Wednesday, April 27, 2016

शिकायत नहीं करेंगे


आज भी सुबह उठ गये। रोज की तरह। लेकिन टहलने नहीं गये। कई दिन से यही क्रम चल रहा। एक बार सिलसिला टूट जाता है तो जोड़ना मुश्किल हो जाता है। है न !

जब टहलने नहीं गये तो बैठे-बैठे बाहर का नजारा देखते रहे। चिडियां चहचहा रही हैं। शायद कह रही हैं - क्या हो गया इस नामुराद को। बैठा हुआ है सुबह-सुबह । ऐसे जैसे बनारस में शिववाहन जमा हो किसी चौराहे पर। किसी मेज पर फ़ाइल की तरह पड़ा है निठल्ला जिसको निस्तारित करने वाला अफ़सर हफ़्ते भर की छुट्टी पर निकल गया हो। ये नहीं कि जरा बाहर निकले। देखे सुबह के नजारे।

टहलने निकलने की सोचते हैं तो जो दिखेगा पूछेगा-’कहां चले गये थे? दिखे नहीं इत्ते दिन।’ दूसरे की बात छोडिये साइकिल ही उलाहना देगी -’तुम आये इतै न कितै दिन खोये।’ हो सकता है पहियों की हवा निकल जाने का रोना रोये। रोयेगी तो हम भी कह देंगे- ’हवा तो आजकल पूरे देश की निकली हुई है।’ जहां देश की बात की नहीं कि साइकिल की बोलती बंद हो जायेगी।

जैसे कभी बेलबाटम , जीन्स, साधना कट बाल और अन्य तमाम तरह के फ़ैशन का चलन रहा वैसे ही आज किसी भी बात को देश की बात से जोड़ने का फ़ैशन है। अपनी कोई परेशानी किसी ने बताई तो अगला कोई फ़ौरन हड़काने आ जायेगा -’शरम नहीं आती देश की चिन्ता छोड़कर अपना दुख बयान कर रहे हो।’

देश की बात से याद आया कि आजकल सूखा पड़ा हुआ है कई हिस्सों में। पानी नहीं है पीने के लिये लोगों के पास। चिडियों के लिये पानी रखने की बात भी कही जा रही है। पिछले साल हम दो ठो मिट्टी के बरतन मंगाये थे चिडियों के लिये पानी रखने के लिये। कुछ दिन रखे भी पानी। कोई चिडिया आयी नहीं। कुछ दिन बाद बंद कर दिया सिलसिला। आज फ़िर से रखना शुरु किया। शायद कोई प्यासी चोंच आये पानी पीने।

पानी धरकर वापस आये। बिस्तर पर बैठ गये। इस बीच अखबार वाले ने नीचे से अखबार फ़ेंका। दरवाजे की चौखट से टकराया अखबार। न जाने किस खबर का सर फ़ूटा होगा। अखबार में कुछ घपले-घोटालों का जिक्र है। कुछ जालसाजी का। एक खबर कुंभ मेले में सुविधायें न मिलने से नाराज त्रिकाल भवंता द्वारा भू समाधि लेने की धमकी देने से संबंधित है। हम अखबार उठाकर लाते हैं। लेकिन किसी हिस्से में चौखट की चोट के निशान नहीं मिलते।

चौखट की चोट से सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की यह कविता याद आ गयी अनायास-

जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।

मस्तक पर लगी चोट,
मन में उठी कचोट,
अपनी ही भूल पर मैं,
बार-बार पछताया।

जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।

दरवाजे घट गए या
मैं ही बडा हो गया,
दर्द के क्षणों में कुछ
समझ नहीं पाया।

जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।

दरवाजे घट गये से एक संस्मरण याद आया। मेरे मामा स्व. कन्हैयालाल नंदन जी ने कहीं जब धर्मयुग में कई साल काम करने के बाद दिल्ली में पराग के संपादक बनकर आये तो सर्वेश्वर दयाल सक्सेना भी थे स्टाफ़ में। सर्वेश्वर जी नंदन जी से सीनियर थे काम-काज, उमर, अनुभव में। उनको नंदन जी का संपादक बनाया जाना पसंद नहीं आया होगा। नंदन जी ने उनको बुलाया होगा अपने केबिन में तो वे गये नहीं यह कहकर कि संपादक के केबिन का दरवाज मेरे कद से छोटा है। वहां सर झुकाकर जाना मुझे पसंद नहीं है। यह बात जब नंदन जी को पता चली तो उन्होंने चौखट छिलवा दी ताकि सर्वेश्वर जी सर उठाकर अंदर आ सकें। बाद में वे उनके संबंध बहुत अच्छे रहे।

चाय एक कप पीने के बाद फ़िर मन किया और पी जाये। लेकिन सीधे कैसे कहें? सीधे कहने चलन कम होता जा रहा है आजकल। फ़ोन करके कहा - चाय में चीनी ज्यादा डाल देते हो यार तुम। कम चीनी की एक चाय ले आओ। चाय आ गयी। पीते हुये पोस्ट लिख रहे हैं। इसमें भी चीनी कम नहीं है लेकिन अब और पीने का मन नहीं इसलिये

शिकायत नहीं करेंगे।

इत्ती लिख लिया। अब सोचते हैं पोस्ट कर दें। लेकिन फ़िर सोचा कि फ़ोटो भी सटा दें एक। फ़ोटो किसकी लें सोचा। अस्त-व्यस्त मेज की, चाय के कप की, सड़क पार जाते साइकिल सवार की। फ़िर सोचा कि जो पानी धरा चिडियों के लिये उसकी ही ले ली जाये। बाहर जाकर फ़ोटो लिया। अब कोरम पूरा हो गया। पोस्ट कर देते हैं जो होगा देखा जायेगा।

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