Tuesday, July 19, 2016

विकास कई लोगों के लिए 'लतमरुआ' होता है

अधबने सीओडी ओवरब्रिज पर साईकल पर छाते बेंचते अशोक
कल लंच में फैक्ट्री के बाहर निकले। टहलते हुए सीओडी पुल की तरफ गए। पुल आठ साल से अधबना है। बड़ी बात नहीं कि 'इंतजार के साल' दो अंको में पहुँच जाएँ। धीमी गति के 'विकास यज्ञ' में कानपुर की एक विनम्र आहुति।

पुल के छोर पर अशोक मिले। साइकिल पर छाते धरे थे। एक छाता नीचे ईंट के सहारे बंधा था। फ़ड़फ़ड़ा रहा था। किसी जनसेवक की तरह एक पार्टी से दूसरी में जाकर फिर तीसरी में या फिर वापस पहली में आने की तरह हवा के रुख के हिसाब से इधर-उधर हो रहा था।

सुजातगंज में रहने वाले अशोक साईकल पर छाते धरे बेंचते रहते हैं। कुछ देर पहले ही आये थे इधर। तीन छाते निकाल दिए। 120/- का एक। कुछ देर बाद सीओडी जाएंगे। छुट्टी होने वाली है वहां। इसके बाद शाम को फिर यहीं आ जायेंगे छुट्टी के पहले। बीच के समय इधर-उधर भी बेंच लेते हैं।

दो बच्चे हैं। चार-पांच में पढ़ते हैं। बोले -'ससुराल आपकी तरफ ही विजयनगर सब्जीमंडी में है।'

बरसात के बाद छाते की जगह चादर की फेरी लगाते हैं। काम चल जाता है।

दाढ़ी बढ़ी दिखी। पूछा तो बताया -'हफ्ते में एक बार बनवाते हैं। इस बार बनवा नहीं पाये। अब अगली बार बनवायेंगे। खुद बनाते नहीं। बना भी नहीं पाते। कभी कोशिश भी नहीं की।समय भी नहीं मिलता।'

हम सोच रहे थे कि उस देश के क्या हाल होंगे जहां एक फेरी लगाने वाले के दाढ़ी बनाने का समय न हो। लेकिन उसकी प्राथमिकता भी दाढ़ी नहीं छतरी की बिक्री है।

सोच तो यह भी रहे थे कि जब पुल चालू हो जाएगा तब अशोक फेरी कहां लगाएगा। विकास कई लोगों के लिए 'लतमरुआ' होता है।

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, बाहर
बिक्री नहीं हो रही तो आराम ही सही
लौटते में देखा एक ठेले पर काजू, मखाना, छोहारा, किसमिस धरे एक आदमी फैक्ट्री की फेन्स के सहारे बैठा आराम कर रहा था। नाम बताया -'तौलऊ'।

नाम का मतलब पूछा तो बताया कि उनके दो भाई रहे नहीं तो उनके माँ-पिता ने पैदा होते ही उनको 'तौल' दिया। माने बेंच दिया। ताकि ये जिन्दा रह सकें। प्रतीक रूप में ही किया गया। लेकिन बेंचा गया।

पूर्वी उत्तर प्रदेश की में यह चलन सा है।आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की परम्परा के निकले तौलऊ। द्विवेदी जी को भी उनके पैदा होते ही जीवन रक्षा के लिए बेंच दिया गया था।

मेवा के खरीददार यहां कहाँ मिलते हैं पूछने बताया कि-' बैठे हैं। कुछ देर बाद पास के मंदिर में चले जाएंगे। क्या करें और कोई धंधा आता नहीं।'
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, पौधा, भोजन और बाहर
ये पूरी दुकान है मेवा की। हर माल हाजिर।
बोले-'फैक्ट्री में कोई जुगाड़ होता तो बढ़िया नौकरी करते।'

हमने कहा -'मजदूरी तो मिल सकती है। किसी ठेकेदार से मिल लो।'

बोले-'अरे, वो 200 रूपये के लिए 12 घण्टे का खटराग है। इससे बढ़िया तो अपना काम। आराम से अपनी मर्जी से करते हैं।'

मेवा खराब न हो जाए इसलिए बढ़िया धनकर रखते हैं। लेना था नहीं फिर भी दाम पूछ लिए। बड़े मखाना 360 रुपया, छोटे 120 रुपये किलो। छोटे-बड़े में तीन गुने का अंतर।

दो बेटे हैं। बड़ा 9 पास करके आगे पढ़ा नहीं। गाँव चला गया। खेती देखता है। खाने भर का गल्ला मिल जाता है खेती से। छोटा हाईस्कूल में है। पढ़ने में होशियार है। मास्टर को हाथ नहीँ धरने देता। जो पूछते हैं , फट से बता देता है।

लंच खत्म होने का समय हो गया था। हम टहलते हुये वापस चले आये। तौलऊ भी फेन्स के सहारे टिककर आरामफरमा हो गए।

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