Friday, November 20, 2015

हम तो 'सड़कपंथी' हैं 'साइकिल पंथी' हैं

आज सबेरे नींद खुली करीब साढ़े चार बजे। पर जगे नहीं काहे से कि अलार्म लगाया था 4.59 का। पहले जग जाते तो अलार्म नाराज होता और कहता- 'पहले काहे उठ गए भाई। का हमपे भरोसा नई है। हमको भी चुनी हुआ सरकार समझ लिया का और सोच भी लिया कि हम अपनी जिम्मेदारी नई निभाएंगे। खाली लफ्फाजी करेंगे।' और भी न जाने क्या-क्या कहता। लोकतन्त्र में किसी का मुंह थोड़ी पकड़ सकते। सो सब आगा-पीछा सोचकर लेटे रहे। इंतजार किया कि अलार्म बजे, फिर जगें।

अलार्म टाइम पर बजा। फिर हम भी जग गए। घर फोनकर घरैतिन को जगाया और कहा आधा घण्टा और सो लो फिर जगा देंगे। वो सो गयीं। हम जगे तो थे ही अब उठ भी गए। कुछ देर मोबाईल पर खुटुर-पुटुर किये फिर ज्ञान चतुर्वेदी की 'हम न मरब' का पारायण करते रहे। आधा घण्टा से कुछ देर और बाद पत्नीजी को जगाया। फिर कपड़े पहनकर दरवज्जे पर कुलुप मार के (ताला बन्द करके) निकल लिए।

मेस के बाहर निकलते ही दो महिलायें तेज चाल से चलती हुई और उससे भी तेज बतियाती हुई दिखीं। वे बहुत जल्दी-जल्दी अपने परिवारों के बारे में कुछ बतिया रहीं थीं। मार्च के महीने में जैसे सरकारी महकमें इस चिंता में फुर्ती से पैसा खर्चते हैं कि कहीं साला बजट न लैप्स हो जाये, अनखर्चा रह गया तो बवाल तो होगा ही बेइज्जती अलग से होगी कि बताओ ससुर बजट तक न हिल्ले लगा पाये। उसी तरह महिलाएं भी लगता है अपनी टहलाई पूरी होने के पहले अपनी बातों का कोटा पूरा कर लेना चाहतीं थीं शायद। इसीलिये वे बहुत जल्दी-जल्दी बतिया रहीं थीं। इफरात बातें उनके मुंह से निकल कर इधर-उधर हवा में टहलने लगतीं।


नाले के पास खेत की फसल कोहरे की चादर ओढ़े तसल्ली से सो रही थी। सूरज की किरणें कोहरे की चद्दर खींचती होंगी पर फसल फिर वापस चद्दर खींचकर, कुनमुनाते हुए, करवट बदलकर सो जाती होगी। आसपास के बुजुर्ग पेड़ फसल को इस काम में बाहर से समर्थन सा दे रहे थे। सूरज की किरणों को अपनी पत्तियों, टहनियों में उलझाकर खेत के पास जाने से रोक रहे थे। ऐसे ही जैसे नकल कराने वाले स्कूलों के प्रबन्धक फ़्लाइंग स्क्वायड की जीप रोकने के लिए स्कूल के बाहर या तो सड़क खुदवा देते हैं या कोई और मुफीद इंतजाम करते हैं।

आगे सड़क पर एक महिला सर पर तसले में गोबर लिए फुर्ती से चली जा रही थी। हमने फोटो लिया तो बोली--'गोबर का फोटो ले रहे हो?' हमारा मन किया कहें-'यही तो आजकल चर्चा के केंद्र में है।यही तो भरा है बहुतों के दिमाग में आजकल।' पर फिर बोले नहीं। यह कहा-'अरे न। तुम्हारा खींचा फोटो। बढ़िया आया है।' पर यह सुनने के लिए उसे फुर्सत नहीं थी। वह तो सरपट चली गयी आगे।

एक जगह सड़क की फुटपाथ पर कब्जा करके चबूतरा बनाया गया था। चबूतरा सड़क से मात्र 6 इंच ही ऊँचा रहा होगा। कुछ इस तरह कि चबूतरा वाला मोहल्ले वालों से ऐंठकर कह सकता है ' जे तो हमाओ चबूतरा है।' पर अगर पुलिस पूछे तो कह सके- 'साहब जे तो सड़क है। यहां सवारी नहीँ चलती ऊंचा होने के चलते तो हम बैठ जाते हैं।।बैठते हैं तो लीप भी देते हैं।'

आदमी चबूतरे पर तीन कुर्सियां जमा रहा है। लगा मानो महागठबन्धन का शपथ समारोह यहीं होगा। थोड़ी धूप निकल आने पर इन्हीं कुर्सियों पर विराजकर पचास मीटर दायें पचास मीटर बाएं सड़क पर आने जाने वालों को निहारते-ताड़ते हुये गर्दन और आँख की कसरत करेंगे। यही सौ मीटर की दूरी इनके लिए कश्मीर से कन्याकुमारी होगी जिसे इन कुर्सियों पर बैठने वाले सूरज भाई से मुफ़्त और इफरात में मिलने वाली विटामिन डी टूंगते हुए देखते रहेंगे।


आगे खेत की फसल उलझी हुई सी दिखी। जैसे सोकर उठी नायिका के बाल उलझ जाते हैं वैसे ही खेत में बालियां एक दूसरे पर लस्टम-पस्टम पड़ी हुईं थी। अलसाई सी। कोहरे का चादर सूरज की किरणों ने खींचकर अलग कर दिया था।हल्की सर्दी थी इसीलिये बालियां अपने में सिकुड़ी चुप बैठीं थीं। कुछ देर में हवा जब बाग़-बगीचों से टहलकर वापस आएगी तब इनकी उलझी लटें सुलझाएगी। तब ये फिर से इठलाते हुए झूमेंगी।
बिरसा मुंडा चौराहे पर अर्से बाद चाय पी। हफ्तों पहले के बकाया पांच रूपये की चाय पीकर सुकून हुआ कि पैसा वापस मिल गया।

वहीं चौराहे पर हरनारायण रजक मिले। ठेले पर चने की सब्जी और मूली बेंच रहे थे। चना 15 रूपये किलो। 1000 रूपये की सब्जी थी ठेले पर। बोले- घण्टे-दो घण्टे में बिक जायेगी।100/150 निकल आएंगे। फिर और रखी है पास में बोरे में वो बेंचेगे। पाटन से आती है सब्जी।

हमने कहा-'खड़े-खड़े थक जाते होगे। स्टूल रख लो।' बोले-'आदत हो गयी है। 12 घण्टे खड़े/टहलते रहते हैं। थक जाते हैं तो 'क्रेट' पर बैठ जाते हैं। नीचे सड़क पर पड़े मूली के पत्ते के लिए हमने कहा कि उनको इकट्ठा करके रख लिया करो। खिला दिया करो किसी जानवर को। सड़क पर गन्दगी भी न होगी। इस पर वह बोले-'यहीं खा लेती है आकर गाय। सड़क की सफाई वाले भी आते हैं।'

वहीं दुकान पर पांच महिलाये फुटपाथ पर बैठी चाय पी रहीं थीं। भंगिमा से ही लगा कि वे कामगार हैं। पता चला सड़क सफाई कर्मचारी हैं। 'पलमामेंट' वाली। सुबह 5 बजे से ड्यूटी है। सात बजे चाय पीते हुए दिखीं। सफाई अभी शायद शुरू नहीं हुई थी।

लौटते में एक आदमी सड़क पार करता दिखा। वह अपना दांया हाथ हिलाता हुआ सड़क सीधे पार कर रहा था। एकदम अनुशासित 'सड़क सिपाही' सा। सड़क पार करते ही उसने हाथ सिग्नल की तरह नीचे गिरा लिया।
दाईं तरफ हाथ देते हुए सड़क सीधे पार करने की कार्रवाई को कोई वामपंथी देखता तो शायद कहता - 'ये दक्षिणपंथी लोग हमेशा से ऐसा करते आये हैं। सिग्नल दायीं तरफ का देंगे पर जायेंगे सीधे।इनकी किसी बात का भरोसा नहीँ। ' पर हम तो वामपंथी हैं नहीं सो हम इस बात को नहीं न कहेंगे। हम तो 'सड़कपंथी' हैं 'साइकिल पंथी' हैं उसी का किस्सा कहेंगे।

आगे एक ऑटो पर दो बच्चे बैठे थे। ड्राइवर ऑटो को स्टार्ट मोड में छोड़कर कहीं चला गया था। बच्चे ड्राइवर का इन्तजार करते बैठे थे ऑटो में। इंजन भी लगता है था कि झल्लाते हुए चल रहा था भड़भड़ाते हुए। इंजन को गुस्सा आ रहा होगा कि वह तो सरपट चल रहा है पर ससुरे पहिये आराम फर्मा रहे हैं सड़क पर खड़े खड़े। हरेक को दूसरे का आराम अखरता है भाई।

दीपा के घर में आज भी कोई नहीं दिखा। ओवरब्रिज के नीचे महिला खाना बना रही थी। जिस टीन की चादर में सड़क बनाने का कोलतार और गिट्टी गरम की जाती है उसी तरह की टीन की चादर पर रोटी सेंक रही थी वह। उसके पीछे उसका आदमी दांये-बाएं झांकता हुआ बीड़ी सुलगाते हुए फेफड़े और फिर बाहर की हवा को गरम कर रहा था।

क्रासिंग बन्द थी। टेम्पो में केंद्रीय विद्यालय की बच्चे ठुंसे हुए बैठे थे। उनके पीछे उनके बस्ते ठुंसे थे। क्रासिंग खुलने पर हम आगे बढ़े।

एक आदमी सड़क पर तेजी से टहलता हुआ दातून करता हुआ जा रहा था। वह जिस तरह से केवल एक तरफ के ही दांत पर दातुन रगड़ रहा था उसे देखकर लगा कि कहीं दूसरी तरफ के दांत छोड़ तो नहीं देगा वह। ऐसा होगा तो फिर छूटे हुए दांत हल्ला मंचायेंगे। इस सोच के पीछे कल की एक खबर थी जिसके अनुसार फसल मुआवजा केवल उन्हीं इलाके के लोगों मिला जहां से सत्ताधारी पार्टी के लोगों को वोट मिला। बाकियों को ऐसे ही टहला दिया।

कहां-कहां टहला दिया आपको सुबह-सुबह। चलिए अब आप मजे कीजिये। हम भी चलते हैं दफ्तर। बोलो सन्तोषी माता की जय। अरे आज शुक्रवार है न भाई इसलिए बोला। और कोई खास बात नहीं।

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