पर ही जागने की जिद कुछ ऐसे ही जैसे हम सोचते रहते हैं कि अवतारी पुरुष आएगा हमारा उद्धार करने। किसी उद्धारक के बिना कुछ सुधार करना मतलब खुद की और आने वाले उद्धारक की तौहीन करना है।
जब सच्ची में बहुत देर हो गयी तो घड़ी देखी। सात बज गए थे सुबह के। मोबाईल देखा तो पता चला बैटरी खलास हो चुकी थी। बैटरी विहीन मोबाईल अलार्म कैसे बजाता।

हम फौरन मोबाईल में मुंह में चार्ज का पिन घुसेड़े। बिजली पीते ही मोबाइल की साँसे वापस आयीं।चार्ज होंने लगा।


मोबाईल के रात में बिना बताये हुए डिस्चार्ज हो जाने की बात का कनेक्शन अपनी जिंदगी से जोड़ लिए। यह सोचे कि ऐसे ही कोई सुबह होगी जो वैसे तो सुहानी होगी पर दुनिया को पता चलेगा हम डिस्चार्ज हो गए। फिर वही कि एक दिन तो होना ही था। भले आदमी थे। भले तो नहीं पर इतने बुरे भी नहीं थे। खैर होनी को कौन टाल सकता है।

इन सब बातों को हमने दौड़ा के फुटा दिया। छुट्टी का दिन था। आराम से सुबह समय बर्बाद करते हुए चाय पीते हुए कमरे के बाहर पूरे लान में बिखरी धूप को निहारते रहे। धूप में थोड़ा कोहरा मिला हुआ था। घूप गुनगुनी और नशीली टाइप लग रही थी। नशीली इसलिए कि उसको पीकर लान की घास और पौधे और फूल पत्ती भीं जहां घूप पिए बस टुन्न सा होकर पसर गए।

नहा धोकर कपड़े फ़ैलाने गए धूप में तो पता चला बनियाइन तो तीन थी लेकिन अंडरवियर दो ही धुले थे। लौटकर देखा तो अंडरवियर अरगनी में टँगा हुआ हवा के साथ झूल रहा था। उसको रस्सी से उतार कर पानी के टब में डाल दिए। कल धोएंगे।अब अंडरवियर जिस बनियाइन के साथ का रहा होगा उसका तो जोड़ा बिछड़ गया। क्या पता अंडरवियर के वियोग में आंसू बहा रही हो बनियाइन। शाम को जो बनियाइन कम सूखेगी हमें लगेगा इसी बनियाइन का जोड़ा जुदा हुआ था।


नाश्ता करके फिर तालाब की तरफ निकले। दो लोग तालाब किनारे बैठे बतिया रहे थे। मुनव्वर अली और राजेश । मुनव्वर फैक्ट्री के सामने मूंगफली और शाम को अंडे बेचने का काम करते हैं। आज फैक्ट्री की छुट्टी तो मूंगफली का ठेला नहीं लगाये। अंडे बेचेंगे शाम को।

उबले अंडे आजकल 6 रूपये का एक बेचते हैं मुनव्वर। 4.10 रूपये का एक अंडा आता है कच्चा। फिर 40 रूपये लीटर मिटटी का तेल, अंडे के लिए चटनी। सबका खर्च मिलकर लागत और बढ़ती ही है। कुछ अंडे लाने ने टूट जाते हैं उसका भी हिसाब रखना होता है।

अभी जाड़ा नहीं पड़ रहा सो अंडे कम बिक रहे। तीन बच्चों का परिवार चलाना मुश्किल। जाड़े पड़ेंगे तो बिक्री बढ़ेगी।

मूंगफली और अंडे का काम 5 साल पहले शुरू किया मुनव्वर ने। इसके पहले 20 साल रिक्शा चलाया। फिर टेम्पो आ गए और बंधी सवारियां रिटायर होती गयीं तो रिक्शे का काम छोड़ दिया। गेट नम्बर 6 से व्हीकल मोड़ तक के 2 रूपये सवारी मिलते थे। स्टेशन के दस रूपये।आज ऑटो से स्टेशन के 100 रूपये पड़ते हैं।


साथ में बैठे राजेश ऑटो चलाते हैं। इसके पहले 15 साल रिक्शा चलाया। ट्रक भी चलाते हैं। फैक्ट्री से डिलीवर करने के लिये ट्रक ले जाते हैं तो डेढ़ रुपया प्रति किलोमीटर मिलता है ड्राइवरी का।

38 साल के राजेश के कोई बच्चा नहीं है। पत्नी के बच्चे दानी नहीं थी। पत्नी पिछली 8 नवम्बर को स्टोब फटने से नहीं रही। हमने कहा-'लोग तो तुमको भी कहते होंगे कि इसमें तुमने कुछ किया होगा।' इस पर वह बोला-'सब जानते हैं वहां कि हमारे घर के लोग ऐसे नहीं हैं।'

तालाब आज बन्द था। मुनव्वर ने कहा-'हम आपसे गेट नम्बर के पास मिले थे जब आपके घर के लोग रामफल की दुकान पर आये थे।' 11 महीने पहले की बात। रामफल की बात चली तो राजेश को पता चला कि रामफल नहीं रहे। 11 महीने तक उसके जेहन में रामफल के जिन्दा रहने की खबर ही चल रही थी।

चलते हुए हमने पूछा-'टीवी देखते हो? कुछ पता है कि आमिर खान ने क्या कहा है? क्या बवाल मचा हुआ है देश में आमिर खान के बयान पर?

इस पर दोनों ने कहा-'टीवी और न्यूज देखने की फुर्सत ही कहां। दिन भर निकल जाता है दिहाड़ी कमाने में।'
यह बयान आम कामगार के हैं। उसको टीवी और मिडिया के चोंचलेबाजी की कोई खबर नहीं। उसकी तमन्ना बस यही है कि नवम्बर खतम होने वाला और अभी तक ठण्ड नहीं शुरू हुई। ठण्ड पड़े तो अंडे ज्यादा बिकें कुछ बढ़िया कमाई हो।

तालाब से लौटते हुए देखा एक बच्ची अपने भाई के साथ ड्राइंग सीट लिए जा रही थी। कोई प्रोजेक्ट बनायेगी। एक महिला कुल्हाड़ी लिए जंगली झाड़ियाँ काट रही थी। घर के सामने बाड़ के रूप में लगाने के लिए। बताकर कन्धे पर कुल्हाड़ी धरे पगडण्डी पर चलते हुए वह घनी झाड़ियों की तरफ चली गयी। कन्धे पर कुल्हाड़ी धरे वह वीरांगना सी लग रही थी।

एक ठेले पर 'इटली' बिक रही थी। लिखने की जरा सी चूक के चलते एक देश ठेले पर धड़ल्ले से बिक रहा था। किसी को कोई एतराज नहीं हो रहा था।

शोभापुर क्रासिंग की तरफ गए। ओवरब्रिज पर मजदूर लगे हुए थे। उसकी सड़क पर कांक्रीट का काम हो रहा था।
दीपा को देखने गए। वह थी नहीं घर पर। उस कारखाने गए जहां वह दिन में रहती है वहां भी नही थी वह। शायद कहीं खेलने निकल गयी थी।

कारखाने में काम चल रहा था। मालिक से बात हुई। पता चला उनके पिता जी फैक्ट्री में ही काम करते थे। 1981 में रिटायर हुए। टूल रूम से। बच्चों ने उत्पादन का काम शुरू किया। एक साधारण कमर्चारी के बेटों का आज का टर्न ओवर 1 करोड़ रूपये सालाना है।

कारखाने के एक पार्टनर बीकॉम की पढ़ाई किये हैं। बचपन से ही मशीन का काम करने लगे थे। आजकल मशीन मरम्मत का काम चल रहा है। उनसे हाथ मिलाया तो देखा उनके हाथ की दो उँगलियाँ आधी ही थीं। बताया कि एक प्रेस में काम करते हुए कट गयीं थीं। उनकी कटी उँगलियाँ देखकर मुझे अपने बेहद अजीज मित्र की याद आ गयी जिसकी एक हाथ की उँगलियाँ बचपन में किसी दुर्घटना में कट गयी थीं। लौटते हुए हमने फिर हाथ मिलाया। इस बार देर तक मिलाया यह सोचते हुए कि देरी तक मिलाया हाथ अपने दोस्त से मिला रहे हैं। अपने शाहिद रजा का शेर याद करते हुए:

हरेक बहाने तुम्हे याद करते हैं
हमारे दम से तुम्हारी दास्ताँ बाकी है।


दीपा मिली नहीं तो उसके लिए जो बिस्कुट ले गए थे वह उसी कारखाने में दे आये। आएगी तब दे देंगे वे।
रांझी मोड़ पर फल लेने की सोचे। तो याद आया कि वहीं हमारे दोस्त प्रदीप-आस्था रहते हैं। उनके यहां गए। चाय पी। साथ ही उनके भांजे जयंत से पोयम सुनी-ट्विंकल-ट्विंकल लिटल स्टार। जयंत ने पोयम सुनाने से पहले मेरा नाम भी पूछा इसलिए क्योंकि हमने उसका नाम पूछा था। फोटो के लिए पोज देते हुए पूछा भी कि किस चश्मे को लगाकर फोटो दें? अपने धूप वाले चश्मे में या मेरे नजर वाले में। फिर तय हुआ धूप वाला ही ठीक रहेगा।

लौटते हुए सड़क किनारे तमाम कपड़ों की दुकाने दिखीं। कपड़े प्लास्टिक की मैनिक्वीन में रस्सी पर झूल रहे थे। दुकानदार शायद चाय पीने गया था क्योंकि जब मैंने दुकान का फोटो लिया तो आता हुआ दिखा और पूछा-'कुछ लेना है क्या?'

सड़क किनारे की ही फल की दूकान से हमने फल लिए। पपीता 25 रूपये किलो बिक रहा था। एक पपीता और 3 केले 25 के लिए। पैसे देते हुए हमने फल की दूकान मालकिन से पूछकर फोटो खींची। दिखाई तो उसने हंसते पूछा- 'का घर में दिखाओगे जाकर कि यहां से फल लाये?'

'हमने कहा तब क्या? नाम भी बता देव तो वो भी बता देंगे।'

नाम तो नहीं बताया पर यह बताया की पाटन से आते हैं फल लेकर यहां बेचने। ऑटो वाला 100 से 125 रूपये तक लेता है।

लौटकर खरामा खरामा साइकिल हांकते हुए कमरे पर आ गए और अब पोस्ट लिख रहे। आपका बचा हुआ दिन मंगलमय हो।

Tuesday, November 24, 2015

गोया आप उस लिहाज से कह रहे हैं

आज फिर टहलने नहीं गए। 5 बजे जगे। फिर लेटे-लेटे सोचते रहे कि अब निकलें। अब निकलें। लेकिन सोचने में ही इतना समय निकल गया कि निकल ही नहीं पाये।

ऐसा अक्सर होता है मेरे साथ। काम का पूरा खाका तय है दिमाग में कि ऐसे करेंगे। वैसे करेंगे। पक्का फूल प्रूफ प्लान रहता है। पर लफ़ड़ा यह कि जो काम दिमाग में कई बार पूरा कर लेते हैं वह वास्तविकता में अक्सर शुरू भी नहीं हो पाता। काम का प्लान भी झल्लाकर 'दिमाग छोड़कर' चला जाता है।

दिमाग छोड़कर चले जाने की बात लिखते ही एक ठो आइडिया घुस गया दिमाग में, बिना में आई कम इन सर बोले। नठिया बोला-- इस बात को देश छोड़कर जाने की बात करके असहिष्णुता वाली बात और आमिर खान जी के हालिया बयान से जोड़कर एक ठो लेख घसीट दें। आज का सबसे गरम विषय है। लपक लेंगे लोग।

आज बयान भी छपा है अखबार में आमिर खान का कि उनकी पत्नी किरण इस बात से चिंतित हैं कि उनके आसपास का वातावरण कैसा हो गया है। वह रोज अखबार पढ़कर भयभीत हो जाती हैं।

अब आगे लिखने में समस्या यह है कि हम आमिर खान का समर्थन करें कि विरोध यह तय नहीँ कर पा रहे। समर्थन करते हैं तो आफत और नहीं करते तो डबल आफत। कुछ नहीं कहते तो लोग दिनकर जी के हवाले से हमारे नाम एफ आई आर लिखवा देंगे:

'जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध।'


इस तरह की दुविधा वाली स्थिति से बचने के लिए सबसे सुरक्षित तरीका 'खोया पानी' व्यंग्य उपन्यास के मास्टर फ़ाख़िर हुसैन जी का है। मास्टर साहब अंग्रेजी पढ़ाते थे और कहते थे-

' जैसे हमारी गायकी की बुनियाद तबले पर है, गुफ्तगू की बुनियाद गाली पर है, इसी तरह अंग्रेजी की बुनियाद ग्रामर पर है। अगर कमाल हासिल करना है तो बुनियाद मजबूत करो।

मास्टर फ़ाख़िर हुसैन की अपनी अंग्रेजी, इमारत निर्माण का अद्भुत नमूना और संसार के सात आश्चर्यों में से एक थी, मतलब यह कि बगैर नींव की थी। कई जगह तो छत भी नहीं थी और जहाँ थी उसे चमगादड़ों की तरह अपने पैरों की अड़वाड़ से थाम रखा था। उस ज़माने में अंग्रेजी भी उर्दू में पढाई जाती थी लिहाजा कुछ गिरती हुई दीवारों को उर्दू शेरों के पुश्ते थामे हुए थे।’

ऐसी नायाब अंग्रेजी ग्रामर की बुनियाद वाले मास्टर फ़ाख़िर हुसैन अपने क्लास के हर बच्चे की राय से सहमत हो जाते यह कहते हुए--'अच्छा तो आप गोया इस लिहाज से कह रहे हैं।'

फ़ाख़िर हुसैन के फार्मूले के हिसाब से आमिर खान की बात का समर्थन करना हो तो कह सकते हैं कि देखो आमिर के बयान देते ही उनको गरियाना शुरू हो गया। उनका डर जायज है।

आमिर की बात का विरोध करने के लिए कह सकते हैं कि देखो तुम खुले आम ऐसा कह रहे हो फिर भी अभी तक पिटे नहीँ इसलिए तुम्हारी बात सिरे से ख़ारिज करने लायक है। थोड़ा और बुजुर्ग होते तो यह भी कहते- 'अरे आजकल पत्नियां न जाने क्या-क्या कहती रहतीं हैं। उनकी बात को गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं।'

इसी बात का विस्तार पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जी के उस बयान से किया जा सकता है जिसमें उनसे एक सभा में किसी के सवाल -'आजादी से हमें क्या हासिल हुआ?' का जबाब देते हुए उन्होंने कहा था-'देश के प्रधानमंत्री से तुम यह सवाल कर पा रहे हो यह आजादी आजादी हासिल हुई तुमको आजादी से।'

तो यहां आमिर खान जी को यह समझना चाहिए कि उनको इतनी आजादी हासिल है कि वे अपनी देश के माहौल की बुराई खुले आम कर पा रहे हैं। मीडिया भी उनके बयान को प्रमुखता से छाप रहा है। प्रसारित कर रहा है। और देश कितनी आजादी दे भाई? देश की जान लोगे क्या?

अरे हाँ याद आया कुछ लोग यह कहकर आमिर की बात का समर्थन कर सकते हैं कि उनके ख़िलाफ गाली गलौज शुरू हो गयी। लोग न जाने क्या-क्या कह रहे हैं उनके खिलाफ। इस बात की काट के लिये आप फिर से मेरे लेख के शुरू में मास्टर फ़ारिख हुसैन के हवाले से कही बात फिर से बांचिये (यही लिख देते हैं आप शुरुआत में तो जाने से रहे) -गुफ्तगू की बुनियाद गाली पर है।

तो भाई जिन लोगों को लगता है कि आमिर को गरियाया जा रहा है वो दरअसल गलत समझ रहे हैं। लोग आमिर को गरिया नहीं रहे हैं बस उनसे गुफ्तगू कर रहे हैं और उनकी गफ्तगू की बुनियाद माशा अल्लाह खासी मजबूत है (जिसको लोग गाली गलौज समझ रहे हैं) । अब सबको अख़बार में जगह तो मिल नहीँ सकती तो फेसबुक, ट्विटर के हवाले से गुफ्तगू में मशगूल हैं।

आमिर खान पता नहीं कौन से देश जाने की सोच रहे हैं। यह वे जाने लेकिन उनको कोई समझाये कि दुनिया के हाल बड़े खराब हैं। यूरोप और अमेरिका बेचारे आईएसआईएस से हलकान हैं।तगड़ी सरदी भी पड़ रही उधर। पता नहीं अंगीठी तापने को भी मिलेगी कि नहीं। अरब देशों का पता नहीं कौन देश बमबारी की चपेट में कब आ जाए। पूरे गोले में मारकाट मची हुई है।

मरीचिका उपन्यास ने ज्ञान चतुर्वेदी जी ने एक कवि का चित्रण किया है। कवि देश की स्थिति से हताश निराश है। कहता है कि कविता लिखने से कुछ नहीं होगा। कोई बदलाव नहीं होना। घटिया कवि आगे बढ़ रहे हैं। बहुत खराब समय है।

कवि की पत्नी कवि से कहती है -'अच्छे समय में कविता तो सब लिख लेते हैं। सच्चा कवि तो वही होता है जो कठिन समय में कविता लिखे। तुम्हारी कविता के लिखने के लिए सबसे उपयुक्त समय तो यही है। लिखना बन्द मत करो।लिखो।'

तो आमिर बाबू अगर समय खराब भी है तो यह समय यहां से भागने का नहीं है। बल्कि यही सबसे उचित समय यहां रहने का और देश समाज के लिए कुछ करने का।

बात अख़बार पढ़कर भयभीत होने की है तो कुछ दिन अख़बार पढ़ना बन्द कर दो। या फिर जो अख़बार पढ़कर घबराहट होती है उनके खिलाफ मोर्चा निकालो। वैसे आज के अख़बार में भी तीन खबरें हैं:
1.80 साल की उमर में सिखा रहे हैं योग।
2. माँ के दुलार से 6 महिने से कोमा में रहा बच्चा उठ बैठा।
3. महिला पायलट ने मरते-मरते बचाई बस्तीवासियों की जान।

इनखबरों को पढ़िए। घबराहट दूर होगी।

यह मैंने जो लिखा वह ऐसे ही लिखा। आपका नजरिया क्या है मुझे पता नहीं। पर जो भी होगा हम उससे मास्टर फ़ाख़िर हुसैन घराने के विद्यार्थी की तरह तड़ से सहमत हो जाएंगे यह कहते हुए- गोया आप उस लिहाज से कह रहे हैं। :)

’खोया पानी’ एक अद्भुत व्यंग्य उपन्यास है। आप इसको आन लाइन यहां पढ़ सकते हैं।

Monday, November 23, 2015

गरिमा-दाम्पत्य जीवन के लिये शुभकामनायें

 
गरिमा Garima से मेरा परिचय फ़ेसबुक के माध्यम से ही हुआ। एक दिन बातचीत के बाद उसके बारे में पोस्ट भी लिखी। उस पोस्ट पर बहुत सारे दोस्तों ने गरिमा को शुभकामनायें दी थीं।

पोस्ट लिखने के बाद गरिमा से कई बार बात भी हुई। कई मौकों पर उसने मुझसे कुछ सुझाव सलाह भी लीं। अपनी समझ के अनुसार मैंने उसे सलाह दीं।

आज गरिमा की शादी हो रही है। बरेली में। मुझे उसने बुलाया था। जाने का वायदा भी किया था मैंने पर जा नहीं सका। फ़ोन किया तो बात भी नहीं हो पायी। गरिमा के पापा से बात हुई। उनको ही मैंने ...गरिमा के लिये मंगलकामनायें दे दीं। इस मौके पर कुछ किताबें उपहार के रूप में कल भेजूंगा। जब भी मौका मिलेगा बरेली जाकर गरिमा-ईशान से मुलाकात करूंगा।

मैं कभी मिला नहीं नहीं गरिमा से। वह मुझे अंकल कहती है। मेरे मन में भी उसके प्रति बेटी जैसा ही स्नेह है। आज उसके विवाह के मौके पर उसको अपने पूरे मन से उसको आशीर्वाद देता हूं। मंगलकामनायें देता हूं। कामना करता हूं कि उसका दाम्पत्य जीवन सुखमय रहे। समृद्धिपूर्ण हो।

अपने मामा नन्दन जी पंक्तियां फ़िर से दोहराता हूं जो मैंने अपनी भतीजी बिटिया स्वाति के विवाह के अवसर पर लिखी पोस्ट में लिखीं में लिखी थीं:

बेटी को वाणी से संवार दे ऒ वीणा पाणि!
शक्ति दे, शालीनता दे और संस्कार दे,
लक्ष्मी तू भर दे घर उसका धन-संपदा से
गणपति से कहकर सब संकट निवार दे!
गौरी, तू शिव से दिला दे वरदान उसे
दाम्पत्य पर अक्षत तरुणाई वार दे,
मेरे सुख सपनों के सारे पुण्य ले ले मां तू ,
अपने हाथों से उसकी झोली में डाल दे!


आपसे अनुरोध है कि आप भी गरिमा को उसके मंगलमय दाम्पत्य जीवन के लिये अपनी शुभकामनायें प्रदान करें।
 

Sunday, November 22, 2015

सब मिले हुये हैं

"आप लोग बेईमान अधिकारियों का स्टिंग करिये। हम उनको जेल भेजेंगे।" -मुख्यमंत्री जी ने घोषणा की।

जनता मुख्यमंत्री जी आवाहन पर स्टिंग में जुट गयी। बाबू पकड़ा गया। जमानत , पेशी के बाद मुकदमा शुरु हुआ।

मुकदमें की गवाही के दौरान बाबू से पूछताछ हुई तो उसने बताया- "साहब को देना होता था इसलिये हमें लेना पड़ता था।" -सबूत के लिये बाबू ने साहब से बातचीत का रिकार्ड पेश कर दिया। रिकार्डिंग में साहब अपने  बाबू को वसूली के लिये धमकाते हुये सुनाई दे रहे थे।

साहब से पूछताछ हुई। उन्होंने भी बड़े साहब का स्टिंग पेश कर दिया। स्टिंग में बड़े साहब मासूमियत से साहब की बिगड़ती परफ़ार्मेंन्स की सूचना देते हुये लक्ष्य के अनुसार काम करने के लिये हड़काते पाये गये। साहब ने बताया -"हमको ऊपर पहुंचाना होता था इसलिये नीचे से मंगाना हमारी मजबूरी थी।"

बड़े साहब से बात होते हुये सचिव तक पहुंची। सबको अपने साहब को संतुष्ट करना था इसीलिये वे पूरी ईमानदारी से बेईमानी में लिप्त थे। सिस्टम की रक्षा के लिये सिस्टम को चौपट कर रहे थे।

सचिव से पूछताछ हुयी तो उन्होंने मंत्री जी का स्टिंग पेश किया। मंत्री जी उनको हड़काते हुये कह रहे थे-" हम यहां आपकी तरह जिन्दगी भर के लिये नौकरी करने नहीं आये हैं। हमारे पास समय कम है। लक्ष्य बड़ा है। इसलिये तेजी से वसूली का काम करना है।"

मंत्री जी से पूछताछ हुई तो उन्होंने बताया-" हम बेईमानों को जेल में डालने के वायदे करके सत्ता में आये हैं। अपना वायदा पूरा करने के लिये हमने अपने यहां बेईमानी को प्रोत्साहित करने के लिये यह कदम उठाया है ताकि हम ज्यादा से ज्यादा बेईमानों को सजा दिलवाकर अपना वायदा पूरा कर सकें। इसीलिये हमने अपने अधिकारियों से बेईमानी का और जनता से स्टिंग का आवाहन किया है। "

अदालत ने अंतत: जनता से पूछा- "तुम्हारे उकसावे पर ही सब लफ़ड़ा हुआ है। क्यों न तुमको जेल भेज दिया जाये।"

अगर ऐसा कर सकें तो बहुत मेहरबानी होगी साहब। जेल में कम से कम खाने-पीने की तो सहूलियत रहेगी। सच पूछिये तो इसी मंशा से हमने यह स्टिंग किया है। वर्ना जिस काम के लिये बाबू जी लेन-देन की बात तय हुई थी वह हमें कराना ही नहीं था। उस काम की हमारी औकात ही नहीं है।

 अदालत ने बाबू और अन्य अधिकारियों को बाइज्जत बरी कर दिया। अपना समय बरबाद करने के लिये जनता को चेतावनी देकर छोड़ दिया।

मुख्यमंत्री जी अखबारों में बयान दे रहे हैं- "जनता और अदालत मिले हुये हैं।" 



Saturday, November 21, 2015

हमको अपना काम करने दो

कमरे में बैठे हुए सूरज की किरणों को देख रहा हूँ। स्कूल के दिनों से पढ़ते आये हैं कि सूरज की सतह से चलकर पृथ्वी तक पहुंचने में आठ मिनट लगते हैं किरणों को। धरती पर पहुंचने के पहले लाखों किलोमीटर चलना पड़ता है किरणों को। रास्ते में भयंकर वाला अँधेरा पड़ता होगा। कहीं कोई इंतजाम नहीं रौशनी का। पता नहीं किसकी सरकार है सूरज और धरती के बीच जो करोड़ों वर्षों में दो चार ठो बिजली के पोल तक न गड़वा पाई अपने इलाके ...में।

बाहर अशोक का पेड़ नुकीला एकदम भाले की तरह खड़ा है। ऐसे लग रहा है बड़ा होकर आसमान के पेट में छेद करके ही मानेगा पट्ठा।

कुछ देर पहले पूरे लान में जहाँ कोहरे का कब्जा था वहां अब उजाले की सरकार है। मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमन्त्री, राज्यपाल, सन्तरी,कलट्टर सब पदों पर सूरज के खानदान के लोगों का कब्जा है। किसी के पास कोई डिग्री नहीं है। किसी ने शपथग्रहण में समय बरबाद नहीं किया। किसी ने आने के पहले हल्ला नहीं मचाया कि मित्रों हम आते ही अँधेरे और कोहरे को उखाड़ फेकेंगे। किसी ने विज्ञापन में न समय खराब किया और न पैसे फूंके। बस आये और चुपचाप लग गए काम में। जहां कुछ देर पहले अँधेरा था वहां अब उजियारा है।

कमरे का दरवाजा खुला हुआ है। सूरज की किरणें दरवज्जे से अंदर कमरे में दाखिल हो गयी हैं। वो एक दायरे में ही रुक गयी हैं। उजाला आगे अंदर घुस आया है और जगह-जगह फैलता जा रहा है। अंदर जहाँ भी अँधेरा था वहां अब प्रकाश दिखने लगा है। लगता है सूरज के निकलते ही अँधेरे ने कुछ देर तो उजियारे से कुश्ती की होगी। फिर अपनी औकात समझकर उजाले के सामने समर्पण कर दिया होगा।

सूरज और धरती आपस में आठ मिनट की दूरी पर हैं। दोनों में आपस में क्या कभी बात होती होगी? अगर हाँ तो कौन कम्पनी का फोन प्रयोग करते होंगे दोनों। हो सकता है कि ये जो किरणें हैं न वही माध्यम हों दोनों के आपस में बतियाने का। ये जो सूरज की  किरणें बीच-बीच में मुस्कराती और खिलखिलाती सी दिखती हैं वो शायद दोनों की बातें सुनकर ही ऐसा करती हों।

क्या पता दोनों आपस में बतियाते हुए मजे लेते हों एक दूसरे से। सूरज भाई धरती से कहतें हों कि तुम काहे को चक्कर लगाती रहती हो मेरे। आ जाओ मेरे ही पास। बहुत जगह खाली पड़ी है इधर। रहो आराम से। तुम्हारे लिए रोज-रोज रौशनी भेजने का लफ़ड़ा कम होगा।

धरती शायद कहती हो -'अरे रहन दो पास होने की बात। इत्ता तो सुलगते रहते हो। तुमसे तो दूरी ही भली। तुम्हारा तो सबसे कम टेंपरेचर ही 6000 डिग्री है। इत्ते में तो हमारे सबरे बाल-बच्चे, प्राणी, जानवर सुलगकर राख बन जाएंगे। सारी हरियाली जल जायेगी, नदियां गायब हो जाएंगी, समन्दर गोल। हमारा धरतीपन खत्म हो जायेगा। हमें न आना तुम्हारे पास।'

धरती को सूरज चक्कर वाली बात लगता है ज्यादा ही लग गयी। इसीलिये वो अलग से बोली--'जहां तक रही चक्कर की बात तो जिस दिन हम चक्कर लगाना छोड़ देंगे तो ये जो तुम्हारा सौरमण्डल का टीम टामड़ा है न यह सब लड़खड़ा जाएगा। क्या पता फिर तुम भी कहीँ लड़खड़ाते हुए किसी दूसरे सौरमण्डल में शरण मांगो जाकर। ये हमारा तुम्हारे चारो तरफ घूमना जितना हमारे लिए जरूरी है उतना ही तुम्हारे लिए भी। सो इसका ज्यादा गुमान न किया करो कि हम तुम्हारे चक्कर लगाते हैं।'

सूरज भाई को लगा कि धरती कुछ ज्यादा ही गरम हो गयी सो मुस्कराते हुये बोले-'अरे मैं तो मजाक कर रहा था। तुम तो बुरा मान गयी। कितना अच्छी लग रही हो तुम स्वीट एन्ड क्यूट गोल-गोल घूमती चक्कर लगाती हुई।'

कोई फेसबुकिया होता तो इतने पर खुश होकर सूरज भाई को थॅंक्यू बोलकर चार ठो इस्माइली अलग से लगाता लेकिन चूंकि धरती का कोई फेसबुक खाता तो है नहीं सो उसने सूरज की 'चक्कर लगाती हुई' वाली बात पकड़ ली और फिर हड़काया-' मैं तो सिर्फ तुम्हारा चक्कर लगाती हूँ वह भी अपने बाल-बच्चों के लिए। रौशनी के लिए। लेकिन तुमको कौन जरुरत है जो तुम आकाश गंगा के चक्कर लगाते रहते हो। तुम्हारे पास तो खुद की रौशनी है। ज्यादा मुंह मती खुलवाओ मेरा अब सुबह-सुबह। हमको अपना काम करने दो।'

सूरज भाई चुपचाप मुस्कराते हुए एक बादल की ओट में चले गए। ऊपर से धरती को अपनी धुरी पर घुमते देखते रहे। दोनों अपने अपने काम में लग गए।

हम भी चलते हैं अपने काम पर। आप भी मस्त रहिये।

Friday, November 20, 2015

पुलिया पर गधों से मुलाक़ात

दोपहर को लंच के लिए फैक्ट्री आ रहे थे तो बंटी प्रजापति मिले पुलिया के पास। अपने तीन गधों के साथ कंचनपुर जा रहे थे। भांजा भी था साथ में।

पुलिया पर आदमी तो रोज ही मिलते रहे, दीखते रहे पर गधों से यह पहली मुलाक़ात थी।

बंटी गधों पर ईंट, गिट्टी, मौरम, बालू लादकर इधर-उधर पहुंचाने का काम करते हैं। ईंट की ढुलाई 300 रुपया प्रति हजार है। एक बार में एक गधे पर 50 ईंट करीब लद जाती हैं। मतलब एक फेरे में 3 गधों से 150 ईंट करीब ढुल जाती हैं। दिन भर में करीब 10 चक्कर लग जाते हैं। 10 चक्कर मतल...ब 1500 ईंट। 300 प्रति हजार के हिसाब से 450 रूपये करीब कमाई हो जाती है। कभी काम न मिला तो उस दिन कुछ और काम या दिहाड़ी गोल। महीने में 20 दिन का काम अगर मिला तो 9000 प्रति माह हो गए।

सातवें वेतन आयोग के हिसाब से किसी भी कर्मचारी का न्यूनतम वेतन 18000 होगा। मतलब असंगठित क्षेत्र के मजदूर का दोगुना।

बंटी के गधों की उम्र करीब 15 साल की है। आमतौर पर गधे 22 से 25 साल तक जीते हैं। आजकल एक गधा करीब 3000 रूपये का मिलता है।पहले 300से 400 में मिलता था।हाल में गधों की कीमत में बहुत बढ़ोत्तरी होती है।











सामान ढोने के बाद छुट्टा छोड़ देते हैं बंटी चरने के लिए। ऐसे ही एक गधे ने किसी पागल कुत्ते का जूठा खा लिया। वह भी पागल हो गया। मर गया।

एक बच्चा है बंटी का। आठवीं तक पढ़ा है। वह भी ढुलाई के काम में लगता है। साथ में भांजा था। वह अनपढ़ है।
बात करते हुए गधे पुलिया के पास की घास चरने लगे। बंटी प्रजापति बीड़ी फूंकने लगे। हम न घास खाते न बीड़ी पीते लिहाजा उनको वहीं छोड़कर लंच करने के लिए मेस आ गये।

हम तो 'सड़कपंथी' हैं 'साइकिल पंथी' हैं

आज सबेरे नींद खुली करीब साढ़े चार बजे। पर जगे नहीं काहे से कि अलार्म लगाया था 4.59 का। पहले जग जाते तो अलार्म नाराज होता और कहता- 'पहले काहे उठ गए भाई। का हमपे भरोसा नई है। हमको भी चुनी हुआ सरकार समझ लिया का और सोच भी लिया कि हम अपनी जिम्मेदारी नई निभाएंगे। खाली लफ्फाजी करेंगे।' और भी न जाने क्या-क्या कहता। लोकतन्त्र में किसी का मुंह थोड़ी पकड़ सकते। सो सब आगा-पीछा सोचकर लेटे रहे। इंतजार किया कि अलार्म बजे, फिर जगें।

अलार्म टाइम पर बजा। फिर हम भी जग गए। घर फोनकर घरैतिन को जगाया और कहा आधा घण्टा और सो लो फिर जगा देंगे। वो सो गयीं। हम जगे तो थे ही अब उठ भी गए। कुछ देर मोबाईल पर खुटुर-पुटुर किये फिर ज्ञान चतुर्वेदी की 'हम न मरब' का पारायण करते रहे। आधा घण्टा से कुछ देर और बाद पत्नीजी को जगाया। फिर कपड़े पहनकर दरवज्जे पर कुलुप मार के (ताला बन्द करके) निकल लिए।

मेस के बाहर निकलते ही दो महिलायें तेज चाल से चलती हुई और उससे भी तेज बतियाती हुई दिखीं। वे बहुत जल्दी-जल्दी अपने परिवारों के बारे में कुछ बतिया रहीं थीं। मार्च के महीने में जैसे सरकारी महकमें इस चिंता में फुर्ती से पैसा खर्चते हैं कि कहीं साला बजट न लैप्स हो जाये, अनखर्चा रह गया तो बवाल तो होगा ही बेइज्जती अलग से होगी कि बताओ ससुर बजट तक न हिल्ले लगा पाये। उसी तरह महिलाएं भी लगता है अपनी टहलाई पूरी होने के पहले अपनी बातों का कोटा पूरा कर लेना चाहतीं थीं शायद। इसीलिये वे बहुत जल्दी-जल्दी बतिया रहीं थीं। इफरात बातें उनके मुंह से निकल कर इधर-उधर हवा में टहलने लगतीं।


नाले के पास खेत की फसल कोहरे की चादर ओढ़े तसल्ली से सो रही थी। सूरज की किरणें कोहरे की चद्दर खींचती होंगी पर फसल फिर वापस चद्दर खींचकर, कुनमुनाते हुए, करवट बदलकर सो जाती होगी। आसपास के बुजुर्ग पेड़ फसल को इस काम में बाहर से समर्थन सा दे रहे थे। सूरज की किरणों को अपनी पत्तियों, टहनियों में उलझाकर खेत के पास जाने से रोक रहे थे। ऐसे ही जैसे नकल कराने वाले स्कूलों के प्रबन्धक फ़्लाइंग स्क्वायड की जीप रोकने के लिए स्कूल के बाहर या तो सड़क खुदवा देते हैं या कोई और मुफीद इंतजाम करते हैं।

आगे सड़क पर एक महिला सर पर तसले में गोबर लिए फुर्ती से चली जा रही थी। हमने फोटो लिया तो बोली--'गोबर का फोटो ले रहे हो?' हमारा मन किया कहें-'यही तो आजकल चर्चा के केंद्र में है।यही तो भरा है बहुतों के दिमाग में आजकल।' पर फिर बोले नहीं। यह कहा-'अरे न। तुम्हारा खींचा फोटो। बढ़िया आया है।' पर यह सुनने के लिए उसे फुर्सत नहीं थी। वह तो सरपट चली गयी आगे।

एक जगह सड़क की फुटपाथ पर कब्जा करके चबूतरा बनाया गया था। चबूतरा सड़क से मात्र 6 इंच ही ऊँचा रहा होगा। कुछ इस तरह कि चबूतरा वाला मोहल्ले वालों से ऐंठकर कह सकता है ' जे तो हमाओ चबूतरा है।' पर अगर पुलिस पूछे तो कह सके- 'साहब जे तो सड़क है। यहां सवारी नहीँ चलती ऊंचा होने के चलते तो हम बैठ जाते हैं।।बैठते हैं तो लीप भी देते हैं।'

आदमी चबूतरे पर तीन कुर्सियां जमा रहा है। लगा मानो महागठबन्धन का शपथ समारोह यहीं होगा। थोड़ी धूप निकल आने पर इन्हीं कुर्सियों पर विराजकर पचास मीटर दायें पचास मीटर बाएं सड़क पर आने जाने वालों को निहारते-ताड़ते हुये गर्दन और आँख की कसरत करेंगे। यही सौ मीटर की दूरी इनके लिए कश्मीर से कन्याकुमारी होगी जिसे इन कुर्सियों पर बैठने वाले सूरज भाई से मुफ़्त और इफरात में मिलने वाली विटामिन डी टूंगते हुए देखते रहेंगे।


आगे खेत की फसल उलझी हुई सी दिखी। जैसे सोकर उठी नायिका के बाल उलझ जाते हैं वैसे ही खेत में बालियां एक दूसरे पर लस्टम-पस्टम पड़ी हुईं थी। अलसाई सी। कोहरे का चादर सूरज की किरणों ने खींचकर अलग कर दिया था।हल्की सर्दी थी इसीलिये बालियां अपने में सिकुड़ी चुप बैठीं थीं। कुछ देर में हवा जब बाग़-बगीचों से टहलकर वापस आएगी तब इनकी उलझी लटें सुलझाएगी। तब ये फिर से इठलाते हुए झूमेंगी।
बिरसा मुंडा चौराहे पर अर्से बाद चाय पी। हफ्तों पहले के बकाया पांच रूपये की चाय पीकर सुकून हुआ कि पैसा वापस मिल गया।

वहीं चौराहे पर हरनारायण रजक मिले। ठेले पर चने की सब्जी और मूली बेंच रहे थे। चना 15 रूपये किलो। 1000 रूपये की सब्जी थी ठेले पर। बोले- घण्टे-दो घण्टे में बिक जायेगी।100/150 निकल आएंगे। फिर और रखी है पास में बोरे में वो बेंचेगे। पाटन से आती है सब्जी।

हमने कहा-'खड़े-खड़े थक जाते होगे। स्टूल रख लो।' बोले-'आदत हो गयी है। 12 घण्टे खड़े/टहलते रहते हैं। थक जाते हैं तो 'क्रेट' पर बैठ जाते हैं। नीचे सड़क पर पड़े मूली के पत्ते के लिए हमने कहा कि उनको इकट्ठा करके रख लिया करो। खिला दिया करो किसी जानवर को। सड़क पर गन्दगी भी न होगी। इस पर वह बोले-'यहीं खा लेती है आकर गाय। सड़क की सफाई वाले भी आते हैं।'

वहीं दुकान पर पांच महिलाये फुटपाथ पर बैठी चाय पी रहीं थीं। भंगिमा से ही लगा कि वे कामगार हैं। पता चला सड़क सफाई कर्मचारी हैं। 'पलमामेंट' वाली। सुबह 5 बजे से ड्यूटी है। सात बजे चाय पीते हुए दिखीं। सफाई अभी शायद शुरू नहीं हुई थी।

लौटते में एक आदमी सड़क पार करता दिखा। वह अपना दांया हाथ हिलाता हुआ सड़क सीधे पार कर रहा था। एकदम अनुशासित 'सड़क सिपाही' सा। सड़क पार करते ही उसने हाथ सिग्नल की तरह नीचे गिरा लिया।
दाईं तरफ हाथ देते हुए सड़क सीधे पार करने की कार्रवाई को कोई वामपंथी देखता तो शायद कहता - 'ये दक्षिणपंथी लोग हमेशा से ऐसा करते आये हैं। सिग्नल दायीं तरफ का देंगे पर जायेंगे सीधे।इनकी किसी बात का भरोसा नहीँ। ' पर हम तो वामपंथी हैं नहीं सो हम इस बात को नहीं न कहेंगे। हम तो 'सड़कपंथी' हैं 'साइकिल पंथी' हैं उसी का किस्सा कहेंगे।

आगे एक ऑटो पर दो बच्चे बैठे थे। ड्राइवर ऑटो को स्टार्ट मोड में छोड़कर कहीं चला गया था। बच्चे ड्राइवर का इन्तजार करते बैठे थे ऑटो में। इंजन भी लगता है था कि झल्लाते हुए चल रहा था भड़भड़ाते हुए। इंजन को गुस्सा आ रहा होगा कि वह तो सरपट चल रहा है पर ससुरे पहिये आराम फर्मा रहे हैं सड़क पर खड़े खड़े। हरेक को दूसरे का आराम अखरता है भाई।

दीपा के घर में आज भी कोई नहीं दिखा। ओवरब्रिज के नीचे महिला खाना बना रही थी। जिस टीन की चादर में सड़क बनाने का कोलतार और गिट्टी गरम की जाती है उसी तरह की टीन की चादर पर रोटी सेंक रही थी वह। उसके पीछे उसका आदमी दांये-बाएं झांकता हुआ बीड़ी सुलगाते हुए फेफड़े और फिर बाहर की हवा को गरम कर रहा था।

क्रासिंग बन्द थी। टेम्पो में केंद्रीय विद्यालय की बच्चे ठुंसे हुए बैठे थे। उनके पीछे उनके बस्ते ठुंसे थे। क्रासिंग खुलने पर हम आगे बढ़े।

एक आदमी सड़क पर तेजी से टहलता हुआ दातून करता हुआ जा रहा था। वह जिस तरह से केवल एक तरफ के ही दांत पर दातुन रगड़ रहा था उसे देखकर लगा कि कहीं दूसरी तरफ के दांत छोड़ तो नहीं देगा वह। ऐसा होगा तो फिर छूटे हुए दांत हल्ला मंचायेंगे। इस सोच के पीछे कल की एक खबर थी जिसके अनुसार फसल मुआवजा केवल उन्हीं इलाके के लोगों मिला जहां से सत्ताधारी पार्टी के लोगों को वोट मिला। बाकियों को ऐसे ही टहला दिया।

कहां-कहां टहला दिया आपको सुबह-सुबह। चलिए अब आप मजे कीजिये। हम भी चलते हैं दफ्तर। बोलो सन्तोषी माता की जय। अरे आज शुक्रवार है न भाई इसलिए बोला। और कोई खास बात नहीं।

Thursday, November 19, 2015

निर्रथक और बेनतीजा बहस

सुबह जल्दी जग गए। जग गए का मतलब उठ जाना नहीं होता न। जल्दी जगे तो फिर सो गए। फिर जगे। मल्लब किस्तों में कई बार सोये। जब सोये तो जगे भी। फाइनली 5 बजे जगे और हिम्मत करके टीवी खोल दिया। 'पेरिस पर्दा' खुला गया। धड़ाधड़ फायरिंग हो रही थी। हम सहमकर सिकुड़ गए। न सिकुड़ते तो क्या पता एकाध गोली के साथ हमारा भी गठबंधन हो जाता। फिर तो पक्का प्रमुख समाचार बनता।

टीवी पर फायरिंग खत्म होते ही बहस होने लगी। आतंकवादियों पर आतंककारी बहस। किसी ने बताया कि पुतिन बोले हैं कि 40 देश आईएसआईएस वालों को पैसा देते हैं। हथियार देते हैं।पेट्रोल खरीदते हैं उनसे। पता नहीँ कौन देश हैं। पर आतंकवादी गतिविधियों पर विकसित देश के रवैये देखकर मेरे जेहन में मेराज फैजाबादी का यह शेर चहलकदमी करने लगता है:
पहले पागल भीड़ में शोला बयानी बेचना
फिर जलते हुए शहरों में पानी बेचना ।


बाजार है भाई। अपना हथियार भी बेचना हैं यहां और सुरक्षा तकनीक भी। मजबूरी है यह सब करना।
जब ज्यादा सुबह हुई तो निकल लिए साइकिल स्टार्ट करके। मेस से निकलते ही दो टेम्पो धड़धड़ाते हुए सामने से निकले।स्कूल जाने वाले बच्चे अंदर बैठे थे। उनके बस्ते टेम्पो की छत पर थे। बच्चे टेम्पो के अंदर और बस्ते छत पर ठिठुर रहे थे।

मोड़ पर एक गाय खड़ी पूंछ उठाकर जलधार से धरती को सींच रही थी। उठी पूँछ के नीचे पतला गीला गोबर चिपका हुआ था। ऐसा लग रहा था कि गाय का पेट खराब है। दस्त लगे हुए हैं। शायद बाजार की कोई उल्टी-पुल्टी चीज खा ली। आम इंसान होता हो सब खाना बन्द करके खिचड़ी पर उतर आता। पर ये तो गौ माता हैं। ये या तो पूजा के काम आती हैं या फिर दंगे के। इनको कहां नसीब यह सब सुविधाएँ। इनके पेट के लिए तो वही सड़क का खाना और इफरात में पालीथीन ही सुरक्षित हैं।

एक बुजुर्ग धोती पहने तेजी से चलते चले जा रहे थे। धोती दोनों तरफ घुटनो के ऊपर तक उठी हुई थी। सड़क की हवा उचककर घुटनों से होते हुए और ऊपर जाँघों तक पहुंच रही थी। शायद हवा की ठंडक से बचने के लिए ही बुजुर्ग वार तेजी से चले जा रहे थे।

स्कूल के सामने बच्चे जमा होकर अंदर जाने की तैयारी कर रहे थे। कुछ बच्चे गाड़ियों से आ रहे थे। सामने से आने वाली गाड़ियों के इंडिकेटर बायीं तरफ और पीछे से आने वाली गाड़ियों के इंडिकेटर दायीं तरफ का बल्ब जलाते दिख रहे थे। इससे एक बार फिर लगा कि कहीं पहुँचने के लालच में आदमी तो आदमी गाड़ी तक अपनी सुविधा के हिसाब से वामपंथी या दक्षिणपंथी हो जाती है।

आज फिर दीपा से मिलने गए। वह थी नहीं अपने ठीहे पर। न उसके पापा का रिक्शा। शायद गाँव गए हों।
वहीं ओवर ब्रिज के नीचे एक आदमी अपनी पत्नी के साथ खाना बनाते हुए एक जंग लगे लोहे की बेडौल प्लेट पर अपनी बीड़ियां सुखा रहा था। बताया कि खुद बनाता है अपने लिये बीड़ी। तम्बाकू गांव से लाता है। पत्ती शहर से। कैंची से पत्ता काटकर तम्बाकू भरकर बीड़ी बना लेता है। दिन में 10-15 बीड़ी फूंक लेता है।

कुंडम के रहने वाले उस दिहाड़ी मजूर ने बताया कि आजकल कटाई का सीजन चल रहा है इसलिए ज्यादातर लोग गाँव गए हैं। इसीलिये पुल के नीचे मजदूर दिख नहीं उसके अलावा। वह भी गया था घर। धान काटकर लौट आया। दिहाड़ी में रोज 250/- मिल जाते हैं।

बात करते हुए दातुन चबाते हुए उस आदमी की साथिन कपड़े उठाकर नहाने चल दी। कुछ देर बाद वह आदमी भी। चूल्हे पर दाल अकेले चुपचाप धीरे-धीरे फुदकती हुई चुरती रही।

'चुरती' से याद आया कि हरदोई में लोग हरद्रोही मतलब भगवान का विरोधी होने की परम्परा निभाते हुए 'र' का उच्चारण नहीं करते। हरदोई को 'हद्दओई' कहते हैं। उरद(उड़द) की दाल फुदुर-फुदुर चुरती है का 'र' गोल करके 'उद्द की दाल फुद्द-फुद्द चुत्त है' कहने का रोचक चलन है।

लौटते हुए एक बुजुर्ग बेंत लेकर टहलते हुए दिखे। हाथ से बेंत जिस तेजी से हिला रहे थे उससे लगा कि वे बेंत से अपने आगे की हवा को धकियाकर अपने आगे निकलने की जगह बना रहे हों।

सड़क पर चहल पहल बढ़ गयी थी। ऊपर आसमान में भी सूरज भाई पूरे धज के साथ बिराजे हुए थे। उनको देखकर ऐसा लग रहा था कि आसमान के स्टूडियो में किसी एंकर सरीखे बैठे हैं। बस बाकी के प्रवक्ता आ जायें तो निर्रथक और बेनतीजा बहस शुरू करें।

सामने बगीचे में धूप खिली हुई है। कठिन समय में खुशनुमा उम्मीद सी। चिड़ियां चहचहा कर गुडमार्निंग कह रहीं हैं। आपको भी सुनाई दे रहा होगा। अब चलिये। दिन की शुरुआत कीजिये। अच्छे से रहिये। मस्त। बिंदास।

Wednesday, November 18, 2015

दम मारो दम

सुबह निकले आज तो लगा सर्दी होने लगी है। लोग सड़क पर कम दिख रहे थे। एक बुजुर्गवार पूरे शरीर को गरम कपड़े में ढंके खरामा-खरामा चले जा रहे थे। पुलिया पर एक सुबह टहलुआ बैठे खांसते हुए सड़क ताक रहे थे।

दो बच्चे पीठ पर बस्ता लादे, कन्टोपा पहने बतियाते हुए चले जा रहे थे। स्कूल के सामने अभी भीड़ नहीं थी। जाड़े में देर से खुलने लगे होने स्कूल।

आगे महिलाओं की दो पीढियां टहलती , गपियाती जाती दिखीं। युवा पीढ़ी स्वेटर, जीन्स में चुस्त, दुरुस्त टाइप और बुजुर्ग पीढ़ी शाल सलवार कुर्ते में सहज विस्तार के साथ चली जा रही थीं। उनके आगे टहलते एक आदमी को देखकर लगा कि प्रकृति ने महिलाओं को सृजन की महती जिम्मेदारी दी है तो सहज सौंदर्य भी उसी के साथ पुरुष के मुकाबले बेहतर प्रदान किया है।

एक जगह एक आदमी सड़क पर बनी हनुमान जी की प्रतिमा के सामने झुका पूजा जैसी कुछ कर रहा था। सर जमीन पर टिका था हनुमान जी की अर्चना में। उसके नितम्ब पीछे तोप की तरह ऐसे उठे थे मानों उससे सूरज भगवान को सलामी दे रहा हो। 'मल्टी टास्किंग' की तर्ज पर दो भगवानों को एक साथ पटा रहा था। पता नहीं किससे काम बन जाए।

पूजा करते हुए वह कुछ बोलता भी जा रहा था। उसके बोल शिकायती से थे। वो तो कहो हनुमान जी सड़क पर थे जो उसकी आवाज सुन ले रहे थे क्योंकि कोई और भक्त था नहीं वहां। किसी प्रसिद्ध मन्दिर जहां प्रसाद ज्यादा चढ़ता है वहां इत्ती देर बात करने की परमिशन थोड़ी देता पुजारी। बाहर कर देता दो मिनट में--'चलो आगे बढ़ो' कहते हुए।

पंकज टी स्टॉल पर एक आदमी चाय पीता हुआ मिला। नाम राजू । उम्र करीब 32 साल।उसके पैर के नाखून आगे को निकले हुए थे। उसी से बात शुरू हुई - 'नाखून दर्द करते होंगे?' बोला -'हां, बहुत दर्द करते हैं किनारे'।
हमने बताया-'दवा कराओ। ये फंगस है। हमारे भी है नाखून में। साल भर इलाज चलेगा।ठीक हो जाएगा।' बोला-'हौ। कराएंगे। दवाई ली थी। फायदा हुआ। दर्द कम रहा। दवा बन्द कर दी। अब फिर दिखाएँगे।'

पता चला वह नगर निगम में सफाई का काम करता है। सड़क पर झाड़ू लगाता है। 1 बजे तक ड्यूटी करता है। आठ घण्टे की ड्यूटी। मतलब 5 बजे आया होगा। ठेकेदार 4000 रूपये महीना देता है। महीने में काम के दिन अगर 25 मान लें तो 160 रुपया रोज के। आज के दिन जबलपुर में न्यूनतम वेतन 260 से ऊपर ही है। मतलब इससे काम भुगतान देने वाले को जुर्माना लगेगा। सजा होगी।

पर ऐसा धड़ल्ले से हो रहा है। 100 रुपया रोज काम दिया जा रहा है। महीने में 2500 रूपये प्रति आदमी काम भुगतान हो रहा है। जबकि नगर निगम या किसी भी संस्थान से भुगतान पूरा होता है। यहाँ कम से कम 100 रूपये का प्रति आदमी का हेर फेर बिचौलियों के पास जाता है। इसका कोई हिसाब-किताब नहीं होता। कोई कर नहीँ दिया जाता इस पर। यह 'ब्लैक मनी' किसी स्विस बैंक में नहीं जाती। यहीं टहलती है सीना ताने संस्कारधानी की सड़कों पर, दुकानों पर, माल्स में, बाजार में। देश भर का हिसाब देखा जाए तो अरबों रूपये रोज का काला धन पैदा होता देश में और यहीं खप जाता है।

जहां भी सरकारी पद समाप्त करके व्यवस्थाएं ठेके पर दी गयीं हैं वहां और कुछ भले न हुआ हो पर मजदूरों का शोषण और न्यूनतम वेतन क़ानून को ठेंगा दिखाते हुए काले धन का सृजन सुनिश्चित हुआ है।

राजू की आँखें बड़ी-बड़ी। चेहरा एकदम काला। दांत सफेद। बांदा के रहवासी। हमने पूछा -वहाँ टुनटुनिया पहाड़ देखा है, केन नदी में नहाये कभी तो वो बोला नहीं। बहुत पहले गए थे।

एक और आदमी आ गया वहां। उसके साथ आड़ में जाकर चिलम संवारने लगा राजू।। बताया कि 11 साल के थे तबसे गांजा पी रहे। साथ के आदमी ने बताया -'बेनीबाग थाने के सामने खुल्ले आम बिकता है गांजा। बोरी भर गांजा रोज बिकता है। जे मोटी गड्डी नोटन की थाने वालन को मिलती हैं। कोउ कछू न बोलत। हम 20 रुपया की पुड़िया लाये। दो टाइम की फुरसत। सुबह मिल जात। दोपहर बाद तो 500 के नीचे मांग लेव तो ऐसे देखत कि न जाने कहां ते चले आये।'

हमने उससे कहा-'तुम लोग सुबह-सुबह गांजा पीते हो। सांस लेते नहीँ बनती। हाँफते हो। ऐसा भी क्या नशा करना?'

इस पर उसने नई पीढ़ी के किस्से सुनाने शुरू कर दिए- 'आज कल के लौंडे तो 20 रुपया की कच्ची लेत ग्लास में और 2 रुपया की उबली टांग और पी के मुंह पोंछ के चल देत।' उसके बयान से लग रहा था किसी राजनैतिक पार्टी का प्रवक्ता अपनी सरकार के किसी घपले-घोटाले के बचाव में दूसरी पार्टी की सरकारों के बड़े घपले-घोटाले गिनाने लगा हो।

राजू की शादी नहीं हुई है। करना चाहते हैं ताकि कोई रोटी बनाने वाली आये। औरत का सुख मिले। हमने कहा-'तुम गांजा पीते हो तो कौन लड़की तुमसे शादी करेगी?' इस पर वह बोला-'अब छोड़ देंगे।'

32 साल का आदमी जो 21 साल से गांजे का लती हो कहे कि अब गांजा छोड़ देंगे सुनकर ऐसा ही लगा जैसा किसी नई सरकार का मुखिया कहे-'हम भृष्टाचार जड़ से मिटा देंगे।'

वहीं एक बच्चा बैठा चाय पी रहा था। 12 वीं में पढ़ता है। कामर्स की ट्यूशन पढ़ने जा रहा था सुबह 7 बजे। पापा पीडब्ल्यूडी में काम करते हैं। हमने पूछा चाय पीकर घर से नहीं चले? बोला- नहीं।

इतने में जीसीएफ के कर्मचारी आ गए। हमने बताया की 7 वें पे कमीशन में 33/60 की रिटायरमेंट स्कीम नहीं लागू होगी। सुनते ही वह लपककर खुश हुई। चेहरे पर चमक धारण करके पूछा- कब आई यह खबर। हमने कहा- कल रात देखी टीवी पर। वे खुश तो हुए सुनकर पर मुझे लगा कि जब भी खबर देखेंगे अखबार में या टीवी पर तो उलाहना देंगे- हम तुम्हारा यहाँ इन्तजार करते रहे और तुम मेरे पास इत्ती देर से आयी। बहुत नटखट खबर हो तुम।

हम तो बस प्राणपंथी हैं, जानपंथी हैं

चाय की दुकान से तालाब की तरफ चले आज। रास्ते में एक उजाड़ सी जगह पर उगी घास को गाय और सांड ब्रेकफास्ट की तरह चर रहे थे। वहीँ के रहवासी एक लडके को गोवंश का यह सुख देखा नहीं गया। उसने घटनास्थल से ही एक पत्थर उठाकर चरते हुए जानवरों की तरफ फेंका। विकसित देशों के ड्रोन हमलों की तरह उसका भी निशाना चूका और पत्थर दूर जाकर सुस्ताने लगा।

पत्थर लगा भले न हो लेकिन गोवंश के लोग वहां से हड़बड़ाकर फूट लिये जैसे लाठीचार्ज के समय पुलिस के लाठी सड़क पर पटकते ही सड़क की भीड़ तितर-बितर हो जाती है। जवान सांड़ तेजी से भागा तो उसकी पीठ पर का तिकोना मांस दायें-बाएं हिलने लगा। मांस का त्रिभुज इतनी तेजी से हिल रहा था कि पता लगाना मुश्किल कि वास्तव में वह वामपंथी है या दक्षिणपंथी।अगर कोई उसको रोककर उस समय पूंछता कि बताओ तुम्हारी आस्था वामपंथ में है या दक्षिणपंथ में तो शायद वह कहता कि भैये हमारी आस्था न वामपन्थ में है न दक्षिणपन्थ में। हमारी आस्था तो 'प्राणपंथ' में हैं।जिस पंथ पर चलने में हमारे प्राण बचे उसी पंथ के अनुगामी हैं हम। हम न वामपंथी हैं न दक्षिणपंथी। हम तो बस प्राणपंथी हैं, जानपंथी हैं।


सांड के आगे ही एक बछिया भी, जो जल्दी ही गाय कहलाने लायक बड़ी हो जायेगी, तेजी से भागते हुए पीछे देखती जा रही थी। युवा सांड उसके पीछे अब ब्रिस्क वाक सा करता हुआ जा रहा था। जिन लोगों ने इन लोगों का घास चरना और इन पर पत्थर से हमला नहीं देखा वे अभी इनको आगे- पीछे भागते-चलते देखें तो शायद कहें कि देखो ससुरा सांड जवान बछिया के पीछे लगा है दिन दहाड़े। क्या पता कोई इसी बात पर सांड को गरियाते हुए पत्थर न मारने लगे। हो तो यह भी सकता है कि कोई बछिया को ही गरियाये -बहुत गर्मी चढ़ी गई है इसको सुबह-सुबह।

यह सब इस बात का बस एक उदाहरण है कि किसी घटना पर आपकी प्रतिक्रिया इस बात पर निर्भर करती है कि आप उससे कब और कैसे जुड़े। कोई जान बचाकर भागते जानवरों को सहज कामुक इरादे से सड़क पर भागता समझ सकता है। कोई अपने घर के पीछे उगी घास की रक्षा करने के लिए लड़के द्वारा आवारा पशुओ पर चलाये ठेले को गोवंश पर खुलेआम अत्याचार मानते हुए उसे थपड़िया सकता है। है कि नही?

मैदान पर एक आदमी सामने उगे सूरज की सीधे आराधना करता हुआ ऐसी मुद्रा में खड़ा हो जिसे देखकर लगा मानो वह सूरज भाई से विडियोचैट कर रहा हो।

तालाब किनारे पहुंचे तो देखा कि लोग तालाब खेलने के लिए तैयार हो रहे थे। कुछ लोग ट्यूब में मुंह से हवा भर रहे थे। कुछ नाव से पानी उलीचकर बाहर कर रहे थे। उलीचने के लिए स्टील की प्लेट का इस्तेमाल कर रहे थे लोग। लोग अपने पैंट उतारकर किनारे रखकर पटरा वाले जांघिये या अंडरवियर में 'ट्यूबनाव' पर सवार होकर लकड़ी की छोटी-छोटी डंडियों को चप्पू बनाये पानी में उतर गए।


नाव वाले चप्पू लिए हुए थे। एक नाव वाले के पास शायद चप्पू नहीं था तो वह जिस प्लेट से वह नाव का पानी उलीच रहा था उसी से तालाब का पानी इधर-उधर करते हुए प्लेट को चप्पू की तरह चलाते हुए उधर की तरफ चल दिया जिधर बाकी साथी गए थे।

तालाब में आज छोटे जाल डाले गये हैं क्योंकि बाजार में मछली की खपत कम है। मछली भी कम हैं तालाब में। जब बड़ा जाल डाला जाता है तो ज्यादा लोग आते हैं 'तालाब खेलने'। कुल 80 लोगों में आज 26 लोग आये थे।
किनारे कुछ लोग थे। वे मछली पकड़ने नहीँ गए। वे व्यवस्था देखते हैं। मछली पकड़कर लाने पर 30/- किलो मिलता है मछुआरों को। अगर कोई मछुआरा मछली खरीदना चाहें तो 80/- किलो मिलती है। कोई ग्राहक चाहे तो 120/- किलो। जो पैसा बचता है सोसाइटी में उसको तालाब में ही लगा दिया जाता है।

तरह-तरह की मछलियाँ हैं तालाब में। कोई मौरम में फलती है तो किसी को कीचड़ रास आता है। तालाब दिन पर दिन देखते-देखते सिकुड़ गया। तालाब किनारे के तमाम मकान तालाब को पाटकर बनाये गए हैं।
तालाब किनारे कई जगह घाट पर छठ पूजा का कार्यक्रम चल रहा था। भजन आरती की आवाज सुनाई दे रही थी।

इतने में दो पुलिस वाले मौका मुआइना के लिए आये फटफटिया पर वहां। हमने पूछा कि इनको भी कुछ देना पड़ता है क्या मछुआरों की तरफ से? वो बोले- नहीं।

तालाब से लौटते हुए साइकिल में हवा भरवाई एक जगह। दीपा से मिलने गए। उसका घर बंद था। शायद स्कूल चली गयी हो। अब शाम को या कल जाएंगे।

कमरे पर आकर चाय पीते हुए पहला हिस्सा पोस्ट किया आज के रोजनामचे का। बाकी का हिस्सा यह रहा। आज छठ की छुट्टी है।अब आप मजे कीजिये। मस्त रहिये। आपका दिन शुभ हो मंगलमय हो। जय हो। विजय हो।।
 

बूँद-बूँद से घड़ा भरता है


Monday, November 16, 2015

आलस्य की संगत हिंसाबाद भी रोकती है

कल जब स्टेशन पहुंचे तो अँधेरा हो गया था। ट्रेन समय से चल रही थी। पिछले स्टेशन पर 8 मिनट पहले ही पहुंचकर सुस्ता रही थी।

दो आदमी आपस में गाय के बारे में बात कर रहे थे। इतने विस्तार से गोया 'गाय पर निबन्ध' प्रतियोगिता में भाग ले रहे हों। एक ने कहा-'दूध छूटने पर सब छुट्टा छोड़ देते हैं। अरे भाई जब दूध के लिए पाली है तो बाद में भी निभाओ।' दूसरा बोला-'हमारे इधर तो 'परक' गयी हैं गायें। सबेरे-सबेरे मुंडी... मारती हैं दरवाजे पर। जीभ से कुण्डी हिलाती हैं। भैंस कभी कोई नहीं दिखती सड़क पर।' दोनों लोग इस बात पर एकमत थे कि आजकल कोई मुसलमान गाय नहीं रखना चाहता इस डर से कि पता नहीं कब कोई बवाल कर दे।

एक लड़की लोहे की सन्दूक पर बैठे सन्दूक बजाती जा रही थी।

ट्रेन समय पर आई। बैठकर फिर से चेक किया कि बोगी और सीट वही है न जिसका रिजर्वेशन है। चेक करके जो सांस ली उसके बारे में अब्भी तक तय नहीं कर पाये कि वह सुकून की थी कि सन्तोष की। चैन की या फिर इत्मिनान की। बस यही कन्फर्म है कि वह थी।

डब्बे में भीड़ थी। पूरा भरा। जितनी बर्थ उससे ज्यादा यात्री। शायद इसीलिये टीटी डब्बे में आया नहीँ। उसके करने के लिए कुछ था नहीं डब्बे में। कोई खाली बर्थ थी नहीं अलाट करने के लिए तो काहे को समय बर्बाद करता।

3 टायर स्लीपर कोच होने के चलते डब्बा पूरा गुलजार था। लोग खूब बतिया रहे थे। चुहल कर रहे थे। एसी डब्बे में होते तो ज्यादातर यात्री अब तक कम्बल ओढ़कर लुढ़क गए होते।

एक लड़का फोन पर किसी को प्रेमपूर्ण ढंग से हड़का रहा था-'हम आपको बहुत इज्जत से बता रहे हैं कि गुरसहायगंज की पुलिस जब कलकत्ता पहुंचकर आपसे मेरे मोबाइल के बारे में पूछताछ करे तो हैरान मत होना।हम जिसकी इज्जत करते हैं उससे दो बार जी लगाकर बात करते हैं। इसीलिये आपको जी जीजा जी कहा।'

एक लड़का गैलरी से गुजरा तो उसने शीशे में चेहरा देखा अपना। सर के बाल उँगलियों के कंघे से काढ़े। फाइनली चेहरा एक बार फिर से देखा। फिर से झटककर आगे चला गया।

बगल का लड़का कोलकता का रहने वाला है। लखनऊ आया था काम से तो जबलपुर अपनी बहन से मिलने जा रहा है। नहीं जाएगा तो शिकायत करेगी बहन -'लखनऊ तक आये और मिलने नहीं आये।' आधारताल में रहते हैं जीजाजी उसके।

ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी। कुछ देर ज्यादा रुकी रही तो यात्रियों ने उतरकर प्लेटफार्म की दुकान वाले के सब समोसे खरीदकर खा लिए और उसकी सारी चाय पी डाली। समोसे खत्म करने के बाद रेलवे को गरियाना शुरू किया कि गाड़ी कहाँ बीच में खड़ी कर दी ससुरों ने। कुछ देर बाद जब ट्रेन चल दी तो प्लेटफार्म से उचककर लोग ट्रेन में धँस लिए। एक ने कहा -'यार मेरा तो मन किया कि यहीं प्लेटफार्म पर चद्दर तान के सोया जाये।'

कुछ लोगों ने प्लेटफार्म वाले दुकानदार की किस्मत से ईर्ष्या की कि उसके सारे समोसे बिक गए। भला हो कि यह किसी ने नहीं कहा कि दुकानदार की सिग्नल वाले से सेटिंग थी कि वह सिग्नल तब तक नहीं देगा जब तक उसके सब समोसे बिक न जाएँ।

रात होते होते यात्री लोग मुंडी झुकाकर अपने-अपने घर से लाया हुआ खाना टूंगने लगे। खाना खाकर बीच वाली बर्थ को जंजीर से टांगकर लोग अपनी-अपनी बर्थ पर जमा हो गए। जिनके रिजर्वेशन नहीं थे और जो अभी तक सर ऊँचा किये बैठे थे सीटों पर वे अब जहाँ-जहाँ सर झुकाकर नीचे वाली रिजर्व सीटों के पैताने बैठ गए।

रिजर्व सीटों वाले लोग उनको बैठने से मना भले न कर रहे हों पर चद्दर/कम्बल ठीक करने के बहाने जाने/अनजाने पैताने बैठे लोगों को लतियाने लगे। वे लोग बेचारे कुनमुनाकार रिजर्व बर्थ की सवारी की लातों के हिसाब से खुद को एडजस्ट करते रहते।

और रात होने पर कुछ लोग दो सीटों के बीच की जगह पर पसरकर लेट गए और कालान्तर में सो भी गए। कहीं-कहीं दो लोग चिपटकर सोये। उनके चेहरे पर अंतत पीठ टिकाकर सोने के सुकून का झंडा फहरा रहा था।

सुबह आँख खुली तो ट्रेन कटनी पहुँच चुकी थी। मन किया उठकर चाय पी जाए। लेकिन आलस्य ने बरज दिया-'अरे अभी कहाँ। आगे पीना। अभी आराम करो कुछ देर और यार।' हमने भी अपने जिगरी दोस्त आलस्य की बात मान ली और करवट बदलकर फिर से सो गए।

आगे सिहोरा स्टेशन पर चाय वाले ने चाय-चाय का हल्ला मचाया। हल्ला मचते ही हम हड़बड़ाकर उठे। कुछ ज्यादा ही हड़बड़ हुई तो आलस्य बिदककर दूर चला गया। हमने उस समय तो ध्यान नहीं दिया पर जब चाय पीते हुए ध्यान गया तो पुचकारा तो फिर पास आ गया आलस्य। हमने आराम से अलसाते हुए चाय पी। बीच में मन किया कि चाय वाले को कोसें कि वह पनियल, मीठी चाय 10 रूपये में थमाकर चला गया। पर आलस्य ने बरज दिया-'काहे को फालतू में खून जलाओगे? मस्त रहो।' हमने गरियाना स्थगित कर दिया।

आलस्य की संगत इस मामले में बहुत अच्छी है कि वह हिंसाबाद भी रोकती है।

स्टेशन आने वाला जानकर हलके होने के लिए चले। देखा कि एक भैया अपने चौड़े मोबाईल में कोई पत्ते मिलाने वाला खेल खेल रहे थे। अगल-बगल के चार यात्री उनके मोबाईल में मुंडी घुसाये खेल देख रहे थे। पत्तों का जोड़ा बनते ही पत्ते सीन से गायब हो जा रहे थे। ऐसे जैसे प्रेम करने वालों के बीच से रोमांच और प्रेम गायब हो जाता होगा - उनका विवाह होने के बाद।

शौचालय की खिड़की टूटी हुई थी। नीचे पड़े कांच से लग रहा था कि किसी का ताजा शौर्य प्रदर्शन है। कांच टुकड़े-टुकड़े होकर फर्श पर पड़ा था। कुछ कांच के टुकड़े जो क्रांतिकारी टाइप के रहे होंगे वो फ्लश होकर शौचालय के रस्ते बाहर हो गए होंगे। किसी जगह पटरी पर पड़े गिट्टियों की गोद में पड़े अपने घाव सहला रहे होंगे। कोई उनका नाम लेने वाला भी नहीं होगा।

गाड़ी रुकी स्टेशन पर। हम उतरकर मेस में आ गए। अब्बी कमरे पर पहुंचकर सबसे पहला काम चाय मंगाने का किया। चाय आ रही है।

येल्लो देखो सूरज भाई भी आ गए। किरणें, उजाला, रौशनी, उजास अपने संगी-साथियों के साथ धड़धड़ाकर कमरे में घुस आये। कमरा पूरा गुलजार हो गया इत्ते दिन बाद सबसे मिलकर। हमको भूल ही गया निगोड़ा। हम सूरज भाई के साथ बतियाते हुए चाय पी रहे हैं। आप भी आइये फटाक देना वर्ना चाय ठण्डी हो जायेगी।

आपका दिन मंगलमय हो। हफ्ते की शुरुआत चकाचक हो। जय हो।

Saturday, November 14, 2015

ज्ञानजी सबसे प्रयोग धर्मी ब्लागर हैं

आज बाल दिवस है। बाल दिवस पर ज्ञान दिवस भी होता है।।ज्ञान दिवस मतलब Gyan Dutt जी का जन्मदिन। ब्लॉगिंग के दिनों में ज्ञान जी की पोस्ट सबसे पहले आया करती थी। सुबह की नियमितता ऐसी थी कि हम कहते थे - ज्ञानजी ब्लॉगजगत के मार्निंग ब्लागर हैं।

रिटायरमेंट के बाद ज्ञानजी अपने गाँव में बसे हैं। कटका इलाहाबाद से 65 किमी और बनारस से 35 किमी दूर है। गंगा नदी गाँव से 3 किमी दूर है। साईकिल से रोज गंगा दर्शन करते हैं। हमको भी करवाते हैं।... गंगा और सूरज के गठबंधन की मनोरम तस्वीरें फेसबुक पर अपलोड करते रहते हैं चुटकी भर विवरण के साथ। फोटो इतनी बोलती हुई होती हैं कि ज्यादा विवरण की जरूरत भी नहीं होती।

आज सुबह जब फोन किया तो ज्ञानजी गंगा तट पर ही थे। बताया कि खूब सारी गौरैया हैं वहां तट पर जिनकी कल्पना भी शहर में रहते नहीं की जा सकती। एक बबूल के पेड़ को पतंगों ने घेर रखा है। पतंगों से घिरा बबूल का पेड़ धूसर दिख रहा है।

अभी कटका में सुचारू इंटरनेट कनेक्शन न होने के चलते ठीक से पोस्ट्स नहीं कर पाते सारा कुछ लिखा हुआ। इलाहाबाद के शिवकुटी के गंगातट पर लिखी पोस्ट्स को संकलित करके बनाई जाने वाली प्रस्तावित ई बुक भी लटक गयी है।


ज्ञान जी की 'चाहत सूची' में नाव से गंगा दर्शन भी शामिल था। फिलहाल वह स्थगित हो गया है। कारण कि गांव में नाविक नहीँ हैं। बुनकरों का गांव है। साईकल यात्रा के लिए आज उकसाया गया तो ज्ञान जी ने कटका से बनारस 35 किमी साइकिलियाने के बारे में प्लान बनाया है। देखिये कब होता है।

ब्लॉगिंग के बहाने जितने भी लोगों से परिचय हुआ उनमें से ज्ञानजी सबसे प्रयोग धर्मी हैं। अभिव्यक्ति के नए नए प्रयोग ब्लॉग, ट्विटर और फेसबुक पर करते रहे।

आज ज्ञान जी का जन्मदिन है। ज्ञान दिवस है। आज इस मौके पर ज्ञान जी को जन्मदिन की बधाई। मंगलकामनाएं। उनकी इच्छा सूची में संकलित इच्छाओं में सभी धीरे-धीरे पूरी हों। वे स्वस्थ रहें। नियमित अपने अनुभव हम तक पहुंचाते रहें इसके लिए उनके यहां इंटरनेट की अबाध आपूर्ति बनी रहे।

Thursday, November 12, 2015

पूँजी बाजार की मासूम गुंडागर्दी

5800 सिनेमाघरों में लगी है फ़िल्म 'प्रेमरतन धन पायो'। हर दिन 12 से 15 शो होंगे। टिकट का खर्च 200 रुपया मान लें और यह भी कि हर शो में 50 लोग देखेंगे पिक्चर तो प्रतिदिन की कमाई होगी

5800×12 ×200× 50=
69600000 रूपये
मतलब 7 करोड़
...
100 लोग देखेंगे तो 14 करोड़ प्रतिदिन। कुल लागत 80 करोड़ मल्लब हफ्ते भर में पैसा वसूल। फ़िल्म सबसे सफल कहलायेगी।

सब जगह जब एक ही फ़िल्म लगी होगी और कई न्यूज चैनलों के प्राइम टाइम में सिनेमा का प्रोमोशन होगा तो लोग झक मारकर फ़िल्म देखने आएंगे।

यह पूँजी बाजार की मासूम गुंडागर्दी है। बातें हवाई हों। फ़िल्म औसत लेकिन देखने तो तुमको आना पड़ेगा बाबू। कहां तक बचोगे?

Wednesday, November 11, 2015

लगे रौशनी की झड़ी झूम ऐसी

कल कानपुर के लिए चित्रकूट पकड़ने स्टेशन पहुंचे। स्लीपर में आधी बर्थ पक्की थी। आधी बर्थ मतलब RAC । कोई निरस्त कराये तो पूरी हो जाए। RAC बर्थ के अलावा तत्काल प्रीमियम में शाम तक बर्थ उपलब्ध थीं पर उनमें स्लीपर 3 गुना एसी 3 टियर 8 गुना और एसी 2 टियर 9 गुना महंगा था। हमने सोचा -300 में आधी बर्थ में जाएंगे। दीवाली के लिये पैसा बचाएंगे।

चार्ट में देखा कुल 6 लोग थे RAC वाले। हमारी बर्थ की साझीदार कोई महिला थीं F- 29. हम सोचे बर्थ कन्फर्म हुई तो अच्छा न हुई तो और अच्छा। कन्फर्म हुई तो सोते हुई, न हुई तो बतियाते हुए जाएंगे।

एक खाकी वर्दी वाले सज्जन फोन पर किसी को बता रहे थे--बुआ के लड़के ने फांसी लगा ली है। तुरन्त निकलना पड़ रहा है। सुनकर मन खराब हुआ। क्यों लोग खूबसूरत जिंदगी का अंत कर लेते हैं।

ट्रेन में सामने की बर्थ पर दो नौजवान बतिया रहे थे। एक ने दूसरे से पूछा- कुछ जुगाड़ हुआ कि नहीं। दूसरे ने कहा-नहीं हुआ यार। बस बियर से काम चलाएंगे। दूसरे ने कहा-'अरे मुझे बताया होता बे। हम दिला देते। मेरे डीएससी में बहुत जान पहचान के दोस्त हैं।' पता चला कि वे दारू की बात कर रहे थे। डीएससी में आर्मी से ही आये लोग होते हैं। आर्मी के लोगों को सस्ती शराब की सुविधा होती है। सेना से जुड़े लोगों कई मित्र उनको मिलने वाली इस सुविधा का लाभ उठाते हैं।

ट्रेन चल दी। F-29 नहीं आई। टीटी ने बर्थ हमारे नाम कर दी। हम खुश कि आराम से फैलकर जाने की सुविधा मिली। लेकिन ख़ुशी कुछ ही देर रही। कुछ देर बाद एक आदमी आया और बोला कि आधी बर्थ उसकी है। हमने कहा यह तो किन्ही महिला के नाम है। पता चला कि वो उनकी पत्नी हैं। रिजर्वेशन ने दोनों को अलग अलग कर दिया। आधी सीट यहां दी आधी वहां। हमने कहा-'आओ। बैठकर और फिर लेटकर चलेंगे।'

इसके बाद चले टीटी की शरण में कि कोई बर्थ बची हो तो मिल जाये। टीटी 'भला टीटी' टाइप था। 4/6 बर्थ गिना दिया कि चित्रकूट तक वहां लेट लो, मानिकपुर तक वहां, कर्बी में सवारी वहां से आएगी।हम लौटकर आये खाना खाने लगे। तब तक कुछ सवारियां आई और उन बर्थ पर पसर गयीं पिंडारियों की तरह जिनके नंबर हमको बताये थे टीटी ने। हमने पूछा तो उन्होंने कहा कि टीटी ने कहा है चित्रकूट/मानिकपुर/कर्बी तक बैठ जाओ उसमें। हमने टीटी के आगे से 'भला' हटाया। वह सिर्फ एक टीटी ही था।

खाना खाने के बाद हम अहा जिंदगी पढ़ने लगे। ऊपर की बर्थ वाले न ऊपर से ट्यूब लाइट घुमाकर बंद कर दिया। उसको सोना था। हमने कहा- 'बताते तो यहीं नीचे से बंद कर देते। अब तो यहाँ से खुलेगी भी नहीं।' पर वह कुछ बोला नहीं सो गया। ट्यूबलाइट घुमाकर भी बन्द की जा सकती है यह हुनर उसको आता था। उसी का उपयोग उसने किया और फिर सो गया।

हमारी बर्थ का साझीदार आया नहीं। हम चादर बिछाकर लेट गए। फिर सुबह तक नहीं आया वह यात्री। वहां बर्थ मिला गयी होगी। शायद पत्नी के साथ ही एडजस्ट हो गया।लगा सम्बन्ध मधुर हैं उनके। साथ रहने की इच्छा बनी हुई है।

रात में ट्रेन में यात्रियों का भभ्भड़ मचा। डब्बे का गलियारा फुटपाथ बन गया। कई लोग बर्थ के बीच की जगहों पर अखबार या चादर या खुद को ही बिछाकर लेट गए। दुष्यंत कुमार की तर्ज पर कहा जा सकता है:
'न मिली बर्थ तो बीच में लेट लेंगे
बहुत मुनासिब हैं लोग इस सफर के लिए'


पता चला चित्रकूट में 'दीपदान' मेला लगता है। वहां जाने के लिए ही इस रास्ते की ट्रेनों में भीड़ है। दीपदान मेले के बारे में बताते हुए एक आदमी कहा-'मंदाकिनी नदी के किनारे लगता है दीपदान का मेला। मंदाकिनी के आगे गंगा तक फ़ैल है। पिछले साल डेढ़ करोड़ लोग आये थे मेला में। इस बार मंहगाई के कारण चौथाई लोग भी नहीं जुटे मेले में।

मेले की बात चली तो कोई और बोला-' पहले तो हर गाँव में मेला लगता था। लोग ख़रीदारी मेले में ही करते थे। अब खरीददारी के लिए साल भर बाजार खुला रहता है। मेले कम हो गए। जहां लगते हैं वहां वहां भी खतम हो रहे हैं।

चित्रकूट स्टेशन पर कुछ सवारियां चढ़ी। कुछ बर्थ पर लेटी सवारियों को उठने को कहकर वे उनसे बहस करने लगीं। पहले से लेटी सवारियां भी उनसे उलझ गयीं कि उनको टीटी ने बोला है। पैसे दिए हैं बर्थ के उन्होंने। दोनों बर्थ पर कब्जे के लिए उसी तरह लड़ने लगे जैसे किसी पार्टी में कब्जे के लिए पार्टी के सक्रिय सदस्य पार्टी के मार्गदर्शक सदस्यों से लड़ते हैं।

बहस के दौरान पता चला कि पुरानी सवारियों को चित्रकूट ही उतरना था। यह पता चलते ही सवारियां बहस करना छोड़कर पुरानी सवारियों को उतारने का उपाय सोचने लगीं। नई-पुरानी सवारियों का महागठबंधन टाइप बन गया। कोई बोला -चेन खींच दो, कोई बोला-गाडी धीमी है उतर लो। बहुमत इस बात का था कि अगली स्टेशन पर उतरकर वापस आ जाएँ। लेकिन सबसे तेज आवाज चेन खींचने वाले की गूँज रही थी। इससे मुझे एक बार फिर एहसास हुआ कि जरूरी नहीं कि सबसे तेज और चिल्लाती आवाज जरूरी नहीं कि बहुमत का प्रतिनिधित्व करती हो।

गोविंदपुरी स्टेशन पहुंचे दो घण्टे लेट। हमारे ऑटो वाले 10 मिनट की दूरी पर थे। बाहर 'बाबा टी स्टाल' पर उनका इंतजार किया। टी स्टाल पर चाय थी नहीं। दूध खत्म हो गया था। ब्लैक टी पीने का मन हुआ नहीं सो इंतजार ही किया महेश का। जब वो आये तब हम घर पहुंचे।

घर के बाहर ही कुछ देर बैठे रहे बरामदे में। सुव्यवस्थित घर में अव्यवस्था फैलाने का मन नहीं हुआ कुछ देर। बरामदे में ही मेज पर ये खिलौने रखे हुए थे। काले चिंपैंजी की गोद में गुड़िया लेते देख लगा कि मानो 15 सेक्टरों में एफडीआई सीमा बढ़ने की खबर सुनते ही अपनी अर्थव्यवस्था निश्चिन्त होकर विश्वबाजार की गोद में निश्चिन्त होकर लेट गयी हो। भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए विश्वपूंजी के चेहरे का वात्सल्य देखकर मन अश् अश् करने का हुआ लेकिन तब तक चाय आ गयी और हम उसको इज्जत देने में जुट गए।
आप सभी को दीपावली की मंगलकामनाएं। आपके जीवन में:
लगे रौशनी की झड़ी झूम ऐसी
निशा की गली में तिमिर राह भूले।

Monday, November 09, 2015

"प्यार से पुकार लो जहां हो तुम"

"प्यार से पुकार लो जहां हो तुम"

यह गीत बज रहा था पंकज टी स्टाल पर आज सुबह जब हम वहां पहुंचे।
पर सुबह की सुनाएँ इसके पहले रात का किस्सा सुन लीजिये। रात के बाद ही सुबह आएगी न। कोई राजनीति थोड़ी है कि रात बीत गयी तो उसको मार्गदर्शक मण्डल में डालकर भूल जाएँ।

कल रात हम क्लब गए थे। धनतेरस पर क्लब में आतिशबाजी फिर पार्टी का इंतजाम था। क्लब से लौटते समय सड़क के किनारे से आवाज सुनी। कोई हवा में बड़बड़ाता हुआ सड़क किनारे लेटा हुआ था। अपनी साईकल किनारे खड़ी करके अपन उसके पास गए। सड़क की दूसरी तरफ।

देखा कि एक साईकल सड़क पर पड़ी हुई थी। पड़ी क्या, धराशायी टाइप थी।

एक आदमी साईकल के हैंडल को तकिया सरीखा बनाये हुए पड़ा हुआ था। नशे में धुत वह न कुछ-कुछ बड़बड़ाता जा रहा था। पता चला कि मढ़ई में रहता है।
हमने उसको उठाने की कोशिश की तो उसने एकल असहयोग आंदोलन शुरू कर दिया और उठने से मना कर दिया। हमने फिर उसको जबरिया उठाया तो उठ तो गया लेकिन लड़खड़ाता रहा। घर कितनी दूर है पूछने पर कभी 15 मिनट की दूरी पर और कभी 2 घण्टे की दूरी पर बताता। हमें लगा कि यार इसका घर न हुआ अच्छे दिन हो गए। कोई कहता कि चुनाव बाद आएंगे कोई कहता दस साल लगेंगे आने में।


बात करने पर पता चला कि उसके मालिक ने उसको तनख्वाह के पैसे नहीं दिए तो गुस्से में वह दारू पीकर आ गया। साईकल के करियर पर रखा लोहे का रॉड निकालकर मेरे सामने लहराते हुए बोला- ये भी उठा लाये (मालिक के यहाँ से)। हमें लगा कहीँ वह अपने मालिक का गुस्सा हमारे ऊपर न उतार दे।

वह घर जाने के लिए राजी नहीं हो रहा था। पर यह समझाने पर कि यहाँ लेटोगे तो कोई कीड़ा-वीड़ा काट लेगा वह घर जाने के लिए राजी हुआ। साईकल की चैन उतर गयी थी। हमने उसे ऐसे ही जाने को कहा। साईकल से जाता तो कहीं फिर लड़खड़ाकर गिर सकता था। वह धीरे-धीरे चलते हुए घर की तरफ चला गया।हम भी कमरे पर आकर सो गए।

सुबह उठे तो साईकल स्टार्ट करके पहुंचे पंकज टी स्टाल। वहां हमारे जीसीएफ का स्टाफ मिला। मिलते ही लपककर उसने बिहार चुनाव के परिणाम पर ऐसे खुशी जाहिर की जैसे उसको ही जाना है गांधी मैदान पर शपथ लेने। उसको अपने 33/60 (नौकरी की अवधि 33 साल या उम्र 60 साल में जो पहले हो उसमें रिटायर होना) की चिंता है। उसको लग रहा है कि अगर केंद्र सरकार 33/60 लागू करती है तो उसकी 5 साल की नौकरी मारी जायेगी।

गंजेड़ी गठबंधन बारी-बारी से चिलम घुमाते हुए आनन्दमग्न था। 100 के नशे में 3 लोग दोपहर तक मस्त। दीपावली की छुट्टियां तो कोई ट्रक बाहर जाना नहीं था।


एक बच्ची चाय की दुकान से टॉफ़ी, बिस्कुट लेकर अपने साथ की दूसरी बच्ची के हाथ में पकड़ी प्लास्टिक की छुटकी डोलची में सामान रखती जा रही थी। चलते हुए उसने दो मसाले की पुड़िया भी लीं। पूछने पर बताया कि अपनी मम्मी के लिये ले जारी है। छुटकी ने अपना नाम आयशा बताया। फोटो देखकर मुस्कराई।

चाय की दुकान पर ही एक लड़का हाथ में टिफिन लटकाते चाय पी रहा था। पता चला कि कटनी जा रहा है। घर है वहां। आठवीं पास छोटू(राहुल) अपने चाचा राजू के साथ ट्रक हांकने के हुनर सीख रहा है। चचा राजू दस साल से ट्रक चला रहे हैं। उनको एक पंडित जी ने सिखाया था ट्रक चलाना। छोटू के पिता बेलदारी करते हैं। घर सबका कटनी में है। जबलपुर में किराये के कमरे में रहते हैं। खाना होटल में खाते हैं। अभी दीपावली में ट्रक मालिक के यहां खड़ा करके घर जा रहे हैं चचा-भतीजे।

चचा बिल्कुल पढ़े नहीं हैं। बिना पढ़ा इंसान 'अक्षर अँधा' होता है। कुछ भी लिखा हो पर समझ न आएगा। हमने उससे पूछा- 'फिर पैसे गिन लेते हो?' मेरे सवाल पर वह मुस्कराया। बोला कुछ नहीं। पर मुस्कान देखकर लगा कि शायद वह कहना चाहता हो--'पत्तल्कार हो क्या?'

हमारा मन किया कि पूंछे कि बिहार के हालिया चुनाव पर क्या कहना है चचा भतीजे का। पर वे चाय का ग्लास दुकान पर धरकर सरपट निकल लिए। उनको कटनी के लिए बस पकड़नी थी।

मैं भी साइकिलियाते हुए कमरे पर आ गया। मुझे भी फैक्ट्री जाना है। आते हुए पंकज टी स्टाल पर बजता हुआ गाना याद आ रहा था- 'प्यार से पुकार लो जहाँ हो तुम........।' हमने पुकार भी लिया। जिसको सुनना है उसको सुनाई भी दे रहा होगा।

आज धनतेरस है। आप सभी को मुबारक हो।