Friday, November 04, 2016

हर तरफ मंगतों का हुजूम है

किरन और करन
शाम को जब दफ़्तर से घर लौटने पर अक्सर ही टाटमिल चौराहे पर ट्रैफिक सिग्नल की मेहरबानी से कुछ रुकना होता है। गाड़ी रुकते ही लपककर कोई न कोई गाड़ी पोंछने लगता है। मना करते न करते सामने का शीशा पोंछ डालता है। कुछ न कुछ आशा करता है। कभी-कभी कुछ फुटकर रूपये दे देते हैं। कभी बत्ती हरी होती है तो फूट लेते हैं।

जब पैसे नहीं देते तो लगता है अगले की मजूरी मारकर फूट लिए हैं। कभी मना करते हैं तो कहता है मर्जी हो देना नहीं तो मत देना। मानों उसकी सफाई न हुई जियो का मुफ्तिया सिम हो गया। अब्बी मुफ़्त है। बाद में मन करे तो जारी रखना, न मन करे तो बन्द कर देना।

एक दिन सिग्नल देर में हुआ तो बतियाने भी लगे। भाईसाहब गाड़ी पोंछते जा रहे थे जबाब देते जा रहे थे। बताया कि तीन-चार घण्टे 'सफाई सेवा' प्रदान करके 40-50 रूपये जुटा लेते हैं।कभी कोई देता है कभी नहीं भी देता है (कहते हुए उसने हमारी तरफ देखा)। कभी कोई पांच-दस भी दे देता है। कभी एकाध में टरका देता है। जिसकी जो मर्जी हो देता है , हम ले लेते हैं।

ये तो हुई बात कुछ करके कुछ पाने की आशा रखने वाली बात। दूसरी जमात में वे लोग हैं जो बिना कुछ किये कुछ चाहते हैं। जरीब चौकी क्रासिंग पर ऐसे तमाम बच्चे सक्रिय हैं। क्रासिंग पर गाड़ी रुकते ही खिड़की पर जुट जाते हैं। कुछ लोग कोई फोटो भी पकडे रहते हैं। खासकर शनिवार को एक बाल्टी में लोहे की पत्ती तेल में डुबाये हुए। तेल भी क्या पता तेल होता है या कोई मोबिलऑयल पता नहीं।

भीख मांगने वालों की उपेक्षा करके बचना तो आसान होता है। कभी उनकी फोटो खींचने की कोशिश करते हैं तो भाग जाते हैं। लेकिन अफ़सोस बहुत होता है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी बच्चे पैदा होते ही मांगने के धंधे में उतार दिए जाते हैं। जिस उम्र में किसी स्कूल में होना चाहिए उनको उस आयु में चौराहे पर हथेली फैलाये मिलते हैं।

स्कूल जाने वाले बच्चे भी कभी-कभी यह एहसास कराते हैं कि अभाव और गरीबी हमारे अंदर मांगने की आदत के इंजेक्शन लगाती रहती है।

एक दिन घर से निकलते ही दो बच्चे मिल गए। पता चला पास के स्कूल में पढ़ते हैं। नौ बजे का स्कूल है। आठ बजे तैयार होकर भाई बहन चल दिए स्कूल। भाई करन 4 में पढ़ता है। बहन किरन 2 में शायद। कुछ गिनती पहाड़े पूछते हुए हम आगे बढ़े तो बच्चे ने कुछ पैसे मांगे। हमने पूछा क्या करोगे ? बच्चा बोला - चिज्जी खाएंगे।

यह बात जब तक हुई तब तक हम गाड़ी स्पीड में ले आये थे। बच्चे की मांग में भी , शायद आदत न होने के चलते, थोड़ी हिचक सी थी। कुल मिलाकर हम कुछ दिए बिना आगे बढ़ गए।

यह तो अबोध बच्चे थे। लेकिन आसपास देखते हैं तो लगता है चारो तरफ मांगने वालों का हुजूम हैं। कोई सुविधा मांग रहा है तो कोई रियायत।कोई वोट मांग रहा है तो कोई नोट। कोई अपने लिए जबरियन उपहार मांग रहा है तो कोई आरक्षण। कोई यश और सममान के लिए कटोरा थामें खड़ा है। हर तरफ मंगतों का हुजूम है। हम भी किसी न किसी रूप में इसी जुलूस में कहीं शामिल हैं।

शायद  हम मंगते समाज के रूप में विकसित हो रहे हैं। मांगने वाले बढ़ रहे हैं देने वाले घट रहे हैं। सन्तुलन गड़बड़ाएगा तो बवाल होगा ।

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