Tuesday, April 25, 2017

लालबत्ती


सुना तो बहुत था लेकिन लालबत्ती का जलवा हमने साल भर पहले ही महसूस किया। महसूस क्या ये समझिये कि फ़ील किया। फ़ील इसलिये कि फ़ील में जो फ़ीलिंग है वो महसूस में कहां।
तो हुआ यह कि हमको कलकत्ता में जहाज पकड़ना था। अपने हिसाब हम से निकले थे। लेकिन शायद पूजा का मौका था सड़कों पर भीड़ बहुत थी। हर सड़क अपनी छाती पर वाहनों का बोझ संभालते हुये हमको देरी से निकलने के लिये हड़काती सी लगी।
एयरपोर्ट के पास आते-आते लगा अब तो फ़्लाइट छूट जायेगी। हमको पहली बार नावों के किनारे पर डूबने वाले शेरों का मतलब पता चला चला। हमने सोचा अब थोड़ा उदास हो लिया जाये। कुछ छूटने पर उदास होने का रिवाज है। रिवाज का तो पालन करना ही होता है न ! रिवाज के नाम पर ही हम लोग तमाम काम न चाहते हुये भी करते रहते हैं - ’लड़कियों को मारना है, मरे को और मारना है, घूस लेना है। सब आदमी रिवाज के चलते ही करता है।’
ड्राइवर को हमारी उदास होने की साजिश पता चल गयी। अनुभवी ड्राइवर शातिर नेता की तरह होता है। नेता को पता चल जाता है कि देश की भूखी जनता को अन्न नहीं देशभक्ति की एंटीबॉयटिक डोज चाहिये। काम नहीं बयान चाहिये। वह बयान देता रहता है, मीडिया कृपा से जबरियन जनप्रिय बना रहता है।
बहरहाल हमारी उदासी की भनक लगते ही ड्राइवर ने गाड़ी की मुंडी के ऊपर लगी लालबत्ती जलाई। गाड़ी अपनी लेन की उल्टी तरफ़ की और हूटर बजाते हुये सड़क पर सरपट दौड़ा दी। हमको लगा ड्राइवर शिवओम अम्बर की कविता का नाट्यरूपान्तरण करने पर तुल गया है:
अपनी तो उल्टी तैराकी है,
धारा में मुर्दे बहते हैं।
सामने से आने वाली गाड़ियां लालबत्ती के सम्मान में उसी तरह रास्ता देने लगीं जिस तरह तमाम विकास योजनायें भ्रष्टाचार के स्वागत में बिछ-बिछ जाती हैं। चौराहे पर खड़े सिपाही ने जिस तेजी से हाथ उठाया उससे हम दहलने को हुये कि अब यह रोककर हमको रगड़ ही देगा कि लालबत्ती कैसे लगाये हो। लेकिन उठे हुये हाथ से हमारी गाड़ी के रास्ते में आने वाली गाड़ियों को रोका और हमको निकाल दिया।
जब एयरपोर्ट पर पहुंचे तो सब जहाज उड़ने के लिये तैयार हो चुका था। हम आखिरी यात्री थे। बस यही लगा कि वह हमारे ही इंतजार में पलक पांवड़े बिछाये खड़ा था। लगता है उसको भी पता चल गया कि हम लालबत्ती वाली गाड़ी से आये हैं।
लालबत्ती की गाड़ी का सड़क पर जलवा ही अलग लगता है। ऐसे तो सब जानवर बराबर होते हैं लेकिन कुछ जानवर ज्यादा बराबर होने की तर्ज पर लालबत्ती वाली गाड़ियां ज्यादा बराबर होती हैं। खाड़ी सड़क पर ऐसे तेज बढती हैं कि देखकर लगता है कि चुनाव जीतने के बाद की सम्पत्ति चली जा रही हो।
अभी लालबत्ती का चलन बन्द हुआ। लोगों का कहना है कि इससे वीआईपी कल्चर खत्म हुआ। तमाम लोगों ने खुद अपनी लालबत्ती उतारी। फ़ोटो खिंचवाये। लगाये। जो नौकरशाह लालबत्ती के हकदार नहीं थे वे भी ’लालबत्ती उतरन यज्ञ’ में अपनी आहुति देते पाये गये। दुखी लोगों ने खुशी-खुशी वाली मुद्रा में इस त्याग का प्रदर्शन किया। एक अच्छी शुरुआत का नारा लगा।
लेकिन अन्दर की बात जानने का दावा करने वालों ने नाम न बताने की शर्त के साथ जानकारी दी कि लालबत्ती हटाने का निर्णय लेने के कारण कुछ और हैं। हमारे पूछने पर कुछ कारण उन्होंने गिनकर बताये :
1. लालबत्ती में खाली सड़क पर तेज भागने की क्षमता तो है लेकिन जाम फ़लांगकर आगे निकलने की औकात नहीं। जाम में सबके बीच खड़ी गाड़ी गुंडों के बीच फ़ंसी रजिया की तरह हो जाती है इसलिये लालबत्ती हटाना ही बेहतर।
2. जनप्रतिनिधियों को लगता है कि लालबत्ती के चलते जनता उनको दूर से पहचान लेती है। उनसे चुनावी वादों को पूरा करने की मांग करती है। पूरा न करने पर जिन्दाबाद-मुर्दाबाद और हाय-हाय की आशंका लगी रहती है। इसलिये लालबत्ती को ’अन्तिम सलाम’ कर दिया।
3. जनप्रतिनिधियों की राय में लालबत्ती का त्याग करने के बाद वे सच्चे त्यागी के सिंहासन पर बैठकर ’गदर गड़बड़ी’ कर सकते हैं। पकड़े जाने पर कह देंगे - ’हमने लालबत्ती त्याग किया है। जो नेता लालबत्ती का त्याग कर सकता है वह चिरकुट गड़बड़ियां क्यों करेगा?’
4. अगले चुनाव में जब जनता पूछेगी कि आपने हमारे लिये क्या किया तो जनप्रतिनिधि गर्व से कहेंगे-’ हमने लालबत्ती छोड़ी है।’ [ भावुक जनता गब्बर सिंह तो होती नहीं जो उनसे कह सके - 'अब आप हमारा पिंड़ छोड़ दे। ]
पता नहीं सच क्या है लेकिन गाड़ी वाली लालबत्ती के वियोग में हमारे शहर के चौराहे की सारी लालबत्तियां विक्षिप्त सी हो गयी हैं। काम करना बन्द कर दिया है उन्होंने। हाल यह है कि लाल बत्ती और हरी बत्ती एक साथ जल रही हैं। लग रहा है सत्तापक्ष और विपक्ष एक होकर सरकार चला रहे हैं और चंदा देने वाले कारपोरेट के समर्थन में कानून बना रहे हैं।

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Friday, April 21, 2017

इस बार ये अंगूठा दिखायेंगे

नेता माइक पर दहाड़ा
-हम विकास करायेंगे।
जनता ने समझ लिया,
अब ये देश बेच खायेंगे।
वो दांत भींचकर बोले,
साम्प्रदायिकता मिटायेंगे।
पब्लिक दहल गयी,
ये ससुरे दंगा करायेंगे।
जनता बोली माई-बाप,
जहां कहो ठप्पा लगायेंगें।
नेता बेचारा डर गया सुनकर,
इस बार ये अंगूठा दिखायेंगे।
-कट्टा कानपुरी

Thursday, April 20, 2017

तुमने ये क्या जुल्म किया,क्या सितम किया

तुमने तो मेरी बात पर पूरा यकीन कर किया,
तुमने ये क्या जुल्म किया,क्या सितम किया।
हमने तो सिर्फ़ मजाक में तुमको अच्छा कहा,
अरे बाप रे! तुमने उसको भी सच समझ लिया।
माना कि हम भले हैं, कभी झूठ नहीं बोलते,
तुमने तो मुझसे, मजाक का हक छीन ले लिया।
-कट्टा कानपुरी

Monday, April 17, 2017

चुनाव के बाद ईवीम



चुनाव के बाद वोटिंग मशीने सुस्ता रहीं थी। आपस में अपने-अपने किस्से सुना रही थीं। लोगों ने कैसे उनका उपयोग किया। कैसे वोट डाला। कैसे दबाया। कैसे सहलाया। आइये सुनाते हैं कुछ उनकी गप्पागाथा:
ईवीएम 1: एक वोटर ने तो इत्ती जोर से बटन दबाया कि अभी तक दर्द कर रहा है। लगता है अगले चुनाव में चल न पायेंगे हम।
ईवीएम 2: याद आ रही है क्या उस वोटर की?
ईवीएम 3: अरे उसकी याद की कड़ाही में तू काहे अपनी जलेबी छान रही है? तुमको किसी की याद नहीं आती तो क्या किसी को नहीं आयेगी? क्यों री दर्द कैसा हो रहा है मीठा कि खट्टा?
ईवीएम 1: भक्क उस तरह वाला दर्द थोड़ी हो रहा। तुम तो सबको अपनी तरह समझ लेती हो। सबके भाग्य में वो मीठा-खट्टा दर्द कहां?
इस गप्पाष्टक को एक बुढिया ईवीएम मशीन दूर से सुन रही थी। अंजर-पंजर ढीले होने के चलते उसको चुनाव में ले नहीं जाया गया था। ऊंचा सुनती थी । इसीलिये दूर की बातों पर कान लगे रहते थे।
बुजुर्गा ईवीएम आवाज में बोली- ’सुना है तुम लोगों से कुछ छेड़छाड़ हुई वहां चुनाव में। तुम लोग भी छेड़छाड़ में इत्ती बेसुध हुई कि वोट दिये किसी और को गये पर तुमने गिनाये किसी और के नाम।’
छेड़छाड़ के नाम से ईवीएम मशीने एकदम प्याज-टमाटर की तरह लाल हो गयीं। (बुजुर्ग और सांवली मशीने प्याज की तरह, युवा और गोरी टमाटर की तरह) लेकिन उनको लगा कि लाल होने से काम नहीं चलेगा तो सफ़ाई देने लगीं। वैसे भी जिन महिलाओं से छेड़छाड़ होती है उसके जिम्मे सफ़ाई देने का ही काम बचता है।
वे बोलीं-- ’हम लोग कोई ऐसी-वैसी मशीन थोड़ी हैं। हमको कौन छेड़ेगा। हम कोई खूबसूरत टाइप मशीन भी नहीं जो हमको कोई छेड़े। खूबसूरत होती तो कोई हीरो-हीरोइन हमारा विज्ञापन करता। भले घर की लड़कियों की तरह हम चुनाव आयोग के गोदाम से सीधे पोलिंग बूथ जाते हैं वहां से सीधे वापस आ जाते हैं। कहीं इधर-उधर ताकते तक नहीं। झांकने की तो बात ही छोड़ दो। ’
सफ़ाई से बुजुर्ग ईवीएम मशीन और उत्साहित हो गयी। बोली-’ लेकिन जब हवा उड़ी है तो कुछ तो बात हुई ही होगी कि छेड़छाड़ का हल्ला है। हमने भी चुनाव करवाये हैं। हमको भी लोगों ने दबाया है। इधर-उधर थपथपाया है। किसी-किसी ने तो पटका भी है। खटखटाकर भी वोट डाला है लेकिन मजाल है जो आजतक किसी ने छेड़छाड़ की हो। तुम लोगों ने जरूर कुछ ऐसा किया होगा जो छेड़छाड़ की खबर फ़ैली। लाख समझाओ लेकिन तुम लोग मनमानी से बाज कहां आते हो। ये नयी हवा का असर है।’ बुढिया ईवीएम बड़बड़ाते हुये खांसने लगी।
फ़िर तो सब ईवीएम मशीने छेड़छाड़ का आरोप लगाने पर फ़िरंट हो गयीं। पता लगा कि मशीनों से छेड़छाड़ का आरोप लगाने वाले वही लोग थे जो हार भी गये थे। उनको इस बात से तसल्ली हुई कि जीते हुये लोगों ने उन पर छेड़छाड़ का आरोप नहीं लगाया।
फ़िर तो ईवीएम मशीनों के सुर बदल गये। वे ठिठोली करते हुये बतियाने लगीं।
बकने दो हरंटो को। सरकार तो हमारे समर्थन में होगी।
तब क्या एक ने नारा लगाया:
"जिसके साथ खड़ी हो सरकार
उसको कौन बात का डर यार।"
जिसने हम पर छेड़खानी की बात कही उसको अगले चुनाव में टिकट न मिले।
अरे नहीं री। टिकट तो मिले लेकिन टिकट के दाम दोगुने हो जायें।
और टिकट जिस इलाके से मिलें उस इलाके में उसको कोई जानता न हो।
फ़िर तो वो जीत जायेगा बे। लोग उसकी करतूतें जानेंगे नहीं तो भला समझ कर जिता देंगे।
दिन भर इसी गपड़चौथ में जुटी एवीएम मशीनों ने शाम को महसूस किया कि वे तो अपनी छेड़छाड़ के ही किस्से में जुटी रहीं।
एक बोली- ’इस चुनाव में हम ईवीएम के हाल तो रजिया की तरह हो गये तो जो नेताओं के चक्कर में फ़ंस गयी हो।’
अबे रजिया तो गुंडों के बीच फ़ंसी थी। -दूसरी ने सुधारने की कोशिश की।
हां यार। रजिया की किस्मत अच्छी थी जो गुंडों के बीच फ़ंसी थी। हमारे ही करम फ़ूटे हैं जो नेताओं के बीच फ़ंस गये।- तीसरी न कहा।
ये क्या आंय-बांय-सांय बक रही है तू। क्या चुनाव सभा में भाषण दे रही है। गुंडों के बीच फ़ंसना अच्छी किस्मत है? - चौथी ने हड़काया।
नेताओं के बीच फ़ंसना तो गुंडों के बीच फ़ंसने से सौ गुना बेहतर है यार- दूसरी ने समझाया।
कैसे ? -कईयों ने एक साथ पूंछा।
गुंडों का कुछ तो दीन-धरम होता है। गुंडा जब अपने दीन-धरम छोड़ देता है तो नेता हो जाता है।’- दूसरी ने अनुभवामृत बांटा।
सही कह रही है तू। लेकिन इस बात को बाहर किसी से कहना नहीं वर्ना लोग जीना दूभर कर देंगे। अभी छेड़छाड़ की बात कही फ़िर न जाने क्या गत करायें हमारी। नेताओं का कोई भरोसा नहीं आजकल।
हमको तो नेताओं से ज्यादा उनके पिछलग्गुओं से डर लगता है।
न जाने कौन जनम के पाप थे तो हम ईवीएम मशीन बने। एक ईवीम मशीन ने अपना मत्था ठोंकते हुये कहा।
एक भक्तिन टाइप ईवीएम मशीन रामचरित मानस की चौपाइयां बांचने लगी:
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा
जो जस करै तो तस फ़ल चाखा।
दूसरी पैरोडीबाजी करने लगी:
कोऊ नृप होय हमें का हानी
ईवीएम छोड़ न होइहैं रानी।
हम ईवीएम मशीनों को उनके हाल पर छोड़कर चले आये। कर भी क्या सकते थे?
व्यंग्य की जुगलबंदी -30

Sunday, April 16, 2017

शेर-वेर के बाद कुछ व्यंग्य-स्यंग्य जम जाय


आठ बज गये सुबह के, आय गयी है चाय,
जगा रहे स्टेटस को, बेटा अब तो उठि जाव।
बैठ बिस्तरे पर मजे से, खटर-पटर हुई जाय,
लिखें-पढ़ेगे बाद में, तनि शेर-वेर सटि जाय।
शेर-वेर के बाद कुछ व्यंग्य-स्यंग्य जम जाय,
लाइक-कमेंट के बाद , जुगलबंदी भी हो जाय।
-कट्टा कानपुरी

Thursday, April 13, 2017

सेल्फ़ी


फ़ोन से अपन का परिचय कब हुआ याद नहीं आता। लेकिन यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं कि ग्राहम बेल के बाद ही हुआ होगा। ग्राहम बेल की बात इसलिये कही क्योंकि फ़ोन की खोज उनके नाम ही चढी है।
चोंगा वाले फ़ोन के बाद पहला नोकिया मोबाइल फ़ोन जब आया घर में उसका उपयोग मिस्ड कॉल करने, आई हुई फ़ोन कॉल रिसीव करने और पेपर दबाने के लिये हुआ।
सोते समय फ़ोन सिरहाने रखकर सोते थे।
फ़ोन सिरहाने रखकर सोने का कारण उन दिनों छपी अखबार में एक खबर थी जिसके अनुसार टाइगर वुडस की बेवफ़ाई की खबर पता लगने पर उसकी पहले वाली प्रेमिका ने फ़ेंककर मोबाइल मारा था। टाइगर वुड्स के दांत टूट गये थे। बेवफ़ाई तो खैर बड़े लोगों के चोंचले ठहरे लेकिन हम सोचते थे कि अगर कोई चोर हमारे यहां घुसेगा तो देखते ही उसके फ़ेंक के मारेंगे मोबाइल। नोकिया के फ़ोन में यह सुविधा होती है कि टुकड़े-टुकड़े होकर भी जुड़ जाता है। काम करता रहता है। स्मार्टफ़ोन की तरह छुई-मुई नहीं होता कि छूटा तो गया।
मोबाइल फ़ेंककर मारने वाली बात लगता है चीनियों ने अभी तक देखी नहीं वर्ना काश्मीर में खपा दिये होते मोबाइल- ’पत्थर की जगह मोबाइल फ़ेंककर मारो। पत्थर से सस्ते और टिकाऊ।’
जब स्मार्ट्फ़ोन हाथ आया तो उसके फ़ीचर इस्तेमाल करने शुरु किये। फ़ोन करने में खर्चा लगता है। मिस्ड कॉल उठती नहीं। इसके बाद ले-देकर कैमरे का उपयोग ही बचता है। फ़ोटो खैंचने लगे।
देखते-देखते फ़ोटो खींचने की ऐसी लत लगी जो चीज देखी उसकी फ़ोटो खींचने लगे। बल्कि चीजें देखते बाद में फ़ोटो पहले खींचते। धीरे-धीरे इतना एक्सपर्ट हो गये कि बिना देखे फ़ोटो खींचने लगे। अच्छा फ़ोटोग्राफ़र एक आंख दबाकर फ़ोटो खींचता है। हम दोनों आंख दबाकर खैंचते। दोगुने अच्छे फ़ोटो ग्राफ़र हो गये।
-जारी है अभी शायद आगे भी लिखा जाये 

Tuesday, April 11, 2017

श्रीलाल जी का आखिरी समय जैसा बीता वैसा वे कतई नहीं चाहते थे





Krishna Bihari जी की पत्रिका निकट में छपा संस्मरण
श्रीलाल शुक्ल जी से मेरा सबसे पहला परिचय ’राग दरबारी’ के जरिये हुआ। लगभग बीस साल की उमर में। सन 83-84 की बात है। एक शनिवार को लाइब्रेरी से बिना किसी की सिफ़ारिश के राग दरबारी उपन्यास लाया। पढ़ना शुरु किया तो फ़िर खत्म करके ही छूटा। इसके बाद उनकी जो भी रचना मिली पढ़ी। उनके बारे में जहां मिलता- पढ़ता। उनके बारे में जितना जानकारी होती गयी, उनकी जितनी रचनायें पढ़ता गया उनसे मिलने का मन होता गया।
बहुत दिनों तक उनसे मिलने की बात स्थगित होती रही। हमेशा संकोच लगता कि क्या कहेंगे उनसे मिलने पर। क्या पूछेंगे उनसे बात करते हुये। इसी संकोच के चलते पहली बार रागदरबारी पढ़ने के पंद्रह साल बाद तक उनसे मिलना स्थगित होता रहा। इस बीच उनकी तमाम रचनायें, संस्मरण, व्यंग्य, कहानियां पढ़ते गये। लेखक के बारे में अपनी धारणा बनाते गये। जब मौका मिला रागदरबारी एक बार और पढ़ गये।
पहली बार मैंने उनको शाहजहांपुर में देखा। वे हृदयेश जी को मिले ’पहल’ सम्मान में शामिल होने आये थे। शाम को किसी स्कूल में कार्यक्रम में पहली बार उनको बोलते सुना। धीमी ठहरी आवाज में वे सन पचास-साठ के किस्से ऐसे सुना रहे थे जैसे आजकल की बात हो। एक लेखक पाठक संबंध के आगे बढ़कर हमारा वक्ता-श्रोता का संबंध बना।
श्रीलाल शुक्ल जी पहली मुलाकात हुई उनकी किताब पहली बार पढ़ने के करीब पंद्रह साल बाद! साल का आखिरी दिन था। लखनऊ में अपने रिश्तेदार के यहां गया था। वहीं पास में श्रीलाल शुक्ल जी रहते थे। मुझे यह सालों से पता था लेकिन संकोच के चलते मैं गया नहीं उनसे मिलने पहले कभी। उस दिन मिलने के उत्साह ने संकोच को पटक दिया और मैं उनके घर पहुंच गया। एक ठो कैमरा साथ में था।
श्रीलाल जी से मुलाकात हुय़ी। परिचय-सरिचय हुआ। बाहर लान में ही बैठे बात हुई। आधा-एक घंटा करीब। मुझे ताज्जुब हुआ कि जिससे मिलने में मैं इतने साल तक संकोच करता वह तो हमारे घर के बुजुर्ग सरीखा है। आत्मीय, सहज, सरल। बेकार ही मैं इनसे मिलने में संकोच करता रहा।
चलते समय मैंने उनके फ़ोटो खींचे। फ़ोटो खिंचवाने के बाद उन्होंने कहा –इसकी कापी मुझे भी भेजियेगा।
दो दिन बाद जब मैं उनको फोटो भेज रहा था तब याद आया कि अरे जिस दिन मैं उनसे मिला उस दिन उनका जन्मदिन था। और मैंने उनको जन्मदिन की बधाई दी ही नहीं। खैर चिट्ठी में उनको जन्मदिन की बधाई देने के साथ उनको फोटो भेजे। उन्होंने उसके जबाब में पोस्टकार्ड लिखकर धन्यवाद भेजा।
उस समय श्रीलाल जी सत्तर पार कर चुके थे। पूरी तरह स्वस्थ थे। पत्र का जबाब खुद लिखकर देते थे। पूरी जिन्दगी प्रशासनिक अधिकारी रहने के बावजूद सहज, सरल बने रह सके यह उनकी बड़ी खासियत लगी मुझे।
इसके बाद उनसे लगातार मिलना होता गया। साल में कम से कम एक बार तो मुलाकात होती ही। उनसे मिलने पर वे अपने समय से जुड़े लेखकों के तमाम संस्मरण सुनाते। खुलने पर मौज-मजे के किस्से भी। वे खुलकर हंसते और मजे लेते। प्रत्युन्नमति, बहुत दिनों तक, जब तक वे स्वस्थ रहे , कमाल की रही। वे अपने पर भी खुलकर हंसते। लेकिन उनका हंसना हंसना ही होता था। उसमें खिल्ली उड़ाने का भाव नहीं होता।
धीरे-धीरे उनके बारे में और जानता गया। इस बीच अखिलेश जी किताब तद्भव आयी। पहला अंक श्रीलाल शुक्ल पर केंद्रित था। उनमें उनका इंटरव्यू , लोगों के उनके बारे में संस्मरण और तमाम सामग्री से उनके बारे में और बहुत कुछ पता चला। यह भी पता चला कि अपने पसंदीदा लेखक , जिससे हम कई बार मिल भी चुके हैं, के बारे में हम कितना अनजान हैं।
इस बीच इंटरनेट से जुड़ना हो गया था। नेट पर हिंदी में बहुत कम सामग्री थी। परसाईजी और श्रीलाल शुक्ल जी की एकाध रचनाओं के अंश नेट पर पर डाले। फ़िर सोचा कि राग दरबारी नेट पर होना चाहिये। उनसे पूछा तो उन्होंने कहा –डाल दो। हमने कहा – प्रकाशक को तो एतराज नहीं होगा कुछ? वे बोले- अरे डाल दो जब प्रकाशक कुछ बोलेगा तो देखा जायेगा।
फ़िर रागदरबारी और उनकी तमाम रचनायें नेट पर डालना शुरु किया। उनसे मिलना जारी रहा। संकोच कम होता गया। जब भी लखनऊ जाते उनसे जरूर मिलते। कभी-कभी फोन पर बात भी कर लेते।
उनके 81 वें जन्म पर उनके बारे में किताब आयी तो उनके घर के लोगों के संस्मरण थे। मेरा भी एक संस्मरण था- ’श्रीलाल शुक्ल विरल सहजता के मालिक।’ घर के लोगों के संस्मरणों से पता चला कि उनका बचपन भी कठिनाई में बीता था लेकिन वे उसके बारे में विज्ञापन करना उचित नहीं समझते। मुक्तिबोध के शब्दों में दुखों को दागों को तमगों सा पहनने को वे ओछा काम समझते थे।
एक बार आर्मापुर में किसी कार्यक्रम में वे आये थे। तब तक उनसे परिचय काफ़ी हो गया था। मैं उनको लगभग जबरदस्ती अपने घर ले आया। मार्कण्डेयजी, गिरिराज किशोर जी , कमलेश अवस्थी जी साथ थीं। करीब एक घंटा हमारे घर रहे वे। घर में उगी हल्दी एक पैकेट में दी उनको चलते समय तो वे हंसते हुये बोले- इससे पवित्र और क्या हो सकता है?
लेखन के बारे में मेरे लिये वे बहुत बड़े लेखक ही रहे। इसलिये मेरी जिज्ञासायें उनसे एक समर्पित प्रसंसक जैसी ही रहती थी। कभी-कभी कुछ सवाल-जबाब भी करते। एक बार किसी बात पर कहने लगे- हम भारत के लोगों में बदतर परिस्थितियों में रहने की अद्भुत क्षमता है। इसलिये मुझे नहीं लगता कि देश में कोई सार्थक बदलाव निकट भविष्य में होने वाला है।
श्रीलालजी की तमाम खाशियतों में एक यह भी थी कि वे व्यर्थ के विवादों में अपना समय तथा ऊर्जा बरबाद करने को निहायत वाहियात-बेवकूफी का काम मानते थे। रागदरबारी के लिखे जाने के करीब तीस साल बाद हिंदी लेखक मुद्राराक्षस ने रागदरबारी में तमाम खामियां बताते हुये इसे ग्रामीण परिवेश का उपन्यास मानने से इंकार किया। तीखी भाषा में लिखी इस अतथ्यात्मक आलोचना का खंडन करने के लिये जब श्रीलाल जी के प्रशंसको-मित्रों ने उन्हें उकसाया तो वे बोले-मैं इस वर्डी डुएल में नहीं पड़ना चाहता। मुद्राराक्षस को भी लोग जानते हैं मुझे भी।
श्रीलालजी की कुछ स्थापनायें एकदम नयी दृष्टि देती हैं। उनका मानना था कि देश का ज्यादातर हिस्सा ग्रामीण परिवेश से जुड़ा है लिहाजा मैला आंचल,रागदरबारी,आधा-गांव आदि उपन्यास मुख्य धारा के उपन्यास माने जाने चाहिये। जबकि अंधेर बंद कमरे आदि शहरी परिवेश के उपन्यास बहुत छोटे तबके का सच बताते हैं लिहाजा वे आंचलिक माने जाने जाने चाहिये।
श्रीलाल जी का आखिरी समय जैसा बीता वैसा वे कतई नहीं चाहते थे। उनकी एक ही तमन्ना थी वे आखिरी समय तक स्वस्थ और चैतन्य रहें। लिखने की उनकी बहुत मंशा थी। लेकिन ये दोनों ही इच्छायें उनकी पूरी न हो सकीं।
श्रीलाल जी का साहित्य में क्या स्थान है यह विद्वान लोग जानें। लेकिन कभी-कभी यह लगता है कि उनको परसाईजी, जोशी जी के साथ आदि-इत्यादि में निपटाया गया। कारण शायद श्रीलाल जी भी रहे हों क्योंकि उन्होंने हर तरह का लेखन किया। जासूसी टाइप उपन्यास भी लिखे। आलोचकों के गोल में नहीं घुसे। पाठकों के समर्थन से प्रसिद्ध हुये। भारत में साहित्य से जुड़ा हर सम्मान मिला। इसलिये भी साहित्य माफ़िया शायद सोचता हो कि इन पर क्या सर्च लाइट मारना।
श्रीलाल जी से मेरा संबंध एक प्रसिद्ध बुजुर्ग लेखक से के एक औसत प्रशंसक पाठक का ही रहा। जब उनसे मेरी मुलाकात हुई तब वे लिखना बंद करने की स्थिति तक कम कर चुके थे। उनके लेखन और व्यक्तित्व के तमाम पहलूओं से मैं शायद अब भी बहुत परिचित न हूं। लेकिन जितना मैं श्रीलाल जी को जानता हूं उतने से कहने का मन करता है कि वे एक बहुत बड़े लेखक थे। जितने बड़े लेखक थे वे इंसान भी उतने ही बड़े थे। शायद कुछ ज्यादा ही बड़े।
अनूप शुक्ल

Sunday, April 09, 2017

फिर बिंदास ची ची ची की जाए

आज सूरज भाई दिखे. शाम होने के बावजूद गरम थे. तैश में दिख रहे थे. पहले तो सोचा बोलें - कहाँ रहे इत्ते दिन दिखे न भाई जी. लेकिन उनके तेवर देख के चुप रहे.
सूरज भाई मार्च महीने में टारगेट पूरा न हो पाने पर चड़चिड़ाते अफसर की तरह झल्ला रहे थे. पेड़-पौधे अनुशासित स्टाफ सरीखे सहमे से खड़े थे. गुम्म सुम्म. पत्तियां स्टेचू, पेड़ सावधान मुद्रा में थे मानो बस जन-गण-मन बजने ही वाला है कहीं हवाओं में. और तो और चिड़ियाँ तक चुप थीं. सब डरी हुईं थी कि बोलने पर सूरज भाई कहीं गरम न कर दें. वे सब पत्तियों की आड़ में छिपी सूरज भाई के जाने का इंतजार कर रहीं थीं. वे जाए तो फिर बिंदास ची ची ची की जाए.
सूरज के गुस्से से बेखबर कुछ सफेद पक्षी पेड़ों की आड़ में उतर रहे थे. पंख फडफ़ड़ाते उतरते. जमींन पर उतरने के पहले अपने पंख समेटते पक्षी ऐसे लग रहे थे मानो स्कूल की बच्चियां गंदी हो जाने से बचने के लिए अपनी सफ़ेद फ्राक जमीन पर बैठने से पहले सहेज रहीं हो.
कुछ देर की छुपा छुपौवल के बाद मोड़ पर सूरज भाई अचानक सामने आ गए. पेड़ों के बीच से आती उनकी किरने हमारे पास तक ऐसे पहुंच रहीं थी मानो सूरज भाई हमारा गिरेबान पकड़ कर अपनापा दिखाना चाह रहें हों. हमने मुस्करा के उनको नमस्ते किया और कहा अब्भी आते हैं सूरज भाई! आप जरा अपनी दुकान समेट लो.
सूरज भाई को बाय बोल के हम आगे निकल आये. चौराहे पर प्लास्टिक की कुर्सियां लगाये कुछ लोग चुनाव सभा टाइप कर रहे थे. अपने प्रतिनिधि को वोट देने की सिफ़ारिश करते. लौटने पर देखा तो सूरज भाई अपना शटर गिराकर जा चुके थे. पेड़ों पर चिड़ियां चहकने लगीं थी. हवा चलने लगी थी. शाम हो गयी थी.

Friday, April 07, 2017

जो चीजें जबरियन भुलाई जाती हैं वो और तेज याद आती हैं

आज सबेरे उठकर बाहर आये तो देखा सूरज भाई आसमान पर जलवा नशींन थे। हमको देखा तो मुस्कराने लगे। बोले -'ठीक है उठने के बाद बायोमेट्रिक अटेंडेंस नहीं देनी पड़ती लेकिन टाइम से उठा करो भाई।'
सूरज भाई के साथ किरणें भी हंसने लगीं। कुछ हमारी बातचीत से बेपरवाह बगीचे में घास, पत्ती, फ़ूल पर खेलती रहीं। धूप और उसकी छांह की जुगलबन्दी के बीच एक गिलहरी बिना वीसा, पासपोर्ट के फुदक रही थी। फुदकते समय अपनी पूँछ झंडे की तरफ फहरा रही थी। उचकते हुए पेड़ पर चढ़ने लगी। कुछ देर चढ़ी फिर पलटकर खड़ी हो गयी पेड़ पर ही। मुंडी नीचे पूँछ ऊपर। शायद शीर्षासन कर रही हो।
बगीचे में चिड़िया चहचहा रहीं थी। कुछ चिल्ला रहीं थीं। जैसे ही हमने कुछ के लिए चिल्लाना लिखा वैसे ही एक चिड़िया और तेज चिल्लाने लगी। शायद कह रही हो-'हमारे चहकने को चिल्लाना मत लिखो। अपने गुण हम पर मत आरोपित करो। हमारे चहकने को चिल्लाना मत कहो।
अलग-अलग आवाज में बोलती चिड़ियाँ अपने-अपने पसंदीदा लेखक की तारीफ़ करते हुए लेखक सी लगीं। ज्यादातर के पसंदीदा लेखक वो स्वयं होते हैं। खुद की फोटो, खुद की तारीफ़, खुद के किस्से। मुग्धनायिका जैसे। मुग्धानायिका से याद आया हमने एक बार लिखा था-'हर सफल लेखक मुग्धानायिका सरीखा होता है।'
लेखक की बात करते हुए सामने दीवार पर बंदर चलते हुए दिखे। मंकीवाक करते बन्दर अपनी पूंछ को झंडे जैसा फहराते चल रहे थे। पूँछ का झंडा संतुलन के लिए फहराते होंगे शायद।
दीवार पर टहलते बन्दर में से एक को अचानक प्यास सी लगी। वह टहलना छोड़कर दीवार से कूदकर नल के पास आया। टोंटी खोलकर पानी पिया और पानी चलता छोड़कर चल दिया। बन्दर भी आदमी की तरह लापरवाह सा दिखा। 'जल बचाओ अभियान' की अवहेलना करता। उसको भी एहसास नहीं कि पानी कितना जरुरी है जीवन के लिए।
कुछ बन्दर छत पर कूदते हुए भाग रहे हैं। टीन की छत भड़ भड़ा रही है। बंदर आवाज से उत्साहित होते और जोर से कूद रहे हैं। शायद विरोध प्रकट कर रहे हों कि यहाँ घर क्यों बनाया। यहाँ तो हमारा पेड़ था। हर जीव अपने अधिकार के लिए हल्ला मचाता रहता है। आदमी भी एक जीव है।
क्रासिंग से रेलगाड़ी गुजर रही है। उसकी सीटी हमको छेड़ते हुए बज रही है। गाने की याद दिलाती हुई:
गाड़ी बुला रही है
सीटी बजा रही है
चलना ही जिंदगी है
हमको बता रही है।
बगल के स्कूल में बच्चे प्रार्थना कर रहे हैं। बोल समझ में नहीं आ रहे हैं। समवेत स्वर भी अलग-अलग निकल रहे हैं।
आपत्ति फूल को है माला में गूथने से
भारत माँ तेरा वंदन कैसे होगा।
सम्मिलित स्वरों में हमें नहीं आता गाना
बिखरे स्वर से ध्वज का वंदन कैसे होगा।
हमको ये कविता याद आ गईं। देशभक्ति टाइप है। इसलिए लगेगा हम देशभक्त टाइप हैं। अलग टाइप की याद होती तो अलग टाइप के लगते। इंसान को जिस तरह की चीजें याद रहती उसके उसी टाइप का बन जाने की संभावना सबसे ज्यादा रहती हैं। इसीलिए सत्ताएं लोगों को अपने टाइप का बनाने के लिए अपने टाइप की चीजें सिखाने की कोशिश करती हैं। लेकिन इस चककर में अक्सर न्यूटन बाबा का तीसरा नियम भूल जाती हैं- हर क्रिया की बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है।
जो चीजें जबरियन भुलाई जाती हैं वो और तेज याद आती हैं।
अब चलें । सुबह हो गयी। दफ़्तर को जबरियन भूले हुए थे, बहुत तेज याद आ गया।
आप मजे से रहिये। दिन शुभ हो।

Thursday, April 06, 2017

धन्धे से धंधा जुड़ा होता है


आज दो बार गंगापुल पार किये। नरेशा सक्सेना जी की कविता याद करते हुये:
पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती
नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना।
लेकिन पुल की कहानी फिर। शुरुआत चाय की दुकान से।
सुबह गेट के बाहर चाय की दुकान जम रही थी। पप्पू नाम चाय वाले का । पप्पू दूध गरम कर रहे थे। तीन साल से लगा रहे हैं दूकान। दस किलो दूध की चाय रोज बेच लेते हैं। एक किलो में बीस- बाइस चाय। एक चाय पांच रूपये की। मतलब 1000 रूपये की बिक्री चाय से। बाकी चुटुर-पुटुर।
पहले टट्टर बनाने का काम करते थे। अब मेहनत कम कर पाते हैं। इसलिये चाय की दुकान कर ली। पांच बच्चे हैं। दो सिलाई का काम करते हैं।
पप्पू दूध गरम कर रहे हैं। इसलिये हम अपनी चयास को स्थगित करके सैर पर निकल लेते हैं।
'यदुवंशी स्वीट हाउस' की गन्दगी को तीन सूअर जिस तरह तसल्ली से खखोरकर छितरा रहे थे उससे लगा जीबीआई (गन्दगी ब्यूरो इन्वेस्टिगेशन) की टीम का छापा पडा है दुकान पर।
मंदिर में भजन चल रहा है--'मैया ने बुलाया है।'
सड़क के दोनों तरफ पड़ी चारपाइयों में लोग गुड़ी-मुड़ी हुए सो रहे थे। कुछ लोग मच्छर दानी को चादर की तरह लपेटे हुए खर्राटे भर रहे थे।
पुल पर पहुंचकर सोचते हैं कि वापस लौटें या पुल पार चलें। सोचते-सोचते सौ कदम निकल जाते हैं। अपने आप तय हो जाता है ,पार चलना है।
नीचे रेती में लोग ककडी,खरबूजा, तरबूज के खेत में काम कर रहे थे। डीजल -पम्प लगाकर सिंचाई कर रहे थे। दो बच्चे रेत में दौड़ते-भागते खेल रहे थे। यह उनकी यादों में दर्ज हो रहा होगा।
बगल वाले पुल पर ट्रेन जा रही थी। बीच पुल पर रुक गयी। हम आगे निकल गए। चलते रहने वाला हमेशा रुक जाने वाले से आगे हो जाता है। आलोक धन्वा की कविता याद आती है:
हर भले आदमी की एक रेल होती है
जो माँ के घर जाती है
सीटी बजाती हुयी
धुआँ उड़ाती हुयी
- आलोकधन्वा
पुल के बायीं तरफ बने हुये मकान पुल से नीचे दीखते हैं। एक बच्ची छत पर सतर्क मुद्रा में बैठी पढ़ाई कर रही थी। अगल-बगल की छतों पर लोग सोए हुए थे।
गंगापुल पार करते ही चाय की दुकान दिखी। चाय की दुकान पर चाय पीते हुये लोग राजनीतिक चकल्लस कर रहे थे। एक अख़बार वाले कांग्रेस समर्थक अकेले सबका मुकाबला कर रहे हैं। बोले -'अब राजस्थान वाले कहिहैं, हमारौ कर्ज माफ़ करौ। करैंक परी (करना पड़ेगा)।'
कांगेस समर्थक बाजपेयी जी अकेले भिड़े हैं दस लोगों से। बोले- 'रायबरेली जिला है। कट्टर कांग्रेसी हैं। अगली बार फिर अइहै कांग्रेस।'
दुकान के सामने खड़े बाजपेयी जी का फोटो खींचते हैं। तब तक एक रिक्शेवाले उचककर सामने आ जाते हैं। बोले-'हमरौ फोटो खींचो।' ओमप्रकाश नाम है। हम फोटो खैंच कर दिखाते हैं। खुश हो जाते हैं। एक क्लिक भी काफी है किसी की ख़ुशी के लिए।
लौटते हुए रिक्शे पर लोग बोरे में फूल लादे आते दीखते हैं। बताते हैं अजगैन से फूल मण्डी जाते हैं । कानपुर में शिवाला में मंडी है फूलों की। एक-एक रिक्शे पर तीन-चार बोरे और एक-दो लोग लादे हुए हैं रिक्शेवाले।
नीचे रेती में एक बच्चा एक टाले को रस्सी से बांधे हुए टहल रहा है। रेत पर ताले की पगडण्डी बनती जा रही है। एक बच्ची सायकिल पर चली जा रही है। गद्दी पर हीरो लिखा है। उसके पीछे और तेजी से एक बच्ची कैरियर पर किताबें रखे चली जा रही है। सामने से एक आदमी खरामा-खरामा गुनगुनाता हुआ चला आ रहा है:
श्री रामचन्द्र क्रपालु भजु मन हरण भव भय दारुणम
कन्दर्प अगणित अमित छवि नवनीलनीरज सुन्दरम।
भजन सुनकर याद आया कि यह भजन निराला जी को बहुत प्रिय था। अक्सर गाते थे। रामविलास जी ने लिखा है कि पहली बार यह भजन उन्होंने अपनी पत्नी मनोहरा देवी से सुना था। उसके बाद उनका लिखना शुरू हुआ था। पूरा किस्सा यहां पढें:
नीचे नदी में दो नाव वाले अगल-बगल नाव चला रहे थे।
पुल पार करते हुए देखा एक महिला स्कूटर पर अपने पति के साथ आई। उतरकर घर से लाया कूड़ा कूड़े में मिलाकर चली गयी। कूड़े का भी आकर्षण का सिद्धांत होता है- ’कूड़ा कूड़े को खींचता है।’
सुरेश रिक्शे वाले अपने रिक्शा स्टैंड पर टहलते दिखे। बताया गुड्डू घर गए हैं। हरदोई। खेती का काम देखने। चार-पांच दिन में आएंगे।
अनीता की झोपडी के पास से गुजरते हुए देखा वह अंदर बर्तन धो रही थी। बाहर होती तो पूछते- ’नाम मिला कि नहीं?’
पप्पू की दुकान पर चाय पीने वाले आ गए हैं। हमको जबरियन चाय पिलाये। पैसे लेने से मना किये-'पहली बार चाय पी रहे हैं।नहीं लेंगे।' हम भी जबरियन पैसा देते हैं। देते क्या धर देते हैं दुकान पर।
पप्पू के ज्यादातर ग्राहक ’बार्क यार्ड’ में सिलाई का काम करने वाले ठेकेदारों के यहां सिलाई का काम करते हैं। काम कम हो रहा है। हमीरपुर से आये एक टेलर बताते हैं जब काम नहीं होगा तब घर चले जाएंगे। पप्पू भी कहते हैं -जब ये चले जाएंगे, हमारी बिक्री और कम हो जायेगी। अभी यही हमारें नकदी/उधारी के ग्राहक हैं।
धन्धे से धंधा जुड़ा होता है -’सोचते हुए हम घर चले आते हैं।’
सुबह हो गयी है।

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Wednesday, April 05, 2017

ये हमारे घर वालों से पूछो




'अरे औरतों ने छीन लिया कट्टा और अड़ा दिया मैनेजर के। बोली -धाँस देंगे गोली सीने में।'
चाय की दुकान पर बैठा आदमी महिलाओं द्वारा दारू की दुकानें बन्द कराने के किस्से सुना रहा था। शराब बंदी को लेकर बयान जारी कर रहे थे लोग।
पता चला कि महिलाओं ने हाई वे पर चलने वाले एक दर्जन से ज्यादा शराब के ठेके बन्द करा दिए। एक जगह सेल्समैनेजर को पकड़कर ठोंक दिया।
'अरे जिसको पीनी है वो साला जहां मिलेगी वहां से लेकर पियेगा।'
'दारू बन्द हो गयी तो लोग कच्ची पिएंगे। और मरेंगे। अभी ठेके पर कम से कम ठीक-ठाक तो मिलती है।'
'अरे जिसको छोड़नी होती है वो खुद छोड़ता है। कोई छुड़वा नहीं सकता। हमने छोड़ी , पांच साल हुए हाथ नहीं लगाया।'
हमने पूछा कैसे छोड़ी?
वो बोला-'ये हमारे घर वालों से पूछो। हमने तो बस छोड़ दी।'
आगे मंदिर के पहले यादव मिष्ठान्न भण्डार में जलेबी छन रही थी। भजन कैसेट बज रहे थे।
गंगा तट पर जाने वाली सड़क के दोनों किनारों पर लोग सो रहे थे या अलसाये से अंगड़ाई ले रहे थे। सुलभ शौचालय में नहाने और निपटने का रेट 5 रुपये लिखा था।
रिक्शा वाले मालिक सुरेश अपने ठीहे पर टहल रहे थे। रिक्शे वाले निपटने, नहाने गए थे। हरदोई वाले रिक्शेवाले का नाम पता चला गुड्डू।
नीचे उतरकर पैदल पुल की तरफ गए। लोहे के गर्डर पर बना पुल आवाजाही के लिए बंद हो चुका है। एक फुट ऊंचाई पर लोहे का बैरियर लगा है। लेकिन पैदल और साइकिल वाले उचककर निकल जाते हैं।
पुल खुली सुरंग की तरह है। दांयी तरफ सूरज भाई गंग स्नान कर रहे थे। जहां उतरे नदी में वह जगह लाल सिंदूरी कर दी। बायीं तरफ एक महिला रेलिंग के सहारे खड़ी थी। कुछ देर बाद हाथ दोनों तरफ फेंकते हुए कसरत करती हुई आगे चली गयी। नीचे नदी में नाव चला रहे थे लोग। एक बुजुर्ग तसल्ली से नहा रहे थे। आगे एक महिला पानी में कमर तक उतरकर नहाने लगी।
हम भी नीचे गए। नदी तक। किनारे के कुछ घरों में ताला लगा था। कुण्डी, किवाड़, कुलुप (ताला) वाला घर अगर खुला होता तो और खूबसूरत लगता। एक घर के बाहर एक महिला औंघाई सी नदी को निहार रही थी। किराये पर रहती है। आजमगढ़ से आई है। पहले पास दूसरी जगह किराये पर रहती थी। यहाँ कुछ दिन हुए आई है। अंदर एक महिला और एक बच्चा देहरी को तकिया बनाये सो रहे थे।
इस बीच एक और आदमी लपकता हुआ ऊपर की तरफ आया। बताया सुल्तानपुर से आये थे 40 साल पहले। यहां PWD में नौकरी करते हैं। झोपड़ियों में टीन, टप्पर, मोमिया के साथ डिश एंटीना शोभायमान हो रहा था।
देखकर लगा कि विकास एक रेखीय नहीं होता। उछलता, कूदता, फांदता , जहां जगह मिली वहां सींग घुसाता चला आता है।
नदी किनारे नहाते बुजुर्ग कपडे सहेजते हुए वापस चलने की तैयारी कर रहे हैं। साथ के बर्तन और बोतल में गंगाजल भर रहे हैं। पानी को हिलाते हुए गन्दगी बचाकर पानी बोतल में भरते हैं। साबुन की बट्टी को गंगाजल से धोकर वापस चल देते हैं।
लौटते हुए देखते हैं ऊंचाई पर गायों के तबेले हैं। गायों का गोबर वहीँ इक्ट्ठा है। बारिश में सब गंगा में मिलता होगा।
किनारे की दुकान पर एक महिला घूँघट काढ़े झाड़ू लगा रही थी। शायद ससुराल वाले बड़े-बुजुर्ग कहीं आसपास निगरानी कर रहे हों उसकी।
सड़क किनारे चारपाई पर बैठे कुछ लोग बीड़ी सुलगाते हुए किसी बात पर अबे-तबे करते हुए बतिया रहे थे।
आगे सड़क किनारे एक मियां बीबी मंजन कर रहे थे। तसल्ली से दांत चमका रहे थे। हम उनसे बतियाने लगे तो आदमी खड़ा हो गया। हमसे चारपाई पर बैठने को कहा। लेकिन हम खड़े-खड़े ही बतियाते रहे।
बात करने के लिहाज से मैंने पुछा-'ये भड़भूँजा कहां से लिया।'
बताया -'कोपरगंज से। दो साल पहले सफीपुर से आये थे। यहीं सड़क किनारे चना, लइया, मूंगफली भूँजकर बेंचते है।' ठेलिया पंचर खड़ी थी। बताया- 'जाड़े में मूंगफली बेंचते हैं।'
महिला से हमने पूछा-'तुम भी अनाज भूंज लेती हो'?
'सब कर लेइत हन। देहात के हन। सब आवत है हमका'-उसने जबाब दिया।
शादी कब हुई? पूछने पर बताया-'20 साल हुईगे होइहैं। अब तौ लड़िका भी शादी लायक हुईगा।दुई लड़िका हैं।'
आदमी ने कहा -'20 नहीं 22 साल हुए शादी के।'
लड़का अभी पढता है। हमने पूछा -किस क्लास में ? तो बोली-'अब ई हमका नाईं पता। हम पढ़े नाई हन।'
नाम पूछने पर बोली-'नाम कुछ नाईं है हमार। नाम हेरा गा है।'
(हमारा नाम कुछ नहीं है। नाम खो गया है।)
आदमी से पूछा तो उसने कहा-' बिना नाम कौन होता है दुनिया में! बताया -' अनीता नाम है इनका।' खुद का नाम रमेश बताया।
बारिश में कैसे रहते हैं झोपड़िया में? -हमने पूछा।
'यहीं रहते हैं। मोमिया कस लेते हैं।' -रमेश ने बताया।
नहाने-धोने का काम यहीं झोपडी में करते हैं। झोपडी से निकला पानी समाजवादी साईकल पथ से होता हुआ गंगा में मिल जाता है।
रोजी-रोटी की तलाश में आदमी यायावर हो जाता है। कोई सफीपुर से गंगाघाट चला आता है, कोई कानपुर से कैलिफोर्निया चल देता है।
लेकिन हम अभी यायावर नहीं घरैत हैं। घर लौटते हैं। चाय पीते हुए पोस्ट लिखते हैं। आप पढ़ रहे हैं। बताइये कैसा लगा आज का सुबह का रोजनामचा।

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Tuesday, April 04, 2017

नये इलाके की पहली सुबह






आर्मापुर से कैंट की तरफ़ आये कल। सुबह टहलने निकले। निकलते ही चाय की दुकान मिली। मन किया बैठ जायें बेंच पर। लेकिन आगे बढ गये। अधबने ओवरब्रिज के बगल में वीरेन्द्र स्वरूप का पब्लिक स्कूल का बोर्ड चमक रहा है। लाल बल्ब। पुल लगता है कि स्कूल में भर्ती की अर्जी लगाकर स्कूल के गेट पर धरना देकर बैठ गया है।
नुक्कड़ पर अधबने से मंदिर में भजन बज रहा है। फ़ूल वाला माला बना रहा है। बगल में दूसरा लड़का मोबाइल में घुसा हुआ है। कोने के प्लॉट की तरह कोने के मंदिर का भी अलग जलवा होता है। भगवान लोग चाहते होंगे कि उनको कोने का मंदिर एलॉट हो जाये।
सड़क के दोनों किनारों पर सोये थे लोग। कुछ जगहर हो गयी थी। एक कुत्ता भागता हुआ आया। एक पंजे से तेजी से उसने अपनी पीठ खुजाई। फ़िर मुंडी हिलाकर दोनों कान फ़ड़फ़डाये। इसके बाद तेजी से भागता हुआ वापस चला गया। लगता है पीठ खुजाने ही आया था सड़क पर।
आगे एक दिव्यांग कुत्ता दिखा। एक पैर चुटहिल है। शायद फ़्रैक्चर हो। चोट वाले पैर को ऊपर उठाये हुये तीन टांग पर उचकते हुये सड़क पार कर रहा था।
वहीं एक गाय सड़क पर बिछी पालीथीन पर जमा पानी पीकर अपनी प्यास बुझा रही है। गाय बेचारी को पता भी नहीं होगा कि समाज में उसके लिये हल्ले-गुल्ले हो रहे हैं। उनके नाम पर सरकार बन रही है। गिर रही है। उनका ख्याल रखा जा रहा है।
सामने से तीन-चार बच्चियां टहलती हुई आईं। एक लड़की चलते-चलते चुटिया करती जा रही थी। मन में यह भाव आया जब तक लड़कियां सड़क चलते चुटिया करती रहती हैं, बड़ी होती रहती हैं। फ़िर बड़ी हो जाती हैं। सड़क पर चलते हुये चोटी करना भूल जाती हैं। बाद उनकी शादी हो जाती है। वे पराये घर चली जाती हैं।
ई रिक्शा रिपेयरिंग के बोर्ड के आसपास लोग सोते दिखे। आगे गंगापुल मिला। जिसके बारे में बचपन से सुनते आये थे:
कानपुर कन्कैया
जंह पर बहती गंगा मईया
नीचे बहती गंगा मईया
ऊपर चले रेल का पहिया
चना जोर गरम।
पुल के मुहाने पर ही फ़ूल-मालाओं की गन्दगी पसरी हुई थी। ऊपर कंगूरे पर विधानसभा की जीत पर खुशी व्यक्त करते बोर्ड लगे हुये थे।
हमारे पुल पर पहुंचते ही न जाने कैसे सूरज भाई को खबर लग गयी। बादलों के बीच से मुंडी निकालकर मुस्कराते हुये बतियाने लगे। गुडमार्निंग के जबाब में हंसने जैसा लगा। उनके साथ पूरा रोशनी का कुनबा खिलखिलाने लगा।
पुल पर खरामा-खरामा टहलते हुये विकास पांडेय आते दिखे। बतियाये। बताया इलाहाबाद से आये हैं। उमर करीब 45 साल। अविवाहित हैं। यहीं मंदिर में सो जाते हैं। पुल किनारे ककड़ी-खीरा वालों को हैंडपंप से पानी भरकर दे देते हैं। बदले में कुछ मिल जाता है। गुजारा हो जाता है। जेब में बीड़ी की बंडल मय माचिश दिख रहा था। बताया -’जा रहे हैं गंगापार, वहां लोग चाय पिला देते हैं।’
पांव में बिवाई हैं। काली पड़ गयी हैं। फ़ट गया है पैर। कपड़े कई दिन के पुराने बिना धुले होंगे। चेहरे पर बेचारगी, दैन्य का स्थाईभाव। हांफ़ते हुये धीरे-धीरे चले गये।
हमने पूछा-’शादी कब होगी?’
बोले-’कोई करेगा तो कर लेंगे।’
हमने पूंछा-’ 45 की उमर हुई। अभी तक कुंवारे। किसी के साथ सोये कि नहीं?’
’ अरे न भैया, यहां परदेश में पिट जायेंगे। वहीं मंदिर में सो जाते हैं। ’ कहते हुये पांडेय जी चले गये।
हम गंगा की शोभा निहारते हुये थोड़ी देर खड़े रहे। नीचे रेती पर लोग टहलते हुये दिखे। अंग्रेजों के जमाने के पुल के बगल में दूसरा पुल दिख रहा था।
लौटते में एक जगह कुछ लोग खटिया पर अंगड़ाई लेते हुये चुहलबाजी करते दिखे। उनसे बतियाने लगे। पता चला वे रिक्शा चलाने का काम करते हैं। एक ने बताया- ’हरदोई से आये हैं रिक्शा चलाने। पचास रुपये रोज किराये के पड़ते हैं। खटिया भी किराये पर। एक खटिया का किराया दस रुपया रोज।’
करीब दस-पन्द्रह रिक्शे बंधे थे। बतियाते हुये उसके मालिक सुरेश साइकिल पर आ गये। बताया -’पन्द्रह रिक्शे चलते हैं। लेकिन आजकल रिक्शे कम लोग चलाते हैं। बैटरी वाले रिक्शों ने धंधा चौपट कर दिया है। आजकल केवल 5-6 लोग रिक्शा किराये पर लेने आते हैं।’
रिक्शे रिपेयरिंग का काम खुद करते हैं सुरेश। बताया उन्नाव के रहने वाले हैं। करीब 35 साल से यह काम कर रहे हैं।
’उधर उन्नाव की तरफ़ यह काम क्यों नहीं किया?’ पूछने पर बताया -’ उधर सवारी कहां? जहां सवारी वहां रिक्शा। इसके अलावा उधर का आदमी नम्बरी है।’
’इन रिक्शे वालों में से कोई कहीं रिक्शा लेकर फ़ूट लिये तो क्या करोगे’- हमने बतियाने के लिहाज से मजे लेते हुये पूंछा।
’अरे कित्ते लोग भागेंगे, कहां तक भागेंगे?’ -सुरेश बोले।
रिक्शे वाले भी मजे और बतकही में शामिल हो गये। बताया खाने के लिये होटलबाजी करते हैं। पहले बनाते थे। बहुत बढिया खाना बनाते थे। सड़क पर ईंटा लगाकर चूल्हा बनाया हाथ से रोटी पाथ ली। दोनों हथेलियों को आपस में चिपकाकर दांये-बांये घुमाते हुये बताया रिक्शेवाले ने।
मजे से हंसते हुये बात करते रिक्शे वालों को देखकर लगा इनकी जीविका असुरक्षित है लेकिन हंसी-मजाक स्थगित नहीं हुआ है।
आगे एक खटिया पर दो बच्चे लेटे-बैठे दिखे। बैठा बच्चा हाथ में भुजिया का पैकेट लिये मुट्ठी भरते हुये खाता जा रहा था। भुजिया उसके मुंह में चिपकती जा रही थी। साथ का बच्चा लेटा हुआ अपनी टांग से उसके गुदगुदी मचा रहा था। भुजिया खाता हुआ बच्चा सत्ता पक्ष की तरह, लेटा हुआ बच्चा विपक्ष की तरह और खटिया सदन की तरह लगने का बिम्ब आया दिमाग में। लेकिन मैंने उसको भगा दिया। ऐसे खतरनाक बिम्ब को दिमाग में पनाह देना ठीक नहीं।
फ़िर सोचा अगर यह बालक आगे चलकर प्रसिद्ध टाइप बने तो क्या पता कल कोई उसके लिये पद लिये जब बालक अपनी मां से कहता हुआ मिले:
मैया मोरी मैं नहीं भुजिय खायो,
यार, दोस्त सब बैर परे हैं
बरबस मुख चपकायो।
दोनों बालक मजे करते हुये सुबह का स्वागत टाइप कर रहे। उनकी मां बगल में बैठी कुल्ला कर रही थी।
मंदिर के पास एक बुजुर्ग धूप का चश्मा हीरो वाले अंदाज में सर पर टिकाये बैठा बीड़ी फ़ूंक रहा था। फ़ेसबुक पर खाता होता तो इस पोज की सेल्फ़ी पर खूब लाइक-कमेंट मिलते। जल्दी-जल्दी बीड़ी सुलगा रहा था। हड़बड़ाते हुये बीड़ी पीते-पीते बताया उसने कि हूलागंज में रहते हैं। शुक्लागंज जा रहे हैं। हमने पूछा -शुक्लागंज किस लिये जा रहे हो?
बुजुर्गवार थोड़ा झल्लाये हुये से बोले-’मांगने।’
इसके बाद झोला उठाकर वे शुक्लागंज की तरफ़ चले गये। शुक्लागंज अपने घर की तरफ़ टहल लिये।
नये इलाके की पहली सुबह थी ये आज।
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Saturday, April 01, 2017

लखनऊ में व्यंग्य पाठ






मार्च का महीना सरकारी पैसे के कतल का महीना होता है। जो ग्रांट मिली उसको कत्ल कर डालो। जगह-जगह सरकारी ग्रांट के बूचड़खाने खुल जाते हैं। मार्च खत्म हो इसके पहले ग्रांट निपटा दो। देर हुई तो गई ग्रांट। सरकारी विभागों के ज्यादातर कार्यक्रम ’ग्रांट खपाऊ टाइप’ होते हैं। सबसे ज्यादा खरीदारी खर्चा मार्च के आखिरी दिनों में होता है। लक्ष्मी जी बहुतै चंचला होती हैं मार्च में।
लेकिन कभी-कभी बढिया जगह भी खर्च होता है पैसा। जैसे नेशनल बुक ट्रस्ट की तरफ़ से लखनऊ में हुये कार्यक्रम में हुआ 29-30 मार्च को। कथा, व्यंग्य और कवि लोगों बुलवाकर उनसे पाठ कराया गया। इसके पहले नेट पर शब्द विषय पर गोष्ठी हुई।
व्यंग्यकार के नाम से ख्यात होने के नाते हम भी दो दिन पहले एक कार्यक्रम के भागीदार बने। दो दिन पहले लखनऊ में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास मने नेशनल बुक ट्रस्ट के आयोजन में व्यंग्य पाठ करके आये। जब लालित्य ललित जी ने बुलौवा दिया तब लगा नहीं था कि जा पायेंगे। लेकिन हमको जो लगता है अक्सर वो होता नहीं है। इसलिये लखनऊ पहुंच ही गये। लौट भी आये।
मार्च के आखिरी दिन सरकारी दफ़्तरों में व्यस्त रहने के दिन होते हैं। नालायक से नालायक कर्मचारी ’सांस तक लेने की फ़ुरसत नहीं’ का हल्ला मचाता है। हमने सोचा हमें भी छुट्टी नहीं मिलेगी। लेकिन हमको दफ़्तर में हमारी औकात तब पता चली जब बिना एतराज के हमारी छुट्टी स्वीकृत हो गयी। मन दुखी हो गया छुट्टी पाकर। मन तो हुआ बहस करें। उलाहना दें -’क्या हम इतने भी लायक नहीं कि छुट्टी भी न रोकी जा सके।’ चुपचाप लखनऊ चले आये।
लखनऊ पहुंचने के बाद सुबह जब रमेश तिवारी को फ़ोन किया तो पता चला कि अनूप श्रीवास्तव जी बगल में थे। बताया- ’एक हाथ से जलेबी खा रहे हैं। दूसरे से फ़ोन पकड़े हैं।’ हमें लगा हमको भी बुलायेंगे कि आओ तुम्हारे लिये जलेबी बचा के रखी है। लेकिन आखिरी में यही कहा गया - ’सीधे पहुंचो घटनास्थल पर।’
घटनास्थल तक पहुंचने के लिये जो कैब करी उसका ड्राइवर भटकाते हुये लाया। हर सौ कदम पर हमने उसको मिनमिनाते हुये हड़काया। जैसे बुजुर्ग लेखक नयों पर झल्लाते हैं। सरोकारी लोग सपाटबयानी वालों को हड़काते हैं। सपाटबयानी वाले गाली सम्प्रदाय को निपटाते हैं। लेकिन वो पट्टा ड्राइवर भी नयी उमर के नौजवानों की तरह कैब हांकने में लगा रहा।
पहुंचते ही अनूप श्रीवास्तव, लालित्य ललित, रमेश तिवारी, अलंकार रस्तोगी मिले। अलंकार ने किसी को बताना नहीं वाले अंदाज में फ़ुसफ़ुसाते हुये उनको युवा के पी सक्सेना सम्मान मिलने की जानकारी दी। हमने बिना कुछ मजे लिये उनको बधाई दी। अपने आदर्श लेखक के नाम का सम्मान मिलना खुशी की बात है !
इस बीच लालित्य भाई ने मानदेय का पर्चा थमाया और अपनी किताब ’विलायती राम पांडेय’ सप्रेम भेंट कर दी। हमने पर्चा भरा और किताब धर ली। गुफ़्तगू में मशगूल हो गये।
लालित्य ललित की इंतजामिया क्षमता कमाल की है। दूसरे शहर पहुंचकर सब इंतजाम करना, श्रोता, वक्ता, दर्शक जुटाना, प्रचार करना, कार्यक्रम सफ़ल बनाना वह सब भी बिना किसी तनाव के भाव चेहरे पर लाये। इसमें उनके गोल-मटोल प्यारे मुखड़े का भी योगदान होगा। गोलाई में तनाव ठहर ही नहीं पाता होगा। फ़िसलकर टपक जाता होगा।
इस बीच पता चला कि गोपाल चतुर्वेदी जी, नरेश सक्सेना जी पधार गये। दीप जल गये। लालित्य ललित ने कार्यक्रम शुरु कर दिया। सरस्वती वंदना की सीमाक्षी विशाल श्रीवास्तव जी ने। जिनके लिये हम बार-बार लिखते रहे समीक्षा/मीनाक्षी।
पहला सत्र कहानी पाठ का था। चार कहानी कारों में मात्र दो आये थे। अखिलेश जी और हरेप्रकाश उपाध्याय आये नहीं। राष्ट्रीय स्तर के इस कहानी पाठ कार्यक्रम में कुल जमा 28 लोग थे। इन 28 लोगों में फ़ोटोग्राफ़र, चाय पिलाने वाले और कहानी पाठ के बाद व्यंग्य और कविता पाठ करने वाले लोग भी शामिल थे। शुद्ध श्रोता के रूप में एकमात्र सुशीला पुरी जी वहां मौजूद दिखीं। उनके भी घर से बार-बार फ़ोन आ रहे थे लेकिन हमने उनसे अनुरोध किया कि हमारा व्यंग्य पाठ सुनकर ही जायें। वे मान भी गयीं। हमें लगा कि जितनी अच्छी कवियत्री मैं उनको मानता उससे कहीं बेहतर कविता लिखती हैं वे।
पहले विपिन कुमार शर्मा ने कहानी पढी जिसकी लब्बोलुआब यह था कि बाजार सब पर हाबी हो रहा है। लंबी कहानी पढते समय शुरुआत में वे चश्मे से थोड़ा सहमे हुये अंदाज में देखते भी जा रहे थे कि लोग सुन रहे हैं कि नहीं। डरे भी लगे। लेकिन जब देखा कि श्रोता चुप हैं तो फ़िर उन्होंने पूरी कहानी तसल्ली से पढ ही डाली।
विपिन कुमार शर्मा जी के बाद रजनी गुप्त ने अपनी कहानी पढी। शीर्षक था- अंधोतमा। मतलब अंधेरे के अंदर का अंधेरा। छुट्टी लेकर कहानी पाठ करने आईं रजनी जी जिस स्पीड से कहानी पढ रहीं थीं उससे लगा कि उनको दफ़्तर जाने की जल्दी थी। परिस्थिति के मारे एक गरीब बच्चे के माफ़िया के चंगुल में फ़ंस जाने और उसको बचा लेने की मंशा रखने वाली मन:स्थिति की कहानी।
बाद में सुभाष राय ने ’मैं कोई कहानी का विशेषज्ञ नहीं हूं’ कहते हुये अपनी राय जाहिर की कि कहानी पढने का अंदाज कम प्रभावी था। इकहरी कहानी थी। रजनी जी के बारे में बताया कि वे तेज पढ रहीं थीं कि काफ़ी कुछ सुन नहीं पाये। प्रताप सहगल जी ने अपनी राय बताई- रजनी की कहानी में पॉज नहीं थे। कहानी पाठ में पॉज जरूरी होते हैं। तेजेन्द्र शर्मा के कहानी पढने के अंदाज के बारे में बताया- तेजेन्दर शर्मा ऐसे कहानी पढते हैं मानो कहानी का नाट्य रूपान्तरण कर रहे हों। विपिन कुमार शर्मा की कहानी के बारे में राय जाहिर करते हुये प्रताप जी ने बताया - सीधी सरल एक रेखीय कहानी है। कहानी के साथ चारित्रिक जटिलतायें भी चलनी चाहिये।
कहानी सत्र के बाद दस मिनट का अंतराल था। इसी अंतराल में सबको जनवादी नाश्ता थमाया गया। आलूओं के पलंग पर लेटी हुई दो-दो पूड़ी सबको थमाई गयीं। आलू के साथ छिलके नेता के साथ चमचे की तरह चपटे हुये थे। चाय अच्छे दिन की दिन तरह बहुत देर तक दिखी नहीं। जनवादी नाश्ता कराने का तर्क शायद यह रहा हो कि तगड़ा नाश्ता करके व्यंग्य पढने वाले और सुनने वाले भी ऊंघने ने लगें। यह भी हो सकता है कि ग्रांट में खाने-पीने पर खर्च कम बचा हो। दो चाय और दो पूड़ी पर पांच घंटे का सत्र खैंच दिया गया।
पूड़ी-चाय से इलाहाबाद में 2008 में हुये पहले ब्लॉगर सम्मेलन की याद आई। दो दिन चले इस सत्र में करीब पचास लोगों के रहने-खाने की व्यवस्था थी। शानदार कार्यक्रम हुआ। यादगार। अरविन्द मिश्र जी ने उसकी रिपोर्ट लिखते हुये समारोह में बद इंतजामी धुर्रियां उड़ाते हुये लिखा- “वहां सर्व की हुई चाय ठंडी थी और कमरों में मच्छरदानी की व्यवस्था नहीं थी।“ वे भी क्या दिन थे।
व्यंग्य सत्र शुरु होते ही हाल में कुल जमा लोगों की संख्या 28 से बढकर 40 हो गयी। यह कहानी के मुकाबले व्यंग्य की लोकप्रियता का प्रमाण है। गोपाल चतुर्वेदी जी इस सत्र के अध्यक्ष बनाये गये। रमेश तिवारी संचालक। रमेश तिवारी जी ने शानदार संचालन किया लेकिन आवाज थोड़ा कम करके क्यों बोले यह समझ में नहीं आया।
सुधीर मिश्र पहले व्यंग्य वाचक थे। बताया गया कि वे नवभारत टाइम्स में ’खुले मन से’ कॉलम लिखते हैं। अध्यक्ष जी ने पांच से छह मिनट निर्धारित किये थे व्यंग्य पाठ के। सुधीर जी ने अपना व्यंग्य पढा -कारवां गुजर गया। इसके बाद एक के साथ दो फ़्री वाले अंदाज में दो व्यंग्य और घसीट दिये- ’गधे का स्टेटस’ और ’भूख’। मौका मिला है तो सब पढ लो वाले अंदाज में एक की जगह तीन व्यंग्य पढ लिये भाई जी ने। हमारे बगल में बैठे एक श्रोता ने उनके किसी व्यंग्य पर अपनी प्रतिक्रिया दी- ’यह सटायर तो नही है।’ हमारा उनको टोंकने का मन हुआ -’आप कोई संतोष त्रिवेदी हैं जो कहें यह व्यंग्य नहीं है।’ लेकिन फ़िर टोंका नहीं। इस डर से कि कहीं वो मेरा व्यंग्य पाठ सुने ही न चले जायें।
सुधीर मिश्र के बाद अलंकार रस्तोगी ने अपना व्यंग्य पढा -’ साहित्य उत्थान का शर्तिया इलाज’ । अलंकार ने व्यंग्य में तीन अनूप का जलवा होने की बाद जब कही तो लगा कि भाई यहां से सीधे नोटरी के पास जाकर कहीं अपना नाम अनूप रस्तोगी करवाने का जुगाड़ न करने लगें।
जब अलंकार पढ रहे थे -’मांस नोचना किसे नहीं अच्छा लगता’ उसी समय हमारे घर से फ़ोन आ गया। रिकार्डिंग में व्यवधान हुआ। सेंसर टाइप ही समझा जाये। हमने नोटपैड में लिखा- ’महिला विमर्श लखनऊ के व्यंग्यकारों का पसंदीदा मुद्दा है।’ मेरी इस बात से लखनऊ के जिन भी व्यंग्यकारों को एतराज है वे यह समझें कि हम उनके बारे में नहीं कह रहे हैं।
इसके बाद संजीव जायसवाल जी ने अपना व्यंग्य पढा ’मत’। इसमें मतदान पर अपनी बात कही गयी थी। उसकी रिकार्डंग अलग से पोस्ट करेंगे। लेकिन जब संजीव जायसवाल जी परिचय बताया गया कि उन्होंने 1000 से अधिक कहानियां लिखी हैं, न जाने कितने इनाम मिले हैं तब अपनी अल्पज्ञता के बारे में इहलाम हुआ। हमने अपने को चुपचाप बिना हल्ला मचाये धिक्कार भी लिया।
अंशुमान खरे जी का व्यंग्य गढ्ढा संस्कृति पर था। सड़क के गढ्ढों के बहाने अपनी बात रखी गयी थी।
अनूप मणि त्रिपाठी ने ’अयोध्या की रामकहानी’ वाले चार छोटे-छोटे व्यंग्य पढे। समय सीमा के अंदर। अनूप ने हमसे राय मांगी थी तो हमने सुझाव दिया था कि ’शो रूम में जननायक’ पढो। उन्होंने मना नहीं किया लेकिन मेरी राय मानी नहीं। इससे एक बार फ़िर साबित हुआ कि व्यंग्य में लोग सीनियर्स का लिहाज नही करते। मनमानी करते हैं।
अनूप के व्यंग्य पढने के अंदाज की सबसे खूब तारीफ़ की। गोपाल जी ने इस बात को खासतौर से कहा-’अनूप के व्यंग्य पढने का अंदाज बहुत अच्छा है।’ अनूप मणि के व्यंग्य पाठ की रिकार्डिंग अलग से पोस्ट करेंगे। उन्होंने पांच मिनट की समय के अंदर अपने व्यंग्य पढ लिये। इससे यह भी साबित हुआ कि बालक मंच के अनुशासन को मानता है।
वीणा सिंह ने अपना व्यंग्य पाठ मूर्खता का रिकार्ड पढा। मने अप्रैल फ़ूल का अभ्यास। वीणा सिंह आजकल नियमित लिख रही हैं , छप भी रही हैं। मैंने उनको ’व्यंग्य की जुगलबंदी’ में भी लिखने के लिये अनुरोध किया। उन्होंने स्वीकार भी किया। उनका व्यंग्य पाठ भी रिकार्ड किया है हमने।
लालित्य ललित ने भी मंच के पास होने से ज्यादा आयोजक होने का फ़ायदा उठाते हुये अपना व्यंग्य पाठ किया-’पुस्तक मेला चालू आहे।’ यह लेख विलायती राम पांडेय किताब में संकलित है।
इसके बाद बारी आई उनके पढने की जो अभी तक तक सबको पढवा रहे थे। अभी तक संचालक की भूमिका निभा रहे रमेश तिवारी ने अपना व्यंग्य लेख पढा - ’बाजार से गुजरा हूं, खरीदार नहीं हूं।’ हमारा कहने का मन हुआ कि पैसे न होने पर ऐसा ही होता है। खाली जेब बाजार से गुजरने पर कोई बंदिश नहीं है अभी। रमेश जी का यह व्यंग्यपाठ अलग से सुनिये।
अनूप श्रीवास्तव जी ने भी अपना व्यंग्य पाठ किया -सुदामा के चावल। यह व्यंग्य लेख जनसंदेश टाइम्स में छप चुका है।
आलोक शुक्ल और सूर्यकुमार पाण्डेय जी आ नहीं पाये व्यंग्य/कविता पाठ के लिये।
व्यंग्य सत्र के बाद गोपाल जी ने व्यंग्य पाठों के बारे में अपनी राय रखी। हमारे व्यंग्य ’आदमी रिपेयर सेंटर’ की तारीफ़ की। अलग तरह का व्यंग्य बताया। अनूप मणि त्रिपाठी के व्यंग्य पढने के अंदाज की खासतौर पर तारीफ़ की। लगे हाथ लखनऊ के व्यंग्य लेखन को बल्ली लगाकर ऊंचा कर लिया। श्रीलाल शुक्ल, केपी सक्सेना जी के शहर में व्यंग्य की प्रतिभायें पनप रही हैं लोग व्यंग्य लिख रहे हैं यह कहकर सबकी तारीफ़ की।
गोपाल जी ने व्यंग्य पाठन को परफ़ार्मिंग आर्ट बताते हुये केपी सक्सेना जी के व्यंग्य पाठ को याद किया। संजीव जायसवाल बच्चों की कहानी के साथ व्यंग्य भी लिखते हैं इसका जिक्र किया। अनूप आल राउंडर हैं इस बात का उल्लेख किया। यहां कौन अनूप हैं यह अंदाज लगाइये। सारे अनूप खुश हो सकते हैं।
गोपाल जी की सबसे अच्छी बात यह लगी कि उन्होंने खराब व्यंग्य लेखन के लिये किसी को हड़काया नहीं। सच्चे बुजुर्ग की तरह सब बच्चों को तारीफ़ की टाफ़ी थमा दी चूसने के लिये। ऐसे बुजुर्ग प्यारे लगते हैं। अब हम उनकी किताबें निकालकर बांचेगें।
तबियत खराब होने के बावजूद गोपाल जी वहां आये। लेकिन तबियत की बात उन्होंने खुद नहीं बतायी। बाद में रमेश तिवारी ने बताई।
बाद में हमने और तारीफ़ जबरियन लेने के लिये फ़िर उनसे अपने लेख के बारे में अकेले में पूछा। उन्होंने हमारे लेख की तारीफ़ छोड़कर आलोक पुराणिक की तारीफ़ कर दी। कहा-’ आलोक इस तरह के लेख खूब लिखते हैं। लेकिन ऐसे लेख तब अच्छे लगते हैं जब उनमें कुछ सरोकार हों , जैसे तुम्हारे लेख में आखिर में आये।’ हम आलोक पुराणिक की तारीफ़ से जलने-भुनने को हुये लेकिन फ़िर आखिर में अपने लेख की तारीफ़ सुनकर खुश हो गये।’
व्यंग्य सत्र के बाद फ़िर कविता सत्र हुआ। नरेश सक्सेना जी अध्यक्षता में। श्रोता बचे थे 31 । इसमें भी कविता पाठ के लिये आये हुये कवि भी जुड़ गये थे। मतलब व्यंग्य सत्र खत्म होते ही श्रोता कम हो गये। जबकि व्यंग्यकार डटे हुये थे।
कविता पाठ करने वालों में सुमन दुबे, सीमाक्षी विशाल श्रीवास्तव, कौशल किशोर, विशाल श्रीवास्तव, वाहिद, डा. शशि सहगल, प्रताप सहगल जी थे। उस समय समय तक हमारे मोबाइल की बैटरी खल्लास हो चुकी थी इसलिये कवितायें इत्मिनान से सुनीं। कवियों को अनूप श्रीवास्तव जी उत्साह से बुलाते। लेकिन कवि जब एक के बाद दूसरी कविता बिना रुके सुनाते तो उनका उत्साह ठंडा हो जाता और वे कवि के आसपास मंडराने लगते। हाल जितने घंटों के लिये बुक हुआ था, घंटे उससे ज्यादा सरक चुके थे। इसलिये पोडियम देर तक रुका हुआ कवि अनूप जी को खलने लगता। वे जल्दी-जल्दी निपटाते गये सबको।
अंत में नरेश सक्सेना जी ने समापन कविता पढी - दीमकों को पढना नहीं आता, इसीलिये दीमकें चाट जाती हैं किताबें।’
समारोह खत्म होने के बाद फ़ोटो सत्र हुआ। इसके बाद कार्यक्रम के समाप्त होने की घोषणा हुई। सब लोग विदा हुये।
समारोह की अनौपचारिक समाप्ति के बाद व्यंग्य का अनौपचारिक सत्र शुरु हुआ चाय की दुकान पर। बिना अध्यक्ष और बिना संचालक का यह सत्र सबसे जीवन्त सत्र रहा। जितने भी लोग अनुपस्थिति थे उनको फ़ुल मोहब्बत से याद किया गया। खूब तारीफ़ की गयी। किसने किसके लिये क्या कहा यह बताना निजता का उल्लंघन करना होगा लेकिन कुछ संवाद जो याद आ रहे हैं वे इस तरह थे:
*वे बेचारे बहुत गरीब हैं, हरामीपने से बाज नहीं आते।
*उनको जितना लिखना था लिख चुके। अब उनके बूते सिर्फ़ मठाधीशी करना बचा है, सो कर रहे हैं।
*इनाम के पीछे वे ऐसे तड़पते हैं जैसे बुढौती में व्याह हुआ आदमी फ़ौरन पिता बनने के लिये हुड़कता है।
*बहुत डांटते हैं भाई वे। सहम जाते हैं हम तो। लिखना-पढना सब भूल जाते हैं।
*आपको वे प्रिय हैं इसलिये आप उनकी सब बात सही ठहराओगे? ये कहां की बात हुई।
*ये भी कोई बात हुई कि किसी की गलत हरकत का विरोध करे तो आप धमकाओ -’पहले उनके जैसा करके दिखाओ तब बात करो।’
*आपसे बहुत डर लगता है-’ पता नहीं क्या छाप दो।’
*उनको यही संभाल पाते हैं।
*आपकी हम बहुत इज्जत करते हैं (इसीलिये उतारते भी रहते हैं) सच्ची कह रहे हैं।
* अरे बाप रे आप इत्ता लिख कैसे लेते हैं। हमसे तो पढा तक नहीं जाता।
बाकी के संवाद खुद कह रहे हैं हम न आयेंगे तुम्हारे की-बोर्ड पर। तुम बहुत बदमाश हो। सब लिख देते हो।
और भी तमाम बाते हुईं। चाय कई बार हुई। अनूप जी छह चाय के पैसे दे गये थे। हो बीस के ऊपर गयीं होंगी। केक और दालमोठ अलग से। सब बेचारे अलंकार की जेब से गया। केपी सक्सेना सम्मान का कुछ तो खामियाजा भुगतना पडेगा ही।
इसके बाद अलंकार ने अपनी मोटर साइकिल से हमको कैसरबाग तक छोड़कर मुक्ति पाई। अलंकार की मोटर साइकिल पर चढना और उतरना दोनों बवाले जान। लगा गयी जांघ की हड्डी। ऊंचे लोग, ऊंची पसंद। बहरहाल कैसरबाग से बस अड्डे पहुंचे। वहां से कानपुर पहुंचे रात को दस बजे।
यह रहा हमारे व्यंग्य पाठ का पहला अनुभव। फ़िलहाल इतना ही। बाकी फ़िर कभी। लेकिन यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि जिस भाषा के ,लगभग दिन भर चले, राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम में श्रोताओं, वक्ताओं, इंतजाम कर्ताओं की कुल संख्या 20 से 40 तक टहलती रहे उसके साहित्य के क्या हाल होंगे?
लखनऊ से लौटकर यह भी अंदाज हुआ कि हमको कितना कुछ सीखना है अभी। पढना, लिखना, वाचन करना और भी न जाने क्या-क्या। एक दिन में यह इहलाम होना कम थोड़ी है। सबसे मिलना-जुलना जो हुआ उसकी तो बात ही क्या है 

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