Thursday, September 01, 2016

व्यंग्य के बहाने



कल सुबह व्यंग्य पर कुछ लिखना शुरू किया था। पूरा नहीं हुआ तो सोचा बाद में लिखेंगे। सेव करके छोड़ दिया। दोपहर को लंच में जब समय मिला तो जित्ता लिखा था वो पोस्ट कर दिया। उसके बाद समय ही नहीं मिला। मिला भी तो हमारे रोजनामचे ने झटक लिया। व्यंग्य की बात किनारे धरी रह गयी। अब जब सुबह समय मिला, आधे घण्टे का, तो वो सारे आइडिया फूट लिए जो कल हल्ला मचा रहे थे कि हमारे ऊपर लिखो, हमारे ऊपर लिखो।
आजकल का अधिकांश व्यंग्य शायद इसी अंदाज में लिखा जा रहा है। न भी लिखा जा रहा हो तो हम तो ऐसा ही सोचते हैं। जैसा हम करते हैं वैसा ही तो दूसरों के बारे में सोचेंगे न।
अधिकतर व्यंग्य लेखक नौकरी पेशा वाले हैं, दिन में कब्बी समय मिला तो लिख मारा। कहीं भेज दिया। छप गया तो ठीक। वर्ना कल फिर देखा जाएगा। जो लोग नियमित लिख लेते हैं, छप भी जाते हैं वे वास्तव में 'व्यंग्य ऋषि' हैं। अपनी तपस्या मन लगाकर करते हैं। उनमें से ज्यादातर तप स्या का वरदान भी हासिल करके ही रहते हैं।
आज प्रकाशन के इतने अवसर हैं कि हर शहर में सैकड़ों तो व्यंग्य लिखने वाले होंगे। उनके व्यंग्य संग्रह नहीं आए, अख़बारों में नहीं छपे यह अलग बात होगी। अख़बार, पत्रिकाओं में छपने के लिए नियमित लेखन, नियमित भेजन और काम भर का धैर्य चाहिए होता है। अख़बार में जो भी छापने वाले होते हैं वे नियमित कॉलम वालों के अलावा पलटकर बताते नहीं हैं कि लेख छाप रहे हैं कि नहीं। आखिरी समय तक अपने पत्ते नहीं खोलते कि आपका लेख छापेंगे कि नहीं।
जब सैंकड़ों लोग लिख रहे हों और उनमें से कुछ अच्छा भी लिख रहे हों तो बाद चलने पर व्यंग्य लेखन की बात दो-तीन चार लोगों तक सीमित कर देने वाली बात 'हमारी सूर-सूर, तुलसी-शशि उडगन केशव दास' वाली परम्परा का हिस्सा है।
दो तीन नाम गिनाकर उनको व्यंग्य का पर्याय बताना अपने यहां की 'कुंजी परम्परा' का प्रसार है। इम्तहान में पास होने के लिए किताब पढ़ने की जरूरत नहीँ बस इनको पढ़ लो, पास हो जाओगे। इसीतरह लेखन को भी दो तीन नामों तक सीमित करके बाकी सब को 'उडगन' में शामिल कर दिया जाता है। अब जुगनुओं के नाम तो होते नहीं, सो जिनको सूरज नाम मिल गया उनको ही चमकने वाला बता दिया गया। नया जो आएगा इस दुनिया में वह भी इन्हीं कुंजियों से पढ़ेगा।
मेरी समझ में साहित्य हो या जीवन का कोई भी क्षेत्र हो उसमें कभी अकेले का सम्पूर्ण योगदान नहीँ होता। जो शीर्ष पर है उसके अलावा भी अनगिन लोग उस क्षेत्र में शामिल होते हैं। जिनका जिक्र सरलीकरण और समयाभाव में नहीं हो पाता होगा।
गंगोत्री और अमरकण्टक के उदाहरण से मुझे अक्सर याद आता है। नर्मदा जब अमरकंटक से निकलती है तो बहुत पतली धार होती है, एकदम घर के पानी के नल सरीखी। लेकिन आगे चलकर जब सौंदर्य की नदी बनती है। यह सौंदर्य सामूहिकता का सौंन्दर्य होता है। अमरकंटक से निकली एक पतली धार को सौंदर्य की नदी बनाने में रास्ते में मिलने वाले अनगिनत जलस्रोत सहयोग करते हैं। केवल अमरकंटक के पानी से नर्मदा जीवनदायी नदी नहीं बनती। अनगिनत जलस्रोतों का सहयोग उसमें होता , नाम भले ही केवल अमरकंटक का ही होता हो। बाकी लोगों का नाम लोग जान भी नहीं जानते हैं।
लेकिन दुनिया में संतुलन का सिद्धांत हमेशा काम करता है। जिनका अच्छा काम होता है वह कभी न कभी सामने आता है। खराब काम जो कभी बहुत उछलता कूदता रहता होगा समय उसमें उसमें अपनी पिन चुभाता रहता है।
साहित्य का क्षेत्र भी जीवन से अलग नहीं है। कुछ क्या बहुत कुछ खराब लेखन सामने हल्ला मचाता है और बहुत कुछ अच्छा सामने नहीँ आ पाता। लेकिन कभी-कभी न कभी अच्छे तक लोग पहुँचते ही हैं। समय बहुत बड़ा संतुलनकारी तत्व है।
यह सब बातें बिना किसी तारतम्य के ऐसे ही। किसी और से ज्यादा अपने लिये।
बाकी फिर कभी। लिखें कि नहीं ? 
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10208959048706912

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