Saturday, February 27, 2016

बीड़ी जानलेवा है


पोल के बीच सर घुसाये सूरज भाई
आज सुबह उठने के पहले ही हनुमान मंदिर से घंटे की आवाज सुनाई देने लगी। याद आया आज शनिवार है। भीड़ रहेगी मंदिर में। मांगने वाले और देने वालों का जमावड़ा होगा।

मेस के बाहर एक आदमी राख के रंग का कोट और कफ़न के रंग की धोती पहने चला जा रहा है। हाथ में कानून व्यवस्था की तरह डंडा हिलाते हुये। लेकिन डंडा हिलने से कोट और धोती का रंग नहीं बदल रहा था। एक आम आदमी भी कभी-कभी पूरा समाज जैसा दीखता है।

चाय की दुकान पर गाना बज रहा था:

’फ़ूल तुम्हें भेजा है खत में,
फ़ूल नहीं मेरा दिल है।’

बताओ भाई दिल जब खत में भेज दिया तो खून की पम्पिंग कौन करेगा? पुराने जमाने में ऐसा ही था। उन दिनों तो दिल केवल खत में भेजते थे लोग। आज तो हर संदेश में धड़कते हुये, उछलते हुये दिल भेजने की चलन है।
सड़क पर एक सरदार जी काला चश्मा लगाये जा रहे। धूप का चश्मा। धूप निकली नहीं थी अभी लेकिन उसकी अगवानी की तैयारी हो गयी थी।


ट्रेन के इन्तजार में बंद रेलवे फाटक
उधर बायीं तरफ़ सूरज भाई एक आसमान पर अपनी दुकान सजा लिये थे। धकाधक रोशनी, उजाला, किरण, गर्मी सब धड़ल्ले से सप्लाई कर रहे थे। हमको देखा तो बोले फ़ोटो खैंचो न यार मेरी भी। हम खैंचने लगे तो बोले एक मिनट उधर चलकर खैंचो। इसके बाद पास के दो खंभों के बीच मुंडी घुसाकर पोज दिये और बोले अब खींचो। हमने खींचा और हंसते हुये कहा- " जरा सा और सर बड़ा होता तो खम्भा काटकर निकालना पड़ता। यहीं जबलपुर में एक बच्चे की मुंडी घुस गयी थी कुकर में। काटना पड़ा तब निकला।" सुनते ही सूरज भाई खम्भे के बीच से मुंडी निकालकर पेडों के ऊपर चमकने लगे।

मैदान में बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। पास ही एक हैंडपम्प पर कई सारे आदमी-औरत नहा रहे थे। आदमी बदन उघाड़े हर-हर गंगे, नर्मदे हर कर रहे थे। महिलायें कपड़े पहने स्नान कर रहीं थीं। कुछ जो नहा चुकी थीं वे गीले कपड़े की आड़ में सूखे कपड़े पहन रही थीं। बहुत सावधानी से। कहीं कपड़ा बदलते हुये बदन उघड़ न जाये। बुजुर्ग महिलायें कुछ बेफ़िक्री से यही सब कर रही थीं।

रेलवे का फ़ाटक बंद था। देखा कि सिग्नल लाल था। गोया हमारी साइकिल कोई ट्रेन हो जो फ़ाटक पार कर जायेगी अगर सिग्नल लाल हुआ।


स्कूल जाते बच्चे।
फ़ाटक पर एक जीप में कुछ बच्चे बैठे थे। जीप पर ’स्कूल बस’ लिखा था। संसद में यह मुद्दा उठ जाये तो हफ़्तों बहस हो सकती है आराम से, महीनों प्राइम टाइम निकल सकता है इस बाद पर। कोई कहेगा अरे भाई वह बस नहीं जीप है। कोई दूसरा जीप का फ़ोटो लहराते हुये कह सकता है देखिये- ये लिखा है स्कूल बस। जब लिखा है बस तो माननीय सदस्य इसको जीप कहकर सदन को गुमराह क्यों कर रहे हैं।

पीछे बैठे बच्चे से बात करने लगते हैं। पूछते हैं - ’तुम अकेले क्यों पीछे बैठे हो? क्या भगा दिया दीदियों ने?’
बच्चा कहता है- ’नहीं। हम अपने मन से बैठे हैं।’

कक्षा 2 में पढता है बच्चा। क्राइस्टचर्च में। स्कूल साढे सात बजे का। बाकी बच्चे अलग-अलग क्लास में। हम मजे लेने के लिये ऊटपटांग बाते पूछते हैं -’ सब लोग अलग-अलग क्लास में क्यों पढते हो? एक ही क्लास में क्यों नहीं पढते? तुम पांच में क्यों पढती हो? क्या कक्षा दो से भगा दिया तुमको?’

बच्चे हमारी बात पर हंसते हैं। खिलखिलाते हैं। लेकिन छोटा बच्चा हंसने की बजाय मुस्कराता है। उसके एक दांत में केविटी है। थोड़ा सा बदरंग है दांत। हल्का सा टूटा भी है। ’दंत दिव्यांग’ है बालक। उसके घर में, स्कूल में और सब जगह उसको एहसास कराया गया होगा कि उसका एक दांत खराब है तो वह खुलकर हंसने से परहेज करने लगा होगा।

लोग सुन्दरता के अपने मानक गढकर उससे अलग को असुन्दर मानते हैं। उसको एहसास भी कराते हैं। अनजाने में की जाने वाली क्रूरता है यह जो कि समाज के सभ्य होने के साथ बढ़ती जाती है।

हमने बच्चे से कहा -तुम खुलकर हंसा करो यार! हंसता हुआ इंसान हमेशा बहुत खूबसूरत लगता है। इसपर वह मुस्कराया। खूबसूरत, प्यारा लगा।


कामगारों की सुबह की रसोई
बच्ची ने बताया कि उसका स्कूल साढे सात का है। उसकी मम्मी साढे पांच पर उठती हैं। वह साढे छह बजे। फ़िर तैयार होकर स्कूल जाती है।

हमने सोचा जो बच्चियां अभी एक घंटा देर से उठती हैं उसकी भरपाई उनको तब करनी पड़ती है जब वे मम्मी बनती हैं। मर्द अक्सर इस सजा से मुक्त रहते हैं।

बच्चे ने पूछा -आपने हमारी जीप का फ़ोटो क्यों खींचा? हमने बताया ऐसे ही। फ़िर उसका फ़ोटो पूछकर खींचा। दिखाया। वह खुश हुआ। बच्चियों ने भी देखा और देखकर खिलखिलाईं। तब तक फ़ाटक खुल गया और ’स्कूल बस’ चल दी। हम भी चल दिये।

दीपा को देखने गये। कल शाम को गये थे उधर तो उसके पापा ने बताया कि वह कल भी स्कूल नहीं गयी थी। जूते न होने के कारण डांट पड़ती। अनुशासन और सबको एक जैसा बनाने की आड़ में असमानता की शुरुआत स्कूल से ही होती है। जो बच्चे ड्रेस नहीं बनवा पाते वो स्कूल जायें तो डांट खायें। इसी चक्कर में पिछड़ जाते हैं।
जूते के कारण स्कूल न जा पाने की बात सुनकर खराब लगा। ३ दिन से नहीं गयी थी स्कूल। दीपा तो सो गयी थी। फ़िर उसकी फ़ोटो दिखाकर पास ही आधारताल से उसके जूते लाये गये। आज सुबह नाप हुई तो ठीक पाये गये। आज स्कूल जायेगी दीपा।

हमने उससे कहा -’तुम कल सो गयी थी जब हम आये थे।’

वह बोली - ’हम सुन रहे थे आपकी बात। लेकिन नींद बहुत जोर से आती है। नींद में हमको कोई उठा नहीं सकता।’

लौटते में पुल के नीचे ही मजदूरों का किचन चालू था। पास के गांवों से मजूरी करने आये हैं ये सब लोग। गांव में खेती भी है कुछ लोगों की। एक ही गांव के हैं सब। कित्ता समय लगता है गांव से आने में पूछने पर किसी ने बताया पांच घंटा तो कोई बोला 100 रुपया। लकड़ी भी गांव से लाते हैं। उसका अलग किराया नहीं पड़ता।
बीड़ी कान में खुशी थी एक के। हमने कहा- ’बीड़ी बिना गुजारा नहीं होता क्या?’

एक ने कहा- ’ बीड़ी तो हमारी जान है।’

दूसरा मजे लेते हुये बोला- ’बीड़ी जानलेवा है।’

सब हंसने लगे इस डायलाग बाजी पर। फ़ोटो लेकर सबको सबको दिखाया तो सब अपनी- अपनी फ़ोटो देखकर बड़ी जोर-जोर से हंसने लगे। बीच में बीड़ी पीते हुये खाना बनाते आदमी की खूब मौज ली गयी।

हम लौट आये। रास्ते में काले चश्मे वाले सरदार जी फिर दिखे।

मुस्कराइए कि सुबह हो गयी।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10207408457543102

No comments:

Post a Comment