Monday, July 03, 2017

विलेज में बदलते गांव


[कादम्बिनी पत्रिका का जुलाई अंक गांव -शहर पर केन्द्रित है। ’वीरान गांव-बदहाल शहर’ थीम के अन्तर्गत लेख, कवितायें संकलित हैं इसमें। Subhash Chander जी ने हमारा (और शशिकांत सिंह का भी , उनका लेख भी छपा है हमारे साथी Govind Upadhyay की कहानी भी है ) नाम सुझाया तो कादम्बिनी के अरुण जैमिनी जी ने लेख मांगा। हमने लिख मारा। इसके बाद फ़ेसियल के लिये Alok Puranik के पास भेज दिया। आलोक जी ने ’सनी लियोनी जी को लेख में जगह देने ’ की शर्त के साथ मुफ़्त में लेख पर अपने सुझाव दिये। सभी को आभार देना पड़ेगा इसलिये ये अन्दर की बातें किसी को बता नहीं रहे। अब जब लेख छप ही गया तो आप भी बांच ही लीजिये। क्या पता मजा आ जाये! ]

शहरी सभ्यता फर्जी है, यह बयान एक लाख बार दिया जा चुका है, पर गांव जिनकी कल्पना में मोहक हरियाली और पनघट युक्त नदी का कोलाज है, वो भी पचास के दशक में दिलीप कुमार की फिल्म नया दौर में ही अटके हुए हैं। गांव में वैजयंती माला जैसी सुंदरी अगर जरा भी स्मार्ट है, तो किसी न किसी ब्यूटी कांटेस्ट में शहर आकर फिर वापस ना गयी होगी।
लेकिन कुछ साल पहले तक सीन अलग था। तब गांव शहर से जुड़े नहीं थे। रास्ते कच्चे थे। गांव के लोग गांवों में रहते थे। शहर कम आते थे। धीरे-धीरे गांवों तक सड़कें पहुंची। गांव शहर से जुड़े। योजना थी कि गांव तक सुविधायें पहुंचेंगी। उनका विकास होगा। लेकिन सुविधायें फ़ाइलों की भूलभुलैया में ही फ़ंस कर रह गयीं। जो कुछ फ़ाइलों से निकल भी पायीं वे शहर की भीड़ और जाम में फ़ंस गयीं। जो सुविधायें गांव तक पहुंची भी वे रहजनों से लुटकर गांवों तक पहुंचते-पहुंचते बदरंग और बेहाल हो गयीं। इस बीच गांवों में रहने वाला हिन्दुस्तान भूखा-प्यासा बेचैन होने लगा तो वह खुद भागकर जान बचाने के लिये शहर पहुंचा।
शहर पहुंचकर खाने-पीने का जुगाड़ तो हुआ गांव वाले हिन्दुस्तानी का। लेकिन सुकून नसीब में नहीं मिला। सुकून वह गांव में ही छोड़ आया था। अपने गांव को हमेशा यादों में लादे-लादे जीने की जद्दो जहद में जुटा रहा। शहर में किसी स्लम या अंधेरी दुछत्ती में दिन गुजारते हुये भी ’इस देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती’ गुनगुनाता रहता।
गांव से शहर आया आदमी गांव की यादों को ओढता है, बिछाता है। सुख में गांव याद करता है। दुख में गांव का मरहम लगाता है। शरीर से भले शहर में रहता हो लेकिन मन का लंगर गांव में ही पड़ा होता है। गांव की यादें गुल्लक के सिक्कों की तरह खनखनाता रहता है। गांव के आदमी के साथ यादों की गठरी खोलता है। घर, परिवार और प्रेम किस्सों के थान खड़े-खड़े खोलकर फ़ैला देता है।
युसुफ़ी साहब के उपन्यास खोया पानी के नायक मिर्जा जी परदेश गये तो उनके जेहन में उनकी पीछे छोड़ी हुई हवेली बसी रही। कभी किसी से उलझते तो मारपीट करके ढेर करने के बाद फ़ाइनल हमला करने के लिये हवेली की तस्वीर दिखाकर कहते - ’ये छोड़कर आये हैं।’ छूटी हुई हवेली को हथियार की तरह इस्तेमाल करते।
लेकिन सही मायने में गांव के मतलब बहुत तेजी से बदले हैं। गांव मतलब कि विलेज अब एक बहुत फर्जी शब्द है, बल्कि जेबकट शब्द है। गांव मतलब किसानों की आत्महत्या है, कर्जमाफ़ी है, सूखे और बाढ की चपेट में फ़ंसा देश है। भुखमरी की चपेट में फ़ंसा अन्नदाता है। गांव मतलब विकास की दौड़ में भागते देश की पीठ पर लदा बोझ है।
गांव उजड़ रहे हैं। एंटीक आइटम हो रहे हैं। शहर वाले लोगों के लिये पिकनिक के साधन हैं। शहरों में कई-कई सौ रुपये लिये जाते हैं एक-एक बंदे से गांव की सैर कराने के। विलेज बना रखा है भाई लोगों ने ऊंट की सवारी, गायों को दिखाने के इंतजाम के कई सौ वसूलने की जुगाड़ कर रखी है।
संदेश साफ है सचमुच के गांव में आफत आ रही हो, तो फिर गांव दिखाने का इंतजाम कर लो। ज्यादा कमा लोगे। इस दौर ए इश्तिहार में कमा वही रहा है जिसके पास दिखाने के इंतजाम हैं। नयी जनरेशन के पास पैसा है, कैमरा है, सेल्फी-आकांक्षाएं हैं, बैल के साथ भी सेल्फी खिंचानी है उसे, खेत में रखे कद्दू के साथ भी सेल्फी खिंचानी है उसे। ऐसे सेल्फीबाज विलेज के धंधे के बहुत कारगर हैं। ऐसे कूल विलेज में 100 रुपये की पानी की एक बोतल बेची जा सकती है।
गांव बदल रहे हैं, विलेज बन रहे हैं, सौ रुपये के पानी की बोतल वाले विलेज बन रहे हैं। शहर बहुत तेजी से गांव पर कब्जा करता जा रहा है।
सचमुच के गांव से शहर आया आदमी डरा-डरा सा आता है शहर में। लेकिन शहर आते ही बंदा बहादुर हो जाता है। बहुधंधी हो जाता है। गांव में केवल खेती मजूरी करने वाला आदमी शहर में जिन्दा रहने के लिये हर तरह धंधे सीख जाता है । शुरुआत मेहनत मजूरी से करता है। फ़िर शहर उसको शातिर बनाता है। शार्टकट सिखाता है। वह मेहनत से जी चुराने लगता है। तमाम शहरी चोंचले आत्मसात करके पक्का शहरी बन जाता है।
सचमुच के गांव से शहर आया आदमी एक आइटम की तरह होता है। शहर इस आइटम को छील-छालकर तराशता है। अमूमन आइटम उपयोगी और खूबसूरत हो जाता है। कभी-कभी आइटम खराब भी हो जाता है। कबाड़ बन जाता है। गलती भले ही शहर की हो लेकिन आइटम के कबाड़ बनने का दोष आइटम पर ही जाता है।
अखबारों और टीवी में गांव के लिये इस्कीमें देखता है तो सोचता है ये इस्कीमें वहां लागू होतीं तो मैं भागकर शहर क्यों आता?
सचमुच के गांव का आदमी जब शहर पहुंचता है तो शहर की हर चीज की तुलना गांव से करता है। हर मोड़ पर उसे अपना गांव याद आता है। शहर की ऊंची इमारत देखते हुये सोचता होगा अगर मवेशियों के साथ रहने की परमीशन हो तो एक बिल्डिंग में पूरा गांव बस जाये। जित्ते में यहां जन्मदिन मनाते हैं उत्ते में गांव में दस घर की बेटियों के हाथ पीले हो जायें। मानहानि के दस करोड़ के मुकदमे के किस्से सुनकर सोचता होगा कि पहले पता होता तो घर बैठे मानहानि का मुकदमा कर देते। मजे से सात पुश्त खाते-पीते।

हाई प्रोफ़ाइल मर्डरों के किस्से अखबार में पढते हुये गांव का आदमी सोचता है जितने की सुपारी में यहां एक मर्डर हुआ उत्ते में तो पूरा गांव निपट जाता।
बच्चे के एडमिशन के समय गांव से शहर आया आदमी सोचता है जित्ते में बच्चे का एडमिशन हुआ उत्ते में तो खानदान पढ़ जाता गांव में। उदयप्रकाश की एक कहानी का नायक एक शहराती के जूते देखकर सोचता है -’ये तो पांव में दो बोरा गेहूं पहने घूम रहा है।’
शहर की बुराइयों से ऊबकर जब आदमी वापस गांव जाता है तो उसकी यादों का गांव उजड़ा हुआ मिलता है। जहां घनी अमराइयां होती थी वह जगह किसी कंपनी के गोदाम के लिये बिक गयी है। अमराई वाले चाचा अपना पैसा फ़ूंक तापकर एक कोने में बैठे चिलम फ़ूंक रहे हैं। गांव के चारो तरफ़ पेडों की जगह मोबाइल टावर उग आये हैं। बिजली आने के साथ लोग कटिया लगाना भी सीख गये हैं। कभी स्वादिष्ट पकौड़ी बेचने वाले हलवाई चाचा चाऊमीन का पैकेट कड़ाही में खोल रहे है।
गांवों में चौपालें अब भी आबाद हैं। जगहें अलबत्ता बदल गयी हैं। चबूतरों पर लगने वाली चौपालें अब वहां लगती हैं जहां मोबाइल का सिग्नल आता है। जिसके घर के पास टावर है उसने कटीले तार से जगह घिरवा दी है। चौपाल पर बैठे लोग हाथ में मोबाइल लिये अगल-बगल के लोगों से नहीं, दूर-दराज के बंदों से चैटिंग कर रहे हैं। रामसिंह चचा कैलीफ़ोर्नियां की सुकन्या सोफ़िया से हाल-ए-दिल बता रहे हैं। अपनी भैंसों के तबेले दिखा रहे हैं। कैलीफ़ोर्निया जाने का प्लान बना रहे हैं। शाम को है पडोस वाले श्यामसिंह जब उनको कैलीफ़ोर्नियां का सस्ता टूर प्लान बताते हैं तो सनाका खाते हैं। पता चला श्यामसिंह सोफ़िया बनकर रामसिंह से चैटियाते हैं। रामसिंह श्यामसिंह को कच्चा चबा जाने की धमकी देते हुये घर में घुस जाते हैं।
गांवों में मोहब्बत के मामले में भयंकर क्रांति हुई है। स्वप्नसुन्दरी ’मार्गदर्शक सुन्दरी’ हो गयीं हैं। दिल के मामले में फ़ुल एफ़डीआई एफ़डीआई लागू हो गयी है। सारे लीड रोल विदेशी सुन्दरियों को दे दिये गये हैं। सनीलियोनी को ’दिल मंत्री’ की शपथ दिला दी गयी है।
नुक्कड़ पर पान की दुकान पर चरस, अफ़ीम, गांजे के साथ मोबाइल में पोर्न फ़िल्में भी सहज उपलब्ध हैं। गांव बहुत तेज स्पीड से शहर में बदलने के लिये उतावला हुआ जा रहा है।
तो सचमुच का गांव तो ये हुआ जा रहा है- महानगर का सस्ता संस्करण, पर फर्जी विलेज संपन्न हो रहा है सौ रुपये में पानी की एक बोतल बेचकर।
अनूप शुक्ल
अपडेट : [लेख के डिजिटल संस्करण संतोष त्रिवेदी ने मुहैया करवाये। इसके लिये उनको धन्यवाद !  कल ही सबसे पहले लेख छपने की सूचना Rachana Tripathi एवं Skand Shukla जी से मिली। बहुत-बहुत आभार ! ]
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10211898674715725

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