Sunday, February 05, 2017

हमारा वसन्त


वसन्त की याद आई तो हमने उसको गूगल पर खोजा। गूगल पर सब मिल जाता है। अच्छे दिन और काला धन भी वहां पर हैं। लोग खोजते नहीं। बेफ़ालतू हल्ला मचाते हैं।
खैर ’गूगल वसन्त’ जो मिला। आप भी देखिये:
“वसन्त ऋतु वर्ष की एक ऋतु है जिसमें वातावरण का तापमान प्रायः सुखद रहता है।
अब भाई वसन्त के साथ ऋतु रहेगी तो मामला सुखद रहेगा ही। हमने सोचा कि देख भी किया जाये कैसा है वसन्त। पता भी मिल गया -“वनन में, बागन में, बगरयो वसन्त है।“
अब शहर में वन और बाग कहां? यहां तो कंक्रीट की इमारतों, झुग्गी-झोपड़ियों, टीन-टपरियों, कूड़ा-कचरे का बीहड़ है। सड़क पर रोज आते-जाते देखते हैं। वसन्त कहीं दिखा नहीं। फ़िर याद आया कि वसन्त आता नहीं लाया जाता है। मतलब वसन्त के मामले में ’सेल्फ़-सर्विस’ है। जहां देखो उठा लो।
वन, बाग तो दिखे नहीं। हर तरफ़ चुनावी नारे दिखे। वादों के पोस्टर। हमको जिताओ, अच्छी सरकार पाओ। तुम हमको वोट दो, हम तुमको वसन्त देंगे। कुछ पार्टियां मिलकर वसन्त लाने की बात कर रही। शायद भारी वाला वसन्त होगा। अकेले से उठेगा नहीं इसलिये मिलकर उठायेंगी।
चौराहे पर बच्चे भीख के रूप में अपने लिये ’वसन्त चिल्लर’ मांग रहे थे। ’समाजवादी साइकिल पथ’ के बाड़े के भीतर बैठी महिला सर खुजाते हुये वासन्तिया धूप में अपने नंग-धड़ंग बच्चों को निस्संग भाव से अपना वसन्त निहार रही थी। पंकज बाजपेयी अनवरगंज के पास के डिवाइडर पर खड़े कह रहे थे- ’कनाडा वाले नकली हीरे से देकर लोगों के बच्चे खरीदे रहे हैं। कोहली बहुत गड़बड़कर कर रहा है उसकी रिपोर्ट कराइये।’ हमने उनसे चाय पीने की बात पूछी तो बताया -’सुबह पी थी। अभी एक और पियेंगे।’ हफ़्ते भर की बढी दाढी वाले उनके चेहरे पर सूरज की किरणों को कबड्डी खेलते देखकर वसन्त यहीं अड्डेबाजी कर रहा है।
सड़क पर देखा लोग अपने हिसाब से अपना वसन्त जुगाड़ने में लगे थे। ट्रैफ़िक जाम में फ़ंसी कारों के बीच टेढा-मेढा होते हुये सड़क पार करके साइकिल सवार के चेहरे पर जो भाव आये शायद वही उसका वसन्त हो। एक मोटर साइकिल सवार अंधेरे में चौराहे पर ट्रैफ़िक सिपाही का रुकने का इशारा देख नहीं पाया। किकियाते हुये लपककर चौराहा पार करने की कोशिश करते हुये बीच सड़क पर दूसरे सिपाही द्वारा धरा गया। सिपाही ने उसकी चाबी निकालकर अपनी जेब में धर ली। मोटरसाइकिल वाला सिपाही के जेब से अपना वसन्त वापस पाने के लिये सिपाही आगे-पीछे टहलता रहा।
एक कार वाले ने शहर के ट्रैफ़िक चलन के मुताबिक बिना संकेत दिये अपनी गाड़ी मोड़ दी। कार के अचानक मुड़ने से उसके पीछे आती मोटर साइकिल लहरा गयी। लहराने से पहले ही मोटर साइकिल वाला कार वाले को मां-बहन की गालियां देने लगा। छूटते ही गाली देने के उसके अंदाज से लगा कि वह घर से निकलते हुये गालियों का स्टॉक होंठों पर लिपिस्टिक की तरह सजाकर चला होगा। पान मसाले की गन्ध युक्त गालियों ने किसी नेता की जनसभा में स्वयंसेवकों की तरह वातावरण में कब्जा कर लिया।
रोजमर्रा वाली गालियां देते हुये वीर बालक को देखकर ऐसा लगा मानों मोटरसाइकिल के मंच पर सवार कोई नेता चुनाव में विकास और प्रगति के वादे करता हुआ जीतने पर मुफ़्त में देने वाले सामानों की लिस्ट गिना रहा हो। गालियों की गति मोटर साइकिल की स्पीड को तगड़ी टक्कर दे रही थी। लेकिन कार को ट्रैफ़िक सिग्नल का समर्थन मिला। मोटरसाइकिल वाले को चौराहे पर रुकना पड़ा। गालियां कार तक पहुंच न सकीं। उनके हाल उन विकास योजनाओं जैसे ही हुये जो जी-जान लगाकर भी मंजिल तक नहीं पहुंच पातीं। बीच में ही तमाम बिचौलियों की जेबों में पहुंचकर दम तोड़ देती हैं। नजरों से ओझल हो चुके कार वाले को गारियाते हुये मोटर साइकिल वाले के चेहरे पर पसरे हुये भाव को देखकर लगा उसके चेहरे पर वसन्त पसरा है।
हम तसल्ली से वसन्त सुषमा निहारने में लगे हुये थे कि मन के किसी कोने से आवाज आई- ’अरे बौढम वसन्त, तू तो सुबह से नकारात्मक बिम्बों के आसपास कदमताल कर रहा है। तेरे हाल उन सिद्ध लेखकों से सरीखे हो रहे हैं जिनकी नजर सिर्फ़ खराब लेखन पर पड़ती है और जब भी बोलते हैं तो लगता है बोल कम खीज ज्यादा रहे हैं। जबरियन चेले बने उनकी खीझ को ध्वनिविस्तारक की तरह प्रसारित करते हैं। बाहर निकल कुछ नवल नजारे देख।’
बाहर आकर देखा बगीचे में तरह-तरह के फ़ूल खिले हुये हैं। पीले , लाल , बैगनी, सफ़ेद , नारंगी और तरह-तरह के रंग-बिरंगे फ़ूल। छोटे फ़ूल समूह में मुस्करा रहे हैं। आसपास हिलते-डुलते हुये एक दूसरे के ऊपर सटते हुये खिलखिला रहे हैं। किसी फ़ूल की पत्ती टेढी हैं या कहीं से बदरंग है तो भी दूसरा उससे यह नहीं कह रहा -’तू फ़ूल नहीं है।’
अनगिनत पीले फ़ूलों के बीच खिले सफ़ेद रंग के फ़ूल के चेहरे पर डर नहीं उल्लास है। घास की पत्तियां ओस का सिंगार किये लहराती हुयी अपनी साथ की पत्तियों के साथ हिलती-डुलती हवा से आक्सीजन का नाश्ता करती फ़ूलों की छटा निहार रही हैं। सूरज की किरणें ओस की बूंदों की कुर्सी पर धप्प से बैठ गयी। ओस की बूंद किसी सुन्दरी की नाक की कील सरीखी चमकने लगी। घास की पत्ती मारे खुशी के हिलने-डुलने लगी। ओस की बूंद ने कसकर उसे चिल्लाई-’क्या करती है बावरी? गिर जाऊंगी । हड्डी-पसली टूट जायेगी। ओस की हड्डियों का तो कोई डॉक्टर भी नहीं होता।’
इस पर उस घास की पत्ती के नीचे जाल सरीखी पसरी पत्तियां कहने लगी- ’अरे हमारे रहते तू गिरेगी कैसे हमारी मेहमान, हमारी जान? हम हैं न तुझको अपने ऊपर संभालने के लिये। तू आ तो सही हम तुझको अपनी गोद में लेकर दुलरायेंगे। तेरे जमीन पर गिरने से पहले हम बिछ जायेंगे।’
बड़े फ़ूल अकेले अकड़े-अकड़े खड़े थे। अपने इलाके के दरोगा जैसे। उनको देखकर ही लगता है वे आपस में एक-दूसरे की बहुत इज्जत करते हैं।इसीलिये आपस में एक-दूसरे से बोल नहीं रहे हैं। शायद उनको बोलचाल से इज्जत घटने का अंदेशा हो। देखकर लग रहा है कि एक-एक बड़ा फ़ूल सौ-सौ छोटे-छोटे फ़ूलों के बराबर रंग और वजन पिये हुये है। छोटे-छोटे फ़ूल उन फ़ूलों को देखकर उनको दूर से नमस्ते करते हुये मस्तिया रहे हैं। कुछ फ़ूल उनके जैसा बनने की बात कर रहे हैं। कुछ कह रहे हैं-’बेचारे बुढौती में अपने-आप खड़े तक नहीं हो पारे हैं। खड़े होने के लिये लकड़ी के मोहताज हैं।’ बुजुर्ग फ़ूल बीच में हिल-डुलकर कुछ कहने की कोशिश करते हैं। दूर के छोटे-छोटे फ़ूल कुछ समझ नहीं पाते। बड़े फ़ूल के आसपास ’जे बिनु काज दाहिने बायें’ रहने वाली हवा अपने लाउडस्पीकर से हल्ला मचाते हुये कहती है-’ बड़े फ़ूल सी छोटे फ़ूलों की हरकतों से बहुत दुखी हैं। नाराज हैं। खिन्न हैं।’
छोटे फ़ूल इस सब से बेपरवाह मस्तिया रहे हैं। खिलखिला रहे हैं। आपस में धौल-धप्पा करते हुये एक-दूसरे पर गिर-गिर, पड़-पड़ जा रहे हैं। सूरज भाई यह सब देखकर मुस्करा रहे हैं। पूरी कायनात खिलखिला रही है।
हम बगीचे की खूबसूरती निहारते हुये ऐसा खोये कि भूल ही गये कि हम वसन्त देखने निकले थे। अब देखने का मन भी नहीं है। लग रहा है जो देखा वही ’हमारा वसन्त’ है।

No comments:

Post a Comment