Saturday, February 18, 2017

'व्यंग्य श्री सम्मान-2017' की रिपोर्ट-3


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इस बीच और लोग आते रहे। आलोक पुराणिक सबसे लपककर मिलते रहे। पता चला ज्ञान जी भी आ गये। आकर ज्ञान जी चाय के कंटेनर के पास खड़े होकर लोगों से बतियाने लगे। सब लोग उनके साथ फ़ोटो खिंचवाने के लिये और हो सके तो बतियाने के लिये लपके।
आलोक पुराणिक मिले ज्ञानजी से तो जुड़े हुये हाथ ज्ञानजी की तरफ़ करके कई बार हिलाये। जैसे बड़े-बड़े लोग हाथ मिलाते हुये काफ़ी देरतक हिलाते रहते हैं ताकि फ़ोटो ग्राफ़र लोग फ़ोटो खैंच लें। लेकिन हम इस बीच उधर से लपककर आते सुभाष चंदर जी को आते हुये और सीधे अन्दर हाल में गोली की तरह (बेहतर होगा लिखना -व्यंग्य में पंच की तरह) घुसते हुये देखने में व्यस्त हो गये। सुभाष जी घुसते हुये सर पर हाथ फ़ेरते जा रहे थे। शायद सर के बचे बालों को प्यार से सहलाते हुये कह रहे हों -अबे जरा आराम से रहना। फ़ोटो का मामला है।
अन्दर जिस मंशा से गये होंगे शायद वह पूरी न हो पायी इसलिये जितनी तेजी से गये थे अन्दर उससे दोगुनी तेजी से आलोक जी बाहर आये। चाय और नाश्ते के पैकेट पर कब्जा किया और हम लोगों के साथ जुड़ गये।
इस बीच हरीश नवल जी भी धीर-गम्भीर चाल से चलते हुये वहीं आ गये। सबके साथ फ़ोटो खिंचवाते हुये वे ज्ञानजी के गले मिले। हमें लगा कि कुछ देर में शायद प्रेमजी भी आयेंगे। लेकिन बाद में पता चला कि अपने एक मित्र के गम्भीर रूप से बीमार होने और अस्पताल में भर्ती होने के चलते वे आ न पाये।
हरीश नवल जी ने फ़ुल मोहब्बत से हमारे द्वारा लिये आलोक पुराणिक के इंटरव्यू की बड़ी सी तारीफ़ करते हुये हम लोगों से कहा - ’जो तारीफ़ की हमने टिप्पणी में वो आपस में बराबर-बराबर बांट लेना।’ 
व्यंग्य जगत के सिद्ध लेखकों से बतियाते हुये फ़ोटोग्राफ़ी भी होती रही। हमने संतोष त्रिवेदी के कुछ फ़ोटो खैंचे तो उन्होंने मेरे से कैमरा खींचकर मेरे भी फ़ोटो खैंचकर बदला चुकाया। मेरे फ़ोटो अच्छे नहीं आये। इस तरह संतोष त्रिवेदी ने फ़ोटोग्राफ़ी के मामले में भी मेरे विश्वास की रक्षा की। एक तरह से उन्होंने साबित भी कर दिया कि फ़ोटोग्राफ़ी और लेखन में उनका समान अधिकार है।
इस बीच ज्ञान जी ने बातचीत करते हुये हमारे अट्टहास में छपे लेख की तारीफ़ की। मोबाइल पर आधारित उस लेख की तारीफ़ सुनकर बहुत अच्छा लगा। ज्ञानजी की तारीफ़ किया हुआ लेख समझ सकते हैं कितना अच्छा होगा। 
उनकी तारीफ़ सुनकर मन किया कैमरा छोड़कर सबसे पहले यही स्टेटस लगायें फ़ेसबुक पर कि ज्ञानजी ने हमारे लेख की तारीफ़ करी है। लेकिन फ़िर लगा फ़ोटोग्राफ़ी रह जायेगी। आलोक पुराणिक बुरा मान जायेंगे। इसलिये दिल पर पत्थर रख लिया।
हमने ज्ञान जी से उनके नये उपन्यास ’पागलखाना’ के बारे में पूछा -’आपका उपन्यास पागलखाना कब तक आयेगा?’
इस पर ज्ञानजी ने,- ’( हिन्दी वर्णमाला के मासूम अक्षरों च, त, य और प के साथ समुचित मात्राओं के गठबंधन से बनने वाले शब्द को उच्चरित करते हुये जिसका शरीफ़ मतलब चकल्लस होता है) कहा अगर इसी तरह के चकल्लस में पड़े रहे तो कभी नहीं आयेगा।’
यह कहते हुये ज्ञानजी अपनी जीभ हल्के से दांत से दबा ली। हमारा मन हुआ कि कहें कि हम व्यंग्य यात्रा में अभी तक लिखते नहीं और आपके बारे में संस्मरण तो सुशील जी लिख रहे हैं। इसलिये आप समझिये हमने कुछ सुना नहीं। लेकिन हमें यह लगा कि कहीं बेचारे आयोजन के दूल्हा आलोक ने यह न सुना/देखा हो। बेचारे सदमें मे आ जाते। लेकिन आलोक पुराणिक को हम लोगों से एक फ़ुट की दूरी पर लोगों को मुस्कराते हुये नमस्ते करते देखकर आश्वस्त हो गये।
पता नहीं कहां से बात चली शायद संतोष त्रिवेदी ने छेड़ी या मैंने पर ज्ञानजी ने कहा- ’हम जल्दी ही एक लेख लिखेंगे जिसका शीर्षक होगा -देवता होने के खतरे।’
ज्ञानजी को हमारे कुछ साथी व्यंग्य का देवता मानते हैं और प्रचारित भी करते हैं। ज्ञानजी अक्सर ही चुप रहते हैं। अपने प्रति लोगों का प्रेमप्रदर्शन मानकर। लेकिन अपन इस अभियान के सख्त खिलाफ़ हैं क्योंकि जबसे हमने परसाईजी को पढा है तब से देवताओं के बारे में बड़ी खराब धारणा बन गयी है। बकौल परसाई जी - ’देवताओं का काम निठल्ले पड़े रहना और मौके-बेमौके पुष्पवर्षा करना है। जय-जयकार करना हैं।’ लेकिन अपने ज्ञानजी तो ऐसे कत्तई नहीं हैं। ज्ञानजी तो हमारे समय के सबसे कर्मठ और सर्वेश्रेष्ठ व्यंग्यकार हैं। आलोक पुराणिक तो 1990 के बाद के व्यंग्य को ’ज्ञान चतुर्वेदी युग’ बताते हैं। यह काम देवताओं का नहीं है। इसलिये हम हमेशा इस मुहिम के खिलाफ़ आवाज भी उठाते हैं क्योंकि हमें लगता ज्ञान जी देवता के रूप में पूजे जाने की वस्तु नहीं हैं। सबके प्यार और सम्मान के हकदार हैं।
देवताओं के हाल क्या होते हैं यह नंदन जी एक कविता के अंश में देखिये:
"दुनिया बड़ी माहिर है
आदमी को पत्थर बनाने में
अजब अजब तरकीबें हैं उसके पास
जो चारणी प्रशस्ति गान से
आराधना तक जाती हैं
उसे पत्थर बना कर पूजती हैं
और पत्थर की तरह सदियों जीने का
सिलसिला बनाकर छोड़ जाती हैं।
अगर कुबूल हो आदमी को
पत्थर बनकर
सदियों तक जीने का दर्द सहना
बेहिस,
संवेदनहीन,
निष्पंद……
बड़े से बड़े हादसे पर
समरस बने रहना
सिर्फ देखना और कुछ न कहना
ओह कितनी बड़ी सज़ा है
ऐसा ईश्वर बनकर रहना!"
बहरहाल यह सब बस ऐसे ही लिखा। ज्ञान जी ने अपने वक्तव्य में कहा था -"अगर आप व्यंग्यकार हैं तो आप में सच बोलने की कुटेव तो होगी। आप ठकुर सुहाती नहीं कर सकते।"
तो हम भले ही व्यंग्यकार न माने जाते हों लेकिन कुछ सच बोलने की कुटेव तो अपन में है।
सुभाष जी ने भी इस बतकही के मजे लिये। बतियाते हुये कार्यक्रम का समय हो गया तो सभी हाल की तरफ़ गम्यमान हुये।
आगे के किस्से अगली पोस्ट में
संबंधित कड़ियां:
1. ज्ञान जी का वक्तव्य https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10210583105987329
2. आलोक पुराणिक का इंटरव्यूhttps://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10210543919247685


https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10210598254646036

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