Sunday, June 04, 2017

सड़क, फुटपाथ, चबूतरे आम जनता के शयनकक्ष हैं


आज साइकिल वॉक पर निकले। करीब पांच बजे। सड़क किनारे लोग जगह-जगह सबेरे की ’नींद मलाई’ मारते दिखे। कोई सीधे, कोई पेट के बल। ज्यादातर लोग गुड़ी-मुड़ी हुये सोते दिखे। तमाम रिक्शों की गद्दी के सोफ़े बनाये हुये लोग सो रहे थे।
चाय की दुकाने गुलजार हो गयीं थीं। हर पचास कदम पर एक दुकान। एक दुकान पर टीवी चल रहा था। उसके सामने फ़ुटपाथ पर ही बैठे लोग चाय पीते हुये कोई सिनेमा देख रहे थे। कौन पिक्चर चल रही है किसी को पता नहीं था। बस सब टकटकी लगाये देख रहे थे। एक्शन , मार-धाड़, हल्ला-गुल्ला। एक दम किसी लोकतांत्रिक देश की तरह सीन। क्या हो रहा पब्लिक को पता नहीं। लेकिन जो हो रहा है जनता उसी को देखने में मशगूल है।
चाय की दुकान के बगल मे एक लोहे की सरिया की सीढी लगी दिखी। एक आदमी लपकता हुआ आया। चार सरिया चढकर दीवार की दूसरी तरफ़ उतर गया। बाद में हमने देखा- वह दीवार के पार सर झुकाये उकड़ू बैठा था। बीड़ी पीते हुये सुबह की सुलभ क्रिया में तल्लीन।
माल रोड पर सड़क पर लोग वहां तक सोये हुये थे जहां तक दिन में गाड़ियां पार्क की जा सकती हैं। नयेगंज की तरफ़ जाते हुये चबूतरों, फ़ुटपाथों, रिक्शों, ठेलियों, टेम्पो पर सोते दिखे। जिसको जहां जगह मिली , सो गया। सड़क, फ़ुटपाथ, चबूतरे आम जनता के शयनकक्ष हैं।
एक चाय की दुकान के बाहर बैठा आदमी बहुत तेजी से बीड़ी पीता दिखा। उसकी तेजी से लगा कि उसको पता चल गया होगा कि जीएसटी लागू होने पर बीड़ी मंहगी हो जायेगी। इसलिये जितना धुंआ लेना हो अभी ले लो।
पेठे की दुकान पर एक आदमी अंजुरी भर-भरकर पेठों को एक डलिया से दूसरी डलिया में उडेल रहा था। पेठे अनमने से धप्प-धप्प डलिया में गिरते जा रहे थे। आम जनता की तरह उनको भी कोई शिकायत नहीं। जहां मन आये रखो। जिस डलिया में चाहो उसमें उड़ेल दो। हम कौन होते हैं कुछ बोलने।
एक जगह दो बाबा लोग चिलम खैंच रहे थे। तसल्ली से। पता चला झूंसी, इलाहाबाद के रहने वाले हैं। कानपुर आये हैं, मांगने-खाने-जिन्दगी बिताने।
बाबा लोगों से बात करते हुये देखा एक बिल्ली करीब दस फ़ीट ऊपर होर्डिंग पर चढी एक छत से दूसरी पर जाने की कोशिश कर रही थी। हमने फ़ोटो खैंचकर उसको डिस्टर्ब करना ठीक नहीं समझा। कहीं गिर जाती तो दोष हमारे ऊपर आता। फ़िर भी वह अपने आप होर्डिंग के पीछे लद्द से गिरी। गिरते ही फ़ौरन उठकर फ़िर दूसरी छत पर चली गयी। गिरने के बाद उसके मन से शायद दुविधा खतम हो गयी थी। आत्मविश्वास आ गया था। पहले सहमते हुये चल रही थी। गिरने के बाद अकड़ते हुये चलने लगी। गिरने के बाद संभावित चोट का डर खत्म हो गया था उसके अंदर से।
इस बीच बाबा लोग चिलम पीकर अपने-अपने रास्ते चले गये। हम चलने को हुये तब तक एक बच्चा अपनी साइकिल समेत हमारी साइकिल से आ भिड़ा। उसकी साइकिल ऊंची थी। उचक-उचककर साइकिल चला रहा था। अगला पहिला ब्रेक मारते-मारते हमारे पैड़ल से भिड़ गया। हमने उसको संभाला। संभल जाने के बाद वह फ़िर उचकता पैड़ल मारता चला गया।
बिरहाना रोड होते हुये वापस आये। शहर का सर्राफ़ा बाजार अभी सो रहा था। जहां निकलने को जगह नहीं होती वहां सड़क के दोनों तरफ़ फ़ुथपाथ तक जगह खाली। जहां मन आये निकल लो। जितना मन आये चल लो। शाम/रात को वाहनों के भभ्भड़ में ढंकी सड़क सुबह-सुबह ऐसी लग रही थी जैसी कोई लगातार ढंकी रहने वाली खूबसूरत सड़क सुबह-सुबह ’स्लीवलेस सुन्दरी सी’ दिख जाये। कुल मिलाकर कवि यहां कहना यह चाहता है कि - सांवली सडक सुबह-सुबह बड़ी खूबसूरत लग रही थी।
चौराहे पर दीनदयाल उपाध्याय जी प्रतिमा के पास तमाम कबूतर दाना चुगते हुये गुटरगूं-गुटरगूं कर रहे थे। थोड़ी देर दाना चुगने के बाद सब एक साथ उड़ते हुये फ़िर वापस आकर दाना चुगने लगते। शायद चुगा हुआ दाना पचाने के लिये उड़ते होंगे। पास ही दो तारों पर तमाम कबूतर कतार में बैठे हुये थे। वे दाना चुगते, उड़ते और फ़िर दाना चुगने के लिये बैठ जाते कबूतरों के कौतुक देख रहे थे।
शायद तार पर बैठे कबूतर ’आम कबूतर’ हों और दाना चुगने वाले कबूतर ’खास कबूतर’ हों। जो हो कुछ पता नहीं चल पाया। किसी कबूतर से बात करेंगे कभी इस बारे में।
यह हो सकता है कि दाना चुगते, उड़ते फ़िर वापस आते कबूतर जिस जगह बैठे हों वह कबूतरों की संसद हो। सत्ता पक्ष के और विपक्ष के लोग खाते-पीते-दाना चुगते किसी विषय पर आपस में गुटरगूं करते हों। किसी विषय पर मतभेद होने पर जगह छोड़कर उड़ जाते हों। जिस तरह अपने माननीय जनप्रतिनिधि बहिर्गमन करते हैं। उसी तर्ज कबूतर लोग भी ’कपोत संसद’ से आकाश गमन करने उड जाते हों। कुछ देर बाद फ़िर वापस आ जाते हों।
लौटते हुये पास ही फ़ूल मंडी देखी। गेंदा, गुलाब और कुछ दूसरे फ़ूल बिक रहे थे। गेंदा बहुतायत में थे। गेंदे का दाम पूछा तो बताया एक ने- ’फ़ूल-फ़ूल की बात है। जैसा फ़ूल वैसा दाम।’ दूसरे ने बताया - ’20 से 25 रुपये किलो बिकता है गेंदा।’
मतलब आपको कोई पाव भर की माला पहनाकर सम्मान करे तो समझिये 4-5 रुपये की इज्जत हो गयी आपकी।
वहीं कुछ लोग माला बनाते हुये दिखे। चाय की दुकाने भी खुल गयीं। कुछ रिक्शे वाले और अन्य सवारियां भी। मतलब एक रोजगार से दूसरे रोजगार की गुंजाइश बनती है।
माला वाली बात से हमको नंदलाल पाठक जी की कविता भी याद आ गयी:
’आपत्ति फ़ूल को है माला में गुथने में,
भारत मां तेरा वंदन कैसे होगा?
सम्मिलित स्वरों में हमें नहीं आता गाना,
बिखरे स्वर में ध्वज का वंदन कैसे होगा?
आया बसंत लेकिन हम पतझर के आदी,
युग बीता नहीं मिला पाये हम साज अभी,
हैं सहमी खड़ी बहारें नर्तन लुटा हुआ,
नूपुर में बंदी रुनझुन की आवाज अभी।
एकता किसे कहते हैं यह भी याद नहीं,
सागर का बंटवारा हो लहरों का मन है,
फ़ैली है एक जलन सी सागर के तल में,
ऐसा लगता है गोट-गोट में अनबन है।’
लौटते हुये देखा एक बुजुर्ग फ़ुटपाथ पर पेट के बल लेटा हुआ था। ऐसे सो रहा था जैसा कोई बच्चा अपनी मां के पेट से चिपक कर सो रहा हो।
नशा मुक्ति केन्द्र के पोस्टर के पास एक युवा ’नींद नशे’ में डूबा सोफ़े पर लेटा । इस नशे से किसी को क्या मुक्ति दिलाना। रमानाथ जी कविता याद आ गई:
चाहे हो महलों में
चाहे हो चकलों में
नशे की चाल एक है!
किसी को कुछ दोष क्या!
किसी को कुछ होश क्या!
अभी तो और ढलना है!
सामने की चाय की दुकान पर बजते हुये रेडियो में गाना बज रहा था - ’सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।’
घर के पास मजार के बाहर फ़ुटपाथ पर एक आदमी बैठे-बैठे सो रहा था। मुंडी छाती से चिपकी ठहरी हुई थी। मानो सोते हुये अगला अपना दिल देख रहा हो।
सामने अधबना ओवरब्रिज अपने अधूरेपन के साथ मुस्कराता हुआ गुडमार्निंग कर रहा। हमें लगा वाकई सुबह हो गयी है।
आपको इतवार की सुबह मुबारक।
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