Wednesday, August 24, 2016

ख्याल कौन हमारा दिहाड़ी का मजूर है

कल सुबह सड़क पर सरसराते हुये चले जा रहे थे। एकदम सीधे। रोज वही सड़क, वही किनारे, वही चौराहा, वही पेड़, वही कूड़ा, वही नजारे देखते हुये आते-जाते आदमी की जिन्दगी  किसी जिप ( स्लाइड फ़ास्नर)के रनर सरीखी हो जाती है। आये-जाये चाहे जितनी फ़ुर्ती से लेकिन आना-जाना उसी जिप के दांतो के बीच है। आने पर जिप बन्द, जाने पर खुली। बन्द होने-खुलने की ही प्रक्रिया में जिन्दगी बीत जाती है जिप के रनर की। जरा कहीं अगल-बगल, ऊपर नीचे होने की कोशिश की बस बाहर कर दिये गये जिप से।

विनोद श्रीवास्तव इसी बात को इस तरह कहते हैं:

पिंजरे जैसी इस दुनिया में
पंक्षी जैसा ही रहना है
भरपेट मिले दाना-पानी
लेकिन मन ही मन दहना है।

जैसे तुम सोच रहे साथी, वैसे आजाद नही हैं हम।

जरीब चौकी क्रासिंग बंद मिली। मालगाड़ी खरामा-खरामा गुजर रही थी। देश के किसी सुदूर अंचल में आराम-आराम से गुजरते दिन सरीखी। मन किया जब तक खड़े हैं तब-तक डब्बे ही गिन लें मालगाड़ी के। लेकिन जब तक यह ’ख्याल’ आया तब तक कई डब्बे आगे निकल गये थे।

डब्बे आगे निकल गये तो मन किया कि ’ख्याल’ को देरी से आने का नोटिस थमा दें। लेकिन फ़िर सोचा क्या फ़ालतू में टाइम बरबाद करना। ख्याल कौन हमारा दिहाड़ी का मजूर है। सैकड़ों जगह आना-जाना लगा रहता है उसका। कहीं-कहीं तो कभी फ़टकता ही नहीं। लोग फ़टे-पुराने ख्याल से ही काम चलाते रहते हैं जिन्दगी भर। इस बीच कहीं आवाज आई साहब ये ख्याल बहुत सुस्त चाल से आता है। आप ”आइडिया’ ट्राई करो। उसकी सर्विस फ़ास्ट है। हम कुछ करते तब तक क्रासिंग खुल गयी।
जरीब चौकी चौराहे पर ट्रैफ़िक पुलिस का सिपाही ट्रैफ़िक को खींच-खींचकर आगे बढा रहा था। हमारे दायी तरफ़ से आती गाडियों को ऐसे घसीटकर निकाल रहा था जैसे शादी-व्याह में चलने वाले जनरेटर में लपेटी रस्सी खींचकर जनरेटर स्टार्ट किया जाता है।

लेकिन पता नहीं क्या हुआ कल कि उसने हमारी गाड़ी को देखते ही ट्रैफ़िक को रुकने के लिये ’थम’ का इशारा दिया। हमें कुछ समझ में नहीं आया कि ऐसा क्यों हुआ। हमारी 17 साल पुरानी राणा सांगा की तरह अनगिनत घाव खाई गाड़ी के लिये (जिसका बंपर बुडौती में गायब दांत की तरह एक तरफ़ से उख्ड़ा है ) ट्रैफ़िक वाले सिपाही का व्यवहार समझ में नहीं आया मुझे। उस समय जित्ता अच्छा लगा , चौराहा पार करने के बाद उत्ता ही डर भी लगा मुझे। मुझे लगा कि चौराहे की ट्रैफ़िक वाला मुझे पहचान गया है। हमको एक दिन पहले की घटना याद आ गई।

एक दिन पहले इसी चौराहे के पार एक छुटके डम्पर पर जाते एक ड्राइवर को रोककर पुलिस वाले ने ड्राइवर की तरफ़ वाला दरवाजा खुलवाया और खुलते ही उसको थपड़ियाना शुरु कर दिया। ड्राइवर ने भी पिटने में पूरा सहयोग दिया। पीटने वाले हाथ अकेलापन न महसूस न करें इसलिये पिटाई करते हुये पुलिस वाले ने गालियों की संगत भी शुरु कर दी। हम सोचे कि उसके रोकें लेकिन फ़िर यह सोचकर झिझके कि कहीं ड्राइवर की जगह हमको ही न थपड़ियाने लगे। शाम के झुटपुटे में जबतक दिखे कि वह कौन, हम कौन तब तक अपना हाथ साफ़ कर ले हमारे गाल, पीठ पर।

थोड़ी देर में कुछ भीड़ जमा हो गयी और पीटते हुये थके पुलिसवाले ने हाथ रोककर सिर्फ़ गालियों से काम लेना शुरु किया और भीड़समूह को बताया-’ साला दारू पीकर गाड़ी चला रहा है। सलमान खान समझ रखा है खुद को। दस-बीच पर चढा देगा नशे की झोंक में।’ इस तरह ड्राइवर सार्वजनिक पिटाई को सार्थक ठहराते हुये पुलिस देवता हाथ झाड़कर चलते बने। ड्राइवर से ट्रक किनारे लगवाकर आगे का हिसाब-किताब शुरु हुआ होगा बाद में।

अपनी पुलिस इस मामले में न्यायालय की मजबूरी समझती है। जानती है कि न्याय मिलने में बहुत देर हो जाती है न्यायालय से इसलिये किसी भी अपराध  कि सजा घटनास्थल पर ही थमा देती है। दारूबाज को थपडिया दिया, किसी को चोर समझकर निपटा दिया मतलब जैसा बना वैसा न्याय थमा दिया जैसे सड़क चलतेे बच्चों को कुछ उदारमन वाले लोग कम्पट टाफ़ी बांटते रहते हैं।

कभी-कभी जनता का रुख भेी वैज्ञानिक हो जाता है। वह न्यूटन के क्रिया-प्रतिक्रिया लागू कर देती है। जैसा कल कल्याणपुर थाने में हुआ। थाने में कुछ पुलिस वालों ने छुटभैयों की मदद से मासिक वसूली के दौरान कुछ लोगों को थपडिया दिया। इलाके की जनता ने थाने वालों पर न्यूटन का तीसरा नियम लागू कर दिया। दरोगा और सिपाही को पीट दिया। थाने वालों जनता की पिटाई से हासिल हुये ”पलायन वेग’ से थाने से पलायन कर गये। अब 100-200 लोगों  पर मुकदमा हुआ है। न्यायालय की शरण में जायेंगे लोग।

ओह, हम भी कहां फ़ंस गये। चलें वर्ना हम भी कहीं फ़ंसे तो फ़िर देर हो जायेगी ’ख्याल’ की तरह। आप मजे से रहिये।

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