Saturday, July 15, 2017

काम भर का भाईचारा है



आज सबेरे बच्चे को स्टेशन छोड़ने गये। घर से निकलते ही पहले बंदर खौखियाये। बाद इसके कुत्ते दौड़ा लिये। लेकिन कार में होने के चलते हमको कोई चिन्ता थी। कुत्ते भी थोड़ी देर दौड़ाने के बाद रुक गये। प्रतीक भौंकाई थी उनकी भी। विरोध के लिए विरोध टाइप।
सड़क के दोनों ओर लोग अभी सो रहे थे। हीरपैलेस के आगे ओवरब्रिज पर तमाम लोग भागकर इकट्ठा हो रहे थे।पुल के बीच खड़े होकर इधर-उधर देख रहे थे। हमें चूंकि आगे जाना था इसलिये हम सामने देख रहे थे।
एक और ओवरब्रिज पार करके फ़िर फ़ुटपाथ मिला। आम जनता का शयन कक्ष। एक लड़की फ़ुटपाथ पर सड़क की तरफ़ सर किये लेटे हुये अपने मोबाइल पर कुछ देख रही थी। मोबाइल सर्वसुलभ टाइप हो गया है।
एक आदमी सर झुकाये कुछ भन्नाया सा चला जा रहा था। देखने से लगा जैसे अभी किसी व्हाट्सएप ग्रुप में रायता फ़ैलाने में असफ़ल रहने की खीझ के चलते ग्रुप छोड़कर चला आ रहा है। मन में सोच रहा होगा दूसरे मोहल्ले में गदर कट नहीं पायी । अपने यहां ही बवाल किया जाए। कम से कम हलचल तो रहेगी।
प्लेटफ़ार्म टिकट लेने के लिये काउंटर पर गये। टिकट बाबू गोल। कुछ देर इंतजार के बाद दूसरी लाइन में लग लिये। वहां भी भीड़। एक भाई किनारे से घुसकर अपना हाथ खिड़की में घुसा दिये। जब तक साथ के लोग एतराज करते तब तक वो हाथ इतना घुसा चुके थे कि साथ के लोगों को लगा कि अब यह हाथ टिकट लेकर ही निकलेगा। सब लोगों ने अपने पैसे - ’एक टिकट हमारा भी ले लेना भईया’ कहते हुये उसको थमा दिये। उसने सबके पैसे ले भी लिये और अंतत: आठ टिकट लेकर सबको बांट दिये।
उस आदमी का लाइन में बिना नंबर घुसकर टिकट लेने के लिये खड़ा होना और फ़िर बाकी लोगों का उसी से अपना टिकट लेने का अनुरोध करना अपने समाज की कहानी है। गलत लगने पर टोंकने की बजाय जब लग गया है तब उसी से टिकट खरीदवा लें वाला भाव। जैसे चुनाव में जीतने वाली पार्टी के साथ सब खड़े होने लगते हैं भले ही वह कैसी भी हो।
टिकट लेने के बाद बाकी लोगों ने तो उससे लपक कर टिकट लिये लेकिन एक बहनजी को उसने खुद लपककर टिकट दिये। अब इसका आगे मतलब आप खुद लगाइये कि कवि क्या कहना चाहता है।
लेकिन यह बात बिन कहे आपको माननी पड़ेगी कि अपने यहाँ काम भर का भाईचारा है। बहनापा है। दोस्ताना है। सहेलीपना है।
ट्रेन आते ही सब लपककर बैठ गये। महिला टीटी ने अपना सामान एक चेले को थमाया और प्लेटफ़ार्म पर टहलने लगी। लगता है उसको इस बात से काफ़ी दुख हुआ कि भारतीय चलते कम हैं। कुछ कदम चलकर वह भारतीयों के चलने का औसत बढा रही थी।
प्लेटफ़ार्म पर तमाम लोग जमीन से जुड़े हुये थे। एक बच्चा एक बोरे पर सिंहासन की तरह बैठा था। स्टैंड पर गाड़ी कराने वाला रात भर का जगा लग रहा था। एक ने उससे मसाला मांगा। उसने उसे दिया। अगले ने पुडिया सीधे मुंह में उड़ेल ली जैसे लोग सीधे पानी जग से पीते हैं।
एक महिला अपने हाथ को जोर-जोर से हिला रही थी। हमें लगा लकवा मारा है तो कसरत कर रही है। लेकिन कुछ देर बाद उसने मुट्ठी से चुनही तम्बाकू की पुडिया निकाली और खाने लगी। इससे लगा कि शायद वह चूने को तम्बाकू में मिला रही होगी।
हीरपैलेस के सामने सड़क पर दो महिलायें झाडू लगाते हुये रुक गयीं। सड़क की बीच में लगी रेलिंग के आर-पार खड़ी होकर बतियाती रहीं। देर तक। हमारे वहां से गुजरने तक उनकी बातें खत्म नहीं हुईं थीं। उनके बगल में ही एक आदमी उघारे वदन मेहनत से झाडू लगाता रहा।
हम घर आकर सोचे कि कुछ लिखा जाये। कुछ समझ नहीं आया तो जो देखा सो बयान कर दिये। अब दफ़्तर का समय हो गया। इसलिये बाकी फ़िर। आप मजे करिये।

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