Friday, December 29, 2017

झाड़े रहो कलट्टरगंज


और अंतत: किताब तैयार ही हो गयी -झाड़े रहो कलट्टरगंज। इस साल की तीसरी किताब। कल छापाखाना में गई किताब। इसके पहले ’सूरज की मिस्ड कॉल’ और ’आलोक पुराणिक- व्यंग्य का एटीएम’ तैयार हो ही गयी थी। सूरज की मिस्ड कॉल तो छप भी गयी है। छापेखाने से निकल चुकी है। जिन लोगों ने आर्डर की होगी उन तक पहुंचेगी आहिस्ते-आहिस्ते - जाड़े में गुनगुनी धूप की तरह। गुनगुनी धूप से याद आई यह बात:
"तुम्हारी याद
गुनगुनी धूप सी पसरी है
मेरे चारो तरफ़।
कोहरा तुम्हारी अनुपस्थिति की तरह
उदासी सा फ़ैला है।
धीरे-धीरे
धूप फ़ैलती जा रही है
कोहरा छंटता जा रहा है।"
किताब पहुंचने तक धूप एकदम बालिग होकर खूबसूरत हो जायेगी।
अब इस किताब का नाम ’ झाड़े रहो कलट्टरगंज’ रखने के पीछे का कारण भी जान लीजिये:
"किताब का नाम ’झाड़े रहो कलट्टरगंज’ रखा गया। यह नारा कनपुरिया मस्ती का पर्याय है। कभी ’भारत का मैनचेस्टर’ कहलाने वाला शहर कुली-कबाडियों के शहर में बदलते हुये अब देश के सबसे प्रदूषित आधुनिक शहरों में शामिल होने को बेताब है। लेकिन इस सबसे बेपरवाह मस्ती की अंतर्धारा शहर की हवाओं में लगातार बहती रहती है। अपने शहर के इस बेलौस फ़क्कड़ मिजाज से जुड़ने की ललक और लालच के चलते ही इस किताब का नाम - ’झाड़े रहो कलट्टरगंज’ रखा गया। जिस भी पूर्वज ने यह मस्ती भरा नारा इजाद किया हो उसकी याद को नमन करते हुये उसके प्रति आभार व्यक्त करता हूं।"
किताब का कवर पेज Kush ने बनाया है। बहुत कोशिश के बावजूद कवर पेज में कुश साइकिल न घुसा सके। वह फ़िर कभी। बहुत जल्दी ही किसी किताब में आयेगी।
किताब की भूमिका लिखने का काम किया Alok Puranik ने। उन्होंने मौके का फ़ायदा उठाते हुये मौज ले ली अनूप शुक्ल से:
"अनूप शुक्ल बहुआयामी प्रतिभा के धनी हैं। वृतांत लेखन गजब करते हैं, कैमरे के साथ प्रयोग खूब किये हैं। अफसर भी हैं और उसके बावजूद इंसान भी बने हुए हैं। उत्साही और उत्सुक विकट हैं, मंगल ग्रह पर साइकिल से चलेंगे-ऐसा प्रस्ताव कोई उन्हे मजाक में भी दे दे, तो शाम को साइकिल लेकर घर आ जायें कि चलो बता हुई थी ना चलो मंगल की तरफ। ऐसा इंसान व्यंग्य लेखन खूब कर सकता है औऱ जम के कर सकता है। वहां असल में क्या हो रहा है, यह देखने की उत्सुकता-यह व्यंग्यकार को बहुत कच्चा माल दिलाती है। अनूप शुक्ल साइकिल रोककर नदी के किनारे के उस कोने में चले जाते हैं, जहां बालक जुआ खेल रहे होते हैं और एक बालिका बालकों को डपट रही होती है-क्यों बे बड़ा दांव क्यों नहीं लगाते। अनूप शुक्ल किसी रेहड़ी पर फल बेचनेवाले की जिंदगी में पूरा झांकने की सामर्थ्य रखते हैं। मानवीय चरित्र को कई कोणों से परखने में उनकी गहरी रुचि है।"
अपन ने भी फ़ौरन बदला चुकाते हुये किताब का समर्पित कर दी उनको यह लिखते हुये:
"व्यंग्य के अखाड़े के सबसे तगड़े पहलवान
व्यवस्थित आवारा , बहुधंधी फ़ोकसकर्ता
आलोक पुराणिक के लिये
जो हमेशा नित नये प्रयोग करते हुये
यह बताते और जताते रहते हैं कि
सिर्फ काम ही समय की छलनी की पार ले जाता है।"
बाकी जो है किताब में है। किताब मंगाने के लिये इस कड़ी पर पहुंचिये।
1. http://rujhaanpublications.com/pr…/jhaade-raho-kalattarganj/
सूरज की मिस्ड कॉल मंगाने के लिये इधर क्लिकियाइये
आलोक पुराणिक - व्यंग्य का एटीएम पाने के लिये इधर आइये
व्यंग्य का एटीएम और सूरज की मिस्ड कॉल का काम्बो पैक इधर पाइये।
4. http://rujhaanpublications.com/…/combo-offer-suraj-ki-miss…/
सभी किताबें पुस्तक मेले में रुझान प्रकाशन के स्टॉल पर उपलब्ध रहेंगी।

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Thursday, December 28, 2017

ये दुनिया बड़ी तेज चलती है


अंतरिक्ष बहुतों की तरह हमारे लिये भी जिज्ञासा का विषय रहा है। बचपन से अब तक इत्ती बातें पढ़ीं हैं कि बहुत कुछ तो गड्ड-मड्ड हो गयी हैं। कोई बताता है सारी आकाश गंगायें एक-दूसरे से दूर भागी जा रही हैं। भागी जा रहीं हैं। ऐसी-वैसी स्पीड से नहीं प्रकाश की स्पीड से। मतलब तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड! मतलब अपनी राजधानी एक्सप्रेस भी तेज! 
मैं सोचता हूं कब तक भागेंगी ये आकाश गंगायें। काहे को भागी चली जा रही हैं। कहां तक जायेंगी? कभी हांफ़ते हुये सुस्ताने की बात भी करेंगी क्या?
हम तो इस पर कवितागिरी भी कर दिये थे :):
ये दुनिया बड़ी तेज चलती है ,
बस जीने के खातिर मरती है। पता नहीं कहां पहुंचेगी ,
वहां पहुंचकर क्या कर लेगी ।
हमारी औकात देखिये। ससुर छह फ़िटा आदमी ताजिदगी ऐंठा रहता है। हिटलर की तरह गरदन अकड़ाये! साठ-सत्तर साल में गो-वेन्ट-गान हो लेता है। बड़े उछल के कहते हैं इत्ती स्पीड से गाड़ियां चलती हैं। ये है वो है! ये तीर मार लिया वो जलवे दिखा दिये। ये झगड़े निपटा दिये वो बलवे करा दिये!
मतलब हमका अईसा वईसा न समझो हम बड़े काम की चीज!
तुलना करिये जरा! सबसे पास जो तारा है सूरजजी के बाद वाला उस तक पहुंचने में प्रकाश को चार साल से ज्यादा लगते हैं। तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड के हिसाब से लगातार चार साल से ज्यादा चलो तब पहुंचो उसके द्वारे।
सूरज अपना माल ऊर्जा जो फ़्री में सप्लाई करते हैं उसको हम तक पहुंचने में आठ मिनट लग जाते हैं। लोग कहते हैं अगर हम अपने पास उपलब्ध सबसे तेज साधन से भी चलें तो भी पहुंचने में पचास-साठ पीढ़ियां निपट लेंगी। अब अगर वहां जाने की बात करी जाये जहां से हम तक प्रकाश पहुंचने में हज्जारों साल लेता है तो कित्ते साल में पहुंचेंगे। सोचते हैं और बस सोचते ही रह जाते हैं। सोचने में कुछ पल्ले से जाता नहीं है न! 
उधर दूसरे बयान भी हैं! हनुमान जी सूरज को मधुर फ़ल जान कर लील जाते हैं! लक्ष्मण कहते हैं अगर राम जी आज्ञा दें तो इस ससुरे ब्रम्हाण्ड को गेंद की तरह उठाकर कच्चे घड़े की तरह फ़ोड़ दूं:
जौ राउर अनुशासन पाऊं। कंदुक इव ब्रम्हाण्ड उठाऊं॥
कांचे घट जिमि डारौं फ़ोरी। सकऊं मेरू मूलक जिमि तोरी॥
इसी बहाने हमें आज फ़िर लगा कि जब आदमी गुस्सा होता है तो तर्क उसके पास से विदा हो लेता है। अब बताओ दुनिया को उठाओगे गेंद की तरह और फोड़ोगे घड़े की तरह! दूसरी बात कि जब आप खुद ब्रम्हाण्ड में मौजूद हैं तो उसे उठायेंगे कैसे! हो सकता कि प्रभु भक्तों के पास कोई भक्तिपूर्ण तर्क हो इस बात का। लेकिन सहज बुद्धि की बात है अपनी सो कह गये। भक्तगण क्षमा करेंगे। 
लोग कहते हैं कि अगर आदमी की गति प्रकाश की गति से तेज हो तो वह अतीत में जा सकता है। अतीत की घटनाओं को नियंत्रित कर सकता है। गणितीय सूत्रों से भी यह बात तय पायी गई। लेकिन वैज्ञानिको ने शायद इसे सहज बुद्धि के तराजू पर तौल कर खारिज कर दिया। उनका कहना है कि अगर ऐसा होगा तो कोई अतीत में जाकर अपने मां-बाप का टेटुआ दबा देगा। फ़िर उसकी पैदाइश डाउटफ़ुल हो जायेगी।
क्या बतायें बहुत उलझ से गये दुनिया के बारे में सोचते-सोचते। कहते हैं लोग कि ब्रम्हाण्ड में हर क्षण हजारों तारे जन्म ले रहे हैं, हजारों मर रहे हैं। एक दूसरे से दूर भाग रहे हैं! नजदीक भी आ रहे हैं। कृष्णजी तो सब कुछ अपने मुंह में दिखा दिये थे अर्जुन को। बेचारे इत्ता डर गये कि मरने-मारने पर उतारू हो गये।
न जाने कित्ती बड़ी है दुनिया। अभी तो हमारे और हमारी फ़ैक्ट्री तक सीमित है! जा रहे हैं अपनी दुनिया में! 

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Sunday, December 24, 2017

नानी की दुकान


भोपाल की सुबह बड़े तालाब के किनारे टहलते हुए बीती। लौटते हुए नानी की दुकान पर चाय पी गयी। पोहा खाया गया।
दो महीने हुए नानी को अपनी दुकान लगाए। इसके पहले एक हॉस्टल में बच्चों के लिए खाने-पीने का इंतजाम देखती थी। इंजीनियर बच्चे पहले साल सीधे होते हैं, दूसरे साल में शरारतें सीख जाते हैं। इसीलिए तीसरे साल के बच्चों को हॉस्टल में नहीं रखती थीं।
नानी की दुकान नाम नातिन , रोशनी के, कहने पर रखा गया।
हौसला गजब का। हाईस्कूल तक पढ़ीं हैं नानी लेकिन भाषा पर चकाचक अधिकार। पति 28 साल पहले नहीं रहे।
पोहा और चाय चकाचक। दोनों के दाम पांच रुपये। हमने कहा- 'हमारी तरफ से आप भी चाय पियो, पोहा खाइए।' उन्होंने चाय तो पी लेकिन पोहा बोलीं -अभी खाएंगे।
सुबह पोहा, फिर समोसा, फिर पूड़ी-सब्जी और दीगर नाश्ते की व्यवस्था। घर परिवार की तमाम बातें साझा हुईं। बताया की उनका नाम कांता शुक्ला है।
सामने ही नानी की नातिन रोशनी धूप में अखबार बांच रही थी। हमने पूछा - "नानी को कुछ सहयोग करती हो? " वह बोली -"गल्ला काटते हैं।" गल्ला काटना मतलब काउंटर पर बैठना।
नानी के देवर बड़े लेखक हैं। कोई व्यास जी। नानी कोई और काम भी करना चाहती हैं। आगे बढ़ना चाहती हैं।
नानी की चाय पीकर और उनके हौसले की तारीफ करते हुए हम वापस लौटे।

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भोपाल में प्रवासी मजदूर




सवेरे जब आगे चले से तो देखा एक भाई जी तालाब की मुंडेर पर बैठे दातुन कर रहे थे। पता किया तो मालूम हुआ कि भाई जी बैतूल के एक गांव के रहने वाले हैं । भोपाल काम के सिलसिले में आए थे । यहीं पर रोज मेहनत मजदूरी करके गुजारा करते हैं। पास में केवल एक झोले में कुछ कपड़े थे।
हमने पूछा कैसे गुजारा होता है? रात कहां सोते हैं ? तो सामने के पार्क की तरफ इशारा करके बोले वहीं सो जाते हैं। मजदूरी कभी मिलती है , कभी नहीं मिलती। बैतूल के गांव में पूरा परिवार है। यहां भोपाल में कमाई के लिए आए हैं ।
उनसे बात करके हम आगे ही पड़े थे कि देखा एक भाई जी शीशे में चेहरा देखते हुए बाल काढ़ रहे थे। तल्लीनता से। हमको देखकर थोड़ा ठिठके। लेकिन फिर बाल संवारने में जुट गए। उनको देखकर भी यही लगा वे भी आसपास के किसी इलाके से यहां रोजी-रोटी के चक्कर में आये हैं।
इन दोनों लोगों को देखकर एहसास हुआ कि जिंदगी के कितने रूप हैं। किसी के लिए सुगम, सुखद, सुहानी और किसी के लिए कठिन, जटिल और चुनौती भरी।

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Saturday, December 23, 2017

अपन सही तो सब सही



भोपाल स्टेशन गाड़ी पहुंची डेढ़ बजे। मल्लब केवल 4 घण्टे लेट। स्टेशन पर ही चाय पी। घर के बाद की पहली ठीक चाय। इसके पहले कानपुर , झांसी में पी लेकिन वह स्टेशन की चाय की तरह ही थी। फ़ीकी, बेस्वाद, ठण्डी।



हमने जुमला भी सोच लिया था -'अपने देश की स्टेशन की चाय और जनसेवक कभी सुधर नहीं सकते। ' लेकिन फिर लिखा नहीं। सच क्या लिखें बार-बार बेफालतू में।
स्टेशन पर चाय की दुकान पर एक आदमी चाय वाले से बतिया रहा था। किसी बात पर बोला -'किसी भोपाली की बात पर भरोसा नहीं करना चाहिए। '
हमने उसकी इस बात पर भरोसा करते हुए पूछा - 'फिर जो पता और रास्ता बताया उस पर भरोसा करें कि नहीं?' वह हंसने लगा।
बाहर रसीद मियां मिले। ऑटो वाले। बोले 180 रुपये लेंगे। हमने ओला चेक किया । किराया बताइस 185 रुपया । हम बैठ गए ऑटो में। बतियाते हुए आये। आने के पहले। स्टेशन पर ही सचिन भाई से 500 के फुटकर ले लिए रसीद भाई ने।
27 साल से ऑटो चला रहे हैं रसीद। रात को निकालते हैं ऑटो। 150 रूपया किराया। तीन -चार सवारी मिल गई तो काम हो गया। दिन में सोते हैं। हमारे रूप में पहली सवारी मिली रात 2 बजे।
'अपन सही तो सब सही' मानने वाले रसीद के खुद के ऑटो थे। 3-4रखे। फिर बेंच दिये। कौन कागद के झंझट में पड़े। किराए वाले में 150 रुपये दिए। चलाया। खड़ा कर दिया।
दोनों बेटे काम करते हैं रसीद के। एक कपड़ा मिल में, दूसरा दर्जी है। बेटी 12 वीं में पढ़ती है। कोई नशा नहीं। दाल-रोटी मजे में चल जाती है।
जरा देर में ही आ गए गेस्ट हाउस। रात में चाय बनवाई । मजे से पीते हुए फेसबुकिया स्टेटस बांचते रहे। देखा कि आलोक बाबू ट्रेन से पिछली पोस्ट को लाइक करते पाये गए। वो भी आ रहे हैं भोपाल। पहला ज्ञान चतुर्वेदी सम्मान समारोह है कल। कैलाश मन्डलेकर जी को मिलना है।
इस सम्मान की मूल भावना से असहमत रहे अपन। इस बारे में विस्तार से लिख भी चुके। लेकिन जब हो रहा है तो आ ही गए भोपाल। अब ज्यादा कुछ लिखेंगे तो सुशील जी अनफ्रेंड और ब्लाक कर देंगे। वे थानवी जी के बाद दूसरे नम्बर के 'ब्लाक प्रमुख' हैं।खैर पहुंच गए मौका-ए-वारदात पर। इसी बहाने तमाम दोस्त लोगों से मिलना होगा।
इस सम्मान के बहाने कैलाश मन्डलेकर जी से परिचय हुआ। बढिया लिखते हैं।
इनाम शुरू हुआ भोपाल के ज्ञानजी के नाम पर। घोषणा की दिल्ली के सुशील सिद्धार्थ जी ने। इंतजाम का जिम्मा ठेल दिया भोपाल के लोगों पर।संयोजक सुशील जी ट्रेन में मजे से सो रहे होंगे। बेचारे भोपाल वाले आने वालों की ट्रेन की आवाजाही देख रहे हैं। हमको भी शांतिलाल जी के कई संदेशे दे चुके। अपन आ गए। मजे में हैं ।
अब फिलहाल इतना ही। बाकी की खबर सुबह।

Thursday, December 21, 2017

झाड़े रहो कलट्टरगंज - नया हास्य-व्यंग्य संग्रह

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 5 लोग
पिछले इतवार को लैपटॉप लेकर बैठे तो पिछले चार-पांच साल में लिखे गये हास्य-व्यंग्य लेख उछल-उछलकर हल्ला मचाने लगे कि हमको किताब में कब जगह मिलेगी, हम कब विमोचित होंगे? हम कब पुस्तक मेले जायेंगे?
हमने पहले तो डपट दिया - क्या जनसेवकों की तरह हरकतें करते हो जिनको जनसेवा के लिये सांसद/विधायक/मंत्रीपद ही चाहिये।
लेकिन फ़िर लगा कि लेखों की मांग इत्ती नाजायज भी नहीं। लेखों का मन लेखकों जैसा ही तो होगा। लेखक का मन होता है उसके लिखे की किताब आये तो लेखों का भी सहज मन होता है कि वे किताब में आयें।
खैर फ़िर बईठ के छांटे लेख और किताब की पांडुलिपि बनाकर भेज दी, अपनी बात और समर्पण सहित अपने मेहनती प्रकाशक Kush Vaishnav के पास। भूमिका के लिये अपने व्यंग्य बाबा Alok Puranik को पकड़ा और याद दिलाया कि मंडी हाउस में इस बार चाय के पैसे हमने दिये थे। भाई साहब ने फ़ौरन भूमिका लिख भेजी। मजे लेते हुये अनूप शुक्ल के। देखिये क्या लिखते हैं वे :
"अनूप शुक्ल बहुआयामी प्रतिभा के धनी हैं। वृतांत लेखन गजब करते हैं, कैमरे के साथ प्रयोग खूब किये हैं। अफसर भी हैं और उसके बावजूद इंसान भी बने हुए हैं। उत्साही और उत्सुक विकट हैं, मंगल ग्रह पर साइकिल से चलेंगे-ऐसा प्रस्ताव कोई उन्हे मजाक में भी दे दे, तो शाम को साइकिल लेकर घर आ जायें कि चलो बता हुई थी ना चलो मंगल की तरफ। ऐसा इंसान व्यंग्य लेखन खूब कर सकता है औऱ जम के कर सकता है। वहां असल में क्या हो रहा है, यह देखने की उत्सुकता-यह व्यंग्यकार को बहुत कच्चा माल दिलाती है। अनूप शुक्ल साइकिल रोककर नदी के किनारे के उस कोने में चले जाते हैं, जहां बालक जुआ खेल रहे होते हैं और एक बालिका बालकों को डपट रही होती है-क्यों बे बड़ा दांव क्यों नहीं लगाते। अनूप शुक्ल किसी रेहड़ी पर फल बेचनेवाले की जिंदगी में पूरा झांकने की सामर्थ्य रखते हैं। मानवीय चरित्र को कई कोणों से परखने में उनकी गहरी रुचि है।"
जब इत्ता सब हो गया तो फ़िर किताब आ ही जानी चाहिये न ! इतवार की शाम को शुरु हुई किताब का कवर पेज भी कुश ने वुधवार को बना दिया। फ़िर क्या बन गई किताब - झाड़े रहो कलट्टरगंज !
’झाड़े रहो कलट्टरगंज’ लिखा तो बोला हम किताब का शीर्षक बनेंगे। हम बोले बन जाओ। कौन रोकता है भईया तुमको। तो भाई किताब का शीर्षक भी तय भी हो गया - झाड़े रहो कलट्टरगंज !
तो इसी बहाने लेखक की पांचवी किताब और इस साल इस महीने की भी छपने वाली तीसरी किताब फ़ाइनल हो गयी - झाड़े रहो कलट्टरगंज।
बधाई -सधाई दीजिये वो तो ठीक है लेकिन यह भी बताइये कि कवर पेज कैसा है?

Tuesday, December 19, 2017

चुनाव के बाद वोटिंग मशीन


1. गुंडा जब अपने दीन-धरम छोड़ देता है तो नेता हो जाता है।
2. जिन महिलाओं से छेड़छाड़ होती है उसके जिम्मे सफ़ाई देने का ही काम बचता है।
3. गुंडों के बीच फ़ंसना तो नेताओंं के बीच फ़ंसने से सौ गुना बेहतर है!
4. नेताओं से ज्यादा उनके पिछलग्गुओं से डर लगता है।
चुनाव के बाद वोटिंग मशीने सुस्ता रहीं थी। आपस में अपने-अपने किस्से सुना रही थीं। लोगों ने कैसे उनका उपयोग किया। कैसे वोट डाला। कैसे दबाया। कैसे सहलाया। आइये सुनाते हैं कुछ उनकी गप्पागाथा:
ईवीएम 1: एक वोटर ने तो इत्ती जोर से बटन दबाया कि अभी तक दर्द कर रहा है। लगता है अगले चुनाव में चल न पायेंगे हम।
ईवीएम 2: याद आ रही है क्या उस वोटर की?
ईवीएम 3: अरे उसकी याद की कड़ाही में तू काहे अपनी जलेबी छान रही है? तुमको किसी की याद नहीं आती तो क्या किसी को नहीं आयेगी? क्यों री दर्द कैसा हो रहा है मीठा कि खट्टा?
ईवीएम 1: भक्क उस तरह वाला दर्द थोड़ी हो रहा। तुम तो सबको अपनी तरह समझ लेती हो। सबके भाग्य में वो मीठा-खट्टा दर्द कहां?
इस गप्पाष्टक को एक बुढिया ईवीएम मशीन दूर से सुन रही थी। अंजर-पंजर ढीले होने के चलते उसको चुनाव में ले नहीं जाया गया था। ऊंचा सुनती थी । इसीलिये दूर की बातों पर कान लगे रहते थे।
बुजुर्गा ईवीएम आवाज में बोली- ’सुना है तुम लोगों से कुछ छेड़छाड़ हुई वहां चुनाव में। तुम लोग भी छेड़छाड़ में इत्ती बेसुध हुई कि वोट दिये किसी और को गये पर तुमने गिनाये किसी और के नाम।’
छेड़छाड़ के नाम से ईवीएम मशीने एकदम प्याज-टमाटर की तरह लाल हो गयीं। (बुजुर्ग और सांवली मशीने प्याज की तरह, युवा और गोरी टमाटर की तरह) लेकिन उनको लगा कि लाल होने से काम नहीं चलेगा तो सफ़ाई देने लगीं। वैसे भी जिन महिलाओं से छेड़छाड़ होती है उसके जिम्मे सफ़ाई देने का ही काम बचता है।
वे बोलीं-- ’हम लोग कोई ऐसी-वैसी मशीन थोड़ी हैं। हमको कौन छेड़ेगा। हम कोई खूबसूरत टाइप मशीन भी नहीं जो हमको कोई छेड़े। खूबसूरत होती तो कोई हीरो-हीरोइन हमारा विज्ञापन करता। भले घर की लड़कियों की तरह हम चुनाव आयोग के गोदाम से सीधे पोलिंग बूथ जाते हैं वहां से सीधे वापस आ जाते हैं। कहीं इधर-उधर ताकते तक नहीं। झांकने की तो बात ही छोड़ दो। ’
सफ़ाई से बुजुर्ग ईवीएम मशीन और उत्साहित हो गयी। बोली-’ लेकिन जब हवा उड़ी है तो कुछ तो बात हुई ही होगी कि छेड़छाड़ का हल्ला है। हमने भी चुनाव करवाये हैं। हमको भी लोगों ने दबाया है। इधर-उधर थपथपाया है। किसी-किसी ने तो पटका भी है। खटखटाकर भी वोट डाला है लेकिन मजाल है जो आजतक किसी ने छेड़छाड़ की हो। तुम लोगों ने जरूर कुछ ऐसा किया होगा जो छेड़छाड़ की खबर फ़ैली। लाख समझाओ लेकिन तुम लोग मनमानी से बाज कहां आते हो। ये नयी हवा का असर है।’ बुढिया ईवीएम बड़बड़ाते हुये खांसने लगी।
फ़िर तो सब ईवीएम मशीने छेड़छाड़ का आरोप लगाने पर फ़िरंट हो गयीं। पता लगा कि मशीनों से छेड़छाड़ का आरोप लगाने वाले वही लोग थे जो हार भी गये थे। उनको इस बात से तसल्ली हुई कि जीते हुये लोगों ने उन पर छेड़छाड़ का आरोप नहीं लगाया।
फ़िर तो ईवीएम मशीनों के सुर बदल गये। वे ठिठोली करते हुये बतियाने लगीं।
बकने दो हरंटो को। सरकार तो हमारे समर्थन में होगी।
तब क्या एक ने नारा लगाया:
"जिसके साथ खड़ी हो सरकार
उसको कौन बात का डर यार।"
जिसने हम पर छेड़खानी की बात कही उसको अगले चुनाव में टिकट न मिले।
अरे नहीं री। टिकट तो मिले लेकिन टिकट के दाम दोगुने हो जायें।
और टिकट जिस इलाके से मिलें उस इलाके में उसको कोई जानता न हो।
फ़िर तो वो जीत जायेगा बे। लोग उसकी करतूतें जानेंगे नहीं तो भला समझ कर जिता देंगे।
दिन भर इसी गपड़चौथ में जुटी एवीएम मशीनों ने शाम को महसूस किया कि वे तो अपनी छेड़छाड़ के ही किस्से में जुटी रहीं।
एक बोली- ’इस चुनाव में हम ईवीएम के हाल तो रजिया की तरह हो गये तो जो नेताओं के चक्कर में फ़ंस गयी हो।’
अबे रजिया तो गुंडों के बीच फ़ंसी थी। -दूसरी ने सुधारने की कोशिश की।
हां यार। रजिया की किस्मत अच्छी थी जो गुंडों के बीच फ़ंसी थी। हमारे ही करम फ़ूटे हैं जो नेताओं के बीच फ़ंस गये।- तीसरी न कहा।
ये क्या आंय-बांय-सांय बक रही है तू। क्या चुनाव सभा में भाषण दे रही है। गुंडों के बीच फ़ंसना अच्छी किस्मत है? - चौथी ने हड़काया।
गुंडों के बीच फ़ंसना तो नेताओंं के बीच फ़ंसने से सौ गुना बेहतर है यार- दूसरी ने समझाया।
कैसे ? -कईयों ने एक साथ पूंछा।
गुंडों का कुछ तो दीन-धरम होता है। गुंडा जब अपने दीन-धरम छोड़ देता है तो नेता हो जाता है।’- दूसरी ने अनुभवामृत बांटा।
सही कह रही है तू। लेकिन इस बात को बाहर किसी से कहना नहीं वर्ना लोग जीना दूभर कर देंगे। अभी छेड़छाड़ की बात कही फ़िर न जाने क्या गत करायें हमारी। नेताओं का कोई भरोसा नहीं आजकल।
हमको तो नेताओं से ज्यादा उनके पिछलग्गुओं से डर लगता है।
न जाने कौन जनम के पाप थे तो हम ईवीएम मशीन बने। एक ईवीम मशीन ने अपना मत्था ठोंकते हुये कहा।
एक भक्तिन टाइप ईवीएम मशीन रामचरित मानस की चौपाइयां बांचने लगी:
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा
जो जस करै तो तस फ़ल चाखा।
दूसरी पैरोडीबाजी करने लगी:
कोऊ नृप होय हमें का हानी
ईवीएम छोड़ न होइहैं रानी।
हम ईवीएम मशीनों को उनके हाल पर छोड़कर चले आये। कर भी क्या सकते थे?

Friday, December 08, 2017

सड़क पर जाम, एक नया झाम


समय के साथ तमाम परिभाषायें बदल जाती हैं।
पहले दूरी का मात्रक मील/किलोमीटर हुआ करता था। फ़िर घंटे/दिन हुआ। किदवई नगर से स्टेशन आधा घंटा की दूरी पर है। चमनगंज से फ़जलगंज एक घंटा। भन्नाना पुरवा से माल रोड पौन घंटा।
इधर जाम ने दूरी के सारे मात्रकों का हुलिया बिगाड़ के धर दिया है। हर मात्रक में जाम का हिस्सा शामिल हो गया है। अगर जाम नहीं मिला तो आधा घंटा। अगर जाम मिल गया तो खुदा मालिक। जाम ने दुनिया की सारी दूरियां बराबर कर दी हैं। आप हो सकता है कि लखनऊ से लंदन जित्ते समय में पहुंच जायें उत्ते समय में( जाम कृपा से) लखनऊ से कानपुर न पहुंच सकें। शहरों में रहने वाले लोग जाम से उसी तरह डरते हैं जिस तरह शोले फ़िल्म में गांव वाले गब्बर सिंह से डरते थे। शहरातियों की जिंदगी में ट्रैफ़िक-जाम उसी तरह् घुलमिल गया है जिस तरह नौकरशाही में भ्रष्टाचार।
जाम की खूबसूरती यह है कि यह हर गाड़ी को समान भाव से अटकाता है। मारुति 800 और हीरो हांडा में यह कोई भेदभाव नहीं करता। खड़खड़े और टेम्पो को बराबर महत्व देता है। टाटा का ट्रक और बजाज की मोटरसाइकिल इसको समान रूप से प्रिय हैं। यह सबको समान भाव से अपने प्रेमपास में लपेटता है। जाम के ऊपर कोई यह आरोप नहीं लगा कि उसने कोई गाड़ी घूस लेकर निकाल दी।
जाम का दर्शन दिव्य है। जाम में फ़ंसा हुआ आदमी कोलम्बस हो जाता है। वह दायें-बांये,आगे-पीछे, अगल-बगल से होकर जाम से निकल भागना चाहता है। जाम में फ़ंसा हुआ हर व्यक्ति मुक्ति का अमेरिका पाना चाहता है। लेकिन जाम उसे और फ़ंसा देता है। वापस भारत में पटक देता है। हर गलत साइड से निकलता आदमी दूसरे को रांग साइड चलने के टोंकता है। हर चालक आपसे जरा सा साइड देने की बात करता है।
कुछ गीत अगर आज के समय में दुबारा लिखे जाते तो उनमें जाम जरूर शामिल होता:
हम तुम्हे चाहते हैं ऐसे, मरने वाला कोई जिंदगी चाहता हो जैसे
अगर आज लिखा तो शायद लिखा जाता तो शायद इस तरह बनता-
हम तुम्हें चाहते हैं ऐसे, जाम में फ़ंसा कोई उससे निकलना चाहता हो जैसे मरने का अनुभव हरेक को नहीं होता। लेकिन जाम के अनुभव की बात से यह गाना ज्यादा अपीलिंग होता। ज्यादा लोगों तक पहुंचता।
सडकों में जाम लगने के कारण मांग और आपूर्ति वाले घराने के हैं। गाड़ियां ज्यादा सड़कें कम। ज्यादा समय नहीं लगेगा जब शहरों में गाड़ियों का कुल क्षेत्रफ़ल शायद शहरों की सड़कों के क्षेत्रफ़ल से आगे निकल जाये। सड़कें का कुल क्षेत्रफ़ल कम गाड़ियों का ज्यादा। आज भी गाड़ी बेचने वाली कंपनिया तमाम तरह के आफ़र दे रही हैं। कल को शायद वे गाड़ी बेंचने के लिये गाड़ी के साथ एकाध किलोमीटर सड़क भी उपहार में दें। गाड़ी के साथ शहर से साठ किलोमीटर दूर एक किलोमीटर की सड़क आपकी गाड़ी के लिये मुफ़्त में। आप कभी भी वहां ले जाकर अपनी गाड़ी चला सकते हैं। पहली बार गाड़ी ले जाने की व्यवस्था कंपनी की तरफ़ से की जायेगी। इसके बाद आपको खुद ले जानी होगी।
इस समस्या से निपटने के लिये तमाम व्यवहारिक/तकनीकी उपाय भी सोचें जायेंगे। जाम का आने वाले समय में क्या प्रभाव हो सकता है देखिये तो सही:
1. सड़कों पर गाड़ी रखने की जगह कम होने के चलते गड़ियां इस तरह की बनने लगेंगी कि उनको चारपाई की तरह खड़ा करके धर दिया जायेगा।
2. घर आकर जैसे कपड़े खूंटियों पर टांग दिये जाते हैं वैसे ही गाड़ियों को भी दीवारों पर टांगने की व्यवस्था होने लगे।
3. गाड़ियों के फ़ौरन खोलने की व्यवस्था होने लगे। जो हिस्सा अटका जाम में उसको लपेट के अंदर कर लिया और निकल गये।
4. गाडियों को तहाकर होल्डाल की तरह लपेट सकने का जुगाड़ होने लगे गाड़ियों में।
5. गाड़ियां इत्ती हल्की बनने लगें कि चारपाई की तरह उसको सर पर उठाकर जाम के झाम से निकल जाने का जुगाड़ हो।
6.हर गाड़ी अपने साथ एकाध किलोमीटर फ़ोल्डिंग सड़क लेकर चले शायद। जहां फ़ंसे अपनी गाड़ी से सड़क निकाली, बिछायी और फ़ुर्र से निकल लिये।
घर से निकलने से पहले ज्योतिषियों की सेवायें लेने लगें लोग! ज्योतिषी लोग आपके गंतव्य और गाड़ी की कुंडली मिलाकर देखें और बतायें कि कित्ते गुण मिलते हैं। जिस मामले में गुण कम मिलें उस तरफ़ आप न जायें। जिधर मिल जायें उधर निकल लें। क्या पता कल को जाम के कारण हमेशा ठिकाने से दूर रह जाने वाली गाड़ियों के लिये कालसर्प योग पूजा की व्यवस्था भी हो जाये।
लोग जाम के चलते रात-विरात यात्रा करने लगें। फ़िर सूनसान अंधेरे में होने वाले अपराध कम हो जायेंगे। लोग शायद सलाह देने लगें- दिन के उजाले में चलने की क्या जरूरत। रात को निकलना चाहिये जब सड़कों पर खूब गाड़ियां चलती हैं।
शहरों में सड़क के लिये जगह कम होने के कारण गाड़ियों के चलने के लिये गांवों में सड़क बनाई जायें। इससे गांवों का मजबूरी में विकास होने लगे।
शहरों की सड़कों पर जाम के चलते देहात से शहर आने वालों का पलायन रुक जायेगा। लोग कहेंगे कि जब शहर में जाकर जाम में ही फ़ंसना है तो अपना गांव क्या बुरा है। यहां भी तो अब जाम की व्यवस्था करा दी है सरकार ने।
हो सकता है आने वाले समय में शहर में लगने वाला जाम शहर की समृद्धि का पैमाना बन जाये। औसत पांच घंटे वाले जाम को औसत तीन घंटे जाम वाले शहर से ज्यादा समृद्ध माना जाये ।
इन उपायों को देखकर आपको अंदाजा लग गया होगा कि हम जाम की समस्या से कित्ता हलकान हैं।
लेकिन यह पोस्ट करने समय हम यह भी सोच रहे हैं कि कोई मंहगाई/भूख से पटकनी खाया इंसान अगर इसे देखेगा तो शायद कहे, ” ससुर के नाती -जाम की समस्या तो बढ़ती गाड़ियों के चलते हुयी जो कि दो सदी पहले से बनना शुरू हुई। लेकिन आदमी तो न जाने कब से बनना शुरु हुआ था इस दुनिया में। उसके पेट में भूख का जाम तो सदियों से लगा हुआ है। भूख से मरता आदमी कब तुम्हारी चिंता के दायरे में आयेगा?”
हमें कौनौ जबाब नहीं सूझता सिवाय इसे पोस्ट करके फ़ूट लेने के! 

Sunday, December 03, 2017

एक गुनगुनी सुबह


चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, बाहर
गंगा स्नान करके लौटती महिला

सुबह टहलने निकले। सुलभ शौचालय दिखा। कुछ लोग अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। एक आदमी अखबार पढ़ रहा था। शायद दबाब बना रहा हो। पता नहीं किस खबर को पढ़ते ही प्रेसर बन जाये। अलग-अलग रुझान वाले लोगों को अलग-अलग ख़बरों से प्रेशर बनते होंगे।

आजकल स्वच्छता अभियान पर जोर है। खुले में शौच की खिल्ली उड़ाते हुए उसके खिलाफ हवा बनाई जा रही है। गांवों में शौचालय बन रहे हैं। भले ही उनमें सामान रखा जा रहा हो। लेकिन बन रहे हैं तो उनका उपयोग भी होने लगेगा कभी।
सुलभ शौचालय के बाहर अखबार पढ़ते देख आइडिया आया कि खुले में शौच रोकने के लिए खूब सारे शौचालय बनाये जाएं। उनकी सुविधाएं बढ़ाई जाएं। अखबार के साथ इंटरनेट भी मुहैया करवाये जाएं। और भी हेन-तेन। इतना कि लोग घर के ट्वायलेट छोड़कर 'शौचालय मॉल' में आने लगे निपटान के लिए।
सरकार को यह सब करने में बहुत समय लगेगा। प्राइवेट सेक्टर को सौंप दिया जाए यह काम। तमाम निजी इंजीनियरिंग कॉलेज बेकार हो रहे। लड़के आ नहीं रहे भर्ती होने। वे सब बदल दिए जाएं बड़े शौचालयों में। पैसा वसूल हो जाएगा। शिक्षा अभियान को स्वच्छता अभियान में बदल दिया जाए।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: भोजन और बाहर
मंदिर के बाहर भक्त, फूल की दुकान और भिखारियों का कम्बो पैकेज
यह फालतू की सोच लिए-लिए हम आगे बढ़े। देखा एक महिला तेज-तेज चलती हुई जा रही थी। हाथ में लुटिया में पानी। बहुत मन लगाकर चल रही थी। आगे निकलकर हम साईकल स्टैंड पर खड़ी करके फोटो लिए। पूछकर। फ़ोटो खिंचाने से पहले उसने पल्लू सर पर धरा। चेहरे की व्यस्तता हटाकर सुकून वाली मुस्कान धारण की। लोटे को दोनों हाथ से पकड़कर संतुलित किया। फ़ोटो खिंचाई। देखने के बाद -थैंक्यू अंकल जी कहा।

पता चला कि रोज घण्टाघर से चलकर गंगा नहाने जाती हैं। करीब पांच किलोमीटर होगा। गंगा के प्रति आस्था। हम बताओ बगल में रहते हुए आज तक न नहाए। अनास्था है यह? एक दिन सूरज की किरणों के साथ चमकते हुए नहाएंगे। जल्ली ही।
आगे घंटाघर के पास एक मंदिर गुलजार हो रहा था। घण्टा बज रहा था। बाहर फूल वाला अपनी दुकान सजा चुके थे। मंदिर के सीन का कोरम पूरा करने के लिए भिखारी भी बैठ गए थे। एक को आने में कुछ देरी हुई तो लपककर आता दिखा। संग में बैठ गया। भक्त लोग खरामा-खरामा अंदर जाते हुए घण्टा बजाते चले गए। भगवान बेचारे अंदर बैठे होंगे। जो आता होगा उनको आशीर्वाद या प्रसाद या मनोकामना पूरी होने का आशीष दे देते होंगे। 

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 3 लोग, मुस्कुराते लोग, लोग बैठ रहे हैं, लोग खा रहे हैं, मेज़ और भोजन
इटवार की सुबह पराठे सेंकता बालक
कभी-कभी सोंचते भी होंगे कि यार, यहाँ जाड़े ने ठिठुर रहे हैं। बाहर होते तो गुनगुनी धूप सेंकते। क्या पता कोई दूसरे देवता उनको समझाते -
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता,
कभी जमीं तो कभी आसमां नहीं मिलता।
घण्टाघर के आगे एक ठेलिये पर सब्जी -पराठा का ठेला लगा था। एक लड़का ठेलिये पर बईठे हुए उचक-उचककर पराठा सेंक रहा था। बतियाते हुए मुस्कराता गया। जितना शरीफ लोग दिन भर में नहीं मुस्कराते उतना पांच मिनट में मुस्करा दिया बच्चा। पढ़ने जाता है लेकिन इतवार होने के चलते पिता का साथ दे रहा था।


20 रुपये के दो पराठे सब्जी सहित भाव थे। जीएसटी का हिसाब गोल। कभी शायद पुलिस वाले हर ठेले वाले से जीएसटी की पूछताछ करने लगें। जब करेंगे तब देखा जाएगा अभी तो सुबह की गुनगुनी धूप का मजा लिया जाए।

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Tuesday, November 28, 2017

दुनिया बावजूद तमाम चिरकुटईयों के बहुत खूबसूरत है


कल दफ़्तर के लिये निकले। तिराहे पर मिनी जाम लगा था। एक स्कूटर और ऑटो में टक्कर हुई थी। स्कूटर दोनो टायर करवटियाये सड़क पर लेटा था। ऑटो बगल में चुपचाप खड़ा था। दोनों के सवार टक्कर के बाद अपनी-अपनी गालियों का स्टॉक खाली कर रहे थे।
हमको देर हो रही थी लेकिन इतनी भी नहीं कि बगलिया के निकल लें। इत्ती मेहनत से गाली-गलौज हो रही है उसको अनदेखा करके निकलना गालियों के सौंदर्य का अपमान लगा मुझे। खड़े होकर सुनने लगे।
स्कूटर वाला ऑटो वाले को बड़ी गाड़ी होने के नाते गरिया रहा। ऑटो वाला स्कूटर वाले पर गलत तरीके से चलाने की तोहमत लगा रहा था। दोनों ही अपनी-अपनी जगह सही थे लेकिन दूसरे की बात मान नहीं पा रहे थे क्योंकि दोनों के पास देने के लिये गालियां और निकालने के फ़ेफ़ड़े में हवा बाकी थी।
स्कूटर और ऑटो अपने मालिकों की गाली गलौज से निर्लिप्त धूप सेकने में व्यस्त थे। स्कूटर लेटे-लेटे और ऑटो खड़े-खड़े धूप से विटामिन डी खैंच रहा था। दोनों को कोई जल्दी नहीं थी कहीं जाने की। दोनों ही किसी ’हूटरी संस्थान’ में मुलाजिम भी नहीं थे जो उनको हाजिरी लगवाने की चिन्ता होती।
जनता निर्लिप्त भाव से ऑटो मालिक और स्कूटर सवार की गालियों का लुत्फ़ उठा रही थी। छोटी सवारी और सड़क पर लम्बलेट होने के नाते लोगों की सहज सहानुभूति स्कूटर वाले के साथ थी। लेकिन स्कूटर वाला गालियां ऊंची आवाज में दे रहा था और गरियाते हुये पोजीशन ऑटो के पास लिये हुये था। लोग उसको ऑटो वाला समझकर अपनीे सहानुभूति जिसके साथ नत्थी कर रहे थे वह वास्तव में वाला था। राम के खाते में जमा होने वाली सहानुभूति श्याम के खाते में जमा हो रही थीं। मल्लब सुबह-सबेरे सरे सडक जनता की आंखों में धूप झोंकते हुये सहानुभूति घोटाला हो रहा था।
लब्बो-लुआब यह कि किसी जनता दरबार में किसी भी लफ़ड़े में जनता अपनी सहज सहानुभूति उसके साथ नत्थी कर देती है जो पहले रो दिया, जिसने अपने दर्द की सूचना पहले दे दी। इसीलिये समझदार लोग किसी को पहले पीटकर पहले रोते हुये अपनी शिकायत लगा देते हैं और सहानुभूति की पूरी की पूरी खेप पर कब्जा कर लेते हैं। मामला खुलने पर दूसरे के हिस्से बची-खुची चिल्लर सहानुभूति ही आ पाती है।
कुछ देर में दोनों की गालियां खल्लास हो गयी। जनता भी गालियों में नयापन न देखकर हार्नियाने लगी और दोनों लोग अपनी गाड़ियां उठाकर अपने-अपने रास्तों पर गम्यमान हुये। विदा होते हुये दोनों ने एक-दूसरे को जिस तरह घूरा उससे लगा दोनों अगर गाड़ियों की जगह किसी प्लेट में होते तो शायद एक दूसरे को खा जाते।
हम भी सड़क खाली होते ही खरामा-खरामा चल दिये। यह सोचते हुये कि आजकल हर तरफ़ गुस्सा बहुत तेजी से बढ रहा है। जिसको देखो वह गुस्से के वाई-फ़ाई कनेक्शन से जुड़ा हुआ है। आदमी गुस्सा पहले करता है, बात बाद में करता है।
हमारे एक साहब तो इतना गुस्सा करते थे कि मारे गुस्से के हकलाने लगते। उनके गुस्से का सौंदर्य वर्णन करते हुये हमने लिखा था :
"गुस्से की गर्मी से अकल कपूर की तरह उड़ गयी। जो मोटी अकल जो उड़ न पायी वो नीचे सरक कर घुटनों में छुप गयी। दिमाग से घुटने तक जाते हुये शरीर के हर हिस्से को चेता दिया कि साहब गुस्सा होने वाले हैं। संभल जाओ। सारे अंग अस्तव्यस्त होकर कांपने लगे। कोई बाहर की तरफ़ भागना चाह रहा था कोई अंदर की तरफ़। इसी आपाधापी में उनके सारे अंग कांपने लगे। मुंह से उनके शब्द-गोले छूटने लगे। मुंह से निकलने वाले शब्द एक दूसरे को धकिया कर ऐसे गिर-गिर पड रहे थे जैसे रेलने के जनरल डिब्बे से यात्री उतरते समय कूद-कूद कर यात्रियों पर गिर-गिर पड़ते हैं।
गुस्से में साहब के मुंह से निकलने वाले बड़े-बड़े शब्द आपस में टकरा-टकरा कर चकनाचूर हो रहे हैं। बाहर निकलने तक केवल अक्षर दिखाई देते हैं। लेकिन वे जिस तरह से बाहर टूट-फ़ूट कर बाहर सुनायी देते हैं उससे पता नहीं लगता कि अक्षर बेचारा किस शब्द से बिछुड़कर बाहर अधमरा गिरा है। ‘ह‘ सुनाई देता तो पता नहीं लगता कि ‘हम‘ से टूट के गिरा है ‘हरामी’ से। हिम्मत खानदान का है या हरामखोर घराने का! अक्षरों का डी.एन.ए. टेस्ट भी तो नहीं होता।"
हम आगे कुछ और सोचते तब तक सामने दो मोटर साइकिल वाले आ गये। एक की मोटर साइकिल खराब हो गयी थी। दूसरे के सहारे आगे चलने के लिये वह कोशिश कर रहा था। पहले मफ़लर पकड़कर आगे बढने की कोशिश की। मफ़लर हाथ से छूट गया। फ़िर हाथ पकड़कर आगे बढा। खतरनाक था सड़क सुरक्षा के लिहाज से लेकिन मैंने उनको टोंका नहीं। वे दो थे हम अकेले। टोंकते तो क्या पता दोनों मिलकर हमको ठोंक देते। इसके बाद रोने लगते। जनता भी हमको ही दोषी मानती क्योंकि हमारी सवारी बड़ी थी।
हम हाथ में हाथ पकड़े मोटरसाइकिल वालों के सौंदर्य को निहारते हुये ’साथी हाथ बढाना ’ गाना गुनगुनाते हुये दफ़्तर आ गये। यह सोचते हुये कि दुनिया बावजूद तमाम सहज चिरकुटईयों के वाकई बहुत खूबसूरत है !

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Thursday, November 23, 2017

हर व्यक्ति अपने में मठाधीश है



कल मंडी हाउस में चाय पी गयी। पहुंचते ही एक सर्वेरत बालक ने पकड़ लिया। किसी कंपनी में काम करता है। कंपनी की तरफ़ से सर्वे का काम मिला है। वही कर रहा है। चार-पांच सवाल थे। दस साल पहले (2007) और आज (2017) के दूध, पेट्रोल , चीनी, गैस के दाम बताये गये थे। एक आम आदमी के अनुसार हमको बताना था कि इन चीजों के दस साल बाद क्या दाम होंगे। हमने अपनी समझ के हिसाब से बताये।
अब हमसे कोई बालक मुफ़्त में कुछ पूछ जाये ये कैसे हो सकता है। हमने भी पूछना शुरु किया बालक के बारे में। पता चला बालक बनारसी है। जौनपुर से ग्रेजुएशन किया है। पिता व्यापार करते हैं बनारस में। बालक भी करना चाहता है। पिता ने कहा - ’पहले अनुभव कर लो कि व्यापार कैसे किया जाता है। क्या परेशानियां होती हैं। इसके बाद करायेंगे व्यापार।’ इसी सिलसिले में अंकुर वर्मा नामराशि बालक दिल्ली में आ गया है। पिछले चार माह से सर्वे कम्पनी में काम करता हुआ व्यापार के लिये खुद को तैयार कर रहा है।
पूछने पर बालक अपने बारे में बताता है। खाना बहुत अच्छा बनाता है। घर से आने के बाद मम्मी को परेशानी हो गयी है कि खाना बनाने वाला बालक दिल्ली चला गया। यहां दोस्तों के साथ साझे में रहता है। खाना साथ बनाता है। कंपनी करीब पंद्रह हजार देती है महीने के। ट्रान्सपोर्ट एलाउन्स मिलाकर। दिन में करीब 25 सर्वे करने होते हैं। दोपहर तक 12-13 कर चुका था।
बातचीत के दौरान खूब बाते हुईं। हमने पूछा - ’दिल्ली में कोई सहेली बनी कि नहीं?’ बालक ने बताया - ’नहीं ।’ हमने पूछा - ’क्यों ? सर्वे कम्पनी में तो कई बालिकायें भी होंगी।’
बालक ने बताया -’ हमको लड़कियों से बात करने में संकोच होता है। इसलिये अभी तक कोई बालिका-सहेली नहीं बनी।’
हमने कहा -’ संकोच कैसा? जैसे हमसे पर्चा भरवाया वैसे किसी बालिका से भरवाओ फ़िर बात करो। संकोच कम होगा।’
’लेकिन पर्चा भरवाने और बात करने में अन्तर है’- बालक ने अपनी समस्या जाहिर करते हुये कहा।
बालक से बतियाते हुये हमने आलोक पुराणिक को फ़ोन किया। फ़ोन करते ही बगल से ही गुजरते हुये आलोक पुराणिक पलटकर मिले। मल्लब फ़ोन न करते तो आगे निकल जाते।
आलोक पुराणिक ने भी अंकुर का सर्वे पर्चा भरा। बालक को बालिकाओं से बतियाने के टिप्स दिये। बालक दूसरे सर्वे करने चला गया। हम लोग मंडी हाउस टहलने लगे। थोड़ी देर बाद ही वहां कमलेश पाण्डेय आ गये। फ़िर दो घंटे गप्पाष्टक हुआ। चाय-साय पी गयी। मजे-मजे में बतियाते हुये व्यंग्य और व्यंग्यकारों पर बात-चीत हुई।
एक बात मठाधीशी पर भी हुई। आलोक पुराणिक ने हमको नवोदित मठाधीश बताते हुये फ़ोटो वायरल कर दी। हमने मना नहीं किया। कर दो।
मठाधीशी पर बात करते हुये एक मजेदार बात निकलकर सामने आयी कि हर तीसरे दिन कोई न कोई व्यंग्यकार मठाधीशी की खिल्ली उड़ाते हुये कोई पोस्ट लिखता है। ऐसी पोस्ट्स को लगभग सभी लोग पसंद करते हैं और मठाधीश/मठाधीशी की निन्दा करते हैं। तो सवाल यह उठता है कि जब सब लोग मठाधीशी के खिलाफ़ हैं, मठाधीश की निन्दा करते हैं तो यह ससुरा मठाधीश है कौन? क्या मठाधीश एलियन है?
इस पर आलोक पुराणिक ने अपना नजरिया पेश करते हुये करता हुआ कि जहां एक से अधिक व्यक्ति जुट जाते हैं वहीं मठ बन जाता है और उनमें से हर व्यक्ति कोें मठाधीश कहा जा सकता है। अपनी बात की पुष्टि करते हुये उन्होंने बताया - ’जैसे हम तीन लोग यहां चबूतरे पर चाय पीते हुये बैठे हैं तो यह अपने आप में एक मठ है।’
इस लिहाज से देखा जाये तो हर व्यक्ति अपने में मठाधीश है और अपने हिसाब से अपनी विधा की रेढ मार रहा है। इसका विस्तार किया जाये तो कहा जा सकता है कि जब भी मठाधीशी के खिलाफ़ कोई कुछ लिखता है तो वस्तुत: वह अपने खिलाफ़ लिखता है।
इस बीच कई लोगों ने हम फ़ुटपाथिया लोगों से मंडी हाउस, एनएसडी आदि के पते पूछे। हमने तुरन्त बता दिया। कुछ छिपाया नहीं। हम छिपाने में नहीं, बताने में यकीन रखते हैं।
और बहुत सी बातें हुईं। लेकिन वह फ़िर कभी। अभी तो दफ़्तर निकलना है अपन को। इसलिये फ़िलहाल इतना ही। बुराई-भलाई के बारे में जानना हो तो अलग से संपर्क किया जाये।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10213055894805504

Wednesday, November 22, 2017

सूरज भाई के जलवे


‌सुबह खिड़की खोली तो देखा सूरज पेड़ के ऊपर विराजमान थे। गुलदस्ते के फूल की तरह खिले हुए। सर्दियों की आमद से उनकी खूबसूरती बढ़ गयी थी। हमने गुडमार्निंग कहा तो और चमक गए।
खिड़की के नीचे सड़क जाग गयी थी। जग क्या गयी लोगों ने जगा दिया। उसके ऊपर से लोग गुजरेंगे तो सोएगी कैसे बेचारी।
एक आदमी सड़क पर झाड़ू लगा रहा था। कूड़े को झाड़ू से धकेलकर सड़क से दूर कर रहा था। कुछ कूड़ा बदमाश बार-बार वापस सड़क पर आ जा रहा था। बदमाश कूड़ा न हुआ कोई नेता हो गया जो चुनाव के मौके पर वापस पार्टी में आ जाता है।
झाड़ू लगाता आदमी सर पर टोपी लगाये हुए है। जब झाड़ू थोड़ी लगा लेता है तो झाड़ू को ऐसे लेकर चलता है जैसे उत्सव फायरिंग के बाद लोग बंदूक लेकर चलते हैं। झाड़ू उसकी बन्दूक ही तो है।
होटल की छत पर लगे झंडे थोड़ा हिलडुल से रहे थे। कुछ तेजी से फहरा रहे थे। बाकी गुमसुम से थे। उन तक हवा पहुंच नहीं रही थी। जिन तक हवा पहुंच गई थी वे तेजी से हिल रहे थे। हवा भी सरकारी ग्रांट की तरह होती है। कहीं पहुंचती है तो खूब पहुंचती है। कहीं नहीं पहुंचती है तो बिल्कुल नहीं पहुंचती।
सड़क पर कई गाड़ियां किनारे खड़ी हैं। एक दूसरे की विपरीत दिशा में। आपस में बोलचाल भी नहीं रही हैं। किसी दफ्तर सा माहौल बना रखा है जिसमें अगल की सीट वाला बगल वाले से नहीं बतियाता। एक ही शहर में रहने वाले साहित्यकारों की तरह आपस में अबोला खिंचा हुआ है गाड़ियों में। एकदम आदमी टाइप हरकतें। संगत का बहुत असर होता है भाई।
छत पर एक बैगनी रंग की पतंग पेट के बल लेटी है। धूप उसकी पीठ चादर की तरह बिछी है। उसकी डोर कहीं दिख नहीं रही। क्या पता कल तक आसमान छू रही हो। आज रिटायर्ड कर्मचारी की तरह पुराने दिन याद कर रही हो।
कुछ देर बाद पतंग करवट बदलकर थोड़ी दूर जाकर दूसरी करवट लेट गयी। जैसे एक गुट से निकला असन्तुष्ट दूसरे गुट में चला जाता है।
सड़क पर खड़े एक ट्रक पर ड्राइवर लपककर चढ़ा। स्टार्ट करने के लिए चाभी घुमाई। लेकिन ट्रक का इंजन हिलडुल कर खड़ा ही रहा। थोड़ी आवाज भी की दिखाने के लिए कि वह कोशिश कर रहा है स्टार्ट होने के लिए। लेकिन हिल के नहीं दिया। ड्राईवर को नखरे पता होंगे ट्रक के। वह चाबी घुसेड़े रहा और घुमाते रहा। आखिरकार ट्रक को स्टार्ट होना पड़ा। चल भी दिया। पहले अनमने ढंग से मानो कोई पियक्कड़ चल रहा हो जिसकी रात की पी हुई अभी उतरी न हो। लेकिन बीच सड़क पर आते ही राजा बेटा की तरह चलने लगा। इससे लगा कि शुरआती अड़चनों से कोई काम छोड़ना नहीं चाहिए। लगे रहने से काम हो ही जाता है।
दिल्ली भले राजधानी हो, स्मार्ट शहर। लेकिन सड़क किनारे गन्दगी भी तसल्ली से रहती है। बैलगाड़ी और खड़खड़ा एक संग चलते हैं ऑटो सहित। ई रिक्शा यहां भी खूब चलने लगे हैं।
तीन गधे दुलकी चाल से चलते हुए सड़क पर जा रहे हैं। दो गदहों पर सवारी के रूप में लड़के बैठे हैं। तीसरा खाली पीठ जा रहा है। गदहों की दुनिया का पता नहीं मुझे। तीसरे गधे को बेरोजगार कहा जायेगा जिसको अभी बोझा नहीं मिला या फिर 'गधा प्रतिनिधि' गधा कहेंगे उसको जिसकी कमाई बाकी दो गदहों के पसीने से निकलती है।
खिड़की खोली तो सारी सूरज भाई किरणों सहित घुस आए। चेहरे , हाथ और जो भी जगह मिली विटामिन डी को गुलाल की तरह मलने लगे। घण्टे भर में जितनी धूप हमने ग्रहण कर ली खिड़की के पास बैठे हुए, उतनी पहले महीनों में नहीं हासिल की थी। किरणें भी मेज, फर्श, दीवार पर कबड्डी सरीखी खेलने लगीं। कुछ किरणें कप की आड़ में छिप कर छुपन-छुपाई खेलने लगीं। सूरज भाई बहुत दिन बाद मिले थे। गर्मजोशी से। साथ चाय पीते हुए तमाम पुरानी यादें ताजा करते रहे।
हमने सूरज भाई की तारीफ करते हुए कहा -' भाई जी, आपने तो कोहरे और धुन्ध की ऐसी तैसी कर दी। किरण चार्ज करके सबको तितर बितर कर दिया।जलवे हैं आपके तो। '
सूरज भाई मुस्कराते हुए बोले -' ये तो तुम साहित्यकारों और व्यंग्यकारों की तरह हरकतें करने लगे जो एक दूसरे को फूटी क्या सजी आंख भी देखना नहीं चाहते लेकिन मिलने पर ऐसे गले मिलते हैं कि कपड़ों की सारी क्रीज तक खराब कर लेते हैं। तुम तो ऐसे न थे।'
हमने कहा अरे न भाई जी। हम दिल से कह रहे हैं। इस पर सूरज भाई शरारतन मुस्कराए और बोले : सच्ची ?
हमने कहा : मुच्ची।
सूरज भाई और तेज मुस्कराए और चाय पीकर चलते बने। उनको पूरे जहां को चमकाना है। वो कोई हमारी तरह निठल्ले थोड़ी हैं।

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Tuesday, November 21, 2017

महाभारत काल में नोटबन्दी


महाभारत के समय में पांडवों ने अपने पुरुषार्थ से खूब बड़े नोट जमा कर लिए थे। कुछ टैक्स भरते, ज्यादा बचा लेते। कौरवों को जब पता चला तो उन्होंने महाराज से कहकर करेंसी बदलवा दी। करेंसी बदलवाने की तारीख चूंकि कौरवों को पता थी इसलिए उन्होंने अपने बड़े नोट खजाने से पहले ही बदलवा लिए थे।
जब बड़े नोट बंद हो गए तो पांडवों को बड़ी समस्या हुई। सब बड़े नोट कूड़ा हो गए। अब उस समय पेट्रोल पम्प तो थे नहीं जहां वे नोट खपाते। न ही उनके यहां कामगारों की फ़ौज थी कि एडवांस में साल भर का वेतन भुगतान कर देते और न ही आज की तरह कमीशन लेकर नोट बदलवाने वाले एजेंट थे उन दिनों लिहाजा पांडवों की हालत खराब हो गयी। खाने पीने तक के लाले पड़ गए।
पांडव जानते थे कि कौरवों ने अपने बड़े नोट खजाने से बदल लिए थे इसलिए वे कौरवों के पास गए और कहा -कुछ हमारे पांच सौ के नोट भी बदलवा दो ताकि हम भी जीते रहें। आगे चलकर हमको-तुमको दोनों को महाभारत वाली पिक्चर में लीड रोल मिले हैं।
लेकिन कौरव माने नहीं। न नोट बदले न नोट बदलने की समय सीमा बढ़ाई।
इसके बाद जो हुआ वो सब जानते हैं। महाभारत की शूटिंग हुई। नोट बदलने वाली बात पांडवों को याद थी इसलिए वे मन लगाकर लड़े और पिक्चर हिट हुई।
यह सच्ची कहानी है कि महाभारत की लड़ाई बंद पांच सौ के नोट चलाने के कारण हुई। पांच गाँव मागने वाली बात किसी ने ऐसे ही उड़ा दी होगी।

Sunday, November 19, 2017

‌इतवार की गुनगुनी सुबह


सुबह निकले । सड़क गुलजार थी। मूंगफली की दुकानें सज गयीं थीं। एक आदमी दुकान पर बैठा स्टील के ग्लास में चाय पी रहा था। बगल में सड़क पर बैठा दूसरा आदमी सूप पर मूंगफली फटकते हुए मूंगफलियों का इम्तहान सा ले रहा था। जो मूंगफली पास होगी उसका प्रमोशन होगा। दुकान पर बिकेगी। छंटी हुई किनारे कर दी जाएगी।
जिस तरह मूंगफली बिकने के लिए तैयार होती हैं ऐसे ही तो नौकरियों में थोक भर्तियां होती हैं।
एक जगह अलाव लोग मुंडी आपस मे मिलाए हुए अलाव के चारो तरफ बैठे थे। मुंडी इतनी सटी हई थी कि कोई समझे सेल्फी के लिए पोज बनाये हैं। बस कैमरे की जरूरत थी।
गंगा तट पर चहल-पहल थी। दायीं तरफ सूरज की किरणें पानी में खिलखिला रहीं थीं। आपस में धौल धप्पा करते हुए पानी को सुनहला बना रहीं थीं। पानी बार-बार नदी के सुनहरेपन को बहाकर दूर करने की असफल कोशिश करता बह रहा था। बार-बार धकियाता सुनहरे पानी को लेकिन पानी का सुनहरापन अंगद का पांव बना टिका रहता। कभी नदी की इज्जत का लिहाज करके थोड़ा हिलडुल जाता लेकिन बना वहीं रहता। पानी झकमार कर आगे बढ़ जाता। उसको आगे जाना है। किरणें अपना भौकाल देखकर और चमकने लगती।
बायीं तरफ गंगा नदी में लोग नहाते दिखे। बीच मे बालू पर देश की आकृति की तरह इकट्ठा थी। नीचे बालू का छोटा टुकड़ा श्रीलंका सरीखा जमा था। लगता है गंगा जी को कोई कुछ कहे इसके पहले ही वो राष्ट्रवादी हो जाना चाहती हैं। कोई बालू के इस टुकड़े का नाम वन्देमातरम स्पॉट प्रस्तावित कर दे। क्या पता जनता की बेहद मांग पर कल को गंगा जी का नाम 'भारतमाता नदी' हो जाये। नदी इस बेफिजूल सोच से बेपरवाह बहती जा रही थी।
बालू घाट पर आज बच्चे 'बाल दिवस' मनाने के लिए इकट्ठा थे। खेलकूद के लिए इंतजाम हो रहा था। बच्चों की दौड़ आयोजित करने के लिए चूने की लाइन बन रही थी। पंडाल भी सज रहा था। बच्चों के माता-पिता को भी आमंत्रित किया गया है। सभासद भी आएंगे। पंडाल की आड़ में कुछ बच्चियां स्वागत गीत की तैयारी कर रहीं थीं।
वहीं बालू के मैदान पर कुछ बच्चे कंचे खेल रहे थे। बहुत दिन कंचे के खेल से जुड़े शब्द सुनने को मिले। पिच्चूक पर उँगली रखे एक-दो मीटर दूर के कंचे को टन्न से उड़ा देते बच्चे पास के पढ़ते बच्चों से बेखबर कंचे के खेल में मगन थे।
बच्चों को कंचे खेलते देखकर सोचा कि हममें से कइयों को लगता है कि जो खेल उन्होंने बचपन में खेले वे अब खतम हो गए। अब कोई नहीं खेलता उनको। लेकिन ऐसा होता नहीं शायद। खेल खत्म नहीं हुए होते हैं बस अपनी जगह बदल देते हैं। किन्ही और रूप में खेले जा रहे होते हैं।
हठ योगी की दुकान गुलजार थी। कोई महिला सभासद पद की उम्मीदवार बड़ी मोटी तगड़ी गाड़ी में गंगा दर्शन के बाद योगी दर्शन करने के बाद लपकते हुये जनता दर्शन को निकल गईं।
बालू में कुछ कुत्ते आपस में भौंक रहे थे। अचानक एक कुत्ते को पचीसों कुत्तों ने दौड़ा लिया। एक कुत्ते के पीछे पचीसों कुत्ते भागते देख लगा मानों आगे वाले कुत्ते कोई बात ऐसी कही है जो बहुमत वाले कुत्तों को खराब लगी और उन्होंने उसको दौड़ा लिया। मल्लब कुत्ते भी आदमियों की तरह हरकत करने लगे। वो तो कहो कि कुत्ता जवान था, भागता चला गया। बुज़ुर्ग कुत्ता होता तो भाग भी न पाता। पकड़कर रगड़ दिए होते बाकी के कुत्ते।
वहीं एक महिला एक ठेलिया पर चाय, पकौड़ी, पान-मसाले की दुकान लगाये थी। गोद में बच्चा। मुंह में पान मसाला। चाय बनाने के लिए कहा तो उसने गोद मे लिये बच्चे को गोद और जांघ के बीच सहेजकर गैस स्टोव जलाया। बमुश्किल 25 -30 साल की है उमर में तीसरा बच्चा। आदमी कहीं दिहाड़ी पर काम करता है।
महिला बच्चे को संभालते हुए चाय की दुकान चला रही है। इन जैसों को सबसे अधिक पैसा मिलने की वकालत की है एकदम हालिया विश्व सुंदरी ने। कभी हो सकेगा ऐसा? अपने यहां तो न्यूनतम मजदूरी देने के लाले पड़े रहते हैं।
उसके चाय बनाते हुए एक दूसरी महिला वहां आ गई। उससे बतियाने लगी। उसका बच्चा दूसरे बच्चों के साथ खड़ा था। और बच्चे जबाब दे रहे थे। इसका चुप था। अपने बच्चे को चुप देखकर झल्लाते हुए बोली -'देखो कैसा सुअर जैसा चुपचाप खड़ा है। मुंह से बोल नहीं फूट रहा।'
हमने उसे टोंकते हुए कहा -' उसको समझ नहीं आता होगा इसलिए जबाब नहीं दे पा रहा होगा।' इस पर वह तमककर बोली -' अरे स्कूल जाता है।' गोया स्कूल जाने से सब आ जायेगा।
चाय वाली महिला ने दूसरी महिला को बैठने का निमंत्रण दिया -दीदी बैठो।
दीदी बैठी नहीं। ठेलिया के पास पड़ीं पालीथिन की कई पन्नियों को पैर से सहेजते हुई बोली - 'इसको फेंक काहे देती हो। हमारी तो बुढिया इनके बहुत बढ़िया बेना (हाथ पंखा) बनाती हैं।
बालू के बीच पत्थर पड़े हैं। एक पत्थर के नीचे जगह पर तमाम चीटे -चीटियां आ जा रहे हैं। क्या पता चीटों में भी कोई हनीप्रीत हो जो गंगा किनारे अपनी गुफा बनाए हो।
बाल दिवस कार्यक्रम शुरू होने वाला था। लेकिन घर से बुलावा आ गया तो चल दिये। लेकिन साइकिल का मन नहीं था चलने का। इसलिए ताला खुला नहीं। बहुत कोशिश की। ताली हिलाई, ताला हिलाया। इधर दबाया, उधर हटाया लेकिन ताला खुला नहीं। मजबूरी में सायकिल का पिछवाड़ा उठाए सड़क तक आये। साइकिल को कभी कैरियर से उठाते, कभी डंडे से। कभी सड़क पर सरकाते हुए एक ताले कि दुकान पर आए। चाबी को थोड़ा घिसकर एक मिनट में खोल दिया ताला उसने। 20 रुपये लिए उसने ताला खोलने के। मन किया ताला भी बदलवा लें लेकिन वह बाद के लिए छोड़ दिया।
नीचे के पुल से लौटे। पुल पर धूप पसरी हुई थी। धूप के बीच की रेलिंग का निशान धूप को दो बराबर हिस्सों में बांट रही थी। रेलिंग की छाया रेडक्लिफ लाइन की तरह धूप को हिंदुस्तान-पाकिस्तान में बंटवारा कर रही थी। शाम को दोनों हिस्सों की धूप एक -दूसरे के कंधे पर हाथ धरे इठलाती, खिलखिलाती वापस जाएंगी। लेकिन अभी ऐसे अलग थीं जैसे किसी संयुक्त परिवार के आंगन में अम्बुजा सीमेंट की दीवार खींच दी हो किसी ने।
पुल के बाहर की तरफ आधे खम्भे पर एक युवा जोड़ा बैठा धूपिया रहा था। सोचा कहीं कूद न जाएं। लेकिन फिर यह सोचकर कि पुल की ऊंचाई और नदी में पानी दोनों कम है वापस चले आये।
इतवार की सुबह धूप खुशनुमा लगी।

Friday, November 17, 2017

आये भैया कोई हीरो आये

आये भैया कोई हीरो आये,
हमारे देश को आगे ले जाये।
हमें निठल्ले ही रहना है,
हीरो देश का गर्व बढाये।
उसको मेहनत करना होगा,
भला-बुरा सब सुनना होगा।
पकड़ी गयी गड़बड़ी कोई तो,
रोल विलेन का करना होगा।
सारे खतरे हीरो के होंगे,
सब कुछ उसको करना होगा।
हम केवल जयकार करेंगे,
उसको तो बस खटना होगा।
जिसको शर्ते मंजूर आगे आये,
हीरो की ड्यूटी में लग जाये।
-कट्टा कानपुरी

Saturday, November 11, 2017

इंसान कुदरत का बेहया दुलरुआ है


सबेरे घूमने निकले। सड़क किनारे की सब दुकानें साफ़। पप्पू की चाय की दुकान का टट्टर गायब, भट्टी लापता, बेंच तिरोहित। पता चला कैंट में किसी टूर्नामेंट में सुरक्षा के लिहाज से आसपास के अतिक्रमण हटा दिये गये हैं। पप्पू अपनी बेंच, टट्टर और मोमिया समेटकर घर ले गये। भट्टी दीवार की आड़ में छिपा दी। कुछ दिन बाद फ़िर जमायेंगे अड्डा।
कुदरत भी इंसान के साथ ऐसी ही कार्रवाई करती है। जब देखती है आदमी ने ज्यादा अतिक्रमण मचा दिया है तो अपने बुलडोजर से सब ढहा देती है। नदियां अपने रास्ते में बने निर्माण, होटल और दीगर बहुमंजली इमारतों को टीन-टप्पर की तरह तिड़ी-बिड़ी कर देती हैं। लेकिन इंसान भी तो इसी कुदरत का बेहया दुलरुआ है। ढीठ जिजीविषा कुदरत से विरासत पाया है। उजड़ने के बाद फ़िर बस जाता है।
सड़क किनारे लोग खटियों में सोये हुये थे। सुबह हो गयी थी लेकिन कायदे से नहीं थी। मने ड्राफ़्ट सुबह हुई थी। सोये हुये लोग , एक बार जगकर फ़िर से सो गये थे। करवट बदलकर। जाड़े ने अपनी हाजिरी लगवा सी लगवा ली है। पतली रजाइयां निकल आई थीं। बहुत दिन बाद बक्सों, बोरों से निकलकर रजाइयां आजादी की सांस लेकर खुशनुमा महसूस कर रही थीं। लोगों के बदन से लपटकर उनकी गर्माहट, गुनगुनाहट की रखवाली कर रही थीं। रजाइयां हमारी बदन की गर्मी की चौकीदार हैं। रजाई, कम्बल न हों तो हमारे आसपास की हवा हमारी सारी गर्मी का अधिग्रहण करके हमको ठिठुरा दे।
आगे कुछ लोग अलाव ताप रहे थे। पुल की सड़क की मरम्मत हो रही है। पैचवर्क। उसी के लिये डामर मतलब कोलतार यानी कि अलकतरा पिघलाने के लगने वाली लकड़ियां सुबह को गर्माने के लिये इस्तेमाल हो रही थीं। एक भगौना चाय की पत्ती और छन्नी अपने अन्दर समेटे बता रहा था कि अभी ताजा-ताजा चाय बनी है।
अलाव तापते लोगों में से एक लड़के के गाल पर हरे रंग से कुछ लकीरें बनीं थीं। बताया कि रात में कोई उसके गाल रंग गया। एक और साथ के हैं उनके गाल पर 420 लिख गया। हंसते हुये कहा लड़के ने -’ पकड़ लेतन लिखत भये तो मारनेम बेलचा घसीट के’ (लिखते हुये पकड़ लेते तो बेलचा मारते घसीटकर)। सब मजूर हैं। वह साथ के लोगों को इंजीनियर, कान्ट्रैक्टर बताते हुये बतिया रहा था। हम लोग अपने से जुड़े लोगों में ऐसी ही मानद उपाधियां देते रहते हैं।
लड़का पतारा से आया है। पढने की उमर है। घर छोड़कर काम करने निकला है। दांत मसाले से लाल। हम पूछते हैं तो हंसता है। दांत और रंगे हुये दिखते हैं।
पुल के मुहाने चढा पर एक लड़का पोस्टर लगा रहा है। हम खड़े होकर देखते हैं तो कहता है- ’अंकल जी एक बैनर दे दीजिये निकालकर।’ उसकी मोटर साइकिल से निकालकर देते हैं। बतियाते भी हैं। वह कोचिंग चलाता है 12 वीं तक के बच्चों की। ’ग्रेविटी क्लासेस’ के नाम से। कुछ और लोग भी साथ में पढाते हैं। खुद एल.एल.बी. भी कर रहा है। बताता है आज देर हो गयी निकलने में। इतनी देर में कई पोस्टर लगाने थे लेकिन अभी तक दो ही लग पाये।
पुल पर आवाजाही अभी कम है। रेल गुजर रही थी। सूरज भाई लाल दिखे। लगता है प्रदूषण से आंखें लाल हैं। शायद भन्नाये हुये हैं। भन्नाने दो। हम तो मचा के रहेंगे गन्दगी।
नदी में पानी भी अभी अलसाया सा सो रहा है। नावें जरा सा हिलाती-डुलाती हैं पानी को लेकिन वह फ़िर कुनमुनाते हुये पलटकर सो जाता है। जैसे पाइलट जहाज को ऑटो मोड में डालकर सो जाता है वैसे ही नदी भी पानी को ऑटो मोड में डालकर सुस्ता रही है।
लौटते हुये देखते हैं कि सड़क किनारे की मूंगफ़ली की दुकानें जम गयी हैं। एक आदमी बोरे के चने को तसले में डालता है। पहले चना तसले में गिरते हुये आवाज करता है। दर्द हुआ होगा बोरे से तसले में गिरते हुये तो चिल्लाया होगा - ’अरे बाप रे, अरी अम्मा मर गये।’ यह भी हो सकता है बोरे से तसले में गिरते हुये अंग्रेजियाया हो -’हाऊ डेय़र यू थ्रो मी ऑन दिस आयरन पॉट’ (मुझे इस लोह के बर्तन में फ़ेंकने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी?) लेकिन उसके ऊपर लद्द-फ़द्द गिरते दूसरे चने के दानों की आवाज में उसकी अंग्रेजी का गला घुट गया होगा। चने के ढेर की नींव का चना बना अंधेरे में पड़ा होगा वह बेचारा अकेले अंग्रेजी बोलने वाला चना।
दुकान सज गयी। मूंगफ़ली के पिरामिडों के पीछे बैठी लड़की ग्राहक के इंतजार में है। बगल में इधर-उधर फ़ुदकती, खेलती तमाम बच्चियां, बच्चे हैं। उनसे पूछते हैं -’स्कूल नहीं जाते?’ सब मुझे ताज्जुब से देखते हैं। मानो पूछ रहे हों - ’ये स्कूल क्या होता है?’
सामने से सूरज भाई मुस्कराते हुये कहते हैं -’चलो अब बहुत हुई घुमाई। जल्दी से तैयार होकर दफ़्तर जाओ वर्ना लेट हो जाओगे।’

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Saturday, November 04, 2017

मन कर रहा कि अब उठे

मन कर रहा कि अब उठे , फ़ौरन नहा के आ जाएँ
लेकिन सोचते हैं कि दौड़ के दूकान से दूध ले आएं।
बाहर बगीचे में फूल खिला है अपने पूरे जलवे से
मन किया निकालें कैमरा, फूल को कैद कर लाएं।
आइडिये उछल रहे हैं सबेरे से स्वयं सेवकों की तरह,
हल्ला मचा रहे हैं हमको लगाएं, पहले हमको लगाएं।
देश की चिंता भी करने को बहुत पड़ी है यार इकठ्ठा
चूक गए तो कहीं और कोई ' देश चिंता' न कर जाए।
काम इतने इकठ्ठा है बेचारा,परेशान है दिन इतवार का,
फिर सोचेंगे क्या करें पहले, चाय एक कप और हो जाए।
-कट्टा कानपुरी

Friday, November 03, 2017

सवालों की सर्जिकल स्ट्राइक



ये भाईजी आज टाटमिल चौराहे से घंटाघर की तरफ़ जाने वाले पुल पर मिले। पीठ पर तमाम तरह का सामान लादे, जिसमें शायद भारत में बनने वाली हर साइज की प्लास्टिक बोतल भी थी आहिस्ता-आहिस्ता टहलते हुये चले जा रहे थे। हमारे लिये जो कूड़ा हो सकता था उसको सहेजे हुये जाता इंसान कई परतों वाले कपड़े पहने था। दायीं तरफ़ सेंट्रल स्टेशन। बायीं तरफ़ निर्माणाधीन पानी की टंकी।
हमने भाईजी से बात करनी चाही तो उन्होंने सवालों की सर्जिकल स्ट्राइक कर डाली। पूछा कहीं बाहर से आये हो क्या? हमने कहा -’कानपुर में रहते हैं?’
वो बोले-’ कानपुर में कहां?’
हम बोले-’ आर्मापुर’।
वो बोले-’ आर्मापुर कहां कानपुर में है? हमको पढाते हौ? कहीं चोरी करने तो नहीं आये? जिन्दगी बीत गई हमारी कानपुर में। आर्मापुर है ही नहीं कानपुर में।"
हमने कहा-’ अरे हम क्या शकल से चोर लगते हैं?’
इस बात का जबाब न दिया अगले ने। आर्मापुर को कानपुर से बाहर साबित करता रहा। हमने हर चौराहा गिनाना- टाटमिल, अफ़ीमकोठी, जरीबचौकी, फ़जलगंज, विजयनगर चौराहा। फ़िर आर्मापुर। लेकिन भाई जी ने फ़जलगंज के आगे का कोई इलाका कानपुर में क्या कहीं भी शामिल मानने साफ़ मना कर दिया।
बढी हुई दाढी वाले इंसान के कई दांत गायब थे। इससे उनकी कड़क टाइप आवाज की हवा निकल कर आवाज को कमजोर कर दे रही थी। अगर दांत होते तो कडक आवाज से हम ज्यादा ही हडक जाते। शायद मान ही लेते खुद को चोर। 
सामने से देखा तो जितनी प्लास्टिक की बोतलें पीठ पर थीं उससे कुछ ज्यादा ही सीने पर लदी थीं। उसकी हड़काई से इतना आतंकित हुये कि हमारी सिट्टी और पिट्टी दोनों गुम हो गयीं। कुछ देर में हम और वो दोनों अपने-अपने रास्तों की तरफ़ गम्यमान हुये।

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