Wednesday, May 03, 2017

चप्पल चालीसा, जूता पुराण


पिछले दिनों चप्पल खूब चर्चा में रही। हर तरफ़ चप्पल चलती दिखी। मीडिया ’चप्पल चालीसा’ गाता रहा। अखबार ’जूता-पुराण’ बांचते रहे। सोशल मीडिया चप्पलायमान रहा। हर तरफ़ जूते गूंजते रहे। हाल यह कि देश की सारी बहस चप्पल पर केन्द्रित हो गयी। भुखमरी, बेरोजगारी, अशिक्षा, कुपोषण आदि सारी समस्यायें सहमी सी सन्न, सहमी सी खड़ी हुई चप्पल लीला देखती रहीं। इस डर से उनके मुंह से आवाज तक नहीं निकली कि कहीं चूं किया तो जूते चप्पल उनके मूं पर पड़ने लगेंगे। इधर किया चूं, उधर लाल मूं !
एक बार फ़िर एहसास हुआ कि अपने देश में हर तरफ़ जूतम-पैजार है। चप्पलबाजी की बहार है। इसके सिवाय और कुच्छ नहीं है यहां।
जूते/चप्पल का प्रधान कर्तव्य अपने मालिक पैरों की रक्षा करना होता है। जो अपने कर्तव्य का निर्वहन न कर सके, चलते-चलते पैर को बचाने के लिये अपने सीने पर ठोकरें न खा सके , धूलि-धूसरित न हो सके वह चप्पल कैसी? जूते के नाम पर कलंक है ऐसा जूता जो पैरों की रक्षा करते-करते फट न गया। किसी तुक्कड़ कवि ने सही ही कहा होगा-
जो चला नहीं है राहों पर, जिस पर चिप्पी की भरमार नहीं,
वह जूता नहीं तमाशा है, जिसको मालिक पैरों से प्यार नहीं।
जैसे भारत में जब भी भ्रष्टाचार की बात चलती है, नेताओं का जिक्र आता है वैसे ही जब भी पादुकाओं का जिक्र होता है राम की खड़ाऊं सामने आ जाती हैं।
बड़े चर्चे हैं राम की खड़ाऊं के। भरत वन जाते हुये राम की खड़ाऊं अपने लिये मांग लाये थे। उसे सिंहासन पर रख लिया था और चौदह साल चलाते रहे राजकाज!
भरत के मांगने और राम के देने के पीछे तो तमाम कारण रहे होंगे। राम का भाई के प्रति प्यार। पुराने जमाने में घर परिवारों में छोटे भाई के पल्ले बड़े भाइयों की उतरन ही पड़ती थी। भरत ने कहा होगा भैया तुम जा ही रहे हो अपनी खड़ाऊं देते जाऒ। या उन दिनों शायद खड़ाऊ शायद बहुत मंहगे मिलते होंगे सो रामजी ने सोचा होगा कि चौदह साल जंगल में रगड़ने अच्छा है इसे यहीं छोड़ जायें। यहां भरत पॉलिश- वॉलिस करवाते रहेंगें। यह भी हो सकता है कि उनके पांव के जूते काटते हों यह सोचकर छोड़ गये होंगे कि जंगल में दूसरे मिल जायेंगे! चौथा और सबसे अहम कारण यह होगा कि राम सिंहासन के लिये अपनी खड़ाऊं इसलिये छोड़ गये होंगे ताकि भरत को सिंहासन पर बैठने की आदत न लग जाये। वे अपनी खड़ाऊं उसी तरह सिंहासन पर रखने के लिये छोड़ गये जैसे लोकल ट्रेन में डेली पैसेंजर सीट पर रूमाल रखकर अपना कब्जा जमाते हैं। खड़ाऊं उन्होंने सिंहासन पर कब्जे के लिये छोड़ीं।

बहरहाल यह तो उन महान भाइयों के बीच की आपसी बात है। सच क्या है यह वे ही जानते होंगे। लेकिन मुझे राम की खड़ाऊं से अधिक नाकारा और कोई खड़ाऊं नहीं लगतीं। राम की पादुकायें जूते/चप्पल के इतिहास का सबसे बड़ा कलंक हैं।
पादुकाओं का काम पैरों की धूल-धक्कड़, काटें-झाड़ियों से पैरों की रक्षा करना होता है। ऐसे में राम खड़ाऊं उनके पैरों से उतरकर सिंहासन पर बैठ गयीं। यह कुछ ऐसा ही हुआ जैसे कि सरकार गिरने का आभास होते ही जनप्रतिनिधि आत्मा की आवाज पर दल परिवर्तन कर लेते हैं। अपराधी जैसे जेल जाने का नाम सुनते अस्पताल में भरती हो जाते हैं वैसे ही राम की खड़ाऊं जंगल जाने की खबर उड़ते ही जुगाड़ लगाकर उचककर सिंहासन पर बैठ गयीं।
राम की खड़ाऊं को जंगल में जाकर राम के पैरों की रक्षा करना था। खुद ठोकर खाते हुये राम के पैर बचाने थे। लेकिन वे काम से मुंह चुराकर सिंहासन पर बैठ गयीं। भरत ने उसे पूजा की वस्तु बना दिया। शोभा की चीज बना दिया। आराधना करने लगे। कामचोर, कर्तव्य विमुख, नाकारा, अप्रासंगिक, ठहरी हुयी पादुकायें पूजनीय बन गयीं। वंदनीय हो गयीं।
हमारे देश में यह हमेशा से होता आया है कि जो अप्रासंगिक हो जाता है, ठहर जाता है, चुक जाता है वह पूजा की वस्तु बन जाता है। जो जितना ज्यादा अकर्मण्य, ठस, संवेदनहीन होगा वह उतना ही अधिक पूजा जायेगा। क्या बिडम्बना है।
जूते की जब भी बात होती है तब जुतियाने की जिक्र भी होता है। जुतियाने के सौंदर्य शास्त्र का गहन विश्लेषण रागदरबारी में श्रीलाल शुक्लजी कर चुके हैं। वे बताते हैं-
"जूता अगर फटा हो और तीन दिन तक पानी में भिगोया गया हो तो मारने में अच्छी आवाज़ करता है और लोगों को दूर-दूर तक सूचना मिल जाती है कि जूता चल रहा है। दूसरा बोला कि पढे-लिखे आदमी को जुतिआना हो तो गोरक्षक जूते का प्रयोग करना चाहिए ताकि मार तो पड़ जाये, पर ज्यादा बेइज़्ज़ती न हो। चबूतरे पर बैठे-बैठे एक तीसरे आदमी ने कहा कि जुतिआने का सही तरीक़ा यह है कि गिनकर सौ जूते मारने चले, निन्यानबे तक आते-आते पिछली गिनती भूल जाय और एक से गिनकर फिर नये सिरे से जूता लगाना शुरू कर दे।"
इसके वैज्ञानिक पक्ष का अध्ययन किया जाये तो पता लगा है जूता दिमाग में भरी हवा निकालने के काम आता है। आपने देखा होगा जहां हवा भर जाती है वहां कसकर दबाने से समस्या हल हो जाती है। पेट की गैस बहुत लोग पेट दबाकर निकालते हैं। ऐसे ही दिमाग में हवा भर जाने से व्यक्ति का दिमाग हल्का होकर उड़ने सा लगता है। व्यक्ति आंय-बांय-सांय टाइप हरकतें करने लगता है। ऐसे व्यक्ति के उपचार के लिये कुछ लोग मानसिक रोग शाला जाना पसंद करते हैं। अपने लिये हो तो मानसिक चिकित्सालय जाने की बात समझ में आती है। लेकिन दूसरों के लिये आदमी सरल उपाय ही खोजता है और जूते से मार-मार कर हवा निकाल देते हैं।
जूतेबाजी का मतलब है दिमाग को जमीनी हकीकत का अहसास कराना! चढ़े हुये दिमाग को धरती पर लाने। इसका असर वैसे ही होता है जैसे विद्युत धारा के धनात्मक और ऋणात्मक आवेश वाले तारों को एक साथ मिला देना। सर से जूते के मिलन होते ही सारे दिमाग का फ्यूज भक्क से उड़ जाता है। दिमाग में घुप्प अंधेरा छा जाता है। दिन में तारे दिखने लगते हैं। फिर बाद में धीरे-धीरे स्थिति पर नियंत्रण होता है।
वैसे जूते की एक खासियत होती है। लोग भले जूते अपनी औकात के अनुसार खरींदे लेकिन जूता पैरों की औकात देख कर अपना काम नहीं करता। एक साइज का जूता एक ही तरह से व्यवहार करेगा, चाहे पहनने वाला अरबपति हो या खाकपति। जूता केवल पैर का साइज देखता है, पैर की औकात नहीं। जूता इस मामले में आदमी से ज्यादा साम्यवादी होता है!
अब आप कहोगे कि साम्यवाद तो अब सिमट रहा है। अप्रासंगिक हो चुका है। इस पर हम कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं सिवाय इस बात के अब चप्पलचर्चा भी थम गयी है। आजकल बाहुबली का हल्ला है। हर आदमी इस सवाल को हल करने में जुटा है - "बाहुबली को कटप्पा ने क्यों मारा?" सारा समाज इसी सवाल को हल करने में जुटा है।
बाकी सारे सवाल, समस्यायें बाहुबली बनी मस्ती से ऐश कर रही हैं। शायद यह कहते हुये:
हमको मिटा सके ये किसी कटप्पे में दम नहीं
ये सारे कटप्पा हमसे हैं, कटप्पे से हम नहीं।
आप क्या कहते हैं इस बारे में?

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